(इसे पढने से पहले स्मारक रोमांस पार्ट-१ और २ पड़े।)
भाई दुनियादारी को समझने का बस एक ही सहारा हुआ करता था स्मारक में- वो था अखवार। रूम में रहने वाले चारों सदस्य बराबरी से पैसे मिलाकर इसे बुलवाते थे, लगभग १५ रुपये महीने हर लड़के का खर्च पड़ता होगा। लेकिन अखवार मंगवाने वाले लोग अपने को, मानो ५० गाँव का सरपंच समझते थे। कोई बाहर का आदमी यदि अखवार पढने आ जाये तो ऐसे घूरा करते थे मानो भंगी रूम में घुस आया हो। एक अखवार को १०-१० आदमी पड़ा करते थे, बेचारा अखवार भी अपने पर होने वाले इस जुर्म की शिकायत consumer forum में कराने की सोचता होगा। अखवार पढने का शबाब कुछ ऐसा होता कि कौनसी कक्षा में जाना है ये भी न याद रहता था।
जिंदगी का अपना ही एक अलग मज़ा था। रात १० बजे के बाद होने वाली बातों का तो क्या कहना, ८-१० लोगो का समूह मिलकर वो शमा बांधते कि लगता कभी सूरज ही न निकले, कभी रात ही न ढले। हर मुद्दे पे चर्चा होती और कोई शेखी बघारने में पीछे न रहता था। कभी भूत-पिशाच की, कभी खेलों की, तो कभी कुछ ऐसी जिनका ज़िक्र में यहाँ नहीं कर सकता और कुछ देर बाद आत्मा-परमात्मा के तात्विक मुद्दों पर भी नज़र डाल ली जाती। इसी बीच कोई रईस दोस्त केले के चिप्स खिलाने का प्रस्ताव रख देता-तो शमा और ही हसीन हो जाता था। केले की चिप्स प्रायः हररोज़ का रात्रि भोज हुआ करती थी। जिसे कई बार मित्र गण छुप-छुपकर भी खाया करते थे।
हर क्लास में एक लड़का ऐसा जरूर होता था जिसे देख लगता था की यदि ज्यादा धार्मिक होने से ये हालत होती है तो भैया अपन बिना धर्म के ही बढ़िया। घंटों मंदिर में बैठे रहना, अपने इष्ट-मित्रों को नसीहतें देते रहना, मटमैले से कुरते पहने रहना। आँख बंद कर अकेले ही कुछ न कुछ बड़-बढ़ाते रहना। उस अद्वितीय बन्दे को प्रायः ब्रह्मचारी कहकर संबोधित किया जाता था। और स्मारक का ये इतिहास रहा है कि सबसे ज्यादा आधुनिकता का रंग आगे चलकर उस ब्रह्मचारी पे ही चढ़ा है। खैर जो भी हो लोगो को तो मज़े करने के लिए एक नमूना मिल ही जाता था।
कॉलेज जाने का हमारा सफ़र भी बढ़ा रंगीन हुआ करता था। लगभग १२ किलोमीटर दूर तक के सफ़र को पूरा करने में गाड़ी ३०-४० मिनट का समय लेती थी। और इन ३०-४० मिनटों में हर कोई अपने-अपने ढंग से दिल कि भड़ास निकल लेता था- कोई नाच के, कोई गा के तो कभी-कभी थोडा लड़-झगड़ के भी। रास्तों में चलने वाले लोगों को परेशान करना भी मज़ेदार होता था। ड्राइवर जब गाड़ी को अपने अंदाज में मोढ़ता तो बरबस ही मुंह से द्विअर्थी संवाद निकल जाता "क्या 'मोढी' है यार"।
कॉलेज में भी बमुश्किल १-२ पीरियड अटेंड किये जाते होंगे। उन चार-पांच घंटों के मनोरंजन का पहले से ही पूरा इंतजाम करके रखा जाता था। कोई बैट रखकर कॉलेज आता, जिससे क्रिकेट खेला जा सके तो कोई अपने बस्ते में सोने के लिए किताबों कि जगह दरी ही धरके ले आता और कॉलेज के सामने स्थित निर्माणाधीन मंदिर में डेरा डालकर बंजारों कि भांति सो जाया करता। मनोरंजन के लिए एक और साधन भी था कॉलेज के पास, जी हाँ एक होम विडियो, जहाँ २ रुपये या ५ रुपये कि दर से सिनेमा देखा जाता था। टिकट रेट लोगों कि तादाद के अनुसार कम या ज्यादा हुआ करते थे। दरअसल पास में ही एक चाय कि कैंटीन वाला था जो दुकान के अन्दर दर्शकों कि मांग पर अलग-अलग फिल्मों का टीवी पर प्रदर्शन किया करता था। फिल्म देखने को लेकर भी काफी तनातनी चला करती थी-किसी को बोलीवुड की फिल्म देखना होती तो किसी को होलीवुड की। यहाँ भी सीनियर्स कि दादागिरी बरक़रार रहती थी। खैर पहले तो सब अजीब लगता पर धीरे-धीरे सब जिंदगी का हिस्सा बनता चला गया। घटनाये अभी और भी है, स्मारक रोमांस जारी है..........
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हमारा स्मारक : एक परिचय
श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं।
विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें।
हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015
4 comments:
maja a gaya
intresting story
SMARAK KI YAD DILANE K LIYE DHAYABAD.............
aisa lagta hai padte hi rahe.....
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