आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज हृदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
लहरों का यौवन मचला है
आज हृदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
शिवमंगल सिंह सुमन की यह कविता बहुतों ने कई मर्तबा सुनी होगी... पर अल्फाज़
तब तक महज कोरे हर्फ ही बने रहते हैं जब तलक उन्हें साकार कर सकने की कुव्वत मानव
पैदा न कर सके। कोरोना संक्रमण काल के दरमियां जब जिंदगियां थमी हैं और कुदरती तौर
पर अनचाहा ही सही, पर विराम का वक्त अनायास ही विचार का वक्त बन पड़ा है। ऐसे में
जिनशासन की पताका को बदस्तूर पूरी शिद्दत के साथ लहराने में टोडरमल स्मारक और इसके
नेतृत्व से ओतप्रोत हो अन्य संस्थाओं ने एक बार फिर चुनौती को अवसर में बदलकर
मिसाल कायम कर दी है। सुमन की इन पंक्तियों के मायनों को चरितार्थ कर एक उदाहरण
आध्यात्मिक जगत के समक्ष खड़ा कर दिया है। अध्यात्म जगत में क्रांति लाने वाले
महान युगपुरुष पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के प्रभावना योग को जिस संकल्पना
के साथ निभाने की जरुरत थी उसे एक मर्तबा फिर टोडरमल स्मारक और इसकी छत्रछाया में
चल रही अर्हं पाठशाला ने चरितार्थ कर दिखाया है।
करीब तेरह हजार की विशाल संख्या में लगभग सवासौ कक्षाओं का एकसाथ संचालन कर और
जबरदस्त प्रबंधन के जरिये उन धारणाओं को विफल कर दिखाया है जो कहा करती थीं कि
प्रभावना के कार्य अनुकूलताओं के मोहताज हैं। जब बतौर ऑब्जर्वर इन कक्षाओं का
अवलोकन करने का अवसर मिला तो लगा कि क्या हुआ गर हम प्रशिक्षण शिविर न लगा सके...
क्या हुआ कि हर वर्ष लगने वाले सैंकड़ो ग्रुप एवं बाल संस्कार शिविर अब न लग
सके... क्या हुआ कि स्थानीय स्तर पर धार्मिक गतिविधियों पर विराम लग गया। हम यानि
टोडरमल स्मारक जिस उद्देश्य के साथ गढ़े थे और कालांतर में उसी उद्देश्य के साथ
आगे बढ़े थे वही अब भी कर रहे हैं और कायनात के आखिरी पल यानि इस अवसर्पिणी में
पंचमकाल के आखिरी समय तक करेंगे क्योंकि सच्ची बात ये है कि हमें कुछ और करना आता
ही नहीं है।
संक्रमण काल के दौरान जबकि प्रभावना का दंभ भरने वाले अनेक स्तंभ
इंतजार कर रहे थे हम इतिहास गढ़ रहे थे। क्या ये सहज यकीन कर सकने वाली घटना है कि
तेरह हजार की संख्या नेटफ्लिक्स या अमेजन पर वेबसीरीज देखने के लिये दीवानी नहीं
हुई। क्या इस दौर में आप ये सहज मान सकते हो कि इन कक्षाओं में फिजिक्स,
कैमिस्ट्री, मैथ या बॉयोलॉजी की कथित लौकिक शिक्षा के बगैर बच्चे पूरी जागरुकता के
साथ आत्मा-परमात्मा का इल्म (ज्ञान) अर्जित कर रहे हैं। जो भले बड़ी डिग्रियां इन
बच्चों को न दिला सके लेकिन एक बेहतर किरदार इन बच्चों को मुहैया करायेगा जिसकी
गंध से आसपास का जर्रा जर्रा महकता नजर आयेगा। किसी ने बड़ी सुंदर बात कही है-
डिग्रियां तो पढ़ाई के खर्चों की रसीदें हैं...
