हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Saturday, July 9, 2011

उद्दंड जवानी, दहकते शोले और बाढ़ का उफनता पानी

मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास 'प्रेमाश्रम' में जवानी का चित्र कुछ इस तरह खीचा गया है-"बाल्यावस्था के पश्चात् ऐसा समय आता है जब उद्दंडता की धुन सवार रहती है...इसमें युवाकाल की सुनिश्चित इच्छा नहीं होती, उसकी जगह एक विशाल आशावादिता होती है जो दुर्लभ को सरल और असाध्य को मुंह का कौर समझती है..भांति-भांति की मृदु कल्पनाएँ चित्त को आंदोलित करती रहती है..सैलानीपन का भूत सा चढ़ा रहता है..कभी जी में आया की रेलगाड़ी में बैठ कर देखूं कि कहाँ तक जाती है..अर्थी को देख श्मशान तक जाते हैं कि वहां क्या होता है..मदारी को देख देख जी में उत्कंठा होती है कि हम भी गले में झोली लटकाए देश-विदेश घूमते और ऐसे ही तमाशे दिखाते..अपनी क्षमताओं पर ऐसा विश्वास होता है कि बाधाएँ ध्यान में ही नहीं आती..ऐसी सरलता होती है जो अलादीन का चिराग ढूंढ़ लेना चाहती है...इस काल में अपनी योग्यता की सीमायें अपरिमित होती है..विद्या क्षेत्र में हम तिलक को पीछे हटा देते हैं, रणक्षेत्र में नेपोलियन से आगे बढ़ जाते हैं...कभी जटाधारी योगी बनते हैं, कभी टाटा से भी धनवान हो जाते हैं.."

जीवन का ऐसा समय जिसे बड़ा हसीन समझा जाता है लेकिन ये उद्दंडता का समय कई बार चरित्र पे ऐसी खरोंचे दे जाता है जिसके दाग जीवन भर नहीं भरते...अनुशासन और संस्कारों का नियंत्रण अगर न हो तो स्वयं की तवाही के साथ परिवार और समाज की बरबादी भी सुनिश्चित है..ये दौर दहकते शोले की तरह होता है चाहो तो उन शोलों पर स्वर्ण को कुंदन में बदल लो चाहो तो महल-अटारी को भस्म कर दो..या ये दौर बाढ़ के उस उफनते पानी की तरह है चाहो तो इसपे बांध बना के जनोपयोगी बना लो चाहो तो यूँही इसको स्वछंद छोड़ कर बस्तियों को बहा ले जाने दो..इन सारी चीजों में जो एक बात कॉमन है वो ये कि विवेक और नियंत्रण के साथ इनका प्रयोग ही सार्थक फल दे सकता है..अन्यथा परिणाम की भयंकरता के लिए तैयार रहे..

आनंद के मायने अलग होते हैं, अधिकारों को हासिल करने की तमन्नाएं ह्रदय में कुलाटी मारती है..मस्ती-अय्याशी-हुड़दंग जीवन का सार लगने लगते हैं..तरह-तरह के सपने नजरों के सामने नृत्य करते हैं..प्रायः इस उम्र में लक्ष्य नहीं, इच्छाएं सिर पे सवार होती हैं..गोयाकि "काट डालेंगे-फाट डालेंगे" टाइप अनुभूतियाँ होती है..

पहली सिगरेट होंठो को छूती है फिर उससे मोहब्बत हो जाती है..दारू का पहला घूंट कंठ को तर करता है फिर उसमे ही डुबकियाँ लगाई जाने लगती हैं..घर से नाता बस देर रात में सोने के लिए ही होता है..होटलों का खाना सुहाने लगता है..दाल-रोटी से ब्रेक-अप और पिज्जा-वर्गर से दोस्ती हो जाती है..गालियों से दोस्तों का स्तुतिगान और लड़की देख सीटी बजने लगती है..स्थिरता का पलायन और चंचलता स्थिर हो जाती है..जी हाँ जवानी की आग दहक चुकी है..

