बीतते वक्त की रफ्तार ने हाड़-मांस के इस शरीर को बयासी वर्ष का कर दिया, लेकिन मनोबल, आत्मिक उत्साह और मां जिनवाणी की सेवा के लिए सतत सक्रियता उम्र की इस हकीकत को झुठलाती है। गोया ये कहना होगा कि दादा की उम्र भले लिखी देवनागरी लिपि में '82' जाए; लेकिन इसे पढ़ा अरबी भाषा में '28' जाये। जीवन के बयासी वर्ष वर्ष पूरे करने और तेरासीवे वर्ष में प्रवेश करने पर भी विद्वत्ता की धार पुरजोर कायम है। आत्मबल और आगमबल की बेजोड़ संधि दादा में देखी जा सकती है।
जीवन के संध्याकाल में उनके तमाम जीवन के चित्र आईने की तरह सामने घूमते होंगे। मानो गुजरा हुआ वक़्त कभी एक टीस तो कभी उत्साह का संचार करता होगा। जिसमे उन्होंने कई उतार-चढाव देखें हैं। इस सफलतम जीवन की तह में एक लंबा संघर्ष हिलोरें ले रहा है। हर मुसीबत ने उन्हें सोने की तरह निखारा है। हर एक आलोचना, विरोध उनकी मजबूती का आधार बनी है। बाधाओं ने उनके संकल्प को दृढ़ बनाने का काम किया है।
जैनदर्शन की सेवा और तत्वप्रचार का ये संकल्प आज भी जवान है, भले ही उम्र ढल चुकी है। उनका यही संकल्प उन्हें अपने क्षेत्र का शीर्षस्थ पुरूष साबित करता है। अपने काल का महापुरुष बनाता है। जिस काम को करते हुए उन्होंने जीवन समर्पित किया, उस काम को करते हुए उन्होंने नही सोचा था कि इसके लिए वे विभिन्न अलंकरणों से सम्मानित होंगे या उनके जन्मदिवस को किसी संकल्प दिवस के तौर पर मनाया जाएगा। सम्मान या यश की चाह से किए गए कृत्यों की सफलता सुनिश्चित नही होती। दादा को जब भी कभी सम्मानित किया जाता है तो अपने सम्मान समारोहों के दरमियाँ वे कई बार कहते हैं- 'ये किसी व्यक्ति का नही विद्वत्ता का सम्मान है। उस परम्परा, उस पीढ़ी का सम्मान है जो तत्वप्रचार में अपना जीवन समर्पित करती है। जिस दिन विद्वानों का सम्मान बंद हो जाएगा उस दिन विद्वान् बनना बंद हो जाएँगे।'
जीवन में प्राप्त प्रचुर यश के अवसर पर भी दादा अपने गुरु पूज्य कानजी स्वामी को याद कर एक सुशिष्य होने का फ़र्ज़ अक्सर अदा करते हैं। गुरुदेव के समक्ष लिए उस तत्वप्रचार के प्रण को हमेशा याद करते हैं जो गुरुदेव की चिता के समक्ष कभी उन्होंने लिया था और यही संकल्प से जीवन को आगे बढ़ाने की प्रेरणा हर स्नातक को देते हैं।
डॉ भरिल्ल प्रतिभा संपन्न, विद्वान् तो पहले भी थे पर गुरुदेव का समागम मिलने पर उन्हें एक दृष्टि मिली जो समाजोपयोगी साबित हुई। वास्तव में, प्रतिभा से ज्यादा नज़रिए का मूल्य होता है। प्रतिभा जन्मजात हो सकती है पर नजरिया माहौल और खासतौर पे एक गुरु से मिलता है। समाज का, राष्ट्र का विध्वंश करने वाले लोग भी प्रतिभाशाली होते हैं, चाहे हिटलर नेपोलियन हों या ओसामा, राज ठाकरे ये सभी प्रतिभा सम्पन्न लोग नजरिये के मिथ्याचरण के कारन ऐसे रहे हैं। इसलिए अच्छे गुरु और सत्संग का मिलना सौभाग्य की बात है। इसी कारन दादा अपने गुरु को हमेशा याद कर उस उपकार के प्रति कृतज्ञता जताते हैं। दादा को गुरुदेव मिले, और हमें दादा...वास्तव में तत्वज्ञान के अविरल प्रवाह में अपने ईमानदार योगदान से ही हम अपने गुरु के उपकार को कुछ हद तक चुका सकते हैं
