हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Wednesday, August 21, 2013

Pinkish Day In Pink-City : Part- VIII

इस श्रंख्ला का भाग एक ,  भाग दो , भाग तीनभाग चारभाग पांचभाग छह और भाग सात पढ़कर ही इसमें प्रवेश करें-
(ये हमसब का व्यक्तिगत विवरण है..यूं तो इसकी टारगेट ऑडियंस सिर्फ हमारी क्लॉस के ही चुनिंदा शख्स हैं क्योंकि उन्हें ही मैं विशदता से जानता हूं और उनसे जुड़ी यादों को ही शेयर कर सकता हूँ फिर भी, कुछ और लोग भी इस संस्मरण से खुद को जुड़ा पा सकते हैं ये आपके area of interest पे निर्भर करता है।)
निपुण को दिमाग ठंडो हो गओ हो तो गाड़ी आगे बढ़ाये भैया...इंडियन बैंक में अच्छो खासो ऑफिसर बन गओ मनो अबे तक लच्छन नहीं सुधरे जा इंसान के। खैर, क्रिकेट टीम की संरचना हो गई..50-50 रुपैया इकट्ठे करके पूरी किट भी ले आये थे। श्रीमान् जीतेन्द्र जी मुंबई निर्विरोध टीम के कप्तान चुने गए...क्योंकि बाकी छोटे-छोटे प्राणियों की लीड करने की क्षमता पे संदेह था उस समय। जहाँ तक मुझे याद आ रहा है उस समय की फाइनल ईयर के विद्यार्थी सुदीपजी शास्त्री ने टीम के निर्माण में चयनकर्ता की भूमिका निभाई थी..उनके अघोषित चयनकर्ता बनने के पीछे जीतू के पर्सनल रिलेशन का योगदान था..वैसे ये बनी हुई टीम, आगामी दो वर्षों तक जस की तस रही..और सिर्फ सन्मति, सचिन और प्रजय के बीच में ही कांप्टीशन रहा था ऐसा याद आता है जिसमें प्रजय ने बाजी मार ली थी। बाकी पीछे छूट गये दो शख्स, निपुण द्वारा निर्मित की गई दूसरी टीम के हिस्से बने थे...निपुण की इस टीम की सांसे सिर्फ कनिष्ठोपाध्याय तक ही चलती रही थी फिर इसने दम तोड़ दिया था..और किशोर की शास्त्री प्रथम वर्ष में निर्मित टीम मोस्ट सस्टेनेबल टीम कही जा सकती है क्योंकि ये तीन सालों तक स्मारक कप में पार्टिसिपेट करती रही थी।

ऐसा भी सुनने में आता है कि स्मारक की सबसे पहली क्रिकेट टीम सन्मति द्वारा बनाई गई थी...जो कि स्मारक की धरती पे कदम रखने के एक महीने के अंदर में ही निर्मित हुई थी..और सन्मति की कप्तानी में इस टीम ने तत्कालीन वरिष्ठोपाध्याय से लोहा भी लिया था..और इन्हें तब मूँह की खानी पड़ी थी। सन्मति की कप्तानी में रोहन जैसे मैराथन को भी खेलना पड़ा था...इस बात से सन्मति के शुरुआती प्रभाव का अंदाजा लगाया जा सकता है। मगर बाद में सन्मतिजी गायकी,चाय, चूड़ा, शक्कर, जीरामन, पवित्र भोजनालय और शौचालय तक केन्द्रित होके रह गये। अरे सन्मति भाई बुरा मत मानना यार..आपके शाही अंदाज में कभी कोई कमी नहीं आ सकती। चाहे आप टीम में रहे या नहीं..और वैसे भी आपके लिये तो ये बच्चो वाली चीज़ है न। क्रिकेट का विशेष जिक्र इसलिये ज़रूरी है कि ये एक ऐसी चीज़ रही है जिसने हर क्लास में गुटबाजी और दंगे करवाये हैं। ये नामुराद सी चीज जिंदगी में ख़ामख्वाह दखल देने वाली साबित होती है, स्मारक की सरजमीं पे। इस क्रिकेट ने अमितजी जोकि तत्कालीन भोपाल निवासी थे कि नाक में भी काफी दम किया है...और कनिष्ठोपाध्याय में स्मारक कप में साहब अपनी नाक तुड़वा भी बैठे थे, फील्डिंग में अपने जौहर दिखाते वक्त...उनकी ये नाक आज तक टेड़ी बनी हुई है। स्मारक कप ने हर साल इस शख्स के अंग-प्रत्यंगों को डैमेज करने के लिये चुना। समझ नहीं आता कि वैसे ही ये आदमी क्या खुद को कम चोटिल करता है जो इसकी भी कमी रह जाती है।

धड़ाधड़ कई मैचों में अपने जौहर दिखाते हुए हमने पहले साल में ही हमारा रुतबा बना लिया..दिवाली से लौटके स्मारक कप हुआ और उसमें भी पहली साल मे ही सेमीफाइनल तक का सफ़र तय किया। स्मारक के एक्साम का सिलसिला भी इस समय चल रहा था..और कॉलेज में अर्धवार्षिक परीक्षाओं का दौर भी जारी था। पहली-पहली बार इस दौर से गुजर रहे थे इसलिये डर भी ज्यादा था और कुछ होनहार छात्र टॉप करने के लिये जमके रट्टा मार रहे थे। प्रशांत, रोहन और एलम की मेहनत देख लगता था कि इनके जीवन-मरण का प्रश्न चल रहा है...इनकी हालत 'थ्री इडियट्स' वाले चतुररामलिंड्गम की भांति हो जाती थी, बस ये दूसरे सहपाठियों के कमरों में चुपके से ग्लैमरर्स मैग्जीन नहीं पटका करते थे..और जहरीली हवाओं के बारे में कोई आईडिया नहीं है वो इनके तत्कालीन रूम पार्टनर ही बता सकते हैं। इस दौरान अंकित के चेहरे का रंग बदला-बदला सा रहता था और ये जहाँ भी मिलते तो मुझसे ये ज़रूर कहते कि 'बता दईये यार, कछू नहीं पढ़ो अबे तक'। ईमानदारी से बता रहा हूं कि स्मारक के और कॉलेज के एक्सामस् में मेरी हालत बड़ी दयनीय होती थी..एक्साम की कठिनाई के कारण नहीं... दरअसल मेरे आगे-पीछे के चक्रव्यूह के कारण। कॉलेज में मेरे आगे अमितजी और पीछे अंकित जी रहा करते थे, ये सिलसिला वरिष्ठोपाध्याय तक जारी रहा और स्मारक में मेरे आगे आशीष मौ और पीछे अंकित ही रहा करते थे तथा ये सिलसिला मरते दम तक मतलब फाइनल ईयर तक जारी रहा। कनिष्ठोपाध्याय के जैनदर्शन के पेपर में अंकित जी तत्वार्थसूत्र का गुटका अपनी पीछे वाले पॉकेट में रखे हुए पकड़ाए गए थे तब हमारे अध्यापक सनतजी ने इनका खासी सेवा-सुश्रुषा की थी। इसी तरह अमितजी की कॉपी लिखते हुए एकबार मैं भी पकड़ा गया था तब मेरी भी ऐसी ही सेवा होने वाली थी पर अमितजी ने मेरी मदद का अहसान चुकाते हुए ये इल्जाम अपने सर ले लिया था। इन एक्सामस् की भी अपनी ही कहानी है भाई...अरे ओ प्रमेश तुम्हारी भी कॉफी खिदमत हुई है कॉलेज के अध्यापकों से पता है या नहीं...बेचारे निर्मलजी को तो आज भी याद होगा कि तुम्हारी सेवा करते वक्त, जो तुमने उनकी पहले से चोटिल उंगली को और भी ज्यादा क्षत-विक्षत कर दिया था..डसने की भी हद होती है यार। 

फरवरी के महीने में क्रिकेट विश्वकप शुरू हुआ..और स्मारक का गलियां-चौबारे सब फिर क्रिकेट के रंग में रंग गये। जिन गिने-चुने लोगों के यहाँ अखबार आता था उन लोगों के कमरे पाठकों से भरे रहने लगे..मोबाइल को युग न होने से वो दौर रेडियो के लिये जाना जाता है..और जिस किसी भी शख्स के पास रेडुआ हुआ करता था उसकी हैसियत उस विंग के सरपंच सरीखी सी होती थी। हमारी विंग में ये रेडुआ राहुलजी विनौता के पास था..जोकि प्रजय के साथ रूम साझा किया करते थे..और सम्यकचारित्र निलय के लेफ्ट साइड वाला लास्ट रूम अक्सर गुलजार रहता था। उस रूम की एक खासियत और भी थी उसमें से बाहर गैलरी में जाने के लिये एक दरवाजा भी दिया हुआ था..जिससे गैलरी में बैठ निश्चिंतता के साथ क्रिकेट कामेंट्री का मजा लिया जा सकता था। वैसे हमारी हालत भी दीन-हीन सरीकी नहीं थी..हमारे अमित जी एक बच्चा टीवी वर्ल्डकप के आस्वादन के लिये लेके आये थे..और उनके बैड के नीचे टीवी देखने के पुख्ता इंतजामात भी किये गये थे। चुंकि वर्ल्डकप साउथ अफ्रीका में था इसलिये अधिकतर मैच शाम छह बजे शुरु होके रात 2 बजे तक चला करते थे..इसलिये दुर्लभजी में देखना तो संभव है नहीं और किसी अधिकारी की कृपा मिलना भी संभव नहीं थी..इसलिये वही अमितजी की कुटिया में इन मैचों का मजा लिया गया है..मेरे साथ निखिल भी इस जलसे में शरीक रहा करता था..मेरी और निखिल की जगह नीचे वाले कंपार्टमेंट में तय की गई थी तथा अमितजी द्वारा ऊपरी कंपार्टमेंट से मैचों का ये जायका लिया जाता था। भारत-इंग्लैंण्ड का मैच बड़ा यादगार था जिसमें नेहरा ने छह विकेट लिये थे...और रात को दो बजे हम उस मैच का उत्सव मनाना चाहते थे। पर ये ऐसी खुशी थी जिसे बांटा नहीं जा सकता था...क्योंकि इसके छिन जाने का डर हमें हर पल लगा रहता था और जब-जब भी उस कमरे के दरवाजे पे किसी की दस्तक होती तो दिल बड़े जोर-जोर से धड़का करता था। लेकिन इस डर के बीज लगातार प्राप्त होने वाले उस आनंद की तुलना किसी से नहीं की जा सकती....