बड़े-बूढों की बातें कान में गए पानी के समान कष्ट देते हैं..और अनुशासन का उपदेश देने वाला सबसे बड़ा दुश्मन नजर आता है..इस उम्रगत विचारों के अंतर को ही जनरेशन गेप कहा जाता है..जिन्दगी जीना बड़ा सरल नजर आता है जिम्मेदारी बस इतनी लगती है कि दोस्तों का बर्थ डे याद रहे, और अगली पार्टी मुझे देना है..वक़्त बीतने का साथ ज्ञान चक्षु खुलते जाते हैं और समझ आता है कि जिन चीजों को पाने के हम लालायित थे वो उतनी हसीन नहीं है जितना हम समझ रहे थे..चाहे नौकरी हो चाहे शादी..जिम्मेदारी और हालातों के थपेड़े 'सहते जाना' बस 'सहते जाना' सिखा देते हैं...और समझ आ जाता है कि जिन्दगी दोस्तों की महफ़िल और कालेज की केन्टीन तले ही नहीं गुजारी जा सकती..

एक-एक कर जब हम अपनी इच्छित वस्तुओं को पाते जाते हैं तो उनकी उत्सुकता भी ख़त्म होती जाती है..वांछित का कौतुहल बस तब तक बना रहता है जब तक हम उन्हें हासिल न कर लें..हासिल करने के बाद कुछ नया पाने को मन मचल जाता है..संतोष और धैर्य के अमृत से प्रायः अनभिज्ञता बनी रहती है..और उतावलेपन में लिए गए फैसले बुरे परिणाम दे जाते हैं..

ऐसी दीवानगी होती है कि 'जो मन को अच्छा लगे वो करो' की धुन सवार रहती है..लेकिन इसका पता नहीं होता कि "जाने क्या चाहे मन बावरा" और मन तो न जाने क्या-क्या चाहता है यदि वो सब किया जाने लगे तो क़यामत आ सकती है..ये मन तो सर्व को हड़प लेना चाहता है, सर्व पे अधिकार चाहता है, सर्व को भोगना चाहता है, सारी दुनिया मुट्ठी में करना चाहता है...यदि इसे नियंत्रण में न रखा गया तो कैसा भूचाल आ जाये इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता...

बहरहाल, जवानी-दहकते शोले और उफनते बाढ़ के पानी से सतर्क रहिये और यथा संभव इनपे नियंत्रण रखिये..संयम, संस्कारो से इन्हें काबू में रखिये अन्यथा बिना संस्कारो की ये जवानी ठीक बिना ब्रेक की गाड़ी की तरह है..जो खुद अपना अनिष्ट तो करेगी ही साथ ही दूसरों को भी ठोक-पीट के उनको भी मिटा देगी..इस बारे में और कथन मैं अपने इसी ब्लॉग पर प्रकाशित लेख "जोश-जूनून-जज्बात और जवानी" में कर चूका हूँ..जिन्दगी के इस ख़ूबसूरत समय की अहमियत समझिये और कुछ ऐसा करिए जो ताउम्र आपको फक्र महसूस कराये...क्षणिक आनंद के चक्कर में कुछ ऐसा न कर गुजरिये जिससे जवानी के ये जख्म जीवन के संध्याकाल में दर्द दें..क्योंकि ख़ता लम्हों की होती है और सजा सदियों की मिलती है......

Tuesday, July 5, 2011

सफलता, प्रतिभा और महत्वाकांक्षाओं का संसार



एक बहुत सुन्दर पंक्ति है-"प्रतिभा इन्सान को महान बनाती है और चरित्र महान बनाये रखता है"...और जन्म से मौत की दहलीज तक सिर्फ ये महत्वाकांक्षा दिल में कुलाटी मारती है कि जिन्दगी में कुछ तो करना है, महान बनना है...नाम-पैसा-शोहरत कमाना है..गोयाकि कुछ तो करना है का 'कुछ' बस यही तक सिमट कर रह जाता है और कई बार हम इस 'कुछ' को परिभाषित भी नहीं कर पाते या कहें कि पहचान ही नहीं पाते। दिल की कंदराओं में कुलाटी मारती आकांक्षाओं का 'कुछ' दरअसल इतना महीन है कि हम उसे पकड़ ही नहीं पाते..और बहुत कुछ मिल जाने पर भी "something is missing" की टीस सालती रहती है..मानव स्वभाव ही ऐसा है कि 'सपने अगर पूरे हो जाये तो लगता है बहुत छोटा सपना देखा, कुछ बड़ा सोचना था और यदि पूरे न हों तो लगता है कि कुछ ज्यादा बड़ा सपना देख लिया सफलता का इंतजार बेचैन किये रहता है'...असंतुष्टि दोनों जगह विद्यमान रहती है।