दादा तत्वप्रचार की संकल्पना पानी की पतली धार की तरह करने की बात करते हैं। पानी की मोटी धार में पानी तो तेज़ आता है पर बहाव ख़त्म होने पर तलहटी सुखी रहती है। जबकि पतली धार पहले ख़ुद पानी सोखती है फ़िर पानी आगे बढ़ाती है। ऐसे ही डॉ साहब ने पहले ख़ुद शास्त्रज्ञान को पिया है फ़िर प्रचार के मध्यम से इसे आगे बढाया है।
उनका शास्त्रज्ञान जीवन के इस संध्याकाल में उन्हें आत्ममूल्यांकन का साधन भी प्रदान करेगा। जीवन की इस विदाई बेला को देखने का महापुरुषों का नजरिया निश्चित तौर पर आम आदमी से अलग होता होगा क्योंकि उसे अपने संघर्ष के दौर और सफलता के आयामों को एक साथ देखना है। हमारे प्यारे दादा को अपने इस संध्याकाल में सफलता के प्रतिमानों के साथ संघर्षों के दौर की जुगाली भी होती होगी। एक तरफ़ विदेश में तत्वप्रचार के लिए जाने वाली हवाई उड़ाने होंगी तो दूसरी तरफ़ वो दौर भी होगा जब साईकिल से प्रवचन के लिये मीलों जाया करते थे। एक तरफ़ अनेकों उपाधियाँ और सम्मान समारोह होंगे तो एक तरफ़ वे पल भी होंगे जब जिनवाणी रथयात्रा के दौरान सीने पर लाठियां झेली थी। जिस बुद्धि ने क्रमबद्ध-पर्याय, नयचक्र और धर्म के दशलक्षण जैसी कृतियों की रचना की है वह बुद्धि कई बार विरोध का शिकार हुई है। उनका विरोध करने वालों की नज़र उनके व्यक्तिगत जीवन पर तो रहती है पर उनके अविस्मरनीय योगदान पर नही।
उनके इसी योगदान के कारन उन्हें महापुरुष कहने में अतिश्योक्ति नज़र नही आती। जिन मानकों के आधार पर उनका सम्मान किया जाता है वे मानक उन्हें महापुरुष सिद्ध करते हैं। हालाँकि ये सच है की हर चीज के मानक एक से नही होते, जिन मानकों के आधार पर सचिन तेंदुलकर,अमिताभ बच्चन को ये दुनिया महापुरुष मानती है, गाँधी,विवेकानंद को महापुरुष कहने वाले मानक उससे अलग हैं। राम, बुद्ध, महावीर को महापुरुष कहने वाले मानक उनसे भी अलग है। इसी तरह जिन आयामों से मैं छोटे दादा को देख रहा हूँ, या हमारा हर स्नातक, तत्वरसिक मुमुक्षु समाज उन्हें देखता है वे उन्हें महापुरुष साबित करने के लिए पर्याप्त है।
टोडरमल स्मारक की स्थापना और वहां से निकली करीब हज़ार विद्यार्थियों की फ़ौज साथ ही परवर्ती कई समानांतर संस्थाओं से निकल रहे तत्वप्रभावकों की सेना दादा के प्रयासों को और आगे बढ़ाएगी। दादा के प्रयासों से पूज्य गुरुदेव द्वारा जगाई क्रांति निश्चित ही एक विस्फोट में तब्दील हुई है और मैं दादा को विश्वास दिलाता हूं की ये विस्फोट ज्वालामुखी की तरह अविरत ज्वलंत बनाये रखने का काम आपकी ये शिष्य परंपरा करेगी।
गुरुदेव ने डॉ भारिल्ल को दृष्टि दी थी आज हमारे पास जो दृष्टि है वो आपसे गृहीत है। आपसे मिली दृष्टि के ज़रिये जन-जन तक तत्वप्रचार करके ही गुरुदाक्षिणा चुकाई जा सकती है। फिलहाल तो आपसे उद्धृत ज्ञान में भीगने का काम ही जारी है।
अंत में उन पंक्तियों को याद करूँगा जो मैंने अपने टोडरमल स्मारक के विदाई समारोह में कही थी कि...