बिड़ला मंदिर के ऊपर स्थित मोती डूंगरी की रहस्यमय किवदन्तियां काफी सुना करते थे..इसलिये वहाँ जाने का मन भी किया करता था पर बताया जाता है कि वहाँ स्थित मंदिर का दरबाजा सिर्फ शिवरात्रि के दिन खुलता है। जब कनिष्ठोपाध्याय के दौरान 1 मार्च को पड़ी शिवरात्रि को ये दरबाजा खुला तो हमारी कक्षा का सारा जत्था उस गुप्त स्थान में प्रविष्ट होने को आमादा हो गया..घरघुसिया टाइप के पंछी सतीश, प्रशांत, जयकुमार, प्रवीण आदि भी अपने कोटरों से बाहर निकल के उस मंदिर में आये...दरअसल उस दिन इस रहस्यमय स्थल पे आने के अलावा एक बहाना और भी था जिससे सब अपने-अपने घोंसलों से बाहर निकल आये..और वो था वर्ल्डकप का अंतिम लीग मैच जो कि भारत-पाकिस्तान के बीच था। बिड़ला मंदिर और दुर्लभजी अस्पताल की नजदीकियों ने भी हम सबको इकट्ठा कर दिया..पूरे जत्थे के साथ बंजारों की भांति दुर्लभजी में मैच देखना साक्षात् लाइव मैच देखने से भी रोचक होता था..और हमारे आजू-बाजू में भी क्रिकेट के कई एक्सपर्ट पाये जाते थे जो मैच पे अपनी राय देते देखे जाते थे। बताया जाता है कि हमारी कक्षा का पहला अधिकारिक ग्रुप फोटो भी मोती डूंगरी के उसी दिव्य स्थल पे लिया गया था। अफसोस मैं उस फोटो में नहीं था क्योंकि मैं दुर्लभजी में मैच देखने के लिये आगे वाली सीट बुक करके बैठा हुआ था, एक घंटे पहले से...बड़े एक्साइटेड पल थे वे भाई।

वर्ल्डकप फाइनल में इंडिया हारी और क्रिकेट का फितूर भी कम हुआ..लगभग दो सप्ताह तक गहरे सदमें में रहने के बाद मैं जैसे-तैसे उससे बाहर आया...धीरे-धीरे हमारे सारे सीनियर्स अपने एक्साम देके विदा होते गये और अब सिर्फ हमारी कक्षा हुड़दंग और एक्साम की तैयारी में जुटी रही। कहने को ही ये एक्साम की तैयारी होती थी..नहीं तो चैस-कैरम जैसे खेल ही प्रायः खेले जाते थे हर कमरे के अंदर और जिन्हें खेलने का मौका नहीं मिलता था वे सोने में व्यस्त रहते थे..लेकिन प्रशांत-रोहन अभी भी पढ़ने में ही मशगूल ही रहा करते थे..पता नहीं कितना पढेंगे। 28 अप्रैल से 6 मई तक एक्साम हुए..और हम सीनियर बनने की दौड़ में आ गये। पाँच मई को जीतू का रंगारंग बर्थडे सेलीब्रेट किया और पेपर के अगले दिन 'हैरी-पॉटर' श्रंख्ला की दूसरी किस्त देखने लगभग आधी क्लास इंटरटैनमेंट पैराडाइज़ जा पहूंची..अब भैया अभी घर जाना मना है क्योंकि पाँच दिन बाद ग्यारह मई से स्मारक की जमीं पे प्रशिक्षण शिविर जो शुरु होने जा रहा है और हमें उसकी तैयारी में तथा महत्वपूर्ण डिपार्टमेंट्स को अपने योग्य कार्यकलापों से सेवा पहुंचाना जरूरी है..इन बचे हुए पाँच दिनों में कैसे न कैसे टाइमपास तो करना होगा न.....

बहुत बोरिंग था न ये इंतजार...खैर कोई बात नहीं इस स्टेशन पे जो लोग उतरना चाह रहे हों उतर जाये...वरिष्ठोपाध्याय के अगले जंक्शन को कंप्लीट करने में गाड़ी काफी वक्त लेगी...सन्मति को नींद आ रही है..अरे किशोर, सन्मति तक ज़रा चाय पास करना तो..........

जारी..........

Saturday, August 17, 2013

भ्रम का आभामण्डल, मिथ्या अहंकार और अंधी आत्ममुग्धता

पिछले दिनों नॉरसिज्म पे एक लेख पड़ा..नॉरसिस्ट शब्द जो कि एक ग्रीक कथा पे आधारित है जिसके तहत एक नॉरसिस्ट नाम का इंसान अपनी छवि को देखने में इस कदर मोहित होता है कि अपनी छवि को निहारते-निहारते वो एक झील में गिरकर मौत का शिकार हो जाता है..तब ही से आत्ममुग्ध व्यक्ति या अपनी छवि पे मोहित इंसान नॉरसिस्ट के रूप में जाना जाने लगा। 

दरअसल, हम सब किसी न किसी तरह इस नॉरसिज्म के भयावह रोग से ग्रस्त हैं..और अपना सारा जीवन एक ऐसे आभामण्डल के निर्माण में गुजार देते हैं जिसकी रोशनी के तले हम हमेशा चमकदार नज़र आते रहे। अपने इस आभामण्डल की रचना में हम वे सारे प्रयास करते हैं जो हमारे वश में होते हैं। हमारी शिक्षा-दीक्षा, हमारी पद-प्रतिष्ठा, हमारे रिश्ते-नाते, रहन-सहन, खान-पान, उत्सव आदि तमाम चीजें सिर्फ और सिर्फ अपने आभामण्डल की रोशनी को अति चमक प्रदान करने के जतन मात्र होते हैं...और अगर इन तमाम प्रयत्नों के बाबजूद यदि ऐसे आभामण्डल की रचना में हम नाकाम होते हैं तो झूठ-फरेब, छल-कपट, लाग-लपेट या अपने बड़बोलेपन से एक भ्रम के आभामण्डल को अधिक कीर्ति प्रदान करने के जतन करते हैं। यदि इतना करने पे भी हम हमारे वाञ्छित लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाते..तो हमें अपने आगोश में लेता है- अवसाद...और जीवन उद्देश्यरहित और बोझिल जान पड़ता है। इस तरह तनाव से शुरू हुई प्रक्रिया अंत में तनाव पे आके ही विराम पाती है। जीवन में हर किसी को अपने आभामण्डल के टूटने का दंश सहना पड़ता है..और जितना बड़ा इस आभामण्ल का रूप होगा, उतना ही गहरा इसके टूटने से पैदा होने वाला अवसाद होगा।

जैनदर्शन की वीतरागता, गीता की स्थितप्रज्ञ की संकल्पना या ओशो की संबुद्धि..यूँ तो एक-दूसरे से काफी विरुद्धात्मकता को लिये हुए हैं..किंतु तीनों ही एक बात की सर्वसामान्य ढंग से पुष्टि करते हैं...वो है अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों में समता भाव का होना। लेकिन यही साम्यभाव व्यक्ति अपने जीवनकाल में हासिल नहीं कर पाता। तनिक सी उत्तम परिस्थितियां उसे अहंकार के आगोश में इतना ऊपर उठा देती हैं कि वो अपने यथार्थ से कोसों दूर चला जाता है..और तनिक सी विषम परिस्थितियाँ उसे इस कदर खेद-खिन्नता से भर देती हैं कि वो अपने प्राणांत करने से भी नहीं हिचकता। प्रसिद्ध विद्वान डॉ हुकुमचंद भारिल्ल के शब्दों में बात कहूँ तो- निंदा की गर्म हवाओं से इसे क्रोध की लू लग जाती है और प्रशंसा की ठंडी हवाओं से इसे अभिमान का जुकाम हो जाता है। इन दोनों ही परिस्थितियों में स्वस्थ का तो ह्रास होता ही होता है।

निश्चित तौर पे स्वयं से हमें प्रेम करना चाहिये..किंतु उस प्रेम का ग्राफ इस कदर अंधता ग्रसित न हो जाए कि हमें हमारे आसपास किसी चीज़ की हस्ती नज़र आना ही बंद हो जाये। आत्मविश्वास और अहंकार में एक बाल बराबर का ही फर्क होता है..अपनी आत्मिक हस्ती की स्वीकृति या अपने वास्तविक आत्मबल की पहचान से आत्मविश्वास पैदा होता है..इसके अलावा अन्य बाहरी किसी भी आडंबर की प्राप्ति सिर्फ अहंकार को जन्म देती है। चाहे वो रुपया-पैसा हों, चाहे रूप-लावण्य हो या फिर पद-प्रतिष्ठा..इन तमाम चीज़ों की उपलब्धि में हमें ये बात नहीं भूलना चाहिए कि इनसे निर्मित आभामण्डल चाहे कितना भी चमकदार क्यों न हो..पर वो निश्चित ही नष्ट होगा और उसमें अवश्यंभावी परिवर्तन होगा। किंतु यही परिवर्तनीय, जड़ और तुच्छ पदार्थ एक भ्रम का आभामण्डल, मिथ्या अहंकार और अंधी आत्ममुग्धता को जन्म देते हैं।

मान-प्रतिष्ठा को इस कदर तवज्जों दे दी गई है कि उसके समक्ष तमाम संस्कार, मर्यादाएं, चारित्रिक उज्जवलता किसी गर्त में फेंक दिये गये हैं..और आज मान-प्रतिष्ठा का पैमाना भी सिर्फ पैसे पर केन्द्रित हो गया है। इस चकाचौंध संयुत वातावरण में मानवीयता की बात ही दुर्लभ है तो फिर दैवीयता की बात कैसे की जा सकती है? जब से हमने प्रतिष्ठा को बाजारू बना दिया है बस तभी से इस अमूल्य वस्तु का मोल बड़ा तुच्छ हो गया है..क्योंकि तुच्छ वस्तुओं के ही भाव बड़ते हैं..महान् चीज़ें तो प्रायः अमूल्य ही होती हैं। आज इंसान बड़ा आदमी कहलाना पसंद करता है..बजाय कि भला आदमी कहलाने के। इस संपत्ति कृत अंधी आत्ममुग्धता के चलते इंसान ये बात भूल गया है कि "हमें सिर्फ अपने चरित्र की रक्षा करनी चाहिये..उस चरित्र के प्रताप से पैदा प्रतिष्ठा हमारी रक्षा अपनेआप कर लेती है।" 