सफलता, खुद एक ऐसी अपनेआप में माया है जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। ये एक ऐसी पिशाचनी है जिसके भ्रम में इन्सान बहुत कुछ गवा देता है..और जब वांछित की प्राप्ति होती है तो जो चीजें इसे पाने के लिए खोयी हैं उनकी कीमत समझ आती है...और वो इस सफलता से कई बड़ी महसूस होती हैं। सफलता की तलाश इतनी भ्रामक है कि जिन्दगी ख़त्म हो जाती है पर तलाश ख़त्म नहीं होती..दर्शन में इसे मृगतृष्णा कहते हैं..रेगिस्तान में जैसे पानी का भ्रम मृग के प्राण ले लेता है कुछ ऐसा ही दुनिया में इन्सान के साथ सफलता के भ्रम में घटित होता है...और कदाचित इन्सान को ये तथाकथित सफलता हासिल हो भी जाये तो वो उस सफलता के शिखर पे नितांत अकेला होता है। बकौल जयप्रकाश चौकसे "सफलता का शिखर इतना छोटा होता है कि उस पर दुसरे के लिए तो छोडो स्वयं की छाया के लिए भी स्थान नहीं होता।"

खास बनने की तमन्ना इन्सान को इस कदर बौरा रही है...कि उस अप्राप्त को पाने की चाह में हासिल की कीमत नहीं आती। प्रतिभा का आग्रह जिदगी को लील रहा है और चरित्र पर जंग लग रही है। मौत की कीमत पे भी सफलता और प्रतिभा पाने की महत्वाकांक्षा रहती है...और उस आकांक्षा के हवन में रिश्ते-नाते-मूल्य सब कुछ स्वाहा हो जाते हैं। स्पेंसर ने "survival of fittest" के सिद्धांत को बताते वक़्त शायद इस बात पर गौर नहीं किया होगा। दरअसल पश्चिम उस नजर से सोच ही नहीं सकता जो भारतीय मूल्यों पर कारगार हो सके...हमारी संस्कृति त्याग को महत्व देती है तो वहां हासिल करने के लिए सारे जतन हैं। उनका व्यक्तिवाद कभी उदीयमान भारत के समाजवाद का संवाहक नहीं हो सकता। हम लक्ष्य को, उद्देश्यों को प्राथमिकता देते हैं तो वे आकांक्षाओं को,इच्छाओं को...और जब इस संस्कृति में आकांक्षाओं के लिए जगह ही नहीं बनती तो सफलता का भूत न जाने कैसे इन्सान को लील जाता है।

सफलता कभी सुख का पर्याय नहीं हो सकती...सफलता कुछ देर के लिए चेहरे पे हँसी तो दे सकती है पर शाश्वत सुख नहीं। जिसे सफलता माना जाता है वह प्रतिभा की देन हो ये जरुरी नहीं। सफलता प्रतिभा से ज्यादा अवसरों की मोहताज है..कई प्रतिभाशाली लोग अवसर के अभाव में यूँही गुमनाम रह जाते हैं, तो कई प्रतिभाशाली लोग सफलता को काकवीट के सामान समझ अपनी मस्ती में मस्त रहते हैं। उन्हें दुनिया को अपना जौहर दिखाना पसंद नहीं वे खुद की संतुष्टि को अहमियत देते हैं। नाम-शोहरत मिल जाने से प्रतिभाशाली हो जाने का प्रमाण पत्र नहीं मिल जाता। यदि ऐसा हो तो राखी सावंत को मल्लिका साराभाई से ज्यादा प्रतिभावान मानना पड़ेगा, हिमेश रेशमिया को श्री रविशंकर से ज्यादा हुनरमंद मानना होगा, जेम्स केमरून को सत्यजीत रे से बड़ा निर्देशक मानना होगा....लेकिन ऐसा नहीं है।

एक जगह की सफलता दूसरी जगह असफलता बन सकती है...एक स्कूल में ९०% अंक लाकर सर्वश्रेष्ठ पायदान पर रहने वाला विद्यार्थी उतने अंको पे भी अपने मनपसंद कालेज में एडमिशन न मिल पाने पर असफल कहलाता है। मिस इण्डिया प्रतियोगिता में जीती सुन्दरी यहाँ सफल है और वही मिस वर्ल्ड में हार जाये तो असफल है। 'लगान' फिल्म फिल्मफेयर पुरुस्कारों में सर्वश्रेष्ठ फिल्म बनकर सफल है और वही आस्कर न जीतने पर क्या असफल हो जाएगी। कहते हैं "असफलता के एक कदम पहले तक सफलता होती है" वर्ल्ड कप के फायनल में हारी श्रीलंकन टीम फायनल से पहले तक सफल थी। सफलता-असफलता हमारे दिमाग की उपज है। हालातों को देखने की नजर ही सफलता-असफलता का निर्धारण करती है। इस सम्बन्ध में ओशो का कथन दृष्टव्य है "हमारे अहंकार की पुष्टि हो जाने का नाम ही सफलता है"।

