हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Saturday, March 27, 2010

यादों की जुगाली


अक्सर लोगों के सेल फोन में एक मैसेज पड़ने को मिलता है.."वादे और यादें में क्या फर्क है, जिसका उत्तर है-वादे इन्सान तोड़ते हैं, और यादें इन्सान को तोड़ती हैं" क्या वास्तव में यादें इतनी निर्मम होती हैं जबकि इन्सान उन्हें रंगीन कहता है, उनके सहारे जिंदगी गुज़ारने की बात करता है खैर.....
दरअसल इन्सान के नन्हे से दिल में स्थित स्मृतियों का समंदर ही उसे एक सामाजिक प्राणी बनाता है जिसके बल पर वह ताउम्र आचार-विचार और व्यवहार करता है यादों का विसर्जन पागलपन की शुरुआत है यादों का कमजोर होना इन्सान का कमजोर होना है फिर कैसे उन्हें निर्मम कहा जा सकता है, जालिम कहा जा सकता है
इन्सान का टूटना उसकी अपनी वैचारिक विसंगति है, उसमें यादों को दोष नहीं दिया जा सकता अतीत की कड़वाहट का असर यादों पर नहीं पड़ता, इसलिए शायद कहा जाता है कि "अतीत चाहे कितना भी कड़वा क्यों हो उसकी यादें हमेशा मीठी होती है दरअसल यादें तो मीठी होती है नाही कड़वी, यादें तो बस यादें होती है इन्सान अपनी तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार उन पर अच्छा या बुरा होने का चोगा उड़ा देता है
यादों का जीवन में अमूल्य स्थान है, यादें ही मनुष्य को कुदरत कि असीम संरचनाओं से अलग करती हैं इन यादों पर ही गीत है, संगीत है, साहित्य है, संस्कृति है, धर्म है सारा समाज है हिंदी फिल्मों में तो यादें समरूपता से नजर आने वाला विषय है कालिदास के प्रसिद्ध नाटक "अभिज्ञान शाकुंतलम" का क्लाइमेक्स ही यादों के विस्मरण पर केन्द्रित है यादों में इश्क है, नफरत है, दोस्ती है, दर्द है, ख़ुशी है, हसरत है और सबसे बड़ी चीज यादों में यादें हैं
इन यादों के सहारे ही आदमी तन्हाइयों में भी तन्हा नहीं होता, तो कभी-कभी भीड़ में भी तन्हा हो जाता है नमस्ते लन्दन फिल्म के एक गीत में जावेद अख्तर ने लिखा है-"कहने को साथ अपने इक दुनिया चलती है पर चुपके इस दिल में तन्हाई पलती है...बस याद साथ है तेरी याद साथ है" इस दुनिया से इन्सान चला जाता है पर कम्बख़त यादें नहीं जाती लेकिन यादों का स्थायित्व भी सदा के लिए नहीं है दिल में बसने वाली यादें उसके रुकने के साथ ही ख़त्म हो जाती है
दरअसल इन्सान यादों से दुखी नहीं होता, नाही उनसे टूटता है उसके दुःख का कारण यादों में छुपी हसरतों कि पूर्ति हो पाना है या यादों के माध्यम से सफलता की जुगाली है सफल या सितारा व्यक्ति के सफल दिनों में गूंजा तारीफ का स्वर गैरसितारा दिनों में भी सुनाई देता है सितारा दिनों में बजी तालियों की गडगडाहट, यादों में आज भी कायम रहती है यादों की जुगाली में आज को जी पाना दुःख का कारण है इन्सान को यादों का नहीं हसरतों का सैलाब तोड़ता है
अतीत की यादों का हथोडा हम आज पर मारकर अपना भविष्य ज़ख्मी करते हैं अतीत से हमें सिर्फ यादें मिलती हैं और यादों का कोई भविष्य नहीं होता जिंदगी आज में जीने का नाम है, यादों की जुगाली से इसे गन्दा करना समझदारी का काम नहीं है
दिल से यादों को नहीं अपनी इच्छाओं को समेटना होगा मरकर भी किसी की यादों में जीने की हसरत मिटाना होगी, यश का लोभ समुद्र में विसर्जित करना होगा इस झूटे संसार का राग भी झुटा है, इन्सान के मरने के बाद उसे यादों में भी जगह नहीं मिलती आकाश के टूटते तारों से आकाश को कोई फर्क नहीं पड़ता, ज़मीन पर हमारी भी वही स्थिति है कभी-कभी फिल्म के इक गीत में कुछ बोल इस तरह हैं-"क्यों कोई मुझको याद करे..क्यों कोई मुझको याद करे, मशरूफ ज़माना मेरे लिए क्यों वक़्त अपना बर्बाद करे...मै पल दो पल का शायर हूँ"
यादों की क्या अहमियत है, कितनी जरुरत है, निर्णय आप स्वयं करे, फैसला आप सब पर है सबके फैसले अलग-अलग आयेंगे इससे मुझे आश्चर्य नहीं होगा यादों की अहमियत सबके लिए जुदा-जुदा है प्रतिक्रिया देकर यादों के विषय में ज़रूर बताएं........
अंकुर'अंश'

