हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Tuesday, November 30, 2010

स्मारक रोमांस-सर्द मौसम का गर्म मिजाज़

(इसे पढने से पहले स्मारक रोमांस की पूरी श्रंखला पढ़ें)

दीवाली की छुट्टियों से लौटकर जब स्मारक में प्रवेश होता तो सर्दी के मौसम की दस्तक जयपुर शहर में हो चुकी होती थी..और जयपुर की सर्दी प्राण निकालने वाली होती है। इस रेतीले राजस्थान की गर्मी जितनी भयानक है उतना ही शख्त सर्दी का मिजाज भी है...लगता है मानो सर्दी और गर्मी के मौसम में एक दूसरे को हराने की होड़ लगी हो। खैर....

जब छुट्टियों से वापस आते तो अपने साथ सर्दी से बचने के लिए कम्बल, स्वेटर, रजाई आदि समस्त चीजों का प्रबंध कर आते। इन सब चीजों के साथ अपने सूटकेश में कुछ बहाने भी साथ रखकर लाते जो दीवाली की छुट्टियों से लेट आने के चलते अपने भाई साहब को देने होते। या फिर १००-५०० रुपये का अतिरिक्त प्रबंध करके लाते, जिससे लेट आने का दण्ड शुल्क चुका के मामला रफा-दफा किया जाय...नही तो भैया खाना भी नसीब नही होता था। रसीद न कटाने पर भोजनालय के अन्दर भरी महफ़िल में इस तरह हमारे नामों की घोषणा होती कि मानो हमपे बीसियों आपराधिक मामले चल रहे हों....रसीद का टंटा भी कमाल था भाई, कई वन्धुवर तो रसीद कटाने का रिकार्ड बनाया करते थे..और बड़ी शेखी से अपनी यशोगाथा सुनाया करते थे-"भैया अभी तक अपन ने २००० रुपये स्मारक को दान कर दिए" या फिर कहते-"देखो साहब, अपन को चार बातें सुनना पसंद नही हैं, आप तो ये बताओ रसीद कित्ते कि कटाना है"...अजब कहानी थी भाई।

कड़ाके की सर्दी में सुवह उठना तो ऐसा जान पड़ता था कि 'तिल-तिल करें देह के खंड, हमें उठावें ...... प्रचंड'। और ऐसे में सवेरे-सवेरे कक्षा में जाना 'मानो करेला वो भी नीम चढ़ा'। सो जैसे-तैसे मूंह पे पानी फेरकर अध्निंदयाये से पहुँच जाया करते...कुछ लोग तो दुल्हन बनकर पंहुचा करते थे, नही समझे! मतलब ठण्ड से बचने के लिए अपनी shawl को कुछ इस अंदाज में सर पे रखा करते कि नयी-नवेली दुल्हनिया आई हो। और हाँ, कुछ वल्लम तो ऐसे भी होते जो सवेरे-सवेरे नहाकर कक्षा में जाया करते...ये कुछ तथाकथित पढ़ाकू किस्म के विद्यार्थी होते थे, जिन्हें अपनी इस सवेरे नहाने वाली प्रवृत्ति का खासा अभिमान होता था, मानो सवेरे नहाकर ये महाशय ओलम्पिक के तैराकी का गोल्ड मेडल जीत आये हों।

इन सर्दियों की सुवह में कुछ खुशनुमा होता था तो वह था-चाय का आस्वादन...स्मारक की चाय को यदि चाय का अविष्कारक चख ले तो उसे भी अपने आप पे शर्म आ जाएगी...इस कदर लजीज हुआ करती थी ये चाय। लेकिन हमें शिकायत ये भी थी कि दूध पीने वालों को फुल गिलास दूध दिया जाता पर चाय पीने वालों को बस आधे गिलास...लेकिन उस आधी गिलास में भी गजब कि स्फूर्ति होती थी कि उस चाय के लिए पूरा साल ठण्ड सहने को तैयार रहते थे हम...और दूध पीने वालों पे तरस भी आता था जो चाय के इस अद्भुत आनंद से वंचित रह जाते थे...उनके हालात पे हमें वो भजन याद आता कि 'अचरज है जल में रहके भी मछली को प्यास है'। लेकिन चाय पीने के बाद सबसे बड़ी आफत होती थी गिलास धोने की...दरअसल हमें अपने-अपने गिलास चाय लाने के लिए ले जाने होते थे...चाय को हथियाने जब छात्रों की टोली भोजनालय को कूच किया करती तो हाथ में गिलास और चद्दर ओढ़े इन छात्रो का दृश्य अद्भुत बन पड़ता था। कई छात्रों के गिलास तो अगले ही दिन भोजनालय में धुला करते थे।