सफलता को हमेशा प्रदर्शित इस रूप में किया जाता है कि ये परोपकार की भावना है। पर ये शुद्ध स्वार्थपरक तमन्ना है जो साम-दाम-दंड-भेद करने से नहीं चूकती। एक राजनेता अपनी राज्नीति को पर सेवा नाम देगा..स्वार्थवृत्ति नहीं, एक अभिनेता अपनी अभिनय क्षमताओं को जन मनोरंजन नाम देगा, खुद की यश-लिप्सा नहीं...एक क्रिकेटर अपने प्रोफेशन को देशभक्ति का नाम देगा, स्वयं की जिजीविषा का नहीं। सर्वत्र स्वार्थ की नदियाँ प्रवाहित हैं ऐसे में कौन मूल्यों का संरक्षण करता है?

बहरहाल, सफलता की धुंध में कुछ ऐसे भी हैं जो सफलता के नहीं मूल्यों के आग्रही हैं...और उनके फैसले बहुमत के मोहताज नहीं...वे हमेशा नदी की उल्टी धारा में बहना पसंद करते हैं...कुछ लोग इतिहास रटकर सफल बनते हैं ये खुद इतिहास बन जाते हैं...कुछ प्रधानमंत्री, और राष्ट्रपति बनकर सफल होते हैं कुछ बिना किसी पद पे रहकर गाँधी जैसे राष्ट्रपिता कहलाते हैं...हाँ ये जरुर हैं ऐसे दिव्य-लोगों की महिमा उनके जीते-जी हमें नहीं आती। भैया, सफलता को नहीं, प्रसन्नता को चुनिए...सफलता, प्रसन्नता सा आनंद दिलाये ये जरुरी नहीं..पर प्रसन्नता जरुर सफलता सा मजा देती है..................

Tuesday, June 28, 2011

विकास के रथ पे सवार...परिवर्तन की ओर हमारा स्मारक













आगामी पंचकल्याणक से पूर्व टोडरमल स्मारक नए चोगे को पहनने के लिए तेजी से आगे बढ़ रहा है...विगत दो वर्षों से जारी नवीनीकरण की श्रृंखला में अब प्रवचन हाल और बाबु भाई हाल के बाद त्रिमूर्ति और मुख्य प्रवेश द्वार पर निर्माण कार्य तीव्र गति से जारी हैं...उस नव-निर्माण की कुछ झलकियाँ यहाँ प्रस्तुत हैं...स्मारक के न्यू प्रपोस्ड प्लान की झलकियाँ यहाँ पूर्व में प्रकाशित की जा चुकी हैं...

Thursday, June 23, 2011

स्मारक रोमांस - दंगल में चैतन्य की चहल-पहल

(स्मारक रोमांस की पिछली श्रंखला पढ़ ही इसमें प्रवेश करें)

लड़के बड़े उद्दंड हैं, कौन इन्हें शास्त्री कहेगा, ये बस जिनवानी की गद्दी पे ही बड़ी-बड़ी बातें कर सकते हैं, हओ काय के पंडित..फ़िल्में जे देखें, गाना जे गाएं, ऊधम जे मचाय, अरे इनकी तो बस बातें ही बातें हैं.........ये कथा अनंत है। कुछ तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के शास्त्री वन्धुओं के बारे में यही धारणाएं रहती हैं और फिर भान्त-भान्त के शब्द बाणों से उनका यशोगान भी किया जाता है....इन ठेकेदारों कों अपनी औलाद सिगरेट पीती नजर नही आती और शास्त्री चाय पीता नजर आ जाता है...बात फिर वही याद आती है कि "बुद्ध पैदा हों, महावीर पैदा हों पर हमारे घर में नही पडोसी के घर में। मानो सारा चरणानुयोग सिर्फ इन शास्त्रियों के लिए ही लिखा है...बेटा शास्त्री करने के बाद बस मुंह बना के घूमो यदि गलती से हंस दिए तो नोकषाय का बंध हो जायेगा... कहाँ लो कथन करें...छोडो बात दूसरी करना है.....