इल्म तो वही है जो किरदार में नजर आये।
और यकीन मानिये इस विशाल ऑनलाइन ई शिविर में जो ज्ञान बच्चे,
युवा, प्रौढ़ सीख रहे हैं वह लॉकडाउन के बाद भी उनके किरदार मे दिखेगा। लोगों के
बीच ये खालीपन, ये कुछ खो दिया हो ऐसी महसूसियत, अप्रकट-अकथित खौफ और भविष्य के
मनगढ़ंत कयासों की उधेड़बुन जैसी अनेक मनोवृत्तियों के बीच जो कुछ भी टोडरमल
स्मारक और अर्हं पाठशाला द्वारा दिया जा रहा है वो ज़ेहन की ज़मी पर अरसे तक जमा
रहने वाला है। बकौल टोडरमलजी- “ इस भव में अभ्यास करके
कदाचित् परलोक में तिर्यंचादि गति में भी जाये तो वहां संस्कार के बल से
देव-गुरु-शास्त्र के निमित्त बिना ही सम्यक्त्व हो जाये, क्योंकि ऐसे अभ्यास के बल
से मिथ्यात्व का अनुभाग हीन होता है। जहाँ उसका उदय न हो वहीं सम्यक्त्व हो जाना है।” जिस माहौल के दरमियां हम ये कोशिशें कर रहे हैं वो कोरी नहीं जाने वाली,
क्योंकि बात निकली है तो दूर तलक जायेगी।
ये वक्त हमें समझा रहा है कि जीवन के अथाह प्रवाह में हम सब छोटे छोटे द्वीप हैं, उस प्रवाह से घिरे हुये भी, उससे कटे हुये भी... भूमि से बंधे और स्थिर भी पर प्रवाह में सदा असहाय भी- न जाने कब प्रवाह की एक स्वैरणी आकर मिटा दे और बहा ले जाये.... फिर चाहे द्वीप का फूल पत्ते का आच्छादन (भौतिक सुख सुविधा) कितनी ही सुंदर क्यों न हों। इस अहसास के बीच पर्यायों की क्रमबद्धत्ता का बोध होना अधिक आसान बन पड़ता है। इस वक्त भलीभांति समझा जा सकता है कि “वो कथित भविष्य है ही नहीं जिसकी चिंता में हम सूखे जा रहे हैं- एक निरंतर विकासमान वर्तमान ही सब-कुछ है। पानी के फव्वारे पर टिकी हुई गेंद के मानिंद... बस जीवन वैसा ही, क्षणों की धारा पर उछलता हुआ सा- जब तक धारा है तब तक बिल्कुल सुरक्षित, सुस्थापित। नहीं तो पानी पर टिके रहने से अधिक बेपाया क्या चीज़ होगी” ऐसे ही पर्यायों की इस धारा के बीच वहीं क्षण सार्थक है जो त्रिकाली को विषय बनाने के लिये उद्यत हो अन्यथा पर्यायों सी बेपाया चीज़ पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर, हम आखिर पा भी क्या रहे हैं महज एक व्यर्थ और व्यग्र वर्तमान तथा भविष्य के।
वस्तुतः बहुतेरे लोगों का साध्य जीवन का आनंद न रहकर, जीवन की
सुविधाएं भर रह गया है, आज हम जीवन के शोध की नहीं, जीवन के दौड़ की बात कहने लगे
हैं। अंधी दौड़ की आपाधापी के इस समय में चिंतन का आधार उपलब्ध कराने का उपक्रम
अनेक अर्थों में प्रशंसनीय है। और हर वो छोटा-बड़ा शख्स जो इस ज्ञान यज्ञ में अपने
योगदान की आहूति दे रहा है वो अभिनंदनीय हो गया है।
मैं ये नहीं कहता कि किसी प्रयास में कोई नुक्स नहीं होते... यकीनन वे होते हैं लेकिन उद्देश्यों की महानता प्रयासों की कमी को धूमिल कर देती है। जिस महान उद्देश्य को लेकर हम बढ़ रहे हैं वो चिंगारी ज्वाला में ज़रूर बदलेगी और इस हजारों की संख्या में से चंद लोग तो ऐसे ज़रूर तैयार हो सकेंगे जो शब्दों की राख के नीचे छिपी चैतन्य की जीवंत आग को पकड़ सकेंगे।
देखा जाये तो हमने लॉकडाउन के दरमियां बीते दो महीने से ही सतत्
ज्ञान ज्योति प्रज्वलित रखी है। अनेक विद्वानों के नियमित लाइव प्रवचन, ज्ञान
गोष्ठियां, बाल संस्कार शिविर उन्हीं नियमित प्रयासों का परिणाम रहे हैं। मसलन हर
किसी के लिये अपनी रुचि, बुद्धि और जिज्ञासा के अनुरूप विषय उपलब्ध कराये ही गये
है उन सभी प्रयासों को भी टोडरमल स्मारक से अलग कर नहीं देखा जा सकता। पूज्य