ये वो मेघ हैं जो ज्ञान की वर्षा सदा करते,
ये बरसे (जब भी, जितना भी बरसे) तो नहा लेना ये बादल जाने वालें हैं।
-अंकुर शास्त्री, भोपाल
जीवन के संध्याकाल में उनके तमाम जीवन के चित्र आईने की तरह सामने घूमते होंगे। मानो गुजरा हुआ वक़्त कभी एक टीस तो कभी उत्साह का संचार करता होगा। जिसमे उन्होंने कई उतार-चढाव देखें हैं। इस सफलतम जीवन की तह में एक लंबा संघर्ष हिलोरें ले रहा है। हर मुसीबत ने उन्हें सोने की तरह निखारा है। हर एक आलोचना, विरोध उनकी मजबूती का आधार बनी है। बाधाओं ने उनके संकल्प को दृढ़ बनाने का काम किया है।
जैनदर्शन की सेवा और तत्वप्रचार का ये संकल्प आज भी जवान है, भले ही उम्र ढल चुकी है। उनका यही संकल्प उन्हें अपने क्षेत्र का शीर्षस्थ पुरूष साबित करता है। अपने काल का महापुरुष बनाता है। जिस काम को करते हुए उन्होंने जीवन समर्पित किया, उस काम को करते हुए उन्होंने नही सोचा था कि इसके लिए वे विभिन्न अलंकरणों से सम्मानित होंगे या उनके जन्मदिवस को किसी संकल्प दिवस के तौर पर मनाया जाएगा। सम्मान या यश की चाह से किए गए कृत्यों की सफलता सुनिश्चित नही होती। दादा को जब भी कभी सम्मानित किया जाता है तो अपने सम्मान समारोहों के दरमियाँ वे कई बार कहते हैं- 'ये किसी व्यक्ति का नही विद्वत्ता का सम्मान है। उस परम्परा, उस पीढ़ी का सम्मान है जो तत्वप्रचार में अपना जीवन समर्पित करती है। जिस दिन विद्वानों का सम्मान बंद हो जाएगा उस दिन विद्वान् बनना बंद हो जाएँगे।'
जीवन में प्राप्त प्रचुर यश के अवसर पर भी दादा अपने गुरु पूज्य कानजी स्वामी को याद कर एक सुशिष्य होने का फ़र्ज़ अक्सर अदा करते हैं। गुरुदेव के समक्ष लिए उस तत्वप्रचार के प्रण को हमेशा याद करते हैं जो गुरुदेव की चिता के समक्ष कभी उन्होंने लिया था और यही संकल्प से जीवन को आगे बढ़ाने की प्रेरणा हर स्नातक को देते हैं।
डॉ भरिल्ल प्रतिभा संपन्न, विद्वान् तो पहले भी थे पर गुरुदेव का समागम मिलने पर उन्हें एक दृष्टि मिली जो समाजोपयोगी साबित हुई। वास्तव में, प्रतिभा से ज्यादा नज़रिए का मूल्य होता है। प्रतिभा जन्मजात हो सकती है पर नजरिया माहौल और खासतौर पे एक गुरु से मिलता है। समाज का, राष्ट्र का विध्वंश करने वाले लोग भी प्रतिभाशाली होते हैं, चाहे हिटलर नेपोलियन हों या ओसामा, राज ठाकरे ये सभी प्रतिभा सम्पन्न लोग नजरिये के मिथ्याचरण के कारन ऐसे रहे हैं। इसलिए अच्छे गुरु और सत्संग का मिलना सौभाग्य की बात है। इसी कारन दादा अपने गुरु को हमेशा याद कर उस उपकार के प्रति कृतज्ञता जताते हैं। दादा को गुरुदेव मिले, और हमें दादा...वास्तव में तत्वज्ञान के अविरल प्रवाह में अपने ईमानदार योगदान से ही हम अपने गुरु के उपकार को कुछ हद तक चुका सकते हैं
दादा तत्वप्रचार की संकल्पना पानी की पतली धार की तरह करने की बात करते हैं। पानी की मोटी धार में पानी तो तेज़ आता है पर बहाव ख़त्म होने पर तलहटी सुखी रहती है। जबकि पतली धार पहले ख़ुद पानी सोखती है फ़िर पानी आगे बढ़ाती है। ऐसे ही डॉ साहब ने पहले ख़ुद शास्त्रज्ञान को पिया है फ़िर प्रचार के मध्यम से इसे आगे बढाया है।
