(इसे पढने से पहले स्मारक रोमांस-पार्ट-१ पदे.)
शाम का भोजन गले से भी नीचे न उतरता था कि-खबर आ जाती "सर आ गये,कनिष्ठ वाले जल्दी खाना खाके क्लास में पहुंचे"। कमबख्त खाना खाना भी दूभर था, वैसे खाना भी उन दिनों बहुत लज़ीज़ नहीं जान पड़ता था। पर संस्कृत कि क्लास से अच्छी फेविकोल कि दाल थी। क्लास में पहुचे नहीं कि अपेक्षित डायलोग सामने था-"क्योंरे यहाँ क्या खाना खाने आये हो"। इस संवाद को अदा करने वाले हमारे संस्कृत के अध्यापक हुआ करते थे। स्मारक में सारा हिंदुस्तान बसता है-जहाँ तमिलनाडु,कर्णाटक,एम्.पी,यु.पी,महाराष्ट्र सब कुछ थे बस बिहार नहीं था। और बिहार के बिना हिंदुस्तान की सही तस्वीर नही दिखाई जा सकती-बिहार की इस कमी को हमारे संस्कृत अध्यापक पूरा करते थे।
दसवी करते वक़्त सोचा था 'कि अब इस संस्कृत से टिर्र छूटेगी'। पर मामला तो अब कुछ और हो गया है, पहले तो रामः, रामौ, रामा ही थे अब तो 'तिपतसझिसिपथसथमिब्बसमस' का लोचा आ गया है। भोजनशाला में शंकरजी के डमरू से निकले मन्त्रों कि मजाक उड़ाई जाती थी। किसी गाने कि धुन पे लड़के "अइउणऋलृकऐओढऐओचझभयगडधश" गुनगुनाते थे। संस्कृत सूत्रों पर सहपाठियों के नाम अंकित कर दिए थे-कोई "चुटू" कहलाता तो कोई "चोकू"। संस्कृत पड़ते वक़्त उस शेर का शुक्रिया अदा किया जाता जिसने पाणिनि को खाया था। नही तो भगवान जाने और कितने सूत्र याद करने होते। बहरहाल, ये उस दौर कि बात है, जब जिन्दगी का मतलब सिर्फ मस्ती हुआ करती थी, हमें नही पता था कि भविष्य बनाना क्या होता है, पैसे कमाने कि आरजू क्या होती है। वो लम्हे जैसे भी थे समझदारी भरी जिन्दगी से कई बेहतर थे।
क्लास बंक करके नेहरु या मोती पार्क में बैठना भी एक शगल हुआ करता था। पार्क में बैठकर स्मारक को कोसने का भी आनंद मिला करता था उन दिनों। मगर यहाँ भी मुसीबत पीछा नही छोडती थी-कमबख्त कोई न कोई सीनियर तो नज़र आ ही जाता था। फिर क्या आगे-पीछे से मुंह छिपाए भागते फिरते थे। स्मारक की ये भी अजीब परेशानी थी कि जयपुर के किसी भी कोने में जाओ एक न एक स्मारक का नुमाइन्दा टपक ही पड़ता था। चाहे मार्केट घुमने जाओ, या पिक्चर देखने सब जगह कोई न कोई भटकता पाया जाता था। ये बात समझ नही आती थी "जो काम हम करें तो बुरा, वही यदि सीनियर करें तो बुरा क्यों नही कहा जाता"। चोर दोनों है पर सीना जोरी करने का हक बस एक के पास है।
खुशियों का दिन बस एक हुआ करता था sunday...जिसका खुशनुमा होने का कारण था-सारी क्लासेस से छुट्टी और क्रिकेट। क्रिकेट हिंदुस्तान में एक ऐसी चीज है जो लगभग ८० फीसदी जनता को ख़ुशी देता है। क्रिकेट की टीम बनाने की होड़ चल पड़ी थी। हर क्लास में एक दादा टाइप का लड़का हुआ करता है वही अनधिकृत तौर पर सर्वसम्मति से कप्तान बन जाया करता था और टीम चुनने के अधिकार भी उसके पास होते थे। क्लास के अन्य भोले-भाले प्राणी अपने उस दादा को रिझाने का प्रयास करते कि कैसे ही टीम में जगह तो मिले। जैसे-तैसे टीम बनती, और हाँ टीम बनवाने में एकाध छुटभैया टाइप के सीनियर महोदय भी हुआ करते थे जो दादा के करीबी या खास हुआ करते हैं। पैसे जोड़-तोड़ के किट लायी जाती और फिर तैयार हो जाते मैदान में उतरने के लिए। ११ या २१ रुपये पर मैच रखा जाता, यही वो जगह होती जहाँ सीनियरों पर अपना गुस्सा निकला जा सकता था। पर क्रिकेट के इस मैदान में भी सीनियर अपना रुतबा दिखाए बिना नही मानते थे। पर क्रिकेट का संघर्ष बड़ा जमकर होता था (अब भी होता होगा )। और किसी दिन मैच यदि ५१ रुपये पर रख लिया तो खिलाडी जी-जान लगा देते थे। ऐसा लगता मानो इस मैच को रणजी चयनकर्ता देख रहे हों, और एकाध खिलाडी भारतीय टीम के लिए कूच करने वाला हो। लेकिन एक बात थी क्रिकेट सभी शास्त्रियों में पंडितयाई छीन कर हुल्लड़याई भर दिया करता था।
जिस दिन क्रिकेट का मैच आ रहा हो तो समझो भागमभाग भरा दिन है। या तो मार्केट में जाकर दुकान में रखी टीवी पर घंटो खड़े रहकर लुत्फ़ उठाया जाता या किसी अधिकारी कि कृपा हो तो वहां देखा करते। मौका मिले तो ड्राईवर या माली के घर में नीचे बैठकर टीवी देखने से भी परहेज़ नही। क्रिकेट एक ऐसी चीज थी जिसके खातिर बड़े-बड़े सेठों के लड़के भी अपना ज़मीर गिरवी रख दिया करते थे। भोजनालय में खाना खाते वक़्त भी किसी न किसी का रेडुआ चालू रहता था। प्रायः अधिकतम लोगों के पास एक रेडियो तो हुआ ही करता था। रेडियो रखने वाले खुद को मर्सडीज का मालिक समझा करते थे। खैर, भोजनशाला में स्कोर कि खबर परमाणु बम की तरह फैलती थी- एक से दो, दो से चार, और चार से चालीस में कब पहुची पता नही चलता था। सब बड़ा गजब का था, पहले तो अजीब लगता था पर फिर जिन्दगी का हिस्सा बनता जा रहा था। आगे है अख़बार पढने का मज़ा और रातों की लम्बी-लम्बी बातें....रोमांस बदस्तूर जारी है...............
(प्रतिक्रिया(comments) में कंजूसी न बरते)
हमारा स्मारक : एक परिचय
श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं।
विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें।
हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015
8 comments:
story badi kamal ki hai....ise jaldi-jaldi aage badao....
lage raho...yaado ka sahi use yahi hai...
story badi interesying h.
story badi interesying h.
Bate story ko vistaar se aur jaldi jaldi aage badha . It's really very intresting and refreshing.
story ko jaldi aage badao.wonderful!!!!!!!!!!!!!!!!!!
maza aagaya very nice
maza aagaya very nice
Post a Comment