(इसे पढने से पहले स्मारक रोमांस के पिछले लेख पढ़े।)
जिंदगी का मायना स्मारक था और स्मारक के मायने खुशियाँ हुआ करती थी। ऐसा नहीं है कि वहां से आ जाने पर नयी जिंदगी में दोबारा घुल-मिल नहीं पाते हों, पर बीते हुए लम्हों कि कसक हमेशा साथ रहती है। अतीत की जुगाली यदा-कदा मुस्कराहट देती रहती है। और यदि अतीत इतना हसीं हों फिर कहना ही क्या?
सुवह पांच बजे से रूम के दरवाजों पर बम बरसने लगते थे। हर दिन की शुरुआत लगभग बुरे परिणामों से ही होती थी। प्रातः कालीन निद्रा का आनंद शायद स्वर्ग सुखों से भी बढकर होता है। ऐसा मज़ा न गाने में हैं न बजाने में है नाही इच्छित वस्तु के पाने में हैं जो मजा सुबह उठकर फिर सो जाने में हैं। और इस अद्वितीय आनंद का छिन जाना भला किसे गंवारा होगा। साढ़े पांच बजे मंदिर में प्रार्थना में पहुचना भी जरुरी हुआ करता था। प्रार्थना करने से पुण्य बंध होता हों ऐसा नहीं लगता क्योंकि प्रार्थना करते वक़्त प्रवृत्ति तो शुभ होती थी पर उपयोग अशुभ होता था और पुण्य-पाप का बंध उपयोगानुसार होता है। लोग कुछ घंटों की और अधिक नींद लेने के लिए तरह-तरह के जतन किया करते थे। कोई बिस्तर के नीचे एक और बिस्तर का निर्माण करकर वही सो जाया करता था, कोई महानुभाव सीढ़ियों से छत पे पहुँच वही किसी कोने में डेरा डालकर सो जाया करते। और किसी दिन पकडाए जाते तो भान्त-भान्त के शब्द वाणों द्वारा स्तुतिगान होता था। लेकिन फिर भी सुबह की नींद के जतन जारी रहते।
कई सज्जन प्रार्थना के बाद एक और नींद लेने का शगल रखा करते थे। और स्नानादि क्रियाओं से निपटने उस समय जाया करते जब मंदिर में पूजन शुरू हों चुकी होती थी। इस बाबत उनसे कहने पर बहाना तैयार होता था की 'नहाने कों जगह ही नहीं थी'। पूजन के पांच अंगों में से अंतिम विसर्जन नामक अंग में ही इनकी गहन आस्था होती थी। और अंतिम दस मिनट के लिए ही भगवान कों अपना दर्शन देकर आते थे। और उन दस मिनटों का उपयोग भी भक्ति में नहीं अनुमान लगाने में जाया होता था। एक कहता "भोजनालय से पोहे की खुशबु आरही है" तो दूसरा कहता "नहीं उपमा बना है", इसी बीच मंत्रोच्चार करता तीसरा व्यक्ति मूड ख़राब कर देता "चुप रहो, चने बने हैं मैं खुद देखके आया हूँ"। ये सारी चीजें तब बड़ी कष्टकर जान पड़ती थी, क्योंकि तब नहीं पता था जिंदगी के आगामी परिवर्तन ज्यादा बोझिल और कष्टकर होते हैं।
एक्साम के दिनों में लोगों कों टेंसन होती है, हम लोगों कों राहत मिलती थी। एक तो सारे कार्यक्रम से छुट्टी, और दूसरा ग्रुप में स्टडी....ओह माफ़ कीजिये ग्रुप में गप्पबजी। क्योंकि ये सच्ची बात है कि पढाई के कठिन होने का जितना रोना वहां बच्चे रोते हैं, उतनी कठिन पढाई नहीं होती। क्योंकि न हमें फिजिक्स,कैमिस्ट्री पड़ना है... नाही अकाउन्ट्स, मैथ। बस एक रात में लंका फतह की जा सकती है। और वैसे भी चीजें उतनी ही मुश्किल होती है जितना मुश्किल हम उन्हें मानते हैं। खैर, ग्रुप स्टडी का मजा तो मिल ही जाता है। और सारा प्रवचन हाल इस दौरान बड़ा रंगीन हुआ करता था। कई लोग तो घंटो की नींद निकाला करते थे पढाई के नाम पे।