सवेरे-सवेरे नहाने के लिए गरम पानी की भी बढ़ी जद्दोजहद हुआ करती थी...पानी लाने के लिए कतारें लगना,
वालटी -मग्घा का न मिलना जैसी घटनाये आम थी...और कुछ खास किस्म के विद्यार्थी दो-दो व़ालटी पानी जब लाते तो दूसरे छात्रों का खून खोल उठता था...कई बार ये लड़ाइयाँ क्षेत्रवाद का रूप अख्तियार कर लेती "कोई कहता ये मराठी ही दो-दो वालटीयों का यूस करते हैं" तो दूसरा कहता "इन बुन्देलियों को तो नहाना ही नही आता तभी तो घिना से घूमते रहते हैं" सब बड़ा कमाल था।

नहा-धोके प्रवचन में भी उसी मुद्रा में पहुँच जाया करते जैसे क्लास में जाया करते...कुछ सज्जन तो यहाँ भी महज ड्राई-क्लीन कर ही पहुँच जाते...मतलब मात्र हाथ-मूंह धोके। बन-ठन के प्रवचन सुना करते.. इसी बीच एक छात्र अपने बगल वाले से कहता 'ए द्रविड़ आउट हो गया'.. बगल वाला भी हैरत में कि ये प्रवचन के बीच द्रविड़ कहाँ से आ गया...बाद में पता चलता जनाब अपने सर्दी से बचने के लिए इस्तेमाल टोपे के अन्दर ear-phone फ़साये हुए थे। इसी बीच स्मारक के एक्साम का सिलसिला चला करता था...उन एक्साम की तैयारी भी पूरे रंगीन मिजाज के साथ सर्दियों में छत पे धूप सेंकते हुए ग्रुप में की जाती। उस सोंधी-सोंधी धूप और दोस्तों के साथ से माहौल बेहद हसीन हो जाया करता था।

शाम के समय अपने चौकीदार चाचा के साथ बैठ आग तापना भी एक शगल हुआ करता था...जहाँ लम्बी-लम्बी बातों का दौर भी अनायास ही चल पड़ता। कुछ होनहार लोहे की बकेट में कुछ जलती हुई लकड़ी के टुकड़े ले आते और आग सेंकने का ये सिलसिला अपने-२ कमरे में भी जारी रहता। कई धुरंधर अपने पास हीटर रखा करते थे जिससे कभी-कभी रात में चाय का जायका भी हो जाया करता था। ह्म्म्म... रंगीनियाँ अनंत हैं.......

तिब्बती मार्केट भी इन दिनों खासा चर्चा का केंद्र हुआ करता था जहाँ से भांत-भांत के ठण्ड निवारक वस्त्रों का क्रय किया जाता। यहाँ भी कई बार अन्धानुकरण का दौर बरक़रार रहता कई बार एक जैसे स्वेटर या जैकेट कई विद्यार्थियों के पास मिल जाया करते थे... सर्दी से बचने के लिए हर चीज खरीदी जाती पर इनर कोई नही खरीदता था क्योंकि इनर की प्राप्ति स्मारक द्वारा ही किसी सज्जन के दान-पुण्य द्वारा हो जाया करती थी...यहाँ भी कई लोगों में असंतुष्टि बनी रहती किसी को अपने साइज से बड़ी इनर मिल जाती तो किसी को साइज से छोटी। कई बार मोजों का वितरण भी हो जाया करता था.....

जिम जाने का सुरूर भी इस समय इन शास्त्रियों पे छाया रहता था...और इंजमाम जैसे मोटे से लेकर इशांत शर्मा जैसे टटेरी शास्त्री के अन्दर अपने वदन को सलमान जैसा बनाने की कशमकश हुआ करती थी...जिम करने के बाद भी दिनभर अपने सीने और बाजुओं को निहारना इनकी दैनिक चर्या का हिस्सा हो जाता है...तथा दूध और केले नित्य आहार का अंग बन जाते हैं...यदा-कदा किसी जूनियर छात्र द्वारा इन जनाब को खजूर पे भी चढ़ा दिया जाता है कि ".........जी आपके मसल्स तो कमाल के बन गए हैं, कुछ दिन बाद आप तो छा जाओगे" अपनी प्रशंसा सुनके ये महाशय एक केला अपने उस जूनियर को दे दिया करते। इस तरह केला पाके जूनियर भी खुश और प्रशंसा पाके सीनियर भी...हर तरफ feel good ..........