स्मारक रोमांस के पिछले लेखों ने जितनी प्रशंसा पाई तो इसकी आलोचना में मुखर होने वाले स्वर भी कम नही थे। शास्त्रियों की सहज दिनचर्या को उद्घाटित करते लेखों में उन्हें बस दंगल ही दंगल नजर आया अब भैया नहाने-सोने-खेलने-बतियाने की क्रियाओं में जीव जुदा पुद्गल जुदा कहाँ से लाऊं...ऐसा भेद-विज्ञान तो नरक में आपस में पूर्ण नारकीवत लड़ते रावण और राजाश्रेणिक के जीवों में भी सम्यक्त्व होने के वावजूद नही है। स्वाध्यायी हो जाने के बाद भी एक १५-१६ साल का लड़का अपनी पर्याय का स्वभाव छोड़कर कैसे ४५-५० साल वाली गंभीरता ला सकता है...स्वाध्याय योग्य वैराग्य न आने से आप उसके उस स्वाध्याय को तो निरर्थक नही कह सकते। वैसे भी एक बड़ी काम की बात बताऊ जो शायद आप सब को अटपटी लगेगी "विद्यार्थी जीवन सर्व प्रकार के विषयों को मात्र पूरी शिद्दत से रटने के लिए होता है उसे समझने के लिए नही, शिक्षा से समझ नही आती..समझ तो स्वयं से विकसित होती है और जब समझ विकसित हो जाती है तब आपका विद्यार्थी जीवन में रटा-रटाया ज्ञान काम आ जाता है" इसलिए कंठपाठ की अहमियत है। लेकिन रटने में पूरी ईमानदारी और मेहनत का परिचय दें। ह्म्म्म...अभी भी मुद्दे पे नही आ पा रहा हूँ......

बातें महज बातें नही रह जाती अनायास ही उन बातो से तत्वज्ञान बह उठता है। समस्याओं के समाधान स्वयं से मिलने लगते हैं..अंतर से निकली आवाज कुत्सित पथो पर निर्भयता के साथ चलने से रोकती है...विषय भोग में स्वछंदता घट जाती है..विपदाओं में आत्म्सम्बल आ जाता है...जग में रमे रहने पर भी एक खटका मन में होता है कि ये भव महज इन सब कामों के लिए नही मिला...एक अलग ढंग की शारीरिक भाषा (बॉडी-लैंग्वेज) होती है जो उस उम्र के दुसरे युवाओं से इन शास्त्रियों को अलग करती है...ये दंगल में कैसा मंगल है...ये चहल-पहल क्यूँ चैतन्यमुखी हो रही है। जबाव साफ हैं जिनवाणी का समागम भला असर क्यों ना दिखायेगा।

जगत की सम्पूर्ण शिक्षा पद्धत्ति जो कि ज्ञेय-तत्व की मीमांसा कराने वाली है के सामने ये ज्ञान-तत्व की मीमांसा कराने वाली शिक्षा से जन्मी क्रियाविधि ऊपर से भले परिवर्तन न दिखाए...मगर अंतस के नजरिये को आमूल-चूल बदल देती है। जिस तरह चटक सफ़ेद चादर पर हल्का काला दाग सहज आकर्षण पा जाता है ठीक वैसे ही इस दिनचर्या में समाहित चैतन्य की चहल-पहल में हल्का सा दंगल सहज आलोचना में आ जाता है..पर सर्वदा वह आलोचना सही हो ये जरुरी नही।

यहाँ लौकिक बातों में भी निश्चय-व्यवहार के पंच छोड़े जाते हैं, समस्त बातें अपेक्षाओं के साथ ग्रहण की जाती हैं, सप्त-भंग पर ढेरों प्रयोग किये जाते हैं...स्नान के वक़्त भक्तामर का पाठ गुनगुनाया जाता है। भोजन भी तत्वचर्चा के साथ ग्रहण किया जाता है...भजन गायन के साथ सीढियां चढ़ी जाती है...मित्रों में परस्पर चिंता भी इस भांति की व्यक्त की जाती है कि "अरे परीक्षा मुख के कितने अध्याय याद हुए?" या "यार दृष्टि के विषय में दृष्टि को शामिल किया जायेगा या नही?" अथवा "सुन यार मैं प्रमेयरत्नमाला के चौथे अध्याय को नही समझ पा रहा हूँ" भला दुनिया के किस कौने में ये चहल-पहल सुनाई देगी।

