व्यवहार मे ढृडता लाने का अर्थ यह कतई नही है कि आप दुसरो पर चिल्लाए, रोब जमाएँ, गुस्सा करें, दोष लगाएं या उन्हे भयभीत करें । दृढ होने का अर्थ है कि आप अपने पक्ष मे खडे हैं और साथ ही दुसरों के अधिकारो का भी हनन नही कर रहे है अर्थात स्पष्ट शब्दों मे अपनी बात कहना या सब के सामने रखना। यह आपकी भावनाओं, इच्छाओं व विचारों का ईमानदार प्रस्तुतिकरण होता है। इसे प्राय: आपके आत्म-सम्मान व आत्म-छवि से भी जोडा जाता है।
बचपन मे ही हमारा निजी रवैया / ढंग विकसित हो जाता है। उसपर हमारे परिवार, माहौल, और यारो-दोस्तो का भी असर पडता है। यदि बचपन मे आपको बडे अनुशासन मे रखें तो हो सकता है आप उन्ही विचारो को जीवन मे आगे चल कर पेश करें। जब भी आप किसी बात के लिए 'ना' कहना चाहे तो सपष्ट शब्दो मे कहें । उस समय शर्मिंदा हो कर या यह सोच कर कि सामने वाला नाराज़ होगा, माफी मांगने की जरुरत नही है। कई बार दृढता और आत्म-सम्मान की कमी को आपस मे जोड कर देखा जाता है । आत्म-सम्मान की कमी होने से इंसान अपने आप को हीन महसूस करता है और वह सब के सामने बोल नही पाता। यह मनुष्य को कई तरह से प्रभावित करती है । कई लोग इसकी वजह से गुस्सैल और आक्रमक हो जाते है । यही बर्ताव उन्हे और भी बुरा बना देता है । कुछ मामलो मे बीती बातें याद करके, दृढता अपनाने से हिचकते हैं क्योकि वह दुसरो को नाराज़ नही करना चहते।
यदि आपने दृढ रवैया नही अपनाया तो आपके साथ या नीचे काम करने वाले आपकी योग्यताओ व रवैये को गंभीरता से नही लेगें । यदि मीटिगं आदि मे आपने दृढता से अपना पक्ष नही रखा या दुसरो की अप्रसंन्नता के भय से अपना मत व्यक्त नही किया तो बॉस को आपकी योग्यता पर संदेह होने लगेगा। इस तरह से दूसरे लोग आसानी से आपसे फायदा उठा सकते हैं और आपकी योग्यता पर संदेह कर सकते है। कुछ लोग बिना किसी वजह के ही माफी माँगते रह्ते है। यह उनकी अपनी शक्तिहीनता का संकेत होता है। जब तक आपने कोई गलती नही की, तो केवल एक 'साँरी' आपको दोषी बना सकता है। किसी भी परेशानी मे अपने परिवार व दोस्तो की मदद लें । दायित्व व परिस्थितियो से मुँह न मोडें। लगातार अभ्यास से अपने भीतर दृढता पैदा करें। यदि आप कही दृढता नही दिखा पाते तो शर्मिन्दा होने की बजाए अपने-आपसे वादा करें कि आप अगली बार ऐसा नही होने देंगे।
मनचाहा फल मिले या नही, अपने आपको प्रोत्साहित करते रहें। बेचैनी और व्याकुलता से बचें। अतीत से छूट्कर जीवन की नई यात्रा मे उसका साथ दें। अपने हृदय से सारी घृणा निकाल कर इसे प्रेम से लबालब भर दे, हालाकि यह इतना आसान नही है परन्तु लगातार प्रयास से संभव है। ऐसा करने पर ही आप स्वंय को मुक्त अनुभव कर पाएगे। आप जब भी अपना तर्क प्रस्तुत करें तो मरियल स्वरों में कहने के बजाए पूरे दम खम से अपनी बात कहें । बात करते-करते जहां वाक्य खत्म होने वाला हो वहां अपने स्वर को सम पर ले आएँ। किसी से बात करते समय बार-बार सिर न हिलाए, ज़रुरत से ज्यादा न मुस्कुराएँ, अपनी गर्दन एक ओर न झुकाए और न ही अपनी आंखे फेरें, सीधे नेत्रो का संपर्क बना रहे। गरिमामयी, आरामदायक मुद्रा मे बैठे । ध्यान रहे कि आपके चेहरे के भाव आपकी बात से मेल खानी चाहिए। दुसरो की बात को ध्यान से सुने व उन्हे ऐहसास दिलाएँ कि आप उन्हे सुन रहे है। यदि कोई स्पष्टीकरण चाहते है तो प्रश्न पूछे। अपनी शक्ति को कम न करें। जब भी आप बात करें तो ध्यान रहे कि आपकी पूरी बात स्पष्ट्ता से सामने वाले तक पहुँच रही है या नही?
1 comment:
अच्छा विचारणीय आलेख.
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