कितना कुछ कहा जा रहा है, कितने आयोजन-नियोजन किये जा रहे हैं, रिश्तों के हजारों लिबास हम ओड़ते जा रहे हैं, बुद्धि और मन के अंतर्द्वंद से निरंतर काफी कुछ निकलकर बाहर आ रहा है..लेकिन ये सारी चीज़ें मिलके सिर्फ उस भ्रम के आभामण्डल को आकार देने में ही व्यस्त हैं। लोग स्वयं अपने दुर्भावों और दुराचारों से अगर परेशान भी हैं तब भी वे अपने उस आभामण्डल को चमकदार साबित करने के जतन में ही लगे हुए हैं..उनकी अंधी आत्ममुग्धता उन्हें उनका ही यथार्थ नहीं देखने देती। ऐसा लगता है इस चमक-दमक के युग में सिर्फ लोगों के ज़िस्म की बाहरी दीवारों पे डिस्टेंपर पोत दिया गया है..रूह की अंदरूनी दीवारों की परतें या तो उधड़ चुकी हैं या फिर उनपे दीमक लग गई है। हाथी के सिर्फ 'दिखाने वाले दाँतों' की ही सत्ता स्वीकृत है उसके 'चबाने वाले दांतों' की हस्ती से ही इंकार कर दिया गया है...और सभी उन 'दिखाने वाले दाँतों' को ही चमकदार बनाने के जतन में लगे हैं। इसलिये सब दिखाबटी और नकली हो गया है।

बहरहाल, ये कोरी दार्शनिक बातें नहीं हैं...ये एक यक्ष प्रश्न है हमारा आत्ममूल्यांकन करने के लिये। मैनें ये सब बातें कही हैं इसका मतलब ये नहीं कि मैं इस भ्रमित, मिथ्या यथार्थ से ऊपर उठ गया हूँ। मेरे जीवन के कई पहलू भी शायद ऐसे ही आभामण्ल और अहंकार से युक्त हैं और इस वजह से मुझमें भी ऐसी ही आत्ममुग्धता है। किंतु अपने इस भ्रमित आभामण्डल से परे उठके अपनी वास्तविक पहचान को पाने की दिली तमन्ना है...भले किसी के लिये ये महज़ कोरी फिलोसफिकल बातें हों पर मेरे लिये ये बातें बहुत मायने रखती हैं...इसलिये अपनी तमाम क्रियाओं के बीच ऐसी खोज भी ज़ारी है। आपकी इस विषय में अपनी पृथक विचारप्रणाली हो सकती है और उससे मुझे कुछ ऐतराज भी नहीं है........

Sunday, August 11, 2013

Pinkish Day In Pink-City : Part- VII

इस श्रंख्ला का भाग एक ,  भाग दो , भाग तीनभाग चार, भाग पांच और भाग छह पढ़कर ही इसमें प्रवेश करें-
(ये हमसब का व्यक्तिगत विवरण है..यूं तो इसकी टारगेट ऑडियंस सिर्फ हमारी क्लॉस के ही चुनिंदा शख्स हैं क्योंकि उन्हें ही मैं विशदता से जानता हूं और उनसे जुड़ी यादों को ही शेयर कर सकता हूँ फिर भी, कुछ और लोग भी इस संस्मरण से खुद को जुड़ा पा सकते हैं ये आपके area of interest पे निर्भर करता है।)
चलिये जनाब...ज़रा ठीक से बैठिये अपनी सीट पे..क्योंकि तेजी से हम इन 2013 के दरख्तों को पीछे छोड़के ग्यारह वर्ष पीछे जा रहे हैं। इसलिये गाड़ी की रफ्तार ज़रा तेज रहेगी। अरे ओ निपुण ये आशीष मौ को समझा ज्यादा बब्बर न मचाए..और ये अमित जी से कहो पानी ज़रा बाद में छान लेना। अरे हाँ अंकित, बेटा फैशन दिखाने के लिये काफी वक्त पड़ा है..और ज्यादा ही फैशन दिखाया तो फिर मुझे वो गीत गाना पड़ेगा.."लगी चोट गिरे हीरोजी..गॉगल सिर पे पड़ी रही..बस परदेशी हुए रवाना प्यारी काया पड़ी रही।" 

खैर, ज़रा उस वक्त का राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय और सामाजिक माहौल का भी ज़रा परिचय पा लेते हैं..जो इस यात्रा की पृष्ठभुमि में जिंदा रहेगा। 2002। हाल ही में डॉ एपीजे अब्दुल कलाम देश के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए हैं..अमेरिका 9/11 के आतंकी हमले से उबरने की कोशिश में लगा है और भारत अभी भी भुज के भुकंप की कड़वी यादें सीने में संजोये हैं..कुछ महीनो बाद ही अहमदाबाद के अक्षर धाम पे हमले से देश फिर थर्रा उठता है। सिनेमाघरों में शाहरुख की देवदास  धूम मचा रही है। इंडियन क्रिकेट टीम नेटवेस्ट ट्राफी की जीत के जश्न में मशगूल है और इंग्लैंड से टेस्ट में दो-दो हाथ कर रही है..गांगुली चमत्कारी कप्तान बने हुए हैं। देश की विकासदर अपने उच्च स्तर पर बरकरार है। संसद में कुछ दिनों पूर्व ही सूचना का अधिकार अधिनियम पारित हुआ है..और इन सब घटनाओं से बेखबर पीटीएसटी का बैच नं 26, देश के घटनाक्रम से परे जयपुर के बापूनगर स्थित टोडरमल स्मारक में दस्तक देता है।

मैं जब पहुंचा तब टोडरमल स्मारक के इस प्रांगण में कुंदकुंद कहान के तत्वाधान में शिविर क्रमांक 25 संचालित था। भारी भीड़ थी..माहौल गुलज़ार था। लेकिन इस गुलज़ार माहौल की गुलजारी मुझसे कोसों दूर थी। मेरे लिये अपने घर-परिवार से दूर इस माहौल में रहना..कालेपानी की सजा के मार्फत थी। कुछ जान-पहचान के सीनियर मुझे इस माहौल की महिमा का ज्ञान करा रहे थे..लेकिन अपनी नाक में कीचड़ भरे हुए भंवरे को कहाँ भला फूलों की सुगंध आती है..ऐसी ही हालत मेरी थी। प्रायः इस माहौल से पलायन करने की तैयारी हो चुकी थी और तभी पहले धर्मेंद्रजी भाईसाहब की पढ़ाई गई पट्टी और फिर अमित जी की इस माहौल को लेके ललचाई हुई चुस्की ने मेरी विचारधारा पे कुठाराघात किया...और बंदा शास्त्री बनने की होड़ में शामिल हो गया।

अरे..अरे राहुल, सोनल, सतीश जम्हाई मत लो यार। थोड़ा सा तो खुद का इंट्रोडक्शन देने दो भला..तभी तो इस ट्रेन को सही ढंग से दौड़ा सकूंगा। शिविर की गुलजारगी ख़त्म और मम्मी-मामा का भी उस परिसर से पलायन हो चुका था..अब मेरा परिवार बस यही 35-36 नमूने थे जो अब भी इस सफर में अपनी-अपनी सीटों से चिपके हुए बैठे हैं। अरे ओ सचिन चश्मा लगाले बेटा! नई तो तेरे करेंट के निशान से बगल में बैठा अतुल डर जायेगा। सॉरी भाई वर्तमान में आने के लिये..वापस वहीं लौटते हैं। अरे ये सामने से हट्टे-कट्टे डील-डोल वाला कौन चला आ रहा है..और उसके बगल में ये दो महारथी कौन हैं...ओह मुंबई निवासी जीतू..और अनुज एंड अनुप्रेक्षा।  बड़े ग्लैमरस् अंदाज थे आपके भी..बट भाई मुझे ऐसे क्यों देख रहे हो? पता है आउटडेटेड कुर्ता पहने हुए हूं...अब भाई हमरे गांव में तो जोई आ मिलत हैं। सीख जाउंगा तुमसे तुम्हारा स्टेंडर भी पर मुझे अपनाओ तो। अरे ये क्या आगे बढ़ गये जनाब।

खैर, कोई बात नहीं। ओह् निखिल फाइनली यू इंटर इन द सीनेरियो। बड़ी अजीब सी शक्लो-सूरत है तुम्हारी समझ नहीं आता कि इसे देख तुम्हें मासूम समझा जाये या नटखट..और कई लोग अपने हाथ जला बैठे है तुम्हे् मासूम समझने की गलती कर..लेकिन सच बताऊं तुमसे दोस्ती करने का बड़ा क्रेज था मुझमें एंड थैंक्स कि अमित जी के अलावा किसी और ने भी मुझे अपने परिवेश में आने का मौका दिया। पर ये क्या ये कमबख्त निपुण को क्यों साथ ले आये..मुझे तो डर लगता है इससे। बात-बात में छाती पे लात धरने की बात करता है..पता नहीं कभी किसी की छाती पे उंगली भी रखी है या नहीं..या फिर यूंही अपनी शेखी बघारता रहता है..पर ठीक है अब ये तुम्हारा दोस्त है तो मैं भी इसे अपना दोस्त बना लेता हूँ। कालांतर में अंकित मुंदे की निपुण से घनिष्ठता के बारे में भी पता चला..जब जनाब! गांधी मोड़ पे किसी पेड़ के नीचे फुटपाथ पे स्थित किसी नाई से अपने बाल कटवा रहे थे।  

और ये एसटीडी के पास खड़े होके कौन रो रहा है..ओह् मिस्टर सतीश क्या हुआ घर की याद आ रही है? मुझे भी आ रही है यार पर कोई अपना नहीं है यहाँ जिसके सामने रो सकूं..इसलिये तकिये के नीचे ही अपनी भड़ास निकाल लेता हूँ। खैर, कोई बात नहीं थोड़े दिन बाद सब ठीक हो जाएगा। चलो-चलो संस्कृत की क्लास का टाइम हो गया...पर तुम लोग ही जाओ वहाँ। मैं तो चला निखिल-निपुण के साथ स्मारक की बख्खैया उधड़ने-जनता मार्केट..और लौटते वक्त वही रटा-रटाया वाक्य मार देंगे- 'लो फिर आ गये जैल में'। 

