सदियों से भारत भूमि
की पहचान यदि किसी से है तो वह है यहां का अध्यात्म और ज्ञान की सतत् खोज। यही
हमारी संस्कृति रही है और यही हमारे जीवन का मूल लक्ष्य। भौतिक विकास और असीम
आकांक्षाओं वाले इस युग में भले आधुनिक जीवन शैली का उन्माद लोगों पर नज़र आये पर
आज भी कुछ साधक है जो उसी दिव्यता की यात्रा पर निरंतर गतिमान है। जिस भौतिकता की
चकाचौंध पर आज पश्चिम इतरा रहा है ये भौतिकवाद अजब-गजब भारत का उद्देश्य कभी नहीं
रहा। वैभव का असीम इतिहास हिन्दुस्तान ने देखा है पर इस भौतिक वैभव से परे यहां के
बुद्धिजीवी वर्ग की लालसा कुछ और ही रही है।
भौतिक उन्माद के इस मरुस्थल में आत्मसाधना
के कुछ शीतल कूपों को संजोये हुये और हमारी संस्कृति को जीवित रखे आत्मसाधक मनुज न
सिर्फ अपनी चैतन्य वाटिका में खुद शीतलता का आस्वादन कर रहे हैं अपितु अपने निकट
के समस्त वायुमण्डल में भी शीतल हिलोरें प्रवाहित कर रहे हैं। किंतु इस कलिकाल में
विषयाग्नि में निरंतर दहन को प्राप्त हो रहे कुछ विधर्मियों को न तो वो शीतल
वायुमण्डल रास आता है और न ही शीतलता का आस्वादन करते वे साधक।
जी हां हम बात कर रहे हैं पिछले दिनों जैन
मुनि व साध्वी पर हुए दुर्दांत हमलों की। अपने चैतन्य सरोवर में निमग्न रहने वाले
व समस्त विश्व पर ज्ञान व करुणा की वर्षा करने वाले इन साधकों का भला किसी से क्या
बैर होगा, जो अपनी अमानुष प्रवृत्तियों का शिकार कुछ शैतानियत के प्रतिनिधि इन
साधकों को बनाते हैं। भोग-संयोग से दूर किसी पारलौकिक पदार्थ की खोज में निकले ये
साधक संसार की समस्त माया व मोह से दूर है और जहाँ मोह-माया के ये कंटक ही नहीं है
तो वहां किसी के क्रोध या द्वेष का शिकार इन्हें कैसे बनाया जा सकता है। लेकिन मनचलों
की हठधर्मिता और क्षोभ की पराकाष्ठा वाले इस दौर में कुछ भी हो सकता है जहाँ समूह
में दुर्दांत पाप को तो अंजाम दिया जा सकता है पर एकांत में ज्ञान-आराधन नहीं किया
जा सकता।
शिकायत, इन तत्वज्ञान से शून्य और
अविवेकी-कषायी जीवों से नहीं है शिकायत है समाज और सरकार से। जहां हम एक ऐसा
सुरक्षिम वातावरण इन साधकों को मुहैया नहीं करा पा रहे, जिसमें ये अपनी साधना के
पथ पर निर्बाध बढ़ सकें। कोई इन घटनाओं को भी इन साधकों के ऊपर उपसर्ग बताते हुए
ये कहकर पल्ला झाड़ सकता है कि ऐसा तो हर काल में होता है। निश्चित ही ये उन साधकों
के लिए तो उपसर्ग ही है किंतु ये संपूर्ण मानव समाज के लिए है सिर्फ एक कलंक।
प्राचीन काल में जब ऐसे विधर्मी और मोहाविष्ट जीवों के द्वारा साधकों पर उपसर्ग
होता था तो इन साधकों के उपसर्ग निवारण के लिए तथा उन्हें एक उत्तम परिक्षेत्र
उपलब्ध कराने वाले जीव भी हुआ करते थे। लेकिन आज के समय में समाज की ये उदासीनता
और अपने विषयासक्त कार्यों में ही व्यस्तता स्वयं को ही मूंह चिढ़ाने का काम कर
रही है।
इस देश की संस्कृति संतों से है और उन्हीं
से भविष्य में प्रवाहित होगा हमारा ज्ञान-विज्ञान और दर्शन। हमनें कभी भी संग्रह
का सम्मान नहीं किया, यहाँ सिर्फ त्याग का ही आदर हुआ है। न सिर्फ जैन-दर्शन में
बल्कि अन्य जैनेतर भारतीय दर्शनों में भी त्याग, समर्पण, अहिंसा और सत्य को ही
समस्त लौकिक कार्यों व उपलब्धियों से श्रेयस्कर बताया गया है। त्याग, समर्पण,
अहिंसा और सत्य के इन सिद्धांतों को सुदृढ़ करने वाले प्रावधान हमने संविधान में
शामिल किये। इन समस्त प्रावधानों और सिद्धांतों को भले हम पूजें और इन सिद्धांतों
के धारक व्यक्तित्व की जय-जयकार करें पर असल में इन सिद्धांतों को इस पृथ्वी पर
साकार करते हैं हमारे साधक। अगर ऐसे में हमारे इन साधकों को ही हिंसा और उत्पीड़न