बहरहाल, मौसम तो सर्द होता था पर मिजाज बहुत गर्म...इन दिनों ही खेलकूद, सांस्कृतिक सप्ताह, राजस्थान उत्सव, कवि सम्मलेन, सक्रांति की पतंगबाजी जैसे तमाम तरह के आयोजन मौसम को और गरम बना देते...माहौल की रंगीनियों को तो वही जान पायेगा जिसे स्मारक से शास्त्री होने का गौरव प्राप्त है....उन दिनों परेशानियाँ भी थी, तनहाइयाँ भी थी पर रंगीनियाँ हमेशा उन पर भारी रहा करती थीं....और आज तो वो सारी चीजें सुरम्य फलसफां बन गयी हैं....सही कहा है "अतीत भले कडवा क्यूँ हो पर उसकी यादें हमेशा मीठी हुआ करती हैं"...................

(विशेष- ये स्मारक को देखने का व्यक्तिगत नजरिया हो सकता है...अनायास कोई धारणा बनाये...सब कुछ ऐसा नही था जैसा विवरण है...कुछ लोगों को शिकायत हो सकती है इससे स्मारक की छवि पे असर पड़ेगा तो उनसे कहना चाहूँगा कि ये आपका मुगालता है क्योंकि स्मारक से भली-भांति परिचित व्यक्ति इससे कभी भ्रमित नही होगा और जो परिचित नही हैं उनके दिग्भ्रमण का प्रश्न ही नही उठता...वैसे भी शास्त्रित्व जाने से उस उम्र सम्बन्धी पर्याय का स्वभाव थोड़ी बदल जायेगा...चंचलता होना लाजमी है...और यदि कुछ विसंगती हममे हैं तो वो भी हमारा सच है, उससे मुंह मोढ़ना मूर्खता है....कडवे यथार्थ को स्वीकार करने का दम होना चाहिए, उसे परदे में रखना बंद कीजिये.....चंद कमियां तो व्यक्तित्व का सर्वतः वर्णन करती हैं व्यक्तित्व की महानता को कम करती हैं..बशर्त उन कमियों को पहचाना जाय)

जारी..........प्रतिक्रिया जरुरी-अच्छी हो या बुरी!!!!!!

14 comments:

Chetan jain said...

bemisal.........akathneey....adbhut...mind bolwing....refreshing....

अव्यक्त said...

padhte hue lga ki abhi bhi in dinon ko jee raha hun.........sundar...akathneey...

Tanmay jain said...

aanand antheen.......is silsile ko yuhi barkarar rakhen...aur aalochkon ki parvah na karen...kyonki-
'kuch to log kahenge,logon ka kam hai kahna' aur "jo hai nam vala.vahi to badnam hai"

Sarvagya Bharill said...

Tanmay ji ke comment se sehmat hoon! Likhne mai aapka jawab nahi...vartmaan mai yehi sab dekhne ko mil raha hain..!

Sarvagya Bharill said...
This comment has been removed by the author.
Kumar @rpit said...

aneslygr8 thought....ankur bhai n smaarak sada jaybant rahe ........best wishes

sajal jain said...

aaj hi soch raha tha ankur ji ko phone karu ya scraps karu ki bahut din se Romance ki srinkhala aage nahi badhi.lagta hai aapne mere man ki baat sun li........................ADHBHUT... maza aa gaya . karva gujar gaya,lekin padhkar aisa lagta hai vartaman mai ji rahe hai...... best!!

ANKUR JAIN said...

thnks all......

vikas jain said...

padh ke phir taje ho AAye vo din..
bahut-2 badiya...

dr. manish jain said...

insan ka sabse zyada nishpaksh drishtikon apne atit ke prati hi hota hai. halat vartman ke prati imandar nahi rahne dete aur bhavishya ke prati sandeh bana rahata hai.

dr. manish jain said...

maloom padata hai tumhare samay main sardiyon ke dino main dhoop-snan karte huye keram-krida nahi hoti thi.

ANURAG SHASTRI VAPI said...

jese jese karva bada MANGIL KI CHAH NAVIK NE PA LI, BUS YUHI DOLE BAT LIKHKAR MUJHE APNE ABHUTPURVA GHAR KI YAD DILA DI

ANURAG SHASTRI VAPI said...

REALY FANTASTIC
WORTH READING
MIND BLOWING PERFORMANCE
TUM BADHTE CHALO HUM SATH H

ANKUR JAIN said...

@manishji bhaisahab- kairam ka mja bhi liya jata tha....par mujhse chook ho gai...aane vale hisson me uski charcha karne ki koshish karunga...and thnx alot!!!!!!!!!