Friday, March 26, 2010

जिंदगी कैसे जियें..



“ज़िन्दगी लम्बी नहीं, गहरी होनी चाहिए” – रौल्फ वाल्डो इमर्सन

क्योंकि ज़िन्दगी जीने में और जीवित रहने में बहुत बड़ा अंतर है

* जब तक जियें तब तक सीखते रहें - हमेशा नया कुछ सीखने और पढने में हम जितना समय और ऊर्जा लगाते हैं वह हमारे जीवन को रूपांतरित करता रहता है. हम सभी हमारे ज्ञान का ही प्रतिबिम्ब हैं. जितना अधिक हम ज़िन्दगी से सीखते हैं उतना अधिक हम इसपर नियंत्रण रख पाते हैं.

* अपने शरीर और स्वास्थ्य की रक्षा करें - हमारा शरीर हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण यन्त्र या औजार है. हम जो कुछ भी सही-गलत करते हैं उसका हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है. हमें अपने शरीर को पोषण, व्यायाम, और आराम देना चाहिए और स्वास्थ्य की रक्षा करनी चाहिए.

* प्रियजनों के साथ अधिकाधिक समय व्यतीत करना - हम सभी भावुक प्राणी हैं. हमें सदैव अपने परिजनों और मित्रों के सहारे की ज़रुरत होती है. जितना अधिक हम उनका ध्यान रखते हैं उतना ही अधिक वे हमारी परवाह करते हैं.

* अपने विश्वासों के प्रति समर्पण रखें - कुछ लोग अपने सामजिक परिवेश में सक्रीय होते हैं, कुछ लोग धार्मिक आस्था से सम्बद्ध हो जाते हैं, कोई व्यक्ति लोगों का जीवन सुधरने की दिशा में प्रयास करता है, अधिकांश लोग अपने काम और नौकरी के प्रति समर्पण भाव रखते हैं. प्रत्येक स्थिति में उन्हें एक समान मनोवैज्ञानिक परिणाम मिलता है. वे स्वयं को ऐसी गतिविधि में लिप्त रखते हैं जिससे उन्हें मानसिक शांति और संतुष्टि मिलती है. इससे उनके जीवन को मनोवांछित अर्थ मिलता है.

* जो भी करें सर्वश्रेष्ठ करें - यदि आप कोई काम बेहतर तरीके से नहीं कर सकते तो उसे करने में कोई तुक नहीं है. अपने काम और अपनी अन्य गतिविधियों जैसे रूचियों आदि में सबसे बेहतर साबित होकर निखरें. लोगों में अपनी धाक जमायें कि आप जो कुछ भी करते हैं वह सदैव सर्वश्रेष्ठ ही होता है.

* अपने पैर चादर के भीतर ही रखें - अच्छी ज़िन्दगी जियें लेकिन किसी तरह का अपव्यय न करें. दूसरों को दिखाने के लिए पैसा न उडाएं. याद रखें कि वास्तविक संपत्ति दुनियावी चीज़ों में निहित नहीं होती. अपने धन का नियोजन करें, धन को अपना नियोजन न करने दें. अपने से कम आर्थिक हैसियत रखनेवाले को देखकर जियें.

