हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Tuesday, November 30, 2010

स्मारक रोमांस-सर्द मौसम का गर्म मिजाज़

(इसे पढने से पहले स्मारक रोमांस की पूरी श्रंखला पढ़ें)

दीवाली की छुट्टियों से लौटकर जब स्मारक में प्रवेश होता तो सर्दी के मौसम की दस्तक जयपुर शहर में हो चुकी होती थी..और जयपुर की सर्दी प्राण निकालने वाली होती है। इस रेतीले राजस्थान की गर्मी जितनी भयानक है उतना ही शख्त सर्दी का मिजाज भी है...लगता है मानो सर्दी और गर्मी के मौसम में एक दूसरे को हराने की होड़ लगी हो। खैर....

जब छुट्टियों से वापस आते तो अपने साथ सर्दी से बचने के लिए कम्बल, स्वेटर, रजाई आदि समस्त चीजों का प्रबंध कर आते। इन सब चीजों के साथ अपने सूटकेश में कुछ बहाने भी साथ रखकर लाते जो दीवाली की छुट्टियों से लेट आने के चलते अपने भाई साहब को देने होते। या फिर १००-५०० रुपये का अतिरिक्त प्रबंध करके लाते, जिससे लेट आने का दण्ड शुल्क चुका के मामला रफा-दफा किया जाय...नही तो भैया खाना भी नसीब नही होता था। रसीद न कटाने पर भोजनालय के अन्दर भरी महफ़िल में इस तरह हमारे नामों की घोषणा होती कि मानो हमपे बीसियों आपराधिक मामले चल रहे हों....रसीद का टंटा भी कमाल था भाई, कई वन्धुवर तो रसीद कटाने का रिकार्ड बनाया करते थे..और बड़ी शेखी से अपनी यशोगाथा सुनाया करते थे-"भैया अभी तक अपन ने २००० रुपये स्मारक को दान कर दिए" या फिर कहते-"देखो साहब, अपन को चार बातें सुनना पसंद नही हैं, आप तो ये बताओ रसीद कित्ते कि कटाना है"...अजब कहानी थी भाई।

कड़ाके की सर्दी में सुवह उठना तो ऐसा जान पड़ता था कि 'तिल-तिल करें देह के खंड, हमें उठावें ...... प्रचंड'। और ऐसे में सवेरे-सवेरे कक्षा में जाना 'मानो करेला वो भी नीम चढ़ा'। सो जैसे-तैसे मूंह पे पानी फेरकर अध्निंदयाये से पहुँच जाया करते...कुछ लोग तो दुल्हन बनकर पंहुचा करते थे, नही समझे! मतलब ठण्ड से बचने के लिए अपनी shawl को कुछ इस अंदाज में सर पे रखा करते कि नयी-नवेली दुल्हनिया आई हो। और हाँ, कुछ वल्लम तो ऐसे भी होते जो सवेरे-सवेरे नहाकर कक्षा में जाया करते...ये कुछ तथाकथित पढ़ाकू किस्म के विद्यार्थी होते थे, जिन्हें अपनी इस सवेरे नहाने वाली प्रवृत्ति का खासा अभिमान होता था, मानो सवेरे नहाकर ये महाशय ओलम्पिक के तैराकी का गोल्ड मेडल जीत आये हों।

इन सर्दियों की सुवह में कुछ खुशनुमा होता था तो वह था-चाय का आस्वादन...स्मारक की चाय को यदि चाय का अविष्कारक चख ले तो उसे भी अपने आप पे शर्म आ जाएगी...इस कदर लजीज हुआ करती थी ये चाय। लेकिन हमें शिकायत ये भी थी कि दूध पीने वालों को फुल गिलास दूध दिया जाता पर चाय पीने वालों को बस आधे गिलास...लेकिन उस आधी गिलास में भी गजब कि स्फूर्ति होती थी कि उस चाय के लिए पूरा साल ठण्ड सहने को तैयार रहते थे हम...और दूध पीने वालों पे तरस भी आता था जो चाय के इस अद्भुत आनंद से वंचित रह जाते थे...उनके हालात पे हमें वो भजन याद आता कि 'अचरज है जल में रहके भी मछली को प्यास है'। लेकिन चाय पीने के बाद सबसे बड़ी आफत होती थी गिलास धोने की...दरअसल हमें अपने-अपने गिलास चाय लाने के लिए ले जाने होते थे...चाय को हथियाने जब छात्रों की टोली भोजनालय को कूच किया करती तो हाथ में गिलास और चद्दर ओढ़े इन छात्रो का दृश्य अद्भुत बन पड़ता था। कई छात्रों के गिलास तो अगले ही दिन भोजनालय में धुला करते थे।