उनका शास्त्रज्ञान जीवन के इस संध्याकाल में उन्हें आत्ममूल्यांकन का साधन भी प्रदान करेगा। जीवन की इस विदाई बेला को देखने का महापुरुषों का नजरिया निश्चित तौर पर आम आदमी से अलग होता होगा क्योंकि उसे अपने संघर्ष के दौर और सफलता के आयामों को एक साथ देखना है। हमारे प्यारे दादा को अपने इस संध्याकाल में सफलता के प्रतिमानों के साथ संघर्षों के दौर की जुगाली भी होती होगी। एक तरफ़ विदेश में तत्वप्रचार के लिए जाने वाली हवाई उड़ाने होंगी तो दूसरी तरफ़ वो दौर भी होगा जब साईकिल से प्रवचन के लिये मीलों जाया करते थे। एक तरफ़ अनेकों उपाधियाँ और सम्मान समारोह होंगे तो एक तरफ़ वे पल भी होंगे जब जिनवाणी रथयात्रा के दौरान सीने पर लाठियां झेली थी। जिस बुद्धि ने क्रमबद्ध-पर्याय, नयचक्र और धर्म के दशलक्षण जैसी कृतियों की रचना की है वह बुद्धि कई बार विरोध का शिकार हुई है। उनका विरोध करने वालों की नज़र उनके व्यक्तिगत जीवन पर तो रहती है पर उनके अविस्मरनीय योगदान पर नही।
उनके इसी योगदान के कारन उन्हें महापुरुष कहने में अतिश्योक्ति नज़र नही आती। जिन मानकों के आधार पर उनका सम्मान किया जाता है वे मानक उन्हें महापुरुष सिद्ध करते हैं। हालाँकि ये सच है की हर चीज के मानक एक से नही होते, जिन मानकों के आधार पर सचिन तेंदुलकर,अमिताभ बच्चन को ये दुनिया महापुरुष मानती है, गाँधी,विवेकानंद को महापुरुष कहने वाले मानक उससे अलग हैं। राम, बुद्ध, महावीर को महापुरुष कहने वाले मानक उनसे भी अलग है। इसी तरह जिन आयामों से मैं छोटे दादा को देख रहा हूँ, या हमारा हर स्नातक, तत्वरसिक मुमुक्षु समाज उन्हें देखता है वे उन्हें महापुरुष साबित करने के लिए पर्याप्त है।
टोडरमल स्मारक की स्थापना और वहां से निकली करीब हज़ार विद्यार्थियों की फ़ौज साथ ही परवर्ती कई समानांतर संस्थाओं से निकल रहे तत्वप्रभावकों की सेना दादा के प्रयासों को और आगे बढ़ाएगी। दादा के प्रयासों से पूज्य गुरुदेव द्वारा जगाई क्रांति निश्चित ही एक विस्फोट में तब्दील हुई है और मैं दादा को विश्वास दिलाता हूं की ये विस्फोट ज्वालामुखी की तरह अविरत ज्वलंत बनाये रखने का काम आपकी ये शिष्य परंपरा करेगी।
गुरुदेव ने डॉ भारिल्ल को दृष्टि दी थी आज हमारे पास जो दृष्टि है वो आपसे गृहीत है। आपसे मिली दृष्टि के ज़रिये जन-जन तक तत्वप्रचार करके ही गुरुदाक्षिणा चुकाई जा सकती है। फिलहाल तो आपसे उद्धृत ज्ञान में भीगने का काम ही जारी है।
अंत में उन पंक्तियों को याद करूँगा जो मैंने अपने टोडरमल स्मारक के विदाई समारोह में कही थी कि...
ये वो मेघ हैं जो ज्ञान की वर्षा सदा करते,
ये बरसे (जब भी, जितना भी बरसे) तो नहा लेना ये बादल जाने वालें हैं।
-अंकुर शास्त्री, भोपाल
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