* संतोषी जीवन जियें - स्वतंत्रता सबसे बड़ा वरदान है. संतोष सबसे बड़ी स्वतंत्रता है.

* अपना प्रेमाश्रय बनायें - घर वहीँ है, ह्रदय है जहाँ. आपका घर कैसा भी हो, उसे प्यार के पलस्तर से बांधे रखें. याद रखें, घर और परिवार एक दुसरे के पूरक हैं.

* स्वयं और दूसरों के प्रति ईमानदार रहें - ईमानदारी भरा जीवन मानसिक शांति की गारंटी है और मानसिक शांति अनमोल होती है.

* दूसरों का आदर करें - बड़ों का आदर करें, छोटों का भी सम्मान करें. ऐसी कोई श्रेणी नहीं होती जो किसी मानव को दूसरे मानव से पृथक कर सकती हो. सभी को एक समान इज्ज़त बख्शें. जितना धैर्य आप अपने नवजात शिशु के प्रति दिखाते हैं उतने ही धैर्य से अपने वृद्ध पिता से भी व्यवहार करें.

* नया करते रहें - अपने प्रियजनों के साथ आप भांति-भांति प्रकार के अनुभव साझा करें. आपकी जीवन गाथा विस्तृत अनुभवों की लड़ी ही तो है! जितने अच्छे अनुभव आप उठाएंगे, आपका जीवन उतना ही अधिक रोचक बनेगा.

* अपने कर्मों की जिम्मेदारी से न बचें - आप कुछ भी करें, भले ही वह सही हो या गलत, उसकी जिम्मेदारी उठाने से न कतराएँ. यदि आप स्वयं जिम्मेदारी ले लेंगे तो आपको जिम्मेदार नहीं ठहराया जायेगा.

* अपने वायदों को हद से भी ज्यादा पूरा करें - बहुत सारे लोग दूसरों से बिना सोचविचार किये ही वायदे कर बैठते हैं और उन्हें निभा नहीं पाते. वे वादा करते हैं काम पूरा करने का लेकिन काम शुरू भी नहीं करते. यदि आप लोगों की दृष्टि में ऊंचा उठना चाहते हैं तो इसका ठीक उल्टा करें. अपनी योग्यताओं कों यदि आप कम प्रदर्शित करेंगे तो आप सदैव लोगों की दृष्टि में वांछित से अधिक उपयोगी साबित होंगे. लोगों में आपकी कर्तव्यनिष्ठ और कार्यकुशल व्यक्ति की छवि बनेगी.

* सुनें ज्यादा, बोलें कम - ज्यादा सुनने और कम बोलने से आप ज्यादा सीखते हैं और आपका ध्यान विषय से कम भटकता है.

* अपना ध्यान कम विषयों पर केन्द्रित करें - कराटे के बारे में सोचें, ब्लैक बैल्ट कम सुन्दर दिखती है बनिस्पत ब्राउन बैल्ट के. लेकिन क्या एक ब्राउन बैल्ट किसी रेड बैल्ट से अधिक सुन्दर दिखती है? बहुत से लोग ऐसा नहीं सोचेंगे. हमारा समाज प्रबुद्ध और महत्वपूर्ण लोगों कों बहुत ऊंची पदवी पर बिठाता है. परिश्रम बहुत मायने रखता है लेकिन इसे केन्द्रित होना चाहिए. अपना ध्यान अनेक विषयों में लगाकर आप किसी एक में पारंगत नहीं हो पायेंगे. एक को साधने का विचार ही सर्वोत्तम है.

* उपलब्ध साधनों का भरपूर दोहन करें - साधारण व्यक्ति जब किसी बहुत प्रसन्नचित्त अपाहिज व्यक्ति कों देखते हैं तो उन्हें इसपर आर्श्चय होता है. ऐसी शारीरिक असमर्थता की दशा में भी कोई इतना खुश कैसे रह सकता है!? इसका उत्तर इसमें निहित है कि वे ऐसे व्यक्ति अपने पास उपलब्ध सीमित शक्ति और क्षमता का परिपूर्ण दोहन करने में सक्षम हो जाते हैं. अश्वेत गायक स्टीवी वंडर देख नहीं पाते लेकिन अपनी सुनने और गाने की प्रतिभा को विकसित करने के परिणामस्वरूप उन्होंने 25 ग्रैमी पुरस्कार जीत लिए हैं.

