हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Sunday, March 17, 2013

जज्बातों के लिबास बनने की मुश्किल कोशिश करते अल्फ़ाज......


एक हिन्दी फिल्म का प्रसिद्ध गीत 'जो भी मैं कहना चाहुं, बरबाद करें अल्फाज मेरे' इंसान की अभिव्यक्ति की जबरदस्त लाचारी को बयां करने वाला गीत था। शब्द बृम्ह कहलाते हैं और इनके सहारे ही इंसान सभ्यता और विकास की नित नई इबारत लिख रहा है। रीति, रस्म, रिवाज, संस्कार का प्रसार इन्हीं अल्फाजों के सहारे हो रहा है...लेकिन इतना कुछ कह जाने के बाद भी बहुत कुछ अनकहा ही रह जाता है। या तो चीजें बयां नहीं हो पाती और गर बयां होती हैं तो समझी नहीं जाती। वार्ताओं का मंथन अमृत कम, ज़हर ज्यादा उगल रहा है और खामोशियों की वाचाल जुवां सुनने की कोई जहमत ही नहीं उठा रहा है।
असीम कुंठा, असीम दर्द, पीड़ा, मोहब्बत या नफरत से कभी गोली निकलती है, कभी गाली, कभी आंसु तो कभी कविता...पर अनुभूतियों का कतरा भी अभिव्यक्त नहीं होता। इंसान बेचैनियों का बवंडर दिल में दबाये जिये जाता है क्योंकि दुनिया में वो किनारे ही नहीं हैं जिस दर पे जज्बातों की लहरें अपना माथा कूटे। बेचैनियों की आग हर दिल में धधक रही है पर धुआं ही नहीं उठ रहा..जिसे देख लोग उस आग का अनुमान लगा सके। धुआं उठ भी जाये तो वो लोगों की आंखों में धंस जाता है जिसके बाद लोग उस आग को देखने की हसरत ही त्याग देते हैं क्योंकि जो भी मैं कहना चाहूं, बरबाद करें अल्फाज मेरे। इंसान अनभिव्यक्त ही रह जाता है।
जिंदगी के सफर में रिश्तों की सड़क साथ चलने का आभास देती है पर हम आगे बढ़ते जाते हैं और सड़क का हर हिस्सा अपनी जगह ही स्थिर रहता है। हम अकेले ही होते हैं..हमेशा, हर जगह। कुछ पड़ावों पर हमें हमारा साया नजर आता है जो हम सा ही प्रतीत होता है..पर वो बस प्रतीत ही होता है क्योंकि हम जैसा और कोई नहीं होता। हमारे दिल में वो परछाईयां जगह पाने लगती हैं जो हम सी नजर आती है...हमको समझती हुई सी दिखती है पर अचानक हमारा दिवास्वपन टूटता है और हम फिर बिखर जाते हैं...बिना अभिव्यक्त हुए। कभी मुस्काने बिखरती हैं तो कभी आंसू..और कभी कुछ बेहुदा से अल्फाज भी...पर सब झूठे ही रहते हैं। याद आता है वो गीत- 'कसमें-वादे, प्यार-वफा सब बातें हैं बातों का क्या.......
इस सूचना विस्फोट के युग में कितना कुछ बाहर आ रहा है...सोशल नेटवर्किंग साइट्स, टेलीविजन, फिल्म, साहित्य सब जगह कितना कुछ अभिव्यक्त हो रहा है...पर क्या वाकई अनुभूतियां मुखर हो पा रही हैं। भ्रम के इस युग में अल्फाज सबसे बड़े भ्रम हैं। जो बातें हैं वो जज्बात नहीं है...वो जज्बात हो ही नहीं सकते क्योंकि जज्बात नग्न ही होते हैं और अदृश्य भी...ये लफ्जों के लिबास उन्हें ढंक सकते हैं प्रगट नहीं कर सकते। पूरा जीवन उस एक शख्स और उन चंद अल्फाजों को खोजने में लग जाता है जहां जज्बातों को पनाह मिल सके।
तपन से वर्फ पिघल सकती है, लोहा पिघल सकता है, पर्वत, पाषाण और  संपूर्ण पर्यावरण पिघल सकता है...पर रूह की इस भीषण गर्मी से इंसान नहीं पिघल रहा। उसके सीने में मौजूद जज्बातों के विशाल सरोवर पर बना दायरों का बांध, अल्फाजों की लहरों को निकलकर आने ही नहीं दे रहा..और जो बाहर आ रहा है वो बहुत ही सतही और दूषित लहरें हैं जिन्हें पवित्र बनाने के झूठे जतन किये जा रहे हैं। बहरहाल, अपने इस असमर्थ लेख के गरीब अल्फाजों से कुछ कहने की अनकही कोशिश कर रहा हूं...पर इन गरीब अल्फाजों ने उन संसाधनों को आज तक विकसित नहीं किया जिससे ये कुछ कह पायें...खैर, मैनें कहने की मुश्किल कोशिश की है आप समझने के दुर्लभ जतन करना.............