अरे ये दो हंसों का जोड़ा कहाँ से चला आ रहा है..और उन हंसो के बीच में ये चश्मा लगाये बगुला कौन है। ओके सन्मति-विवेक और बीच में रविजी। भैय्या यार! ज़रा अपनी इस तिकड़ी से बाहर नज़र निकल के भी देख लिया करो..तुम्हारी क्लास में और भी 30-35 लोग हैं। ये सन्मति महाशय तो भाई कमाल की हस्ती थे..शुरुआती वक्त में आपने स्टारडम के खूब मजे लूटे..अच्छे गवैय्या जो थे। और लल्लू महान् आपकी ढोलक की थाप को भला कैसे भूल सकते हैं। मुझे याद है आपकी इसी तिकड़ी ने चिन्मय जी के साथ मिलके..अखिल भारतीय जैन युवा फैडरेशन द्वारा कराई गई संगीत प्रतियोगिता में श्रेष्ठता का पुरुस्कार प्राप्त किया था। आपके घरों में उस पुरुस्कार स्वरूप मिली शील्ड संभवतः अब भी दीमक खा रही होगी। 

चलो क्रिकेट-व्रिकेट हो जाये यार..लेकिन भैय्ये फ्री में ग्राउंड कहाँ मिलने वाला है इस रेतीले राजस्थान की सरजमीं पे। खैर, रेत पे ही अपने वल्लम गाड़ेंगे..गाँधी नगर का एसबीबीजे बैंक के पास वाला ग्राउंड है न। मनो जो निपुण काय इत्तो होशियार बन रओ है..लगत है जोई दादा है टीम बनावे वारो। हे भगवान्! ये निपुण महान् मुझे भी अपनी टीम में शामिल कर ले तो मजा आ जाएगा..इसलिये निपुण से दोस्ती बनाये रखनी चाहिए। मगर इन अभ्यास मैचों में अपन ने भी अपनी बल्लेबाजी का जमकर लोहा दिखाया..लोग तो अपने आप इंप्रेस हो गये। बाद में पता चला कि मैच तो कार्क बॉल से होते हैं और उस बॉल के सामने अपनी सिट्टी-पिट्टी गोल हो गई। लेकिन ये कमाल का मैराथन कौन है यार..लगातार चार बॉलो पे चार चौके एंड अगली पे सिक्स। ओह् रोहन..यू आर। आगे जाके यही तो हमारी टीम के सबसे छोटी कक्षा में स्मारक कप जिताने वाले शिल्पकार बने थे..यू आर सच अ ग्रेट क्रिकेटर। यदि थोड़े पैसे-वैसे लगाके किसी क्लब को ज्वाइन किया होता तो कम से कम रणजी तो खेल के आते ही बेटा तुम। पर इतनी खड़ूस प्रवृत्ति के शख्स क्यों हो तुम और ये निपुण द्वारा रोटे बोलने पे चिड़ क्यों जाते हो..आखिर सरनेम ही तो है तुम्हारा। और जब भी कोई एमपी वाला तुम्हारे रूम में घुस जाता है तो उसे ऐसे क्यों देखते हो जैसे कि कोई भंगी घुस आया हो..इट्स नॉट गुड डियर। खैर तुम्हारी माया तुम ही जानो। वैसे निपुण महाशय क्रिकेट के पटल से बाहर हो गये..अपने दादागिरि वाले स्वभाव के चलते...काय भैय्या सबने मिलके तुमरी छाती पे ही लात धर दई जा तो।

अरे-अरे जो का...पुरानी बात सुनके लड़न काय लगे..ठीक से बैठो भाई...कुछ अच्छे लम्हे, और सुहावने स्टेशन भी तुम्हारी प्रतिक्षा में है....ए..पेंट्री कोच वाले गोपाल-केदार..कौन है इते? ज़रा, निपुण को ठंडा देना तो भला.....

ज़ारी..........


Pinkish Day In Pinkcity : Part - VI

इस श्रंख्ला का भाग एक ,  भाग दो , भाग तीन,  भाग चार और भाग पांच पढ़कर ही इसमें प्रवेश करें-
(ये हमसब का व्यक्तिगत विवरण है..यूं तो इसकी टारगेट ऑडियंस सिर्फ हमारी क्लॉस के ही चुनिंदा शख्स हैं क्योंकि उन्हें ही मैं विशदता से जानता हूं और उनसे जुड़ी यादों को ही शेयर कर सकता हूँ फिर भी, कुछ और लोग भी इस संस्मरण से खुद को जुड़ा पा सकते हैं ये आपके area of interest पे निर्भर करता है।)
इस यात्रा पे आगे बढ़ने से पहले मैं कुछ लोगों का स्मरण किये बगैर आगे बढ़ ही नहीं सकता..उनके बगैर ये सफ़र कभी संतुलित और अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ नहीं हो सकता था..लीजिए पेश हैं आपके सामने ऐसे ही महानुभव-

शांतिजी भाईसाहब- आपका सख्त अनुशासन..तीक्ष्ण ज्ञान और पितृसम छत्रछाया गर हमें हासिल न हुई होती तो कभी हम वो न हो सकते थे जो आज हम हैं। हमारी रग़-रग़ में आपका दी शिक्षा और संस्कार बसर करता है..और भीषण विषम परिस्थितियों में भी हम अपने दायरे नहीं लांघ पाते उसमें सिर्फ और सिर्फ आपही शामिल हैं। बाहर में भले ही हम पे जितनी, जो कुछ भी भौतिकता की परतें चढ़ी हुई हैं उसका कारण तो ये वर्तमान परिवेश है पर अध्यात्म की अंदरुनी तमाम ताकत और भीतरी संबल सिर्फ और सिर्फ आपका दिया हुआ है। मुझे नहीं पता कि किसी और से हमने गहन आध्यात्मिकता के मर्म सीखे हैं जितने कि आपसे सीखे हैं..आपका ये कर्ज न तो ये चंद शब्द चुका सकते और न ही हमारा संपूर्ण जीवन।

पीयुषजी। पता नहीं इतनी फुर्ती आप कहाँ से लाते हैं..और अपनी इस चपलता से उच्च सामंजस्य बनाये रखके कैसे काम करते हैं। स्मारक को मुख्यधारा में बनाये रखने और गतिमान जगत के साथ गतिमान बनाये रखने में आपका कोई सानी नहीं है। आपकी तर्कशक्ति और साहस का मैं कायल रहा हूँ..और जिस खूबसूरती से आप विषम परिस्थितियों को हैंडल करते हो उसका कोई जबाव नहीं। ये तमाम मैनेजिंग स्किल आपने विदआउट किसी एमबीए के सहज हासिल किये हैं..और इसके परे धर्म-अध्यात्म में आपके ज्ञान का कोई सानी नहीं हैं आपसे मोक्षमार्ग प्रकाशक के चौथे-पांचवे और छठवे अधिकार को हमने पड़ा था..विरोधियों को परास्त करने वाले ये अधिकार आपकी तड़कना पे एकदम फिट बैठते थे..इसके अलावा वरिष्ठोपाध्याय में न्यायदीपिका के अध्ययन के लिये जिस न्यायोचित शैली की ज़रूरत थी वो भी आपमें बखूब थी..बुद्धिमत्ता और चपलता के सुपर्ब कांबिनेशन का नाम आप ही हो।

धर्मेंद्र जी। यकीन मानिये भाईसाहब..अगर आप आज भी बाहर खड़े होके तेज आवाज में बोल दें तो मैं अपनी सीट से खड़ा हो जाउंगा। डेढ़सौ से ज्यादा शास्त्रियों को एकसाथ पूरी उच्च गुणवत्ता के साथ संभालने का कौशल आप में अद्वितीय है। आपकी इस हार्ड पर्सनेलिटी के अंदर एक सोफ्ट व्यक्तित्व भी बसर करता है इसे कम ही लोग जानते हैं। लेकिन अनुशासन की स्थापना में आपकी आंखें..और एक आवाज ही काफी है। हमें भले तुरंत में आपका ये अनुशासन भले कितना ही बुरा क्यों न लगे पर आपका ये अनुशासन...हमारी सीमाओं से हमें बाँधे रखने में सबसे कारगार ज़रिया था। मेरे लिये तो आपके आभार व्यक्त करने के लिये कुछ विशेष ही लफ्जों की तलाश करना होगी। आज जो मैं ये अपने अतीत के सुनहरे सफर का समावर्णन कर पा रहा हूं इसकी वजह सिर्फ आप ही हो..मुझे आज भी याद नहीं कि आपने मुझे क्या समझाया था..किंतु आपके उन मैजिकल शब्दों का ही कमाल था कि मैं स्मारक की धरा पे पाँच साल तक रह पाया और अपने जीवन में संस्कारों की जड़ें और हुनर के पंखों को हासिल कर पाया..मेरी तमाम यात्रा का प्रथम सोपान आपका वो आधे घंटे का लेक्चर ही था।

प्रवीणजी। ज्ञान की विस्तृत और दुर्लभ धाराएं आपके व्यक्तित्व का स्पर्श करते हुए ही निकलती हैं...आपकी कर्मठता, आलस्यविहीन व्यक्तित्व और गहन मेहनत करने के प्रति दृढ़ संकल्पना अनुकरणीय हैं। जिनवाणी के जिस गहन अध्ययन-मनन से आपने अपने व्यक्तित्व को निर्मित किया है..वो किसी किसी में ही देखने को मिलता है। आपकी स्वाभाविक प्रतिभा और तीव्र स्मरण शक्ति से आप दुनिया के किसी भी मुकाम को  पा सकते थे पर आपने उन सबसे परे जिनवाणी-जिनधर्म पे अपनी प्रतिभा को न्यौछावर किया..ये प्रशंसनीय है। मैं पढ़ने-लिखने में एक औसत व्यक्ति था लेकिन वरिष्ठोपाध्याय में मेरे रूम के सामने ही जबकि आपका डेरा हुआ करता था..आपने मुझसे भी कठिन परिश्रम करवाके परीक्षा में उच्च स्कोर अर्जित करवा लिये थे..और इससे मेरे आत्मविश्वास में गजब का इजाफा हुआ था। न सिर्फ मेरे साथ बल्कि आपने हमारी सारी क्लास से ही ऐसी मेहनत करवाके उस समय के सर्वाधिक फर्स्ट डिवीजन अर्जित करने का रिकार्ड हमारी क्लास के नाम बनवाया था। आपके व्यक्तित्व के कई हिस्से हैं जिसे अनुकरण कर कोई भी बुलंदियों की ओर अपना मार्ग प्रशस्त कर सकता है।

