बिखराव से पैदा, रिश्तों का रेशा वक़्त के बीतने के साथ ही महीन पड़ता जाता है। दूरियां, पहले यादों को धुंधला करती हैं फिर अहसासों को भी। मसलन, नजदीकियों के दरमियाँ आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ती लगातार दूरियां, हमें गुजिश्ता तमाम रिश्तों के प्रति असहिष्णु और असंवेदनशील बना देती हैं। संबंधों का तार नये जहाँ और नए हालातों से खुद ब खुद जुड़ जाता है। कतरा-कतरा हम भूल जाते हैं उसी नींव के पत्थर को, जिस पर टिकी होती है हमारी जिंदगी की इमारत। सो जाती है सारी संचेतनायें, जो कभी हमें हम से भी प्यारी हुआ करती थीं।
बदलाव की बयार बहुत कुछ बहा ले जाती है...बहुत कुछ ऐसा भी जो रहना चाहिए था ताउम्र हमारे साथ। बहुत कुछ ऐसा जो करता है हमें जमाने से अलग। बहुत कुछ जो जोड़ता है हमें एक दूसरे से बिना किसी स्वार्थ के। ऐसे में एक-दूसरे से बने रहना लगातार दूर...इस खाई को और गहरा ही बनाता है। तब जरुरत होती है एक मिलन की..जो जगा दे हममें हमारा अक्स। जो करदे जिन्दा उसी उन्माद को जो कभी रहा करता था हमारे साथ। जिस मिलन से एक बार फिर हम कर सके बीते लम्हों की जुगाली। जाग उठे प्यार, अपनापन वैसा ही एक दूसरे के लिए...जो असल में ताकत है हमारी।
हो सकता है अपनी जिंदगी की कसमकस में उलझे हुए, बेचैन हसरतों को पूरा करने में अलग हों रास्ते हमारे। हो सकता है अपना कोई अलग वतन तलाशने में उन रास्तों के पड़ाव भी अलग हों। पर उन रास्तों के पार नज़र आने वाली मंज़िल..हमारा अंतिम गंतव्य नहीं है। जो अंतिम है वो हम सबका एक है। ज्ञानतीर्थ से सिंचित हो असल में तो हम वहां ही पहुंचना चाहते हैं जिसके आगे कोई राह ही नहीं है। तो जब हैं हम पथिक उस एक मोक्षमार्ग के, तो फिर ये अलगाव कैसा। क्यों तात्कालिक के मोहपाश में सर्वकालिक को विस्मृत करना। क्यों सोना। क्यों खोना। क्यों होना, उनसे दूर जो बन सकते हैं जरिया हमें हमसे मिलाने का।
समयसार विधान। तीर्थराज सम्मेदशिखर। स्वर्णजयंती महोत्सव। दरअसल इन तमाम सुप्त संवेदनाओं को झंकृत करने का एक अहम् प्रयास था...जो अपने इस उद्देश्य में दो सौ फीसद सफल हुआ है। निर्वाण धरा पर, हमारी निर्माण स्थली का आयोजन...एक बारगी फिर हममें से कई के पुनर्निर्माण का जरिया बन उठा। जहाँ से फिर जागी हममें वही चिंगारी, जिसे संजोये हम बिताते थे खुशनुमा पल अपनी निर्माण धरा पर।
'न भूतो न भविष्यति' कहकर मैं आयोजन की बाहरी भव्यता के प्रति कोई अतिरेक पूर्ण बात नहीं कहूंगा। क्योंकि इससे अधिक भव्यता रही भी है, और आगे के आयोजनों में देखने को मिलेगी भी। इस आयोजन में कोई खामियां न रही हो ऐसा भी नहीं है, वास्तव में इतने बड़े प्रयासों का आकलन उन ऊपरी कमियों से नहीं बल्कि उद्देश्यों से किया जाना चाहिए। और जिन उद्देश्यों को लेकर हम जुड़े थे या जिस आंतरिक प्रेरणा ने हमे इस आयोजन का हिस्सा बनने के लिए प्रेरित किया था उस मंशा पर प्रश्नचिन्ह नहीं खड़े किये जा सकते।
बहरहाल, इस तरह के आयोजन वर्तमान और भविष्य दोनों की दरकार हैं क्योंकि हमारा परिवार अब इतना बढ़ गया है कि हमारे बीच रहने वाली भौतिक दुरी, हमारी भावनात्मक दुरी की भी वजह बन जाती है। 'नज़र से दूर, दिल से दूर' उक्ति पुरानी है पर चरितार्थ हमेशा होती है। इसलिए अच्छा है कि एक दूसरे की नजरों में बने रहे, तो दिल में भी बने रहेंगे। और हमारे इस तरह के मिलन से राख के भीतर दबी चिंगारी को भी हवा मिलती रहेगी।
खैर, कहते-कहते बहुत कुछ कह गया। पर फिर भी काफी कुछ अब भी अनकहा ही रह गया। पर चूँकि हम एक-दूसरे से जज़्बाती तौर पर बंधे हैं तो अल्फ़ाज़ों के पीछे के अहसासों को पढ़ना भी जानते हैं..इसलिए गुजारिश है आपसे इन शब्दों को नहीं, शब्दों की राख के पीछे छुपी जीवंत आग को समझने की कोशिश करियेगा।
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