* छोटी-छोटी खुशियों से ज़िन्दगी बनती है - मैं यह हमेशा ही कहता हूँ कि जीवन में जो कुछ भी सबसे अच्छा है वह हमें मुफ्त में ही मिल जाता है. वह सब हमारे सामने नन्हे-नन्हे पलों में मामूली खुशियों के रूप में जाने-अनजाने आता रहता है. प्रकृति स्वयं उन क्षणों कों हमारी गोदी में डालती रहती है. अपने प्रियजन के साथ हाथों में हाथ डालकर बैठना और सरोवर में डूब रहे सूर्य के अप्रतिम सौन्दर्य कों देखने में मिलनेवाले आनंद का मुकाबला और कोई बात कर सकती है क्या? ऐसे ही अनेक क्षण देखते-देखते रोज़ आँखों से ओझल हो जाते हैं और हम व्यर्थ की बातों में खुशियों की तलाश करते रहते हैं.

* लक्ष्य पर निगाह लगायें रखें - लक्ष्य की दिशा में न चलने से और भटकाव में पड़ जाने से कब किसका भला हुआ है! आप आज जहाँ हैं और कल आपको जहाँ पहुंचना है इसपर सतत मनन करते रहने से लक्ष्य स्पष्ट हो जाता है और नई दिशाएं सूझने लगती हैं. इससे आपमें स्वयं कों सम्भालकर पुनः शक्ति जुटाकर नए हौसले के साथ चल देने की प्रेरणा मिलती है.

* अवसरों कों न चूकें - कभी-कभी अवसर अत्प्रश्याशित समय पर हमारा द्वार खटखटाता है. ऐसे में उसे पहचानकर स्वयं कों उसके लिए परिवर्तित कर लेना ही श्रेयस्कर होता है. सभी बदलाव बुरे या भले के लिए ही नहीं होते.

* इसी क्षण में जीना सीखें - जो पल इस समय आपके हाथों में है वही पल आपके पास है. इसी पल में ज़िन्दगी है. इस पल कों जी लें. यह दोबारा लौटकर नहीं आएगा.

('हिंदी जेन' से साभार गृहीत..)

छोटी - छोटी मगर मोटी बातें २


IndiBlogger - The Indian Blogger Community



.मानव स्वभाव भी अजीब है, जो अपनी ग़लतियों से ही सबक लेता है उदाहरणों से नही
.जो सबकी प्रशंसा करते हैं दरअसल वे किसी की भी प्रशंसा करते हैं
.मैं अपने उस कार्य में असफल होना चाहूँगा जिसमें आगे मुझे सफलता अवश्य मिले
.उड़ने की अपेक्षा जब हम झुकते हैं, तो विवेक के अधिक करीब होते हैं
.ज़रा शिद्दत से तारे तोड़ने की ज़िद तो ठानो तुम,
यदि किस्मत काम आई तो मेहनत काम आएगी

1.A young men is a theory, an old is a fact.
2.An open mind collects more riches than a open purse.
3.He who never made a mistake, never made a discovery.
4.Commonsence is not so common.
5.Beleive only half of what you see and nothing that you hear.


Monday, March 22, 2010

छोटी-छोटी मगर मोटी बातें-१

एयरटेल का शर्मन जोशी अभिनीत एक विज्ञापन इन दिनों खासा लोकप्रिय हो रहा हैजिसकी टेग लाइन है-"बातें करने से ही बात बनती है"। शब्दों कों ब्रह्म कहा जाता है, जो वाकई सृष्टि का निर्माण करते है उसे तबाह भी कर सकते हैंशब्द जब एक जीवनोपयोगी अर्थ देने लग जाये तो वह मन्त्र बन जाता हैसच, शब्दों का महात्मय अकथनीय हैशायद इसलिए आचार्य कुंद-कुंद भी अपने परमागम में शब्द ब्रह्म की उपासना करते हैंये सारी रामायणनुमा भूमिका बताने का मेरा उद्देश्य ये है की अबसे हम ब्लॉग पर नियमित तौर पर महान कथनों, सूक्तियों, वाक्यों आदि कों प्रकाशित करेंगेजो महज शब्द नही बल्कि जिन्दगी बदलने की ताकत रखने वाले मंत्र हैसाथ ही हम आशा करेंगे की इन वाक्यों कों आप सिर्फ पढेंगे ही नही बल्कि इन पर विचार भी करेंगे........