साप्ताहिक गोष्ठियों का भी अपना फितूर हुआ करता था। कई लोगों के लिए ये महज ५ मिनट बोलने की औपचारिकता होती थी तो कई लोगों के लिए ये ओलम्पिक में गोल्ड मेडल जीतने की तरह होता था। और यदि धोके से वे विजेता बन जाते थे तो अपने घरवालों कों पूरे चाव के साथ अपनी यशोगाथा सुनाया करते थे। कई लोग तो बिना कुछ किये भी अपनी बतिया बघार दिया करते थे और अपने घर बोलते "मम्मी हमरो गोष्ठी में पहलों नम्बर लगो है" या कहते कि "अगले हफ्ता हमें छहढाला पे प्रवचन करने है" घर वाले भी अपने नौनिहालों के इन उपलब्धियों कों सुन बड़ा खुश हुआ करते। मानो लड़का ने अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा में पदक जीता हो।
हर साल अपने सीनियरों कों विदा होते देखते कभी नहीं जान पड़ता था कि हमें भी ये जहाँ छोडके जाना होगा। तब तो पांच साल का समय एक बड़ा भारी अरसा लगता था। बाद में पता चला कि इतिहास के सामने कई जीवन एक कोने में समा जाते है और एक जीवन में कई पांच वर्ष समा जाते हैं। सीनियरों कि विदाई देख लगता था कि हम अपनी विदाई पे ऐसा बोलेंगे वैसा बोलेंगे लेकिन जब अपनी बारी आती तो सारे शब्द मानो ब्रह्माण्ड में विलुप्त हो जाते, कुछ सूझ ही न पड़ता कि क्या बोले?
एक संसार से निकलकर दूजे संसार में प्रवेश होता तो पता चलता कि खुद कों ज्ञानी समझ रहे हम इस दीन-दुनिया से कितने अनजान है। ज्ञान कों ही सर्व-समाधान कारक की बात सुनने वालों के समक्ष दुनिया की असलीयत नज़र आई कि यहाँ तो धन ही सर्व समाधान कारक की जाप दी जाती है। हर तरह का इन्सान किसी न किसी तरह से उसके ही पीछे भाग रहा है। अब इस जहाँ में अपने कदम टिकाना है।
जिंदगी का मायना स्मारक था और स्मारक के मायने खुशियाँ हुआ करती थी। ऐसा नहीं है कि वहां से आ जाने पर नयी जिंदगी में दोबारा घुल-मिल नहीं पाते हों, पर बीते हुए लम्हों कि कसक हमेशा साथ रहती है। अतीत की जुगाली यदा-कदा मुस्कराहट देती रहती है। और यदि अतीत इतना हसीं हों फिर कहना ही क्या?
सुवह पांच बजे से रूम के दरवाजों पर बम बरसने लगते थे। हर दिन की शुरुआत लगभग बुरे परिणामों से ही होती थी। प्रातः कालीन निद्रा का आनंद शायद स्वर्ग सुखों से भी बढकर होता है। ऐसा मज़ा न गाने में हैं न बजाने में है नाही इच्छित वस्तु के पाने में हैं जो मजा सुबह उठकर फिर सो जाने में हैं। और इस अद्वितीय आनंद का छिन जाना भला किसे गंवारा होगा। साढ़े पांच बजे मंदिर में प्रार्थना में पहुचना भी जरुरी हुआ करता था। प्रार्थना करने से पुण्य बंध होता हों ऐसा नहीं लगता क्योंकि प्रार्थना करते वक़्त प्रवृत्ति तो शुभ होती थी पर उपयोग अशुभ होता था और पुण्य-पाप का बंध उपयोगानुसार होता है। लोग कुछ घंटों की और अधिक नींद लेने के लिए तरह-तरह के जतन किया करते थे। कोई बिस्तर के नीचे एक और बिस्तर का निर्माण करकर वही सो जाया करता था, कोई महानुभाव सीढ़ियों से छत पे पहुँच वही किसी कोने में डेरा डालकर सो जाया करते। और किसी दिन पकडाए जाते तो भान्त-भान्त के शब्द वाणों द्वारा स्तुतिगान होता था। लेकिन फिर भी सुबह की नींद के जतन जारी रहते।