सवेरे-सवेरे नहाने के लिए गरम पानी की भी बढ़ी जद्दोजहद हुआ करती थी...पानी लाने के लिए कतारें लगना,
वालटी -मग्घा का न मिलना जैसी घटनाये आम थी...और कुछ खास किस्म के विद्यार्थी दो-दो व़ालटी पानी जब लाते तो दूसरे छात्रों का खून खोल उठता था...कई बार ये लड़ाइयाँ क्षेत्रवाद का रूप अख्तियार कर लेती "कोई कहता ये मराठी ही दो-दो वालटीयों का यूस करते हैं" तो दूसरा कहता "इन बुन्देलियों को तो नहाना ही नही आता तभी तो घिना से घूमते रहते हैं" सब बड़ा कमाल था।

नहा-धोके प्रवचन में भी उसी मुद्रा में पहुँच जाया करते जैसे क्लास में जाया करते...कुछ सज्जन तो यहाँ भी महज ड्राई-क्लीन कर ही पहुँच जाते...मतलब मात्र हाथ-मूंह धोके। बन-ठन के प्रवचन सुना करते.. इसी बीच एक छात्र अपने बगल वाले से कहता 'ए द्रविड़ आउट हो गया'.. बगल वाला भी हैरत में कि ये प्रवचन के बीच द्रविड़ कहाँ से आ गया...बाद में पता चलता जनाब अपने सर्दी से बचने के लिए इस्तेमाल टोपे के अन्दर ear-phone फ़साये हुए थे। इसी बीच स्मारक के एक्साम का सिलसिला चला करता था...उन एक्साम की तैयारी भी पूरे रंगीन मिजाज के साथ सर्दियों में छत पे धूप सेंकते हुए ग्रुप में की जाती। उस सोंधी-सोंधी धूप और दोस्तों के साथ से माहौल बेहद हसीन हो जाया करता था।

शाम के समय अपने चौकीदार चाचा के साथ बैठ आग तापना भी एक शगल हुआ करता था...जहाँ लम्बी-लम्बी बातों का दौर भी अनायास ही चल पड़ता। कुछ होनहार लोहे की बकेट में कुछ जलती हुई लकड़ी के टुकड़े ले आते और आग सेंकने का ये सिलसिला अपने-२ कमरे में भी जारी रहता। कई धुरंधर अपने पास हीटर रखा करते थे जिससे कभी-कभी रात में चाय का जायका भी हो जाया करता था। ह्म्म्म... रंगीनियाँ अनंत हैं.......

तिब्बती मार्केट भी इन दिनों खासा चर्चा का केंद्र हुआ करता था जहाँ से भांत-भांत के ठण्ड निवारक वस्त्रों का क्रय किया जाता। यहाँ भी कई बार अन्धानुकरण का दौर बरक़रार रहता कई बार एक जैसे स्वेटर या जैकेट कई विद्यार्थियों के पास मिल जाया करते थे... सर्दी से बचने के लिए हर चीज खरीदी जाती पर इनर कोई नही खरीदता था क्योंकि इनर की प्राप्ति स्मारक द्वारा ही किसी सज्जन के दान-पुण्य द्वारा हो जाया करती थी...यहाँ भी कई लोगों में असंतुष्टि बनी रहती किसी को अपने साइज से बड़ी इनर मिल जाती तो किसी को साइज से छोटी। कई बार मोजों का वितरण भी हो जाया करता था.....

जिम जाने का सुरूर भी इस समय इन शास्त्रियों पे छाया रहता था...और इंजमाम जैसे मोटे से लेकर इशांत शर्मा जैसे टटेरी शास्त्री के अन्दर अपने वदन को सलमान जैसा बनाने की कशमकश हुआ करती थी...जिम करने के बाद भी दिनभर अपने सीने और बाजुओं को निहारना इनकी दैनिक चर्या का हिस्सा हो जाता है...तथा दूध और केले नित्य आहार का अंग बन जाते हैं...यदा-कदा किसी जूनियर छात्र द्वारा इन जनाब को खजूर पे भी चढ़ा दिया जाता है कि ".........जी आपके मसल्स तो कमाल के बन गए हैं, कुछ दिन बाद आप तो छा जाओगे" अपनी प्रशंसा सुनके ये महाशय एक केला अपने उस जूनियर को दे दिया करते। इस तरह केला पाके जूनियर भी खुश और प्रशंसा पाके सीनियर भी...हर तरफ feel good ..........

