हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Thursday, April 15, 2010

मेरे सपनों का स्मारक-पार्ट 1


(इस लेख का उद्देश्य किसी कार्यविधि की समीक्षा करना नही है नाही ये किसी विचारधारा को प्रभावित करना चाहता है। ये पूरी तरह से व्यक्तिगत सोच है।)

लालू प्रसाद यादव पर एक चुटकुला कुछ इस तरह है-
"जार्ज बुश रावड़ी देवी से- आप लालू को हमारे साथ अमेरिका भेज दीजिये इन्हें हम अंग्रेजी सिखा देंगे।
(कुछ महीनो बाद)
रावड़ी देवी फ़ोन पर-कौन लालू बोल रहे हैं क्या?
प्रतिउत्तर-नही! लालू बहार गए हैं हम बुशवा बोल रहे हैं।"


आप
सोच रहे होंगे मैं अनावश्यक ये चुटकुला क्यों सुना रहा हूँ जबकि इसका इसके टाइटल से भी कोई सम्बन्ध नही है। मैं एक चीज की ओर इसके माध्यम से आपका ध्यान खींचना चाह रहा हूँ कि किसी स्थान या किसी परिवेश में जाकर कोई परिवर्तन नही आते जबकि उस परिवर्तन के लिए खुद मैं जिजीविषा नही हो।

स्मारक के सम्बन्ध में यदि बात की जाये तो कई बार विद्यार्थियों में हमें वैसे परिवर्तन देखने को नही मिलते जैसे की हम अपेक्षा करते हैं। उसका कारण है कि उन्हें सिर्फ सिखाया ही सिखाया जाता है पर ये नही बताया जाता कि सीखते कैसे हैं?


कहने को हम जयपुर में आ गए हैं अपने गाँव को छोड़कर अब हम शहरी हो गए हैं। लेकिन सिर्फ जगह बदलने से ही बदलाव स्वीकार नही किया जायेगा ....जगह बदलने से नजरिया तो नही बदल जाता न...हास्टल के गली-कुचों में ये आवाजें गूंजती रहती है-" काय रे वो मौडा किते गओ या कोई कहता मिल जाएगा खाना खावे नही जाने का" यदि क्षेत्र बदलने से ही परिवर्तन आना होते तो वाक्कौशल भी बदलना चाहिए लेकिन ऐसा नही है। मैं यहाँ किसी भाषा या बोली पर प्रश्नचिन्ह नही उठा रहा हूँ। सिर्फ ये बताना चाहता हूँ कि कोई स्थान या संस्था किसी को अच्छा या बुरा नही बना सकती ये सारी चीजें हमारी अपनी अन्दर कि जिजीविषा पर आधारित हैं-कि हम क्या होना चाहते हैं। IIT में एडमिशन लेने भर से आप इंजीनियर नही बन जायेंगे या मेडिकल कॉलेज आपको डोक्टर नही बना देगा आपको अपनी खुद कि इच्छाशक्ति के आधार से ये कार्य संपन्न करना है। ठीक इसी तरह स्मारक में पड़ने भर से हम संस्कारी नही हो जायेंगे नाही स्मारक हमें किसी खास चोटी पर पंहुचा देगा। ये तो हमें खुद निर्णय करना है कि हम क्या होना चाहते हैं।


सफलता किसी खास क्षेत्र को चुनने से नही मिलती सफलता मिलती है चुने हुए क्षेत्र में ही सर्वश्रेष्ठ हो जाने से। सीखने के लिए सबसे ज्यादा जरुरी है ईमानदार दृष्टिकोण और सही-गलत को समझ सकने वाली सोच का होना। आत्मविश्वास न होने से ज्यादा खतरनाक है झूठे आत्मविश्वास का होना। क्योंकि झूठे आत्मविश्वास कि एकमात्र परिणति असफलता है। अपने परिवेश का बखूबी ज्ञान होना बहुत ज़रूरी है। ये सारी चीजें सोच सकने वाली दृष्टि यदि हम विकसित कर पाए तब वास्तव में ये कहा जायेगा कि अब हम शास्त्री हुए। यदि ऐसा नही है तो शायद हमारे लिए यही कहा जायेगा कि पहले हम देहाती-देहाती थे अब हम माडर्न-देहाती हो गए।

महज
कपडे कैसे पहनना चाहिए या चेहरे और बालों को कैसे चमकाया जाता है यही सीखना तो समझदार हो जाना नही है, जबकि अन्तरंग में ही समझ विकसित न हुई हो। जिम में जाकर चर्बी घटाने से ही काम नही चलने वाला जब तक विचारों पर, मष्तिष्क पर चड़ी चर्बी नही हटेगी। दूसरों के सामने खुद की शेखी बघारने से, दूसरों की नज़रों में ऊपर चढ़ने से आप महान नहीं होंगे , जब तक आप खुद की नजरों में ऊँचा नही उठेंगे तब तक आप महान नही हो सकते। व्यापक दृष्टिकोण और गहराई से विचारने वाली सोच कों विकसित करना सबसे बड़ा कार्य है।