इन सब शख्स के अलावा एक शख्स और है जिस मैं व्यक्तिगत तौर पे याद करना चाहुँगा..सबका तो नहीं पता पर मेरी विचारणा पे इस शख्स ने खासा असर डाला है...और ये भी मेरे लिये किसी गुरु से कम नहीं हैं-

विक्रांत जी। मूलतः झालरापाटन के निवासी। जब मैं शास्त्री प्रथम वर्ष में था तब ये स्मारक से आचार्य कर रहे थे..और तभी मेरी इनसे घनिष्ठता हुई। मेरे कई दुर्गुणों और कमियों की तरफ इन्होंने मेरा ध्यान इंगित कराया जिन्हें खुद से दूर कर मैं बेहतरी की ओर कदम बढ़ा सका। ऊर्दू में एक शायरी है कि "शौक ए दीदार अगर है तो, नज़र पैदा कर"। आज चीज़ों को देखने की नज़र मेरे पास है उसमें बहुत हद तक विक्रांतजी का अहम् योगदान है। जिंदगी के और जिनवाणी के कई पाठ मैंने इनसे सीखे..और आज भी जब किसी चीज से विचलित होता हूँ तो ये अब भी मेरे अहम् मार्गदर्शक होते हैं..अपने सिद्धांतों को लेके कैसी दृढ़ता होना चाहिए ये यदि किसी को सीखना है तो विक्रांत जी से अच्छा उदाहरण कोई और नहीं हो सकता...

खैर..सारी कक्षा के साथियों के साथ तथा कुछ और आदरणीय व्यक्तित्वों को अपने साथ लेके..मैं निकल रहा हूँ..कोई और भी जिसका ज़िक्र नहीं हो पाया हो वो हमें ज्वाइन कर सकता है...बस हमें थोड़ा सा इत्तला कर दीजिये...

ज़ारी...........

Saturday, August 10, 2013

भारत देश की एक कड़वी हक़ीकत


भारत मे कुल 3600 बड़े कत्लखाने है जिनके पास पशुओ को काटने का लाईसेंस है !! जो सरकार ने दे रखा है ! इसके इलावा 35000 से अधिक छोटे मोटे कत्लखाने है जो गैर कानूनी ढंग से चल रहे है ! कोई कुछ पूछने वाला नहीं ! हर साल 4 करोड़ पशुओ का कत्ल किया जाता है ! जिसने गाय ,भैंस ,सूअर,बकरा ,बकरी ,ऊंट,आदि शामिल है ! मुर्गीया कितनी काटी जाती है इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है !

गाय का कतल होने के बाद मांस उत्पन्न होता है और मांसाहारी लोग उसे भरपूर खाते है | भारत के 20% लोग मांसाहारी है जो रोज मांस खाते है और सब तरह का मांस खाते है | मांस के इलावा दूसरी जो चीज प्राप्त की जाती है वो है तेल ! उसे tellow कहते है जैसे गाय के मांस से जो तेल निकलता है उसे beef tellow और सूअर की मांस से जो तेल निकलता है उसे pork tellow कहते है |

इस तेल का सबसे ज़्यादातर उपयोग चेहरे में लगाने वाली क्रीम बनाने में होता है जैसे Fair & Lovely , Ponds , Emami इत्यादि | ये तेल क्रीम बनाने वाली कंपनियो द्वारा खरीदा जाता है ! और जैसा कि आप जानते है मद्रास high court मे श्री राजीव दीक्षित जी ने विदेशी कंपनी fair and lovely के खिलाफ case जीता था जिसमे कंपनी ने खुद माना था कि हम इस fair and lovely मे सूअर की चर्बी का तेल मिलाते हैं !
आप यहाँ click कर देख सकते है !

http://www.youtube.com/watch?v=cVECjalM76g

तो क्त्ल्खानों मे मांस और तेल के बाद जानवरो का खून निकाला जाता है ! कसाई गाय और दूसरे पशुओ को पहले उल्टा रस्सी से टांग देते हैं फिर तेज धार वाले चाकू से उनकी गर्दन पर वार किया जाता है और एक दम से खून बहने लगता है नीचे उन्होने एक ड्रम रखा होता है जिसने खून इकठा
किया जाता है यहाँ click कर देख सकते हैं !
http://www.youtube.com/watch?v=tgQuXz5kVHc&feature=plcp

तो खून का सबसे ज्यादा प्रयोग किया जाता है अँग्रेजी दवा (एलोपेथि दवा) बनाने मे ! गाय के शरीर से निकला हुआ खून ,मछ्ली के शरीर से निकला हुआ खून बैल ,बछड़ा बछड़ी के शरीर से निकला हुआ खून से जो एक दवा बनाई जाती है उसका नाम है dexorange ! बहुत ही popular दवा है और डाक्टर इसको खून की कमी के लिए महिलाओ को लिखते है खासकर जब वो गर्भावस्था मे होती है क्यूंकि तब महिलाओ मे खून की कमी आ जाती है और डाक्टर उनको जानवरो के खून से बनी दवा लिखते है क्यूंकि उनको दवा कंपनियो से बहुत भारी कमीशन मिलता है !

इसके इलावा रक्त का प्रयोग बहुत बड़े पैमाने पर lipstick बनाने मे होता है ! इसके बाद रक्त एक और प्रयोग चाय बनाने मे बहुत सी कंपनिया करती है ! अब चाय तो पोधे से प्राप्त होती है ! और चाय के पोधे का size उतना ही होता है जितना गेहूं के पोधे का होता है ! उसमे पत्तिया होती है उनको तोड़ा जाता है और फिर उसे सुखाते हैं ! तो पत्तियों को सूखाकर पैकेट मे बंद कर बेचा जाता हैं !

और पतितयो को नीचे का जो टूट कर गिरता है जिसे डेंटरल कहते हैं आखिरी हिस्सा !लेकिन ये चाय नहीं है ! चाय तो वो ऊपर की पत्ती है ! तो फिर क्या करते है इसको चाय जैसा बनाया जाता है ! अगर हम उस नीचले हिस्से को सूखा कर पानी मे डाले तो चाय जैसा रंग नहीं आता ! तो ये विदेशी कपनिया brookbond,ipton,आदि क्या करती है जानवरो के शरीर से निकला हुआ खून को इसमे मिलकर सूखा कर डिब्बे मे बंद कर बेचती है ! तकनीकी भाषा मे इसे tea dust कहते है !इसके इलवा कुछ कंपनिया nail polish बनाने ने प्रयोग करती है !!

मांस,तेल ,खून ,के बाद क्त्ल्खानों मे पशुओ कि हड्डीया निकलती है ! और इसका प्रयोग toothpaste बनाने वाली कंपनिया करती है colgate,close up,pepsodent cibaca,आदि आदि ! सबसे पहले जानवरो कि हड्डियों को इकठा किया जाता है ! उसे सुखाया जाता है फिर एक मशीन आती है bone crasher ! इसमे इसको डालकर इसका पाउडर बनाया जाता है और कंपनियो को बेचा जाता है !shiving cream बनाने वाली काफी कंपनिया भी इसका प्रयोग करती हैं !

और आजकल इन हड्डियों का प्रयोग जो होने लगा है टेल्कम powder बनाने मे ! नहाने के बाद लोग लागाते हैं उसमे इसका प्रयोग होता है ! क्यूंकि ये थोड़ा सस्ता पड़ता है ! वैसे टेल्कम powder पथर से बनता है! और 60 से 70 रुपए किलो मिलता है और गाय की हड्डियों का powder 25 से 30 रुपए मिल जाता है !! इस लिए कंपनिया हड्डियों का प्रयोग करती हैं !

इसके बाद गाय ऊपर की जो चमड़ी है उसका सबसे ज्यादा प्रयोग किया जाता है cricket के ball बनाने मे ! लाल रंग की ball होती है आज कल सफ़ेद रंग मे भी आती है ! जो गाय की चमड़ी से बनाई जाती है !गाय के बछड़े की चमड़ी का प्रयोग ज्यादा होता है ball बनाने मे ! दूसरी एक ball होती है foot ball ! cricket ball तो छोटी होती है ! पर foot ball बड़ी होती है इसमे और ज्यादा प्रयोग होता है गाय के चमड़े का !!

आजकल और एक उद्योग मे इस चमड़े का बहुत प्रयोग हो रहा है !जूते चप्पल बनाने मे ! अगर आप बाजार से कोई ऐसा जूता चप्पल खरीदते है ! जो चमड़े का है और बहुत ही soft है तो वो 100 % गाय के बछड़े के चमड़े का बना है ! और अगर hard है तो ऊंट और घोड़े के चमड़े का ! इसके इलवा चमड़े के प्रयोग पर्स ,बेल्ट जो बांधते है ! इसके इलवा आजकल सजावट के समान ने इन का प्रयोग किया जाता है !!
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तो गाय और गाय जैसे जानवरो आदि का कत्ल होता है ! तो 5 वस्तुए निकलती है !!

1) मांस निकला ------जो मांसाहारी लोग खाते है !

2)चर्बी का तेल ----जो cosmatic बनाने मे प्रयोग हुआ !

3) खून निकाला ------ जो अँग्रेजी एलोपेथी दवाइया ,चाय बनाने मे ! nailpolish lipstick मे !

4)हडडिया निकली ------ इसका प्रयोग toothpaste, tooth powder,shiving cream मे !aur टेलकम powder

5) चमड़ा निकला !------ इसका प्रयोग cricket ball,foot ball जूते, चप्पल, बैग ,belt आदि !

