आडंबरों,
पूर्वाग्रहों और समस्त पक्ष का व्यामोह त्याग पक्षातिक्रांत को अपना साध्य बना,
जिस गुरु ने बीसवीं सदी की लगभग अर्ध शताब्दी में भारत भूमि को अध्यात्म की बारिश
से सराबोर किया है उसकी एक और जन्म जयंती हम मना रहे हैं। कहान गुरु। एक ऐसा नाम जिनकी
तुलना देश-दुनिया के उन दूसरे महापुरुषों से नहीं की जा सकती जो सेवा और समर्पण की
कुछ अलग अर्थों में मिसाल पेश करते हैं...क्योंकि उन अधिकतम प्रयासों में अपनी तरह
की कुछ अलग-अलग कामनाएं भी होती हैं लेकिन निरवाञ्छक होकर प्रथम तो आत्मांदोलन के
मार्ग पर बढ़ना पश्चात् उस आत्मांदोलन से समाज में एक नया आंदोलन खड़ा कर देना
बहुत अलग बात है।
हम
श्रेष्ठ, हमारा धर्म श्रेष्ठ, हमारा विचार, हमारी परंपराएं, हमारी पद्धत्ति, हमारी
मान्यताएं श्रेष्ठ...ऐसा मानने वाले प्रायः समाज के हर वर्ग का इंसान होता है ऐसे
में लगभग आधे जीवन तक स्वीकृत और नियति से सहज प्राप्त अपनी परंपराओं, अपने आग्रह
और अमने मत को छोड़कर पारमार्थिक सत्य की ओर बढ़ना हर किसी के वश की बात नहीं है।
लेकिन कहान गुरु ने ये किया और स्वविवेक एवं स्वपरीक्षण से न सिर्फ स्वयं
परिवर्तित हुए किंतु दूर दूर तक लोगों को आत्मपरीक्षण तथा सच्चे धर्म की खोज के
लिये प्रेरित किया। जो सिलसिला आज भी अनवरत जारी है और हम कह सकते हैं कि कहान गुरु
हमारे बीच में न होकर भी हमारे बीच में बरकरार हैं। अपने मताग्रहों को छोड़कर
पारमार्थिक सत्य की ओर बढ़ने वाले आज भी देखे जा सकते हैं और उन सबके
प्रेरणास्त्रोत कम से कम वर्तमान परिवेश में तो कहान गुरु ही हैं। कोई माने य न
माने किंतु जीवन का सबसे जटिल कार्य होता है अपने मताग्रह और पक्ष को छोड़ देना और
जिसमें अपने पक्ष को छोड़ने की सामर्थ्य है वही वास्तव में सत्य के करीब पहुंच
सकता है। निष्पक्ष होने की बात करना बहुत सरल है लेकिन निष्पक्ष होना बहुत कठिन।
लेकिन ध्यान देने वाली बात ये भी है कि इस निष्पक्षता में सत्य और न्याय का पक्ष
अंतर्गर्भित रहना चाहिये जो कहान गुरु के समूचे जीवन में बखूबी देखा जा सकता है।
गुरुदेव
श्री का उद्घाटित मार्ग आज के दौर में कहानपंथ के नाम से प्रचारित किया जाता है
किंतु ये समझना बहुत जरुरी है कि कहान पंथ के जर्रे-जर्रे में अनादि से चले आ रहे
वीतराग पंथ की परंपरा का ही निर्वहन है। कहान गुरु किसी पंथ के सृजक नहीं हैं वे
मात्र उस अनादि की परंपरा वाले, मुक्ति के एकमात्र पंथ के उद्घाटक हैं। जो काल दोष
से या किसी और वजह से रुढ़ियों, आडंबरों, क्रियाकाण्डों और अन्य दुराग्रहों में
कहीं दब गया था। गुरुदेव श्री ने मिथ्या मान्यताओं के उन्हीं कंटकों को निष्कंटक
पथ से दूर करने का कार्य किया और शुद्ध आत्मबोध के लिये अरहंतों का मार्ग जन-जन के
सामने प्रगट किया। गुरुदेव स्वयं कहते थे अनंत ज्ञानियों का एक मत और एक अज्ञानी
के अनंत मत। वास्तव में गुरुदेव भी उन अनंत ज्ञानियों के सुर में सुर मिलाने वाले
ही थे किसी नवीन पंथ की स्थापना का तो सवाल ही खड़ा नहीं होता।
ये
समझना होगा कि मुक्तिमार्ग, ज्ञान की दिशा कभी भी लोकतांत्रिक विचार से प्रशस्त
नहीं होती। ये न तो भीड़ का पंथ है और न ही भीड़ का विचार। भीड़ हमेशा एक भ्रम