गुरुदेव श्री के प्रवचनों का सतत् प्रसारण, छोटे दादा डॉक्टर हुकुमचंद जी भारिल्ल
के समय समय पर मिले उद्बोधन, संजीव जी भाईसाहब, मनीष जी, विपिन जी आदि विद्वानों
की नियमित कक्षायें, प्रासंगिक गोष्ठियां और अनेक विद्वानों द्वारा स्थानीय स्तर
पर चलाई गई ऑनलाइन कक्षायें सभी इसी ज्ञानगंगा से निकली सरिताएं ही हैं। इनका
मूल्यांकन लोगों की संख्या के आधार पर नहीं, तत्वबोध की जिज्ञासाओं के प्रशमन के
आधार पर किया जाना चाहिये जो सभी के द्वारा अपने-अपने स्तर पर सार्थक सिद्ध हुई
हैं। इन समान धाराओं को परस्पर प्रतिस्पर्धा भी न माना जाये, दरअसल ये सब एक दूसरे
की पूरक ही हैं। अतः इन्हें इस नजर से न देखा जाये कि फलां के प्रवचन को पांच हजार
व्यू मिले, फलां को पांच सौ और फलां को पचास। इन धाराओं को देख दुष्यंत की कविता
को आज के संदर्भ में नये सिरे से याद करने को जी चाह रहा है-
सिर्फ दर्शक व्यू बढ़ाना ही मेरा मकसद नहीं
श्री जिनेन्द्र की देशना हृदय उतरना चाहिये।
मेरे यूट्यूब पर नहीं तो तेरे यूट्यूब पर सही
हो कहीं भी तत्व लेकिन तत्व बहना चाहिये।
कोरोना संक्रमण
काल के बाद जो दौर आयेगा वो एक नई संस्कृति विकसित करेगा... दुनिया विभिन्न
प्रयोजनों को सिद्ध करने के लिये वक्त के माकूल बदलने की जुगत में लग रही है और
हमें खुशी है हमने बने हुये पदचिन्हों पर चलने के बजाय खुद पदचिन्ह बनाये हैं। अब
आश्चर्य नहीं कि अनेक सभाओं मे जैसे गुरुदेव के प्रताप से तत्व की झांकियां
देखादेखी ही सही, पर नजर आने लगी हैं कुछ ऐसा ही इन प्रयासों के बाद भी दिखने लगे।
जो इन कोशिशों
की आलोचना कर रहे हैं उनका भी स्वागत है और उनसे भी हम सीखेंगे। लेकिन एक सवाल ये
भी है कि सोचिये यदि हम ये भी न कर रहे होते तो आखिर क्या कर रहे होते। कैसे ये
संक्रमण काल स्व-स्मरण का काल बनता। कैसे विराम का वक्त विचार के वक्त में बदलता।
महज, चारों ओर बिखरी पीड़ा, मौतों के आंकड़े, बेचैनियों के भंवर की चर्चा कर ही
इष्ट सिद्धि तो संभव नहीं हो सकती न। और जिस जंगल के वृक्ष पर हम बैठे हैं जब वहीं
आग लगी हो तो जो भी जितना भी जैसा भी समय हो क्यों न उसे जिनवाणी के अभ्यास, तत्व
विचार और भेदविज्ञान में न लगा दिया जाये। आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं-
विपत्तिमात्मनो मूढ़ः परेषामिव नेक्षते।
दह्यमान- मृगाकीर्णवनांतर- तरुस्थवत्।
यानि दावानल की
ज्वाला से जल रहे मृगों से आच्छादित वन के मध्य में बैठे मनुष्य की तरह मूढ़
प्राणी अन्य की विपत्ति तो देखता है पर अपनी विपत्ति की सुध नहीं लेता।
यकीन मानिये इस
दौर में अखबार पढ़के, समाचार चैनलों को देखकर, रागरंजित उपन्यास आदि पढ़के,
फिल्में या टीवी सीरियल देखके या मोबाइल पर गेम खेलकर अथवा किसी अन्य तरीके से समय
ज़ाया कर दरअसल आप खुद को ही बरबाद करेंगे तो क्यों न इस बीतते वक्त को जिनवाणी के
अभ्यास में लगा दिया जाये... जो वास्तविक और स्वाधीन आनंद की राह प्रशस्त करने
वाला बन सके। इन तमाम विषयों पर विचार कर ये समझ आता है कि क्यों आखिर टोडरमल
स्मारक और अर्हं पाठशाला का यह प्रयास अद्भुत बन पड़ा है।
मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव
ने नियमसार ग्रन्थ की आठवीं गाथा की टीका करते हुये जिनोद्भूत परमागम की महिमा
गाते हुये लिखा है- “जो भव्यों को कर्णरूपी अञ्जलिपुट से