.प्रतिभा इन्सान कों महान बनाती है चरित्र महान बनाये रखता है
.प्रत्येक व्यक्ति एक महान ग्रन्थ है यदि आप उसे पढना जानते हों
.शिक्षा का मतलब मनुष्य कों झरना बनाना है नाकि तालाब
.प्राचीन महापुरुषों से अपरिचित रहना, जीवनभर बाल्यावस्था में रहना है
.जिंदगी छोटी है,जंजाल बड़ा है, पर यदि जंजाल छोटा कर लेंगे तो जिन्दगी बड़ी लगने लगेगी

1.A good plan executed now is better than a perfect plan next week.
2. don't say 'yes' when you want to say 'no'.
3.when I win, I win but when I loose I learn.
4.It is a great thing to know the season of speach and lesson for silence.
5.Charecter is the results of two thing-Mental attitude and The way we spend our time.


Saturday, March 20, 2010

सच ये है बेकार हमें ग़म होता है

सच ये है बेकार हमें ग़म होता है
जो चाहा था दुनिया में कम होता है

ढलता सूरज फैला जंगल रस्ता गुम
हमसे पूछो कैसा आलम होता है

ग़ैरों को कब फ़ुरसत है दुख देने की
जब होता है कोई हम-दम होता है

ज़ख़्म तो हम ने इन आँखों से देखे हैं
लोगों से सुनते हैं मरहम होता है

ज़ेह्न की शाख़ों पर आशार आ जाते हैं
जब तेरी यादों का मौसम होता है .

जाबेद अख्तर

Thursday, March 18, 2010

स्मारक रोमांस (विशेष श्रंखला) - पार्ट 5

(इसे पढने से पहले स्मारक रोमांस के पिछले लेख पढ़े।)
जिंदगी का मायना स्मारक था और स्मारक के मायने खुशियाँ हुआ करती थी। ऐसा नहीं है कि वहां से जाने पर नयी जिंदगी में दोबारा घुल-मिल नहीं पाते हों, पर बीते हुए लम्हों कि कसक हमेशा साथ रहती है। अतीत की जुगाली यदा-कदा मुस्कराहट देती रहती है। और यदि अतीत इतना हसीं हों फिर कहना ही क्या?

सुवह पांच बजे से रूम के दरवाजों पर बम बरसने लगते थे। हर दिन की शुरुआत लगभग बुरे परिणामों से ही होती थी। प्रातः कालीन निद्रा का आनंद शायद स्वर्ग सुखों से भी बढकर होता है। ऐसा मज़ा गाने में हैं बजाने में है नाही इच्छित वस्तु के पाने में हैं जो मजा सुबह उठकर फिर सो जाने में हैं। और इस अद्वितीय आनंद का छिन जाना भला किसे गंवारा होगा। साढ़े पांच बजे मंदिर में प्रार्थना में पहुचना भी जरुरी हुआ करता था। प्रार्थना करने से पुण्य बंध होता हों ऐसा नहीं लगता क्योंकि प्रार्थना करते वक़्त प्रवृत्ति तो शुभ होती थी पर उपयोग अशुभ होता था और पुण्य-पाप का बंध उपयोगानुसार होता है। लोग कुछ घंटों की और अधिक नींद लेने के लिए तरह-तरह के जतन किया करते थे। कोई बिस्तर के नीचे एक और बिस्तर का निर्माण करकर वही सो जाया करता था, कोई महानुभाव सीढ़ियों से छत पे पहुँच वही किसी कोने में डेरा डालकर सो जाया करते। और किसी दिन पकडाए जाते तो भान्त-भान्त के शब्द वाणों द्वारा स्तुतिगान होता था। लेकिन फिर भी सुबह की नींद के जतन जारी रहते।