बहरहाल, मौसम तो सर्द होता था पर मिजाज बहुत गर्म...इन दिनों ही खेलकूद, सांस्कृतिक सप्ताह, राजस्थान उत्सव, कवि सम्मलेन, सक्रांति की पतंगबाजी जैसे तमाम तरह के आयोजन मौसम को और गरम बना देते...माहौल की रंगीनियों को तो वही जान पायेगा जिसे स्मारक से शास्त्री होने का गौरव प्राप्त है....उन दिनों परेशानियाँ भी थी, तनहाइयाँ भी थी पर रंगीनियाँ हमेशा उन पर भारी रहा करती थीं....और आज तो वो सारी चीजें सुरम्य फलसफां बन गयी हैं....सही कहा है "अतीत भले कडवा क्यूँ हो पर उसकी यादें हमेशा मीठी हुआ करती हैं"...................

(विशेष- ये स्मारक को देखने का व्यक्तिगत नजरिया हो सकता है...अनायास कोई धारणा बनाये...सब कुछ ऐसा नही था जैसा विवरण है...कुछ लोगों को शिकायत हो सकती है इससे स्मारक की छवि पे असर पड़ेगा तो उनसे कहना चाहूँगा कि ये आपका मुगालता है क्योंकि स्मारक से भली-भांति परिचित व्यक्ति इससे कभी भ्रमित नही होगा और जो परिचित नही हैं उनके दिग्भ्रमण का प्रश्न ही नही उठता...वैसे भी शास्त्रित्व जाने से उस उम्र सम्बन्धी पर्याय का स्वभाव थोड़ी बदल जायेगा...चंचलता होना लाजमी है...और यदि कुछ विसंगती हममे हैं तो वो भी हमारा सच है, उससे मुंह मोढ़ना मूर्खता है....कडवे यथार्थ को स्वीकार करने का दम होना चाहिए, उसे परदे में रखना बंद कीजिये.....चंद कमियां तो व्यक्तित्व का सर्वतः वर्णन करती हैं व्यक्तित्व की महानता को कम करती हैं..बशर्त उन कमियों को पहचाना जाय)

जारी..........प्रतिक्रिया जरुरी-अच्छी हो या बुरी!!!!!!

Monday, November 29, 2010

हर चेहरा विदा.


क्या वाकई तिथियों के साथ गम भी विदा हो जाते हैं ? काश यादों का भी तर्पण हो सकता और यदि नहीं तो कागे की जगह एक बार ही वह दिखाई दे जाता जिसके लिए आँखों से नमी का नाता टूट ही नहीं पा रहा है.
सांझ
सां .....झ
हर चेहरा विदा.

अन्तिम तीन पंक्तियाँ कवि अशोक वाजपेयी की हैं जो उन्होंने 1959 में लिखी थीं । क्या वाकई हर चेहरा विदा है? विदा होते ही सब कुछ खत्म हो जाता है कि कुछ रह जाता है तलछट की तरह। सालता, भिगोता, सुखाता और फिर सराबोर करता। कभी किसी प्रेम में डूबे को देखा है आपने? एक ऐसे सम पर होता है जहां चीजें एक लय ताल में नृत्य करती हुई नजर आती हैं। इतना सिंक्रोनाइज्ड कि कोई चूक नहीं। समय से बेखबर बस वह उसी में जड़ हो जाता है। यह जड़ता तब टूटती है जब दोनों में से कोई एक बिखरता है। विदा होता है। अवचेतन टूटता है। चेतना जागती है। तकलीफ, दुख, पीड़ा जो भी नाम दें, सब महसूस होने लगते हैं। एहसास होता है जिंदा होने का। एहसास होता है उस ...ताकत का जो इस निजाम को चला रही है। इससे पहले तक लगता है जैसा हम चाह रहे हैं वही हो रहा है। हमने यह कर दिया, वह कर दिया। हमारे प्रयास से ही सब बेहतर हुआ। फिर पता चलता है कि आपके हाथ से सारे सूत्र निकल गए। आप खाली हाथ रह जाते हैं और वह उड़कर जाने किस जहां में खो जाता है। उस दिन आपको यकीन होने लगता है कि आपकी हस्ती से बड़ी कोई बहुत बड़ी हस्ती है जिसके चलाए सब चल रहे हैं। यह सृष्टि भी और इसमें जी रही चींटी भी। आपकी बिसात कुछ नहीं। यह आपको अपनी हार लग सकती है। आप ठगे से रह जाते हैं कि जिसकी आवाज कानों में मिश्री घोला करती थीं... बांहें भरोसा देती थी... आंखें उम्मीद बंधाया करती थी.... वह आज नहीं है। वह खत्म है। अतीत है। उसके साथ थां जुड़ गया है। नाम के आगे स्वर्गीय लगाना पड़ रहा है और नगर निगम ने उसका मृत्यु प्रमाण पत्र जारी कर दिया है। यह सब एक जिंदा शख्स को मृत्यु की कगार पर लाने से कम नहीं होता है। जीते जी मरने की यह तकलीफ सिर्फ वही पाता है जिसका अपना उससे विदा ले गया हो। 1987 में वाजपेयी जी ने फिर लिखा विदा शीर्षक से-
तुम चले जाओगे
पर
थोड़ा-सा यहां भी रह जाओगे