पीनेयोग्य अमृत है, जो मुक्ति सुंदरी के मुख का दर्पण है, जो संसार समुद्र के
महाभंवर में निमग्न समस्त भव्यजनों को हस्तावलम्बन देता है, जो सहज वैराग्यरूपी
महल के शिखर का शिखामणि है, जो कभी न देखे हुये मोक्ष-महल की प्रथम सीढ़ी है, और
जो कामभोग से उत्पन्न होने वाले अप्रशस्त रागरूप अंगारों द्वारा सिकते हुये समस्त
दीन जनों के महाक्लेश का नाश करने में समर्थ सजल मेघ के समान है जिसमें सात तत्व
और नव पदार्थ कहे हैं” ऐसे महान् महिमावंत जिनवचनों से युक्त
द्रव्यश्रुत यानि जिनवाणी के अभ्यास में क्यों न जीवन लगाया जाये क्योंकि
जिणसत्थादो अट्ठे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा।
खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं।
अर्थात्-
जिनशास्त्र द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों को जानने वाले के नियम से
मोह का क्षय हो जाता है इसलिये शास्त्र का सम्यक् प्रकार से अध्ययन करना चाहिये।
इसलिये और
ज्यादा क्या कहें रस्म-ए-दुनिया भी है मौक़ा भी है और दस्तूर भी... कि तमाम व्यर्थ
चेष्टाओं से विराम लें और अपने प्रयोजन को सर्व प्रकार से इस वक्त में साध लें-
विरम किमपरेण कार्यकोलाहलेन
स्वयमपि निभृतः सन्. पश्य
षण्मासमेकम्।
हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाद्
भिन्नधाम्नो
ननु. किमनुपलब्धिर्भाति किं
चोपलब्धिः॥
मौजूदा हालात देख लग रहा है कि संभवतः कम से कम छह माह का वक्त तो ऐसा ही
बीतने जा रहा है तो क्यों न सभी अकार्य कोलाहल से विरक्त हो स्वयं को शरीरादि
पुद्गलों से भिन्न अनुभवने के मार्ग में आगे बढ़ा जाये और उसका सबसे प्रबल हेतु
आगम का अध्ययन है। कहा भी है आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा।
इसलिये अब तो
स्वयं को सर्वप्रकार से आगम में झोंकते हुये आचार्य अमृतचन्द्र के उस कथन को
सार्थक करना है कि “ततो नान्यद्धतर्म
निर्वाणस्येत्यवधार्यते। अलमथवा प्रलपितेन। व्यवस्थिता मतिर्मम। नमो भगवद्भयः।” अर्थात् अब मुझे जिनोपदिष्ट निःश्रेयस का मार्ग प्राप्त हुआ है, निर्वाण का
अन्य कोई मार्ग नहीं है ऐसा निश्चित होता है। अथवा अधिक प्रलाप से बस होओ ! मेरी मति व्यवस्थित हो गई है। निर्वाण का मार्ग बताने वाले और उसे पाने
वाले भगवन्तों को नमस्कार हो।
और ऐसा तभी संभव
है जब हम आगम के सम्यक् अध्ययन से अपनी अव्यवस्थित मति को व्यवस्थित करें और
व्यग्रता को छोड़ एकाग्रता को प्राप्त करें।
टोडरमल स्मारक,
अर्हं पाठशाला और इसके प्रयासों से प्रसन्नता की जो लड़ियां प्रस्फुटित होती हैं
कि इस पर खुद को वारने को जी चाहता है। बालपोथी, बालबोध के जरिये नन्हें मासूम
नौनिहालों को पढ़ा रहे उन छात्र विद्वानों को सिर-आंखों पर बिठाने को जी चाहता है।
दिन-रात अनेक तकनीकी प्रबंधकीय कार्यों के जरिये इसे वर्चुअल माध्यम को रियल बनाने
में लगे समर्थ कार्यकर्ताओं को सहृदयता के उन्माद से गले लगाने को जी चाहता है और
क्या कहें भाई जिन आंधियों में सुविधाओं के बड़े-बड़े आशियां बिखर गये वहां तुमने
जो तत्वज्ञान का महल खड़ा किया है वो तुम्हारी जीवटता का प्रमाण है। आखिर में कभी न खत्म होने वाहे अहसासात को चंद
लफ्जों के जरिये पूर्ण करता हूं-
जहाँ आसमां को जिद है बिजलियाँ गिराने की,
हमे भी जिद है वहीं आशियाँ बनाने की,
आँधियों से कोई कह दो अपनी औक़ात में रहे,
क्योंकि अब हमने
की है हिम्मत सर उठाने की|
- -अंकुर शास्त्री, भोपाल