कई सज्जन प्रार्थना के बाद एक और नींद लेने का शगल रखा करते थे। और स्नानादि क्रियाओं से निपटने उस समय जाया करते जब मंदिर में पूजन शुरू हों चुकी होती थी। इस बाबत उनसे कहने पर बहाना तैयार होता था की 'नहाने कों जगह ही नहीं थी' पूजन के पांच अंगों में से अंतिम विसर्जन नामक अंग में ही इनकी गहन आस्था होती थी। और अंतिम दस मिनट के लिए ही भगवान कों अपना दर्शन देकर आते थे। और उन दस मिनटों का उपयोग भी भक्ति में नहीं अनुमान लगाने में जाया होता था। एक कहता "भोजनालय से पोहे की खुशबु आरही है" तो दूसरा कहता "नहीं उपमा बना है", इसी बीच मंत्रोच्चार करता तीसरा व्यक्ति मूड ख़राब कर देता "चुप रहो, चने बने हैं मैं खुद देखके आया हूँ" ये सारी चीजें तब बड़ी कष्टकर जान पड़ती थी, क्योंकि तब नहीं पता था जिंदगी के आगामी परिवर्तन ज्यादा बोझिल और कष्टकर होते हैं।

एक्साम के दिनों में लोगों कों टेंसन होती है, हम लोगों कों राहत मिलती थी। एक तो सारे कार्यक्रम से छुट्टी, और दूसरा ग्रुप में स्टडी....ओह माफ़ कीजिये ग्रुप में गप्पबजी। क्योंकि ये सच्ची बात है कि पढाई के कठिन होने का जितना रोना वहां बच्चे रोते हैं, उतनी कठिन पढाई नहीं होती। क्योंकि हमें फिजिक्स,कैमिस्ट्री पड़ना है... नाही अकाउन्ट्स, मैथ। बस एक रात में लंका फतह की जा सकती है। और वैसे भी चीजें उतनी ही मुश्किल होती है जितना मुश्किल हम उन्हें मानते हैं। खैर, ग्रुप स्टडी का मजा तो मिल ही जाता है। और सारा प्रवचन हाल इस दौरान बड़ा रंगीन हुआ करता था। कई लोग तो घंटो की नींद निकाला करते थे पढाई के नाम पे।

साप्ताहिक गोष्ठियों का भी अपना फितूर हुआ करता था। कई लोगों के लिए ये महज मिनट बोलने की औपचारिकता होती थी तो कई लोगों के लिए ये ओलम्पिक में गोल्ड मेडल जीतने की तरह होता था। और यदि धोके से वे विजेता बन जाते थे तो अपने घरवालों कों पूरे चाव के साथ अपनी यशोगाथा सुनाया करते थे। कई लोग तो बिना कुछ किये भी अपनी बतिया बघार दिया करते थे और अपने घर बोलते "मम्मी हमरो गोष्ठी में पहलों नम्बर लगो है" या कहते कि "अगले हफ्ता हमें छहढाला पे प्रवचन करने है" घर वाले भी अपने नौनिहालों के इन उपलब्धियों कों सुन बड़ा खुश हुआ करते। मानो लड़का ने अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा में पदक जीता हो।

हर साल अपने सीनियरों कों विदा होते देखते कभी नहीं जान पड़ता था कि हमें भी ये जहाँ छोडके जाना होगा। तब तो पांच साल का समय एक बड़ा भारी अरसा लगता था। बाद में पता चला कि इतिहास के सामने कई जीवन एक कोने में समा जाते है और एक जीवन में कई पांच वर्ष समा जाते हैं। सीनियरों कि विदाई देख लगता था कि हम अपनी विदाई पे ऐसा बोलेंगे वैसा बोलेंगे लेकिन जब अपनी बारी आती तो सारे शब्द मानो ब्रह्माण्ड में विलुप्त हो जाते, कुछ सूझ ही पड़ता कि क्या बोले?