कई सज्जन प्रार्थना के बाद एक और नींद लेने का शगल रखा करते थे। और स्नानादि क्रियाओं से निपटने उस समय जाया करते जब मंदिर में पूजन शुरू हों चुकी होती थी। इस बाबत उनसे कहने पर बहाना तैयार होता था की 'नहाने कों जगह ही नहीं थी'। पूजन के पांच अंगों में से अंतिम विसर्जन नामक अंग में ही इनकी गहन आस्था होती थी। और अंतिम दस मिनट के लिए ही भगवान कों अपना दर्शन देकर आते थे। और उन दस मिनटों का उपयोग भी भक्ति में नहीं अनुमान लगाने में जाया होता था। एक कहता "भोजनालय से पोहे की खुशबु आरही है" तो दूसरा कहता "नहीं उपमा बना है", इसी बीच मंत्रोच्चार करता तीसरा व्यक्ति मूड ख़राब कर देता "चुप रहो, चने बने हैं मैं खुद देखके आया हूँ"। ये सारी चीजें तब बड़ी कष्टकर जान पड़ती थी, क्योंकि तब नहीं पता था जिंदगी के आगामी परिवर्तन ज्यादा बोझिल और कष्टकर होते हैं।
एक्साम के दिनों में लोगों कों टेंसन होती है, हम लोगों कों राहत मिलती थी। एक तो सारे कार्यक्रम से छुट्टी, और दूसरा ग्रुप में स्टडी....ओह माफ़ कीजिये ग्रुप में गप्पबजी। क्योंकि ये सच्ची बात है कि पढाई के कठिन होने का जितना रोना वहां बच्चे रोते हैं, उतनी कठिन पढाई नहीं होती। क्योंकि न हमें फिजिक्स,कैमिस्ट्री पड़ना है... नाही अकाउन्ट्स, मैथ। बस एक रात में लंका फतह की जा सकती है। और वैसे भी चीजें उतनी ही मुश्किल होती है जितना मुश्किल हम उन्हें मानते हैं। खैर, ग्रुप स्टडी का मजा तो मिल ही जाता है। और सारा प्रवचन हाल इस दौरान बड़ा रंगीन हुआ करता था। कई लोग तो घंटो की नींद निकाला करते थे पढाई के नाम पे।
साप्ताहिक गोष्ठियों का भी अपना फितूर हुआ करता था। कई लोगों के लिए ये महज ५ मिनट बोलने की औपचारिकता होती थी तो कई लोगों के लिए ये ओलम्पिक में गोल्ड मेडल जीतने की तरह होता था। और यदि धोके से वे विजेता बन जाते थे तो अपने घरवालों कों पूरे चाव के साथ अपनी यशोगाथा सुनाया करते थे। कई लोग तो बिना कुछ किये भी अपनी बतिया बघार दिया करते थे और अपने घर बोलते "मम्मी हमरो गोष्ठी में पहलों नम्बर लगो है" या कहते कि "अगले हफ्ता हमें छहढाला पे प्रवचन करने है" घर वाले भी अपने नौनिहालों के इन उपलब्धियों कों सुन बड़ा खुश हुआ करते। मानो लड़का ने अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा में पदक जीता हो।
हर साल अपने सीनियरों कों विदा होते देखते कभी नहीं जान पड़ता था कि हमें भी ये जहाँ छोडके जाना होगा। तब तो पांच साल का समय एक बड़ा भारी अरसा लगता था। बाद में पता चला कि इतिहास के सामने कई जीवन एक कोने में समा जाते है और एक जीवन में कई पांच वर्ष समा जाते हैं। सीनियरों कि विदाई देख लगता था कि हम अपनी विदाई पे ऐसा बोलेंगे वैसा बोलेंगे लेकिन जब अपनी बारी आती तो सारे शब्द मानो ब्रह्माण्ड में विलुप्त हो जाते, कुछ सूझ ही न पड़ता कि क्या बोले?