पैदा करती है और सारा जमाना उसी भीड़ के पंथ पर आंखे मूंदे चला जा रहा है, क्योंकि
उस मार्ग पर चलना सरल है जिस पर पहले से ही अनेकों लोग आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन
सच्चे सुख और मुक्ति का मार्ग नितांत अकेले ही तय करना होता है। गुरुदेव श्री भी
अकेले ही चले थे लेकिन गुरुदेव की आराधना में इतना बल था कि उनका जीवन सहज ही एक
अलौकिक प्रभावना की वजह बन गया। वास्तव में गुरु देव का मुमुक्षु जनों के लिये
इतना ही अवलंबन था कि उन्होंने निरावलंबी स्वरूप का भान जनसमूह को करा दिया।
ऐसे
महान् दिग्दर्शक की महिमा एवं बहुमान आना लाजमी है लेकिन इस बीच हमें यह भी समझना
आवश्यक है कि कहीं महिमा का अतिरेक हमें एक नये पक्ष का ग्राही तो नहीं बना रहा।
जैसे सच्चे जिनेन्द्र भक्त होने का मतलब अपने जिनस्वरूप को देखना ही है ऐसे ही
सच्चे गुरुभक्त के लिये भी आत्मोपलब्धि ही एकमात्र ध्येय है उस ध्येय के बीच मार्ग
को उद्घाटित करने वाले गुरु, शास्त्रादि की यथायोग्य महिमा और बहुमान भी आता है पर
उस बहुमान में हमारा ध्येय विस्मृत न हो यह ध्यान रखना आवश्यक है। इसके साथ ही
भक्ति का अनुराग कई बार गुणों से ज्यादा व्यक्ति को प्रधान बना देता है जो कि जिनशासन
में कहीं स्वीकृत नहीं है ऐसे ही हमारी भक्ति भी कहान गुरु के नाम के आगे कहीं उस
अनादि-निधन मार्ग को धुंधला न कर दे, यह ध्यान हमेशा रहना चाहिये।
यकीनन
गुरुदेव श्री ने परमार्थ पर जोर दिया था लेकिन उनके जीवन में व्यवहार और चरणानुयोग
की सुंदर झांकी देखी जा सकती थी। आज कई बार हम निश्चय को समझे बगैर, चरणानुयोग की
इस तरह अवहेलना कर बैठते हैं कि वो पूरे मार्ग पर ही प्रश्नचिन्ह खड़े कर देता
हैं। द्रव्यानुसारी चरणं, चरणानुसारी द्रव्यं की उक्ति को भुलाकर, हम किसी एक के
हठाग्रही बनेंगे तो वो तो मुक्ति का मार्ग नहीं ही हो सकता। हमेशा निश्चय को
प्रधान रखना जरुरी है लेकिन चारित्र के प्रति उपेक्षा होना ठीक नहीं है।
गुरुदेव
श्री का आभामंडल तभी वास्तव में हमारे लिये प्रकाशपुंज का कारण बन सकता है जब हम
अपने स्व-पर प्रकाशत्व स्वरूप की पहचान करें। अनादि की भटकन पर पूर्णविराम लगाने
के लिये अग्रसर हों और मध्यांतर के पड़ावों से ही संतुष्ट होना छोड़ें। गुरुदेव
हममें से कई के समकालीन नहीं थे लेकिन उन्होंने वो मार्ग हमारे सामने पुनः
प्रस्तुत कर दिया जिससे हम यथाशीघ्र अनंत सिद्धों के समकालीन हो सकें।
सिद्धत्व का यही भान
कर, पर्याय में भी उसी सिद्धत्व को प्रगटावें...गुरुदेव श्री की तो वास्तव में एक
यही शिक्षा थी बाकि सब तो एक इसी का विस्तार मात्र था और वो विस्तार हमें संसार का
संक्षेपण करने के लिये इस काल में महान् पुण्योदय से प्राप्त हुआ था। गुरुदेव श्री
के उद्घाटित मार्ग को अपनाकर, हम स्वरूप की सीमा में ही ठहर असीम ज्ञान और आनंद के
दरिया में डुबकी लगाये इस भावना के साथ गुरुदेव श्री की इस जन्मजयंती पर उनके
चरणों में कोटिशः वंदन अर्पित करता हूँ।
प्रस्तुति-:
अंकुर
शास्त्री
आलेख संपादक
दूरदर्शन, भोपाल
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