इन सारी बातो को अपने जीवन में लाकर ही सफल हुआ जा सकता है। इस भांति हर शास्त्री का हो सकना शायद सबसे बड़ी कामयाबी होगी। इस तरह से यदि हम तैयार हो सके तो जीवन में कभी हमें कोई कुंठा नही घेरेगी, हम इस बात को लेकर कभी तनावग्रस्त न होंगे कि हमने क्यों मैथ्स या कामर्स लेकर पढाई नही की, हम अक्सर अप्राप्त चीजों को पाने की फिक्र में प्राप्त चीजों का मज़ा नही ले पाते। हमें ये पता ही नही होता की स्मारक से हमें क्या मिला है, हमारी नसों में तैरने वाला आत्मबल आखिर कहाँ से आया है या क्या कारण है कि चरम तनाव के समय में भी अत्यधिक दुर्विचार हमारे ज़हन में नही आते। इन सारे प्रश्नों के जबाव यदि खोजे जाये तो निगाहों के सामने स्मारक तैरता नज़र आएगा।

हमारा जीवन हमेशा जीवन को बेहतर, और बेहतर बनाने के लिए है। जिसका मतलब हम जहाँ भी खड़े हैं हमें अब उससे आगे ही बढ़ना है, और काबिल होना है। ठहराव ही मृत्यु है। रुकने का तो कोई विकल्प ही नही है, निष्क्रियता का समृद्ध जीवन में कोई स्थान ही नही है। तो क्या किया जाना चाहिए खुद को बेहतर करने के लिए ? इसका उत्तर आप खुद से पूछे मै यदि इसका उत्तर दूंगा तो ये मेरा अपना नजरिया होगा, जिसे मैं थोपना नही चाहूँगा। लेकिन यदि मैं ये प्रश्न खुद से करूँ तो शायद इसका उत्तर होगा स्वाध्याय, अपने परिवेश की बेहतर समझ, उस परिवेश में बेहतर ढंग से जी सकने वाली योग्यताओं का विकास, और सच-संस्कार एवं धर्म पर दृढ विश्वास को कायम कर सकने वाली आस्था को पैदा करना।

दोपहर में चार-चार घंटे सोकर या रातों को असीमित गप्प करके शायद ये काम नही हो सकता। जब हम समय बरबाद कर रहे होते हैं तब हम थम जाते हैं पर समय तब भी चल रहा होता है। महान समय के साथ चलकर हुआ जा सकता है। महानता का आशय ये कतई नही है की हमारा खूब नाम हो जायेगा या हमारी जय-जयकार होने लगेगी। शोहरत कभी भी महानता का पैमाना नही होती। अनुशासन और सदाचरण वास्तविक महानता है जो कतई तालियों की अपेक्षा नही रखते।
बहरहाल मेरे सपनो में तैरता स्मारक और मेरे शास्त्री भाइयों की तस्वीर बहुत व्यापक है जिसे क्रम से आगे बढ़ाएंगे अभी के लिए इतना काफी....जीवन उद्देश्य पूर्ण बनायें क्योंकि "महान मस्तिष्कों में उद्देश्य होते हैं अन्य लोगों के पास सिर्फ इच्छाएं होती हैं"।
क्रमशः.........................................

6 comments:

Chetan jain said...

जिन्दगी जीने का सबका अपना अपना नजरिया होता है ,लेकिन कभी कभी जिन्दगी भी जीने का नजरिया बता देती है उसे हमें ही समझना होता है .........बहुत खूब लिखा है ......आज सीखने से जायदा समझने की जरुरत है ....

Sarvagya Bharill said...

main ise samrak ke pin board par lagaunga!

ANKUR JAIN said...

ok dear.......

dr. manish jain said...

sahi kaha ankur. mai swayam ye mahsoos karata hoon ki main mahavidyalay se 5 sal main jitna seekh sakta tha uaska 20% hi sikh saka.iska malal taumra rahega............likhate raho.........

Life Style said...

bahut acha lekh he bahi sahab aur vastavikta ko darshane vala he sabko in bato par vichar karna chahiye

gajendra jain ANMOL said...

bhai sahab bahut accha likha hai sach kahu smarak jivan nirman ka koshal deta hai chuk hamse hi hoti hai jo ham ise samaj nah pate hai kabhi2 sochta hu ki jab itni mastiyo ke baad bi aj ham itne successful hai to yadi puri nistha se apne apko samarpit kiya hota to kaha hote. hamare shastri bhai smarak me to serious hote nahi hai par wo smarak se nikalne ke baad
bhi decide nahi kar pate ki aakhir wo chahte kya hai bas isi kashmkash me jivan ka anmol samay bita dete hai main is blog ke madhayam se yahi kahna chaunga ki jivan banane se banta hai baithne se ya sochne se nahi
apka hi GAJENDRA JAIN "ANMOL"