एक संसार से निकलकर दूजे संसार में प्रवेश होता तो पता चलता कि खुद कों ज्ञानी समझ रहे हम इस दीन-दुनिया से कितने अनजान है। ज्ञान कों ही सर्व-समाधान कारक की बात सुनने वालों के समक्ष दुनिया की असलीयत नज़र आई कि यहाँ तो धन ही सर्व समाधान कारक की जाप दी जाती है। हर तरह का इन्सान किसी न किसी तरह से उसके ही पीछे भाग रहा है। अब इस जहाँ में अपने कदम टिकाना है।
सच, किताबी बाते प्रायोगिक जिंदगी से कितनी अलग होती है।लेकिन हमें उन पर आस्था रखकर ही आगे बढना होता है। धार्मिक होने से ज्यादा ज़रूरी धर्म पर विश्वास का होना है। एक जीवन जो सपनों सा था अब हकीकत की दहलीज पर दस्तक देता है। यूँ तो हम हमारे दोस्त-यारों से कहते हैं 'मिलते रहेंगे', 'टच में रहेंगे' लेकिन धीरे-२ ये डोर कमजोर होते हुए टूट जाती है। फिर तो गाहे-बगाहे ही एक दूसरे को याद किया जाता है।
नियति को यदि समझा न जाये तो वो बहुत निर्मम होती है। ऐसी दशा में स्थिति को सही ढंग से जानना और उस पर सही प्रतिक्रिया देना बहुत जरुरी होता है। लेकिन अपने विश्वास और संस्कारों को अडिग बनाये बढ़ते जाना होता है। क्योंकि पीछे हमारे साथ कोई नहीं होता। कल जो हमारा अपना था वोही बेगाना हो जाता है। दुनिया में सहानुभूति तो बहुत मिल जाती है पर साथ नहीं मिलता। बहरहाल, दुनिया को जितना समझने की कोशिश करो ये उतनी ही कम समझ में आती है।
लेकिन एक बात है स्मारक से निकलकर हम स्वच्छंद नहीं रह सकते। जैसा हमें बताया जाता है हमारा नाम अब पंडित और शास्त्री के बीच में है। हमारी दक्षिणा इन दोनों पदों की गरिमा बनाये रखकर ही चुकाई जा सकती है........
इति श्री रोमांसः !!!!!!
नियति को यदि समझा न जाये तो वो बहुत निर्मम होती है। ऐसी दशा में स्थिति को सही ढंग से जानना और उस पर सही प्रतिक्रिया देना बहुत जरुरी होता है। लेकिन अपने विश्वास और संस्कारों को अडिग बनाये बढ़ते जाना होता है। क्योंकि पीछे हमारे साथ कोई नहीं होता। कल जो हमारा अपना था वोही बेगाना हो जाता है। दुनिया में सहानुभूति तो बहुत मिल जाती है पर साथ नहीं मिलता। बहरहाल, दुनिया को जितना समझने की कोशिश करो ये उतनी ही कम समझ में आती है।
लेकिन एक बात है स्मारक से निकलकर हम स्वच्छंद नहीं रह सकते। जैसा हमें बताया जाता है हमारा नाम अब पंडित और शास्त्री के बीच में है। हमारी दक्षिणा इन दोनों पदों की गरिमा बनाये रखकर ही चुकाई जा सकती है........
इति श्री रोमांसः !!!!!!
13 comments:
bhavo ki abhivyakti dil ko par kar man tak pahuch jati hai nice very nice ye sabd v kam hai
nice
smarak romance 5 padkar krambadh paryay ki anubhuti hoti hai..marvellous
yar ankur kya bat hai hum to aapke murid ho gye pr ismain kuch yaden jodna zaruri hai 2002 k bach ki or something poems articals etc good n very funny yaar keep it up ..........
bahut acche ......bakai me maja aa gaya...........
ithas ka sach vartman ke sach ko jhutala deta hai.fir yadi vartman me rat ki thand ho to din ki garmi to yad aati i hai.sach ankur ji its great...........touching
smark romance 5 sachmuch hi purani yado ko taja kar rha hai...........nitin khaderi
ankur kya bat hai bahut acche ......bakai me maja aa gaya...........DHARMENDRA SHASTRI
great....ye kam jari rakhen
jio mere lal-peele-neele.
i left smarak in 1998 but events and reactions r still unchanged. I felt the faces of my seniors in your revelations.
Ankur ji you are realy great man, b,coz koi aur smarak jivan ko aise shabdo me nahi likh sakta jaisa aapne likha........................!!
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