जैसा ऊपर बताया 35000 क्तलखाने है और 4 करोड़ गाय ,भैंस ,बछड़ा ,बकरी ,ऊंट आदि काटे जाते है !
तो इनसे जितना मांस उतपन होता है वो बिकता है ! चर्बी का तेल बिकता है !खून बिकता है हडडिया और चमड़ा बिकता है !!
तो निकलने वाली इन पाँच वस्तुओ का भरपूर प्रयोग है और एक बहुत बड़ा बाजार है इस देश मे!!
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इसके इलवा गाय के शरीर के अंदर के कुछ भाग है ! उनका भी बहुत प्रयोग होता है !जैसे गाय मे बड़ी आंत होती है !! जैसे हमारे शरीर मे होती है ! ऐसे गाय के शरीर मे होती है ! तो जब गाय के काटा जाता है ! तो बड़ी आंत अलग से निकली जाती है ! और इसको पीस कर gelatin बनाई जाती है !जिसका बहुत जादा प्रयोग आइसक्रीम, चोकोलेट,आदि
इसके इलवा Maggi . Pizza , Burger , Hotdog , Chawmin के base matirial बनाने मे भरपूर होता है | और एक jelly आती red orange color की उसमे gelatin का बहुत प्रयोग होता है !!आजकल जिलेटिन का उपियोग साबूदाना में होने लगा है | जो हम उपवास मे खाते है !
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तो ये सब वस्तुओ जो जानवरो के कत्ल के बाद बनाई जाती है ! और हम जाने अनजाने मे इन का प्रयोग अपने जीवन मे कर रहे है ! और कुछ लोग अपने आप को 100 टका हिन्दू कहते है ! शाकाहारी कहते है !और कहीं न कहीं इस मांस का प्रयोग कर रहे है ! और अपना धर्म भ्रष्ट कर रहे है !

तो आप इन सबसे बचे ! और अपना धर्म भ्रष्ट होने से बचाये !एक बात हमेशा yaad रखे टीवी पर देखाये जाने वाले विज्ञापन (ads) को देख अपने घर मे कोई वस्तु न लाये ! इनमे ही सबसे बड़ा धोखा है !
जैसे चाकलेट का विगयापन आता है केडबरी nestle आदि !! coke pepsi का आता है ! fair and lovely आदि क्रीमे ! colgate closeup pepsodent आदि आदि toothpaste !!

तो आप अपने दिमाग से काम ले इन सब चीजों से बचे !! क्यूंकि विज्ञापन उनी वस्तुओ का दिखाया जाता है जिनमे कोई क्वाल्टी नहीं होती !! देशी गाय का घी बिना विज्ञापन के बिकता है नीम का दातुन बिना विज्ञापन के बिकता है गन्ने का रस बिना विज्ञापन के बिकता है !!

विज्ञापन का सिद्धांत है गंजे आदमी को भी कघा बेच दो !! एक ही बात को बार-बार,बार-बार दिखाकर आपका brain wash करना !! ताकि आप सुन सुन कर एक दिन उसे अपने घर मे उठा लाये !!

आपने पूरी post पढ़ी आपका बहुत बहुत धन्यवाद !!
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और हमे अब इस देश मे ऐसी सरकार लानी है जो पहला काम यही करे कि अंग्रेज़ो के समय से चल रहे ये सारे क्त्लखानों को बंद करने का बिल संसद मे लाये और इसे पास करे !!

आपके मन मे जानवरो के प्रति थोड़ा भी दया का भाव तो इस link पर click कर देखे !!