जैसे रह जाती है
पहली बारिश के बाद
हवा में धरती की सोंधी सी गंध
भोर के उजास में
थोड़ा सा चंद्रमा
खंडहर हो रहे मंदिर में
अनसुनी प्राचीन नूपुरों की झंकार।
तुम चले जाओगे
पर मेरे पास
रह जाएगी
प्रार्थना की तरह पवित्र
और अदम्य
तुम्हारी उपस्थिति
छंद की तरह गूंजता
तुम्हारे पास होने का अहसास।

तुम चले जाओगे

और थोड़ा सा यहीं रह जाओगे
!

यही अंत में शुरूआत है? यह कोशिश होती है चीजों को बड़े फलक पर देखने की। एक कमरे से घर, घर से शहर, शहर से देश और देश से दुनिया और दुनिया से ब्रह्मांड को देखने की। इस तुलना में आपको अपना गम छोटा लगने लगता है। सूरज आपको अस्त होता हुआ लगता है लेकिन वह कहीं उदय हो रहा होता है। अंत कहीं नहीं है। एक चक्र है जो चलता है सतत निर्बाध जब हमारे मन का होता है तब हमें भी सब चलता हुआ लगता है और जब नहीं होता तब खंडित होता हुआ। एक और कवि हरिवंश राय बच्चन की बात गौर करने लायक है। मन का हो तो अच्छा है और मन का न हो तो और भी अच्छा। गौर कीजिएगा। शायद जिंदगी आसान हो जाए।

साभार
गृहीत-likhdala.blogspot.com

कारवां गुजर गया

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क़ बन गए,
छंद हो दफ़न गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,
वक्त से पिटे-पिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी,
ग़ाज एक वह गिरी,
पुंछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी,
और हम अजान से,
दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

गोपालदास "नीरज"

Wednesday, November 17, 2010

जैनत्व जागरण शिविर बक्स्वाहा की झलकियाँ!!!










बुंदेलखंड की पावन धरा पर बक्स्वाहा मुमुक्षु मंडल और जैन युवा शास्त्री परिषद् द्वारा आयोजित जैनत्व जागरण शिविर कुशलता के साथ संपन्न हुआ...ये शिविर का द्वितीय वर्ष था...जिसके अंतर्गत लगभग ३० छोटे-२ गांवों में बाल संस्कार और अन्य जैन तत्व का पान लोगों कों कराया गया..लोगों कों स्वाध्याय एवं पाठशाला सञ्चालन के लिए प्रेरित किया गया...इस सम्पूर्ण शिविर में विद्वत समागम टोडरमल स्मारक, ध्रुवधाम, मंगलायतन जैसी अग्रणी संस्थाओं द्वारा प्राप्त हुआ.....समापन में लोगो द्वारा इस सतत जरी रखने की भावना भायी....