का शिकार होना पड़ेगा तो फिर कौन हमारी संस्कृति को जीवंतता प्रदान करेगा। हम
हमारे संविधान की प्रस्तावना में बड़े उत्साह से विचार, अभिव्यक्ति, धर्म, उपासना
की स्वतंत्रता की घोषणा करते हैं और उतनी ही परिपक्वता और उम्मीद के साथ सामाजिक,
आर्थिक व राजनैतिक न्याय देने की बात करते हैं पर कहाँ है ये स्वतंत्रता और कहाँ
है ऐसा न्याय।
अगर हममें इतनी क्षमता नहीं है कि हम हमारे
विषय-पोषण और लौकिक क्रियाकलापों से विराम पाकर अध्यात्म और मोक्ष के पथ पर आगे
बढ़ सकें तो कम से कम एक श्रावक होने के नाते, समाज का एक हिस्सा होने के नाते ये
तो हमारा कर्तव्य बनता ही है कि इन आत्मसाधकों की रक्षा के पुख्ता इंतजाम उपलब्ध
करा सकें। इन साधकों के साधनापथ में ज़रूरी बुनियादी आवश्यकताओं का ध्यान रख सकें।आज भले हमसे ये कहा जाय कि हम संख्या में
बहुत थोड़े हैं हमारी कौन सुनेगा पर अगर हम संगठित हैं तो हमारी शक्ति का अंदाजा
लगाना भी मुश्किल है। संस्कृति पे हुए इस हमले को हम दिगम्बर, श्वेताम्बर, बीसपंथी,
तेरापंथी, स्थानकवासी के भेद से नहीं देख सकते; इसे तो जैन बनकर, महावीर के अनुयायी बनकर देखना होगा क्योंकि तभी
हमारी गर्दन शर्म से झुक सकती है और हममें इस दिशा में कुछ करने की संकल्पशक्ति
जाग्रत हो सकती है।
बेशक हम अहिंसावादी हैं और हम रहेंगे भी।
फिजूल का उन्माद खड़ा करना न तो हमारा उद्देश्य है और न ही हमारा आदर्श। लेकिन
संस्कृति पर हुए इस हमले के विरुद्ध यदि हमारे स्वर भी मुखर नहीं होते तो ये
अहिंसा नहीं, नपुंसकता है। सुप्त प्रशासन को नींद से जगाने के लिए आवाजें तो
निकालना ही पड़ेंगी, गर ये आवाजें एकजुट हैं तो निश्चित ही इनका शोर बड़ा प्रभावी
होगा। जो कोई भी जहां भी, जिस भी जगह है उसे अपने-अपने स्तर पर प्रयास कर इस दिशा
में विरोध प्रदर्शित करना ज़रूरी है। इन साधकों को एक आदर्श माहौल देने के लिये
जिस किसी भी प्रकार से हम अपना योगदान दे सकें वो प्रशंसनीय ही है। इन सारे
कृत्यों में हम अहिंसक ही रहेंगे और अहिंसा के सहारे ही अपना विरोध प्रदर्शित
करेंगे और यकीन मानिये कि अगर एक उच्च आदर्श और बेहतर उद्देश्य के साथ हमारे ये
अहिंसात्मक प्रयास संपन्न होते हैं तो ये किसी भी तरह के अन्य प्रयासों से ज्यादा
असरकारक साबित होंगे।
ये आत्ममंथन की घड़ी है जहाँ हमें ये
विचारना है कि हमारा भविष्य कैसा होगा और कैसी होगी हमारी संस्कृति। क्या हालातों
से समझौता करते हुए हम जिंदा रहना चाहते हैं? अगर ऐसा है तो इस समझौते में हम, हम रहेंगे ही नहीं। जो भी बचेगा वो
कोई और ही होगा। क्या खुद को किसी और में मिलाकर हम जिंदा रहना चाहते हैं? तो इस परिस्थिति में
भी अपनी मौलिकता खो देने पर हम मरे हुए की ही तरह है। हम हमारी अक्षुण्ण
परंपरा को बनाये रखकर ही जीवित रह सकते हैं और हमारी परंपरा की अक्षुण्णता इन
साधकों से है। इन साधकों से ही हैं हमारे घरों में संस्कार, इनसे ही है जैनत्व की
पहचान और इनसे ही है संस्कृति की जीवंतता। हमारी अवधारणा तो सदा से यही है कि ‘सिद्धांतों से
समझौता नहीं और व्यवहार में विरोध नहीं’ लेकिन यदि हमें हमारे सिद्धांतों से समझौता करने पर मजबूर किया जाता
है तो व्यवहार में विरोध भी मुखर होगा ही होगा।
जगत में अन्याय, अनीति, व्यभिचार का समुद्र
लहलहा रहा है ये समुद्र निरंतर किनारों से अपना माथा कूटकर अपनी मर्यादा को लांघ
जाना चाहता है पर संत-महात्माओं से मिले सत्चरित्रता के संस्कार, वो अग्नि है जो
इस सागर को अपनी सीमा को लांघने की इज़ाजत नहीं देती। अगर वो अग्नि ही बुझ गई तो
निश्चित ही ये सागर अपनी सीमाओं को तोड़कर भयंकर तबाही लाकर रहेगा......