http://youtu.be/733RlrQ42YU
http://youtu.be/733RlrQ42YU

Sunday, August 4, 2013

Pinkish Day In Pinkcity : Part - V

इस श्रंख्ला का भाग एक भाग दो , भाग तीन और भाग चार पढ़कर ही इसमें प्रवेश करें-
(ये हमसब का व्यक्तिगत विवरण है..यूं तो इसकी टारगेट ऑडियंस सिर्फ हमारी क्लॉस के ही चुनिंदा शख्स हैं क्योंकि उन्हें ही मैं विशदता से जानता हूं और उनसे जुड़ी यादों को ही शेयर कर सकता हूँ फिर भी, कुछ और लोग भी इस संस्मरण से खुद को जुड़ा पा सकते हैं ये आपके area of interest पे निर्भर करता है।)
चलो भाई आगे बढ़ते हैं..अंतिम बचे हुए कुछ शख्स भी दस्तक देने वाले हैं। कुछ लोग जन्मजात प्रतिभा संपन्न होते हैं उनकी ये प्रतिभा और हुनर प्रकृति प्रदत्त होता है जिसके बलबुते पे वो न चाहते हुए भी उत्कृष्ट मुकाम हासिल पा लाते हैं..भले उस मुकाम की कद्र उन्हे हो, न हो। प्रतिभा, गुरूर पैदा करती है और सुरूर भी। जुनून से आगे बढ़ते हुए कई बार जज़्बात हासिये पे फेंक दिये जाते हैं तो कई बार कुछ बेहुदा से जज़्बात, जुनून को मटियामेट कर देते हैं। उचित संतुलन आवश्यक है जिंदगी के हर रास्ते पे और रास्ते के हर मोड़ पे। बात कुछ ऐसे ही प्रतिभासंपन्न किरदारों की करने जा रहा हूँ..आत्मविश्वास की नदिया जिनकी कांखों में से ही होके गुज़रती थी..और इसका इनपे सुरूर भी था और गुरूर भी। वक्त ने जब जिंदगी के दरख़्तों को तोड़ा तो कोई अपने जज़्बातों से ठगा गया तो कोई ने अपने जुनून से जज़्बातों को कुचल अलग फेंक दिया..और कुछ ऐसे भी हैं जो बेहतर संतुलन के साथ आगे बढ़ रहे हैं अपनी व्यवसायिकता के साथ अपनी वैयक्तिक्ता की रक्षा करते हुए जी रहे हैं। ज़रा बाहर तो देखना, ये दरबाजे पे किसकी दस्तक है...ओह मॉय गॉड! हियर इज़ द नेचुरल लीडर, आउटसाइड ऑफ द डोर-
जीतेन्द्र उर्फ जीतू। क्षमा करें, किसी अंडरवर्ल्ड माफिया का परिचय नहीं दे रहा हूँ। आधुनिकता के कलेवर में आध्यात्मिकता से रसभोर इस शख्स की परतें, उधड़ने पे ही शायद हम इसकी शख्सियत का पोस्टमार्टम कर पायें। तब भी हो सकता है हम कुछ नकारात्मक परिणामों के साथ ही बाहर आयें..और इनके सकारात्मक पक्ष से अछूते ही रह जायें...अभी का तो पता नहीं पर उस जमाने में इनको लेके कई नकारात्मक धारणाएं ही रहा करती थी..कई जगह पे इनका नेतृत्व तानाशाह नज़र आता था..लेकिन यकीन मानिये तानाशाही हमेशा बुरी नहीं होती। फर्क सिर्फ दृष्टिकोण का ही होता है। आई डोंट नो, द एक्सेक्ट प्रिंसिपल ऑफ दैट पर्सन बट ही नेवर कॉम्प्रोमाइज़ विद दैम। और इनकी इस समझौता न करने की प्रवृत्ति ही अनायास इनके दुश्मन और न चाहने वाले पैदा कर देती है। इनके जीवन की एक झांकी को मैं इनके द्वारा मेरी स्लैम बुक में लिखे लफ्ज़ों से बयां करना चाहूंगा...जो मेरे लिये इन्होंने कहा था। यकीन मानिये स्मारक में रहते वक्त और उसके बाद भी इनकी दी गई सीखों ने मुझपे ख़ासा असर किया है..इन्होंने लिखा था- "पता नहीं क्यूं पर तुम्हारे प्रति मेरे मन में हमेशा एक छोटे भाई वाली फीलिंग आती है, और तुम्हें ऐसा ही माना है। तुम्हारी गलतियों पे तुम्हें डांटने का, तुम्हें समझाने का और तुम्हें ऊंचाईयों पे देखने का मन करता है..तुम प्रतिभाशाली हो पर अपने अंदर थोड़ी गंभीरता लाओ, अगर अपने प्रति गंभीरता नहीं आई तो तुम्हारी प्रतिभा ही तुम्हारी सबसे बड़ी दुश्मन होगी..जिनवाणी और स्वाध्याय से दूर मत रहना, अन्यथा ये प्रतिभा जिस भी दिशा में जाएगी एक उत्पात ही मचाएगी" जीतू भाई! पता नहीं तुम्हारी इस बात के कारण या फिर सहज ही पर अब कुछ ज्यादा ही गंभीरता आ गई हैं और इसने अनायास ही मेरी नाक में दम कर रखा है..खैर आपके बारे में बात करने को बहुत कुछ है..आगे बात करेंगे..
निखिल। ही इज़ द पर्सन विद फुल ऑफ ज़ील एंड ज़ेस्ट। कीन इंट्रेस्टेड ऑफ मुवीस्। वर्सटाइल इन इंट्रेस्ट एंड टेलेंट। डिस्पाइट ऑफ दीस ऑल थिंग, ही इज़ डीप इन फीलिंग्स एंड सीरियस टूवार्डस् सम पार्ट्स ऑफ लाइफ आलसो। बेटा, निखिल समझ में आगया हो तो ठीक नहीं तो डिक्शनरी का इस्तेमाल कर लेना..बिकॉस आई एम नॉट गेटिंग प्रॉपर वर्ड इन हिन्दी टू डिस्क्राइव यू। आज ये जो भी हैं वो इसलिये हैं क्योंकि ये चाहते थे कि ये ऐसा हों और आज ये जो नहीं हैं वो इसलिये नहीं हैं क्योंकि इन्होंने कभी चाहा ही नहीं कि ये वैसे हों। समझ में आया कि नहीं, थोड़ी सी कोशिश करता हूं समझाने की..ये अच्छे गायक थे, पढ़ने में इंटेलीजेंट थे..मुझे आज भी याद है कनिष्ठोपाध्याय के प्रथम इंटरनल एक्साम में इन्होंने टॉप किया था। ये अच्छे वक्ता भी थे..फ्रेंडशिप स्किल, डायनामिक पर्सनेलिटी और अपनी बातों से किसी को भी अपने वश में करने का माद्दा भी हैं..पर कालांतर में इन्होंने इन सब चीज़ों से परे सिर्फ बिज़नेस-बिज़नेस और बिज़नेस को चुना..फर्श से उठकर अर्श से आने की मन में ठानी और आज ये उस मामले में काफी ऊपर भी है और सफ़र अभी ज़ारी है। जो इन्होंने सोचा वो किया और कर रहे हैं..लेकिन मैं ये विश्वास से कह सकता हूं कि ये ऐसा बंदा है कि किसी और रास्ते को भी चुनता तो उसमें भी ये सर्वोत्तम उपलब्धि को स्पर्श करने की क्षमता रखता है। मेरा भदिया नाम इन्होंने ही रखा था। निखिल से कुछ अपनी बचकानी हरकतों और बेफिजूल के गुरूर के कारण मैं काफी समय तक अबोला रहा...और एक खूबसूरत टाइम को यूंही ज़ाया कर दिया..आज इस सार्वजनिक मंच पे मैं अपने इस बर्ताव के लिये निखिल से माफी मांगता हूं....विशेष आगे-
अभय। खड़ेरी के नरेश। दर्जन भर से ज्यादा खड़ेरी आगत शास्त्रियों में सबसे जुदा। एक अलग ही क्षेत्र को चुना और आज बुलंदियों की तरफ तेज़ी से कदम बढ़ा रहे हैं..इन्हें देख भी कल्पना करना मुश्किल था कि ये व्यवसायिक क्षेत्र में इस तेजी से बढ़ सकते हैं..पर इन्होंने किया। शास्त्री फर्स्ट ईयर में रोहन, अभय और मैंने बेहतरीन साथ गुजारा। हम तीनों की तिकड़ी खासी फेमस थी..जिसमें उसी वर्ष जब स्मारक में कंस्ट्रक्शन के काम चलते वक्त हमें अपनी-अपनी विंग से बाहर निकाल लाइब्रेरी में शिफ्ट किया गया था तो हम तीनों ने काफी मज़े किये..लाइब्रेरी के उस दौर की मस्ती एक अलग लेख की माँग करती है इसलिये विशेष तभी बात करेंगे। ये बेहतरीन क्रिकेटर और उतने ही उम्दा विकेटकीपर थे..हमारी कहान क्रिकेट क्लब ने तीन बार स्मारक कप जीता उसमें यकीनन रोहन का एक अहम् योगदान था पर हमें अभय जैसा विकेटकीपर-बल्लेबाज़ गर न मिला होता तो हमारा ऐसा कर पाना नामुमकिन था। मैं गर्व से कह सकता हूं कि ये स्मारक इतिहास के सबसे श्रेष्ठ विकेटकीपर-बल्लेबाज़ हैं..न भूतो न भविष्यति टाइप। पर इन सब चीज़ो के अलावा इनमें थोड़ा खड़रयाना स्वभाव भी भरा हुआ था और इसके कारण कई बार हमारी किरकिरी भी बहुत हुई है। खैर आगे बात करते हैं-
अंकित। कभी अपनी हेयर-स्टाइल, कभी अपने रंग-बिरंगे कपड़े, कभी अपनी लहराती-बलखाती चाल के विशेषता के चलते स्मारक के भोजनालय में स्थित अघोषित रैंप पे कोई चला आ रहा हो..तो समझ लीजिये वो मुंदे है..ओह् सॉरी अंकित हैं। इनकी मोहक मुस्कान इनसे खुद न देखी जाती थी और इसलिये इनकी आंखें मुंद जाती थी बस इसी वजह से श्री श्री नामकरणकारी महाराज निपुण शास्त्री ने इन्हें मुंदे का ये संबोधन दिया था। खैर, मेरी कक्षा में ये इकलौते ऐसे शख्स थे जिनसे मेरी कभी किसी बात पे ज़रा सी भी लड़ाई या मनमुटाव नहीं हुआ...पांच साल तक ये स्मारक की परीक्षा में मेरे पीछे ही बैठे और मेरी खूब जान खाई..इसलिये मैं कभी टॉप नहीं कर पाया..नहीं तो बेटा रोहन तुम्हारा कभी नंबर नहीं लगता :) । शांतप्रियता, धैर्यशीलता, प्रसन्नचित्तता और उत्कृष्ट स्तर की सहनशक्ति ये ऐसे गुण हैं जो अंकित से ग्रहण किये जा सकते हैं..हम दोनों कभी एकदूजे के साथ नहीं रहे, न घूमे फिरे न ही ज्यादा बातें की..पर अंकित के साथ हमेशा मैंने एक अटेचमेंट महसूस किया है..और हमारी अंडरस्टेंडिंग भी टॉपक्लास की थी। अंकित को इतने लोगों द्वारा पसंद किया जाता था कि कई बार मुझे इनसे जलन होने लगती थी...इस पसंद करने का गलत अर्थ मत निकालना भाईयों। ये बहुत साफ-स्वच्छ छवि वाले व्यक्ति हैं...और रहेंगे। विशेष आगे-
रोहन। मैं बात कहाँ से शुरू करूं और कहाँ ख़त्म करूं समझ नहीं आ रहा..मानो जो भी कहूंगा वो अधूरा रहेगा। खैर कोशिश करता हूं...एरोगेंट, खड़ूस, सेल्फिस इन सम पार्ट्स ऑफ लाइफ..पर इन सब खूबियों के बाबजूद भी मेरा बेहद खास दोस्त। मूलतः ये मराठी और मैं एमपी से। पर हम दोनों की इस गंगा-जमुनी तहज़ीब के कारण ही हमारी क्लास में कभी एमपी-मराठी को लेकर क्षेत्रवाद ने कभी व्यापक रूप अख्तियार नहीं किया और हम सब न्यूट्रल ही रहे। निखिल के बारे में जो-जो कहा गया है उसके बहुत सारे हिस्से को इनके व्यक्तित्व में भी ग्रहण कर लेना। स्टडी-स्पोर्ट्स एंड स्पीच का सुपर कांबिनेशन किसी में एक साथ उत्कृष्टता के साथ देखना कभी भी आसान नहीं है पर इनमें ये था और मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि स्मारक में फाइनल ईयर में मिलने वाले चहुंमुखी प्रतिभा का पुरुस्कार जिस उद्देश्य से दिया जाता है उसके अब तक के इकलौते और वाज़िब हकदार यही हैं..बस थोड़ी सा अपनी खड़ूसियत कम करने की ज़रूरत हैं तुम्हें। जिस लग्न और सफाई के साथ रोहन काम करता है उसका अनुसरण करना चाहिये..और ये मैंने तब देखा जब स्मारक के फाइनल में गोष्ठी और कार्यक्रमों के संयोजक हमें बनाया गया था। स्मारक के इतिहास में आज तक किसी ने इतने अच्छे से गोष्ठी और कार्यक्रमों के रजिस्टर मैंटेन नहीं किये होंगे। खैर बहुत कुछ है कहने को, अभी विस्तार भय से रुक रहा हूँ...विशेष आगे-
और अंत में मैं। मेरे बारे में मेरे दोस्तों से ही पूछा जाये वो ही सही विवरण दे सकते हैं, और अर्पित इस काम को बखूबी कर सकते हैं मुझे यकीन हैं...मैं बस दो पंक्ति के माध्यम से खुद के लिये अपनी बात कहूंगा- 
चर्चा की भीषण गर्दी में भी अचर्चित हूँ
सीमाओं के हर दायरे में भी असीमित हूँ
खुद का परिचय दूँ भी तो दूँ आखिर कैसे
जबकि खुद से ही अबतक मैं अपरिचित हूँ....
खैर, कारवाँ बन चुका है....निकल रहे हैं अब बिना रुके-बिना झुके, अनवरत अपने इस सफर में...रास्ते के आने वाले पड़ावों, सावधान! पड़ाव ही बने रहना...बाधा बनने की कोशिश मत करना....ओ सफर के सारथी! हार्न प्लीज़.......................
जारी........