Friday, November 12, 2010

अहिंसा अभियान समाचार भेजें

दीपावली को प्रदूषण मुक्त एवं अहिंसात्मक रूप से मनाने के उद्देश्य से आयोजित अहिंसा अभियान के अंतर्गत जो कार्यक्रम करवाएं हों, उनके समाचार एवं फोटो हमें भेजें, हम उन्हें यहाँ पर सचित्र प्रकाशित करेंगे।


सरदारशहर में अहिंसा का प्रचार

सरदारशहर, चुरू में निपुण शास्त्री के संयोजन में दीपावली को प्रदूषण मुक्त एवं अहिंसात्मक रूप से मनाने के उद्देश्य से संचालित सर्वोदय अहिंसा अभियान का जोरदार प्रचार हुआ। विभिन्नविद्यालयों के बालकों ने पटाखे न फोड़ने का संकल्प लिया।
यहाँ प्रस्तुत हैं कार्यक्रम की कुछ छवियाँ -

Wednesday, November 10, 2010

मुख्यमंत्रीजी ने देखा पोस्टर





अखिल भारतीय जैन युवा फेडरेशन, जयपुर महानगर द्वारा आयोजित एवं श्री कुन्दकुन्द कहान पारमार्थिक ट्रस्ट, मुंबई द्वारा प्रायोजित सर्वोदय अहिंसा अभियान के अंतर्गत प्रकाशित पोस्टर का अवलोकन माननीय अशोक गहलोत, मुख्यमंत्री राजस्थान सरकार ने किया उन्होंने इस कार्य के प्रति हर्ष व्यक्त करते हुए कहा कि यह बहुत अच्छा कार्य है
अभियान के राष्ट्रीय संयोजक संजय शास्त्री, जयपुर ने मुख्यमंत्री जी को अभियान की जानकारी देते हुए बताया कि यह अभियान पूरे देश में चलाया गया है. इसका उद्देश्य त्योहारों पर होने वाली हिंसा एवं व्यर्थ प्रदर्शन को, पटाखों से होने वाली जन-धन की हानि के प्रति लोगों को जागरूक करना है। महानगर फेडरेशन अध्यक्ष संजय सेठी ने पोस्टर की प्रति मुख्यमंत्रीजी को भेंट करते हुए फेडरेशन के बारे में बताया


Monday, November 1, 2010

"संकल्प" नाटक का मंचन होगा मुंबई में


पीपल फॉर एनिमल लिबेरशन की पहल,१साल बाद होगा फेसबुक, ट्विट्टर और ब्लॉग्गिंग के माध्यम से हो रहा है प्रचार
शाकाहार के बारे में अब जानेगी मायानगरी मुंबई

दिनांक: 1 नवम्बर, जयपुर- जयपुर आधारित गैर सरकारी संस्था पीपल फॉर एनिमल लिबेरशन जो देश भर में जानवरों के अधिकारों पर काम कर रही है अब चल पड़ी है अपना लोकप्रिय नाटक "संकल्प" लेकर मायानगरी मुंबई. इसका मंचन मुंबई मे १३ नवम्बर को भारतीय विद्या भवन मे रखा गया है|
अनिल मारवाड़ी निर्देशित नाटक "संकल्प' का मंचन जयपुर के कलाकारों ने पिछले साल रविन्द्र मंच पर ९ अगस्त के दिन किया था जिसमे लगभग ७०० लोगों ने शाकाहारी बने रहने का संकल्प लिया था| नाटक मे एक शाकाहारी योगी मे ऐसी अद्भुत शक्ति होती हैं जिससे उसके हाथ लगते ही इंसान के सारे कष्ट दूर हो जाते है. उनकी इस शक्ति के कारण लोग दूर दूर से स्वास्थय लाभ के लिए उनके पास आते है| लेकिन बुरे प्रभाव के कारण वह मांसाहार करना शुरू कर देता हैं| इससे उनके ठीक करने की शक्ति नष्ट हो जाती है और उनमे कई दोष पैदा हो जाते है| नाटक मे कलाकारों ने मांसाहार और अनैतिक आचरण से होने वाले अमानवीय अत्याचार को दर्शाया|

संस्था के सर्वज्ञ भारिल्ल ने बताया की, "नाटक के माध्यम से आजकल शाकाहार के प्रति चल रही ब्र्हान्तियों का निराकरण किया जाता है, शाकाहार में ताकत नहीं होती, अंडा शाकाहारी है जैसे आधारहीन तथ्यों से वाकिफ कराते हुए शाकाहारी रहने और बनने की प्रेरणा दी जाती है|

भारिल्ल का कहना है की गाँधी और महावीर के देश में अहिंसा और शाकाहार की सख्त उपयोगिता है| जानवरों को भी इस पृथ्वी पर रहने का उतना आधिकार है जितना की मनुष्यों का|