एक संसार से निकलकर दूजे संसार में प्रवेश होता तो पता चलता कि खुद कों ज्ञानी समझ रहे हम इस दीन-दुनिया से कितने अनजान है। ज्ञान कों ही सर्व-समाधान कारक की बात सुनने वालों के समक्ष दुनिया की असलीयत नज़र आई कि यहाँ तो धन ही सर्व समाधान कारक की जाप दी जाती है। हर तरह का इन्सान किसी किसी तरह से उसके ही पीछे भाग रहा है। अब इस जहाँ में अपने कदम टिकाना है।

सच, किताबी बाते प्रायोगिक जिंदगी से कितनी अलग होती है।लेकिन हमें उन पर आस्था रखकर ही आगे बढना होता है। धार्मिक होने से ज्यादा ज़रूरी धर्म पर विश्वास का होना है। एक जीवन जो सपनों सा था अब हकीकत की दहलीज पर दस्तक देता है। यूँ तो हम हमारे दोस्त-यारों से कहते हैं 'मिलते रहेंगे', 'टच में रहेंगे' लेकिन धीरे- ये डोर कमजोर होते हुए टूट जाती है। फिर तो गाहे-बगाहे ही एक दूसरे को याद किया जाता है।

नियति को यदि समझा जाये तो वो बहुत निर्मम होती है। ऐसी दशा में स्थिति को सही ढंग से जानना और उस पर सही प्रतिक्रिया देना बहुत जरुरी होता है। लेकिन अपने विश्वास और संस्कारों को अडिग बनाये बढ़ते जाना होता है। क्योंकि पीछे हमारे साथ कोई नहीं होता। कल जो हमारा अपना था वोही बेगाना हो जाता है। दुनिया में सहानुभूति तो बहुत मिल जाती है पर साथ नहीं मिलता। बहरहाल, दुनिया को जितना समझने की कोशिश करो ये उतनी ही कम समझ में आती है।

लेकिन एक बात है स्मारक से निकलकर हम स्वच्छंद नहीं रह सकते। जैसा हमें बताया जाता है हमारा नाम अब पंडित और शास्त्री के बीच में है। हमारी दक्षिणा इन दोनों पदों की गरिमा बनाये रखकर ही चुकाई जा सकती है........

इति श्री रोमांसः !!!!!!

Monday, March 15, 2010

शुक्र है! कुछ चीजें हमेशा साथ निभाती है....