Thursday, August 1, 2013

Pinkish Day In Pinkcity : Part - IV

इस श्रंख्ला का भाग एक भाग दो और भाग तीन पढ़कर ही इसमें प्रवेश करें-
(ये हमसब का व्यक्तिगत विवरण है..यूं तो इसकी टारगेट ऑडियंस सिर्फ हमारी क्लॉस के ही चुनिंदा शख्स हैं क्योंकि उन्हें ही मैं विशदता से जानता हूं और उनसे जुड़ी यादों को ही शेयर कर सकता हूँ फिर भी, कुछ और लोग भी इस संस्मरण से खुद को जुड़ा पा सकते हैं ये आपके area of interest पे निर्भर करता है।)
चलिये आगे बढ़ते हैं...अमां ज़रा नमक तो लाईये टेस्ट बढ़ाने को। अक्सर ये हम सब बोलते हैं पर क्या कभी आपने सोचा है कि नमक की फितरत क्या होती है...नमक। ये कमबख्त ऐसी चीज़ है जो गर हो तो किसी को इसके होने का अहसास नहीं होता..पर इसकी कद्र तब आती है जब ये हमारे ज़ायके में न हो और तुरंत जुवां बोल उठती है अमाँ, ज़रा नमक तो लाईये। दुनिया की सबसे सस्ती चीज़ें ही, सबसे अमूल्य होती हैं...भाव तो हमेशा तुच्छ चीज़ों के बढ़ते है...नमक, पानी, हवा, रोशनी का भला क्या मूल्य है बताएगा कोई..पर हम इनको इग्नोर कर यूँही आगे बढ़ने की बात सोचते हैं। अब बात करने जा रहा हूं हमारे क्लास के ऐसे ही कुछ नमक टाइप शख्सियतों की...बिना इनके न हमारी क्लास का ज़ायका पूरा हो सकता था और न ही हमारे बीते हुए कारवां की महफिल पूरी हो सकती है...तो आईये ज़रा डॉक्टर साहब-
ए.के.। भला ये कैसा नाम है..अजी ये ऐसा ही नाम है बहुतों को तो इससे आगे इन जनाब के बारे में कुछ पता ही नहीं..मुझे भी ये नहीं पता, कि किसने इनको वनडे क्रिकेट से ट्वेंटी-ट्वेंटी में तब्दील किया था। खैर, मैं बता देता हूँ या जिन्हें पता है उन्हें याद करा देता हूँ। ये हैं मिस्टर अनंतराज कंबली, फ्रॉम मण्डया..और इससे आगे एक शानदार पर्सनेलिटी, कूल, बिंदास और डॉक्टर भी..जी हाँ, हम शास्त्रियों का डॉक्टरी से दूर-दूर तक कोई लेना नहीं है..पर ये जनाब चिकित्सकीय सेवाएं हमें प्रदान करते थे..और ये चिकित्सकीय हुनर इन्हें अपने पिताजी से मुफ्त में मिला था..हमें नहीं पता कि कितनों का इन्होंने ठीक ट्रीटमेंट किया पर इतना ज़रूर है कि पीड़ित इनसे दवाएं लेके प्रथम संतु्ष्टि तो प्राप्त कर ही लेता था भले इनकी दवा लेने के बाद उस बीमार को सवाईमानसिंह अस्पताल ले जाना पड़े। और एक बात और इन्होंने पाँच साल तक कंसिस्टेंटली हमें 10 मार्च को भोजनालय में कुछ न कुछ अहम् पकवान खिलवाये..जी हां महाशय इस दिन अपना जन्मदिल सेलीब्रेट करते हैं...एके भाई, काश तुम्हारा बर्थडे साल में 25 बार आता.....खैर, आगे बात करेंगे।
 रमेश। भो..बालक, ये आपकी किस तरह की शिष्टाचार की प्रवृत्ति है...ये एक बानगी है इनके संवाद अदा करने की। इनमें पाणिनी की आत्मा घुस गई थी या इन्हें किसी संस्कृत के कीड़े ने काट खाया था जो पाँच वर्षों तक इन्होंने संस्कृत बोलने के अनर्गल प्रयास किये..मुझे नहीं पता कि ये कभी इस प्रयास में सफल भी हुए या नहीं...पर इनके इस प्रयास ने इनकी भाषा को हिन्दी-संस्कृत-कन्नड़ और थोड़ी बहुत अंग्रेजी के अजीब कॉकटेल में कन्वर्ट कर दिया था...जिससे इनकी वार्तालाप में फिजूल की कृत्रिमता आ गई थी। कई बार इनके भो...बोलते ही कुछ नये लोग इनसे लड़ने भी आ जाते थे उन्हें लगता था ये गाली देने वाले हैं पर असल में ये इनका संबोधन हुआ करता था। इसके परे इनका दोस्ताना मिज़ाज, परिश्रम क्षमता काबिले गौर थी..और एक संस्मरण याद आ रहा है जब हमें सेकेंड ईयर के दौरान मंगल धाम में स्पेशल फ्लेट प्रदान किया गया था तो ये हमारे रूम पार्टनर थे...और हमारे द्वारा उस कमरे में लाई गई छोटी सी टीवी के पकड़े जाने पर, जब हमपे अनुशासनात्मक कार्यवाही के परिणाम स्वरूप..हमें कमरे से बाहर किया गया था तो इन्हें अनायास ही बाहर जाना पड़ा था...जबकि बंदे ने कभी हमारी उस बंद टीवी के भी कभी दर्शन नहीं किये थे...मतलब खाया-पीया कुछ नहीं और गिलास तोड़ा वाराना।
जिनप्पा। कर्नाटक प्रदेश के उपरोक्त दो शख्सों के बाद तीसरे यही थे। जब मैं स्मारक में पहुंचा तो ये मुझे शिविर के दौरान भोजनालय के बाहर गेट पे भोजनपास चेक करते और लोगों को सौंफ बांटते दिखाई देते थे। हिन्दी से इनका कतई वास्ता नहीं था...इनके मामाश्री द्वारा इन्हें हिन्दी-संस्कृत सिखाई जाती थी और सुनने को मिलता था कि वो इनकी अच्छे से रिमांड भी लिया करते हैं..इनकी इस मामा प्रदत्त प्रताड़ना के चलते इन्हें भी लोग मामा कहने लगे थे। इन दिनों ये मुंबई में हैं और बंदा किसी फिल्मी हीरो टाइप नज़र आता है..शांत स्वभाव, अपने काम से काम, हंसमुख और जिंदादिल ये इनकी ख़ासियत थी और अब इन ख़ासियतों में और भी इज़ाफा हो चुका है...आप कभी मुंबई चले जाईए..आपकी इस तरह से खिदमत करेंगे कि आप इन्हें भुला न पायेंगे।  अच्छे क्रिकेटर भी थे पर कभी मुख्य टीम में नहीं आ पाये...खुद को उजागर कर मजबूती से प्रस्तुत न कर पाने का खामियाजा भुगतना पड़ा। इसलिये किशोर की टीम में ओपनर बल्लेबाज़ हुआ करते थे। आगे बात करेंगे।
अतुल। मुझे यकीन है कई लोगों को इनका नाम सुनके ही मज़ा आ गया होगा। ललितपुर के निवासी और ऋषभजी ललितपुर की परंपरा के ही वाहक थे। चाल-ढाल, बोलचाल और हरएक अदा उसी अंदाज में। कक्षा के बलिष्ठ वर्ग द्वारा ख़ासे प्रताड़ित किये गये...अरे आशीष! मेरी बात सुन रहे हो तो कुछ याद आ रहा है। आज भी ये जनाब तुमको सपने में गाली देते होंगे। ज्यादतियों की भी हद होती है और हर हद की भी एक पराकाष्ठा..पर इस बलिष्ठ वर्ग की प्रताड़नाओं ने ज्यादतियों की हद की पराकाष्ठा पार कर दी थी...अब इससे ज्यादा अतिरेक पूर्ण शब्द मुझे नहीं मिल रहे। वैसे इन दिनों एक्सिस बैंक में अच्छे पद पे हैं..कोई सोच सकता था अतुल को देख, कि ये यहाँ पहूंच सकता है? नहीं न! जी हां आज फुल प्रोफेशनल है ये बंदा। अच्छा कमा रहा है और टशन में भी है..पर अतुल भाई एक बात का दुख है तुम्हारे लिये और मुफ्त की सलाह भी है। धर्म से दूर मत रहो...सब कुछ पाके अपने चरित्र और धार्मिक संस्कारों से समझौता बहुत महंगा सौदा है। करते हैं आगे बात....

एलम। कनिष्ठ में हिन्दी साहित्य के पेपर के लिए मुंशी प्रेमचंद का निर्मला उपन्यास पढ़ा था..इस उपन्यास क कोई पात्र याद नहीं है सिवाए मतई के। पता हैं क्यों? क्योंकि डंडे से निर्मला के पिता को मारने वाला मतई नाम का शख्स हमारी कक्षा के एलम जी के साथ-साथ चला आया। मुझे भी नहीं याद आता कि किसने एलम का ये नामकरण किया था और नामकरण का कारण क्या था..पर मतई और उसका डंडा एलम का आत्मभूत लक्षण हो गया था। बहुत रोचक शख्स थे ये...और बेहद बुद्धिमान भी। हर कक्षा के परीक्षा परिणामों में ये श्रेष्ठ पांच के भीतर ही रहा करते थे। फ़िल्मों का ख़ासा शगल था, और संगत विशेष के कारण नये-नये कपड़ों के भी शौकीन थे...इसलिये घुमक्कड़ी ने भी इनके व्यक्तित्व का अवलंबन ले लिया था। पर कुछ इनके सेंसेटिव हिस्से भी थे, और उनसे खिलवाड़ करने पर जनाब अपना टैम्पर खो दिया करते थे। विशेष आगे....
प्रवीण। हेरले के निवासी और इनके इस ग्राम विशेष के कारण विवेक पिड़ावा इनके काफी मज़े लिया करते थे...अपनी लंबी और छरहरी काया के चलते, रेगिस्तान के जहाज कहलाने लगे थे..जी हाँ ऊंट शब्द से संबोधित। पता नहीं ये नाम किसने दिया था..पर कक्षा के और कक्षा के बाहर के भी अधिकतर नामकरण निपुणजी द्वारा ही किये गये थे..निपुण महाशय को किसी भी शख्स का उसके मां-बाप द्वारा दिया गया नाम पसंद नहीं था..इसलिये सभी को उन्होंने अपने ही अलग पैट नेम दिये थे। खैर, प्रवीण मेरे सेकेंड ईयर में रूम पार्टनर थे और छोटी-छोटी बातों का भी खुलके मज़ा लिया करते थे..और फुल-फोर्स के साथ लाफते थे, मतलब हंसते थे। पढ़ने-लिखने में इनकी हालात तारे जमीं पर वाले दर्शील सफारी टाइप थी और अक्सर लिखे हुए शब्द इनकी निगाहों के सामने नांचते थे..इसलिये समझने में तकलीफ होती थी। लेकिन इन्सटीड ऑफ स्टडी, हम बात करें तो मन के बहुत अच्छे इंसान थे..और किसी का भी बुरा नहीं चाहते थे..और इंसान के अंदर ये चीज़ का होना, किसी भी हुनर से ज्यादा ज़रूरी है।
मयंक। शांत, गंभीर, कोमल..और बुद्धिमत्ता को तवज्जों देने वाला शख्स। आमतौर पे हंसते कम हैं पर जब हंसते हैं तो लगता है शोले के गब्बर सिंह ने इनसे ट्रेनिंग ली थी। शुरुआत में कक्षा से कटे-कटे से रहे..और अपने वागड़ी भाषियों तक ही सीमित थे। कालांतर में संबुद्धि जागी और कक्षा के हिस्से बने..साथ ही कक्षा के रफ एंड टफ ग्रुप में सदस्यता हासिल की। हाल ही में विवाह संपन्न हुआ है...और अध्यापन भी कर रहे हैं। सेकेंड ईयर में मुझे हासिल हुए विशेष फ्लेट में ये भी मेरे साथ पार्टनर थे। अपने वागड़ी प्रेम के चलते इनसे मिलने-जुलने वालों का तांता लगा रहता था और इस चीज़ से अभय को ख़ासी परेशानी थी और दोनों में बेहद गहमागहमी भी देखी है..पर बाद में दोनों ने ही मित्रता की घनिष्ठता को हासिल किया। मेहनती थे..और अध्ययन के प्रति जुझारू भी। काफी गुणवान भी थे पर मुझे आज तक विस्मय है कि अपने गुणों की उचित प्रस्तुति इन्होंने क्यों नहीं की।
फिलहाल रुक रहे हैं भाईयों...और बचे हुए शख्स रोहन, जीतू, निखिल, अंकित, अभय अब भी दूर से ही यात्रा के सिर्फ साक्षी बने हुए हैं...बस भी करो यार। इतराने की भी हद होती है...आओ तो फटाफट, सफ़र में.......
ज़ारी.....