हर शुरुआत का एक अंत होता है और हर अंत कि एक नयी शुरुआत। लेकिन सपाट दौड़ती जिंदगी के किसी अध्याय का जब अंत होता है तो दिल बैठ जाता है। नयी शुरुआत के बारे में दिल में एक बेचैनी होती है। शास्त्री अंतिम वर्ष में विदाई के बाद कुछ ऐसा ही आलम होता है। दरअसल हर क्षेत्र में नयी शुरुआत करना बड़ा भयावह होता है। लेकिन इन सब परिवर्तनों के बावजूद कुछ चीजें ऐसी है जो हमेशा साथ निभाती है।
एक सौन्दर्य प्रसाधन में प्रयुक्त ये लाइन बड़ी खुबसूरत है कि "ये नेम ये फेम बस कुछ दिनों की मेहमान है शुक्र है कुछ चीजें हमेशा साथ निभाती है।" किसी खास स्थान पर रहकर हम अपना एक अलग मुकाम बनाते है फिर हमें उस जगह कों छोड़कर एक नयी शुरुआत करना होती है जहाँ हमें फिर एक नए सिरे से अपनी पहचान बनाना पड़ती है। जिंदगी का ये दौर बड़ा कठिन होता है। फिर बस एक उम्मीद लिए आगे बढना होता है।
कहते हैं 'खाना-पानी और हवा के बिना आदमी कुछ समय गुजार सकता है पर उम्मीद के बिना एक समय भी नहीं गुजरा जा सकता।' इन्सान की ये उम्मीद उन्ही चीजों से होती है जो हमेशा साथ निभाती है। उपलब्धियों का संसार तवायफों के कोठों की तरह होता है जो कभी किसी के साथ होती है तो कभी किसी और के। सफलता के दौर में हम उन चीजों कों भी भुला देते हैं जो हमेशा साथ निभाती है। लेकिन शुक्र है वे तब भी हमारे साथ होती है।
अहंकार, उपलब्धियों से आता है जो हमें अँधा बना देता है इस दौर में हम ये नहीं देख पाते जो हमेशा हमारे साथ होता है। चरम तन्हाईयों का वक़्त, गहन असफलता का दौर हमें एक अवसर मुहैया करता है कि हम ये देख सकें कि क्या हमेशा हमारे साथ है। सफलता में प्रस्तुत हमें नज़र आता है कालीन के नीचें हमारे साथ चल रहे अप्रस्तुत कों हम अनदेखा कर देते हैं। उपलब्धियां और उन पर बजने वाली तालियाँ प्रस्तुत होती हैं तथा अच्छे और बुरे दौर में छुपी संभावनाएं अप्रस्तुत होती है। जो हमेशा हमारे साथ रहती है। दुःख के समय में सुख कि संभावनाएं छुपी रहती है तथा सुख के समय में और बेहतर होने कि संभावनाएं दबी रहती है। कई बार कहीं आस होती है वहां से निराशा हाथ लगती है तो कई जगह उम्मीद से दुगना मिल जाता है।
बेवशी और तन्हाईयों के दौर में अचानक एक ऐसे दोस्त का फोन आता है, जिसकी हमने उम्मीद ही नहीं की थी और वो हमें एक नयी उर्जा दे जाता है। अचानक एक मामूली- सा, साधारण इन्सान हमारा हाथ पकड़कर हमें गले लगता है और हम अपना दर्द भूल जाते हैं। तकलीफों के क्षण में हमारे माँ-बाप या भाई का ऐसा कहना 'मैं तुम्हारे साथ हूँ' हमारी तकलीफ दूर कर देता है। कहीं एक फोन की घंटी, कहीं एक पत्र, sms, या e-mail कहीं एक फिल्म का गाना,कोई पुस्तक या किसी के प्रवचन कुछ न कुछ ऐसा होता है जो चरम मजबुरियों में हमारा साथ निभा जाता है। इन सारी चीजों में जो एक चीज समान है वो है सम्भावना।
संभाव्य कों संभव बनाना ही जिंदगी है। संभावनाओं में उम्मीद हैं, रहस्य है, रोमांच है और इनके कारण ही हमारी जिंदगी है इतनी रहस्यपूर्ण-अजीबोंगरीब।
इन सारी चीजों से बढकर हमेशा हमारे साथ होता है हमारा आत्मबल और जीवन जीने की जिजीविषा। जिसके दम पर हम सदा उठकर खड़े होते हैं। हर दौर की अपनी चुनौतियों और परेशानियों के समक्ष खुद कों तैयार करते हैं। वास्तव में हमें इस चीज का शुक्रिया अदा करना चाहिए की हमारा आत्मबल हमारे साथ है क्योंकि आत्मबल के बिना सारा जहाँ हमारे साथ हो तब भी हम दुनिया में कुछ नहीं कर सकते।
हमें हमारी दृष्टि कों विस्तृत आकार देना बहुत ज़रूरी है जो अप्रस्तुत कों भांपने के काबिल हो सके। नहीं तो हम ये कभी नहीं जान पाएंगे की क्या हमेशा हमारे साथ है? हमारी परेशानी परिस्थिति का अच्छा या बुरा होना नहीं हमारी परेशानी है उस परिस्थिति के प्रति हमारा रवैया। अच्छी और बुरी दोनों स्थिति में समान भाव रखना ही चरम इंसानीयत है..........

Monday, March 8, 2010

चक दे स्मारक

"राजस्थान जैन सभा" द्वारा जयपुर मे हर वर्ष आयोजित अंतर्विद्यालय वाद-विवाद प्रतियोगिता में इस साल स्मारक के छात्र सर्वज्ञ भारिल्ल ने पक्ष से प्रथम स्थान प्राप्त कर और विपक्ष से विवेक जैन ने द्वितीय स्थान प्राप्त कर इस साल की चल-वैजयंत ट्राफी स्मारक के नाम कर दी. ye ट्राफी स्मारक में piyush ji shastri के baad 14 साल में doosri baar aayi hain.

is ट्राफी के liye samman 10 march ko mangalaytan से padhaare vidwano के beech rakha gaya hain.