जगत में चर्चा के विषय बस क्रिकेट-फिल्म और राजनीति ही हैं दर्शन का गागर तो कुछ ही कुटियो में पिपासुओं की प्यास बुझा रहा है..और उस दर्शन में भी विशुद्ध चैतन्य की वार्ता तो मिलना नामुमकिन है। इस चैतन्य विमुख जगत रेगिस्तान में कमल खिला देख जाने क्यों लोगों को आश्चर्य नही होता..कैसे उत्कृष्टता की महिमा न आकर आलोचना के स्वर फूटते हैं...डांस इण्डिया डांस और इन्डियन आइडल जैसे रियलिटी शो के उन नचैयों और गवैयों पे ताली बजाने वाले ये लोग.. जाने क्यों जिनवाणी को कंठ में लेके घूमने वाले इन शास्त्रियों पर वो प्रशंसा का भाव नही ला पाते, जिसकी दरकार है। और हम यत्र-तत्र के हर किसी जन से ये अपेक्षा नही करते की वे हमारी प्रशंसा करें... अपेक्षा कुछ अपने ही लोगों से हैं...अपेक्षा जिनवाणी माँ के सपूतों से ही है।

बहरहाल, सर्वत्र सब कुछ हरा-हरा हो ये जरुरी नही, विसंगतियां सर्वत्र हैं। पर सर्वत्र बिखरी इन कुछ एक विसंगतियों को सर्वस्व मान लेना कहाँ तक उचित है...आखिर क्यों विस्तृत की प्रशंसा न कर हम लघुतर की आलोचना विस्तृत के सर मढ़ते रहेंगे। खैर, हमारा कर्त्तव्य है स्वयं को योग्य बनाये रखना उसमे जन समूह के समर्थन की परवाह न करें...एवं स्वयं की स्थिति औरों से बेहतर देख स्वछंदता ग्रहण न करें..खुद को और बेहतर बनाये तथा उस बेहतरी को कायम रखने का प्रयास भी करें। अंत में कुछ पंक्तियों के साथ बात ख़त्म करूँगा-

नज़र-नज़र में उतरना कमाल है, नफ्स-नफ्स में बिखरना कमाल है।
महज बुलंदियों को छूना कमाल नही, बुलंदियों पे बने रहना कमाल है।।

Wednesday, June 22, 2011

प्रार्थना और कर्म का रसायन


चरम मजबूरियों में जन्म लेता है अक्सर एक वाक्य-"होनी को कौन टालसकता है" लेकिन जब तक ये त्रासद समय हमसे दूर रहता है हम इस अहंकार या कहें कि मुगालते में ही जीवन गुजारते हैं कि हम सब कर सकते हैं।

साया फिल्म का एक गीत है 'कोई तो है जिसके आगे है आदमी मजबूर, हर तरफ हर जगह हर कहीं पे है हाँ उसी का नूर'। इन मजबूरियों के हालात ही प्रार्थनाओं को जन्म देते हैं। असफलताएं, लाचारियाँ, परेशानियाँ मजबूर करती हैं दुआओं के लिए। अगर हमें प्रकृति से ये लाचारियाँ न मिले तो शायद हम ये भूल ही जाएँ कि हम एक इन्सान हैं, फिर शायद भगवान की याद भी न आये।

दुःख का दौर हमें भगवान के सामने ये गुनगुनाने को मजबूर करता है कि "तेरा-मेरा रिश्ता है पुराना"। जीवन भर कर्म को सर्वस्व मानने वाले इन्सान के सामने जब विपदाओं के ववंडर आते है तब कर्म बेअसर और प्रार्थनाएं असरदार बन जाती हैं। अनिष्ट की आशंका प्रार्थनाओं की जनक है और अनिष्ट की आशंका हर उस जगह विद्यमान है जहाँ प्रेम होता है। हमें अपने जीवन से, रिश्तों से, संवंधों से इस कदर आसक्ति है जो हमारे अन्दर एक डरको पैदा करती है। जी हाँ डर, इनके खोने का, बिखरने का, टूट जाने का। इस तरह गाहे-बगाहे प्रार्थनाएं प्रेम से जुड़ जाती हैं।

तो क्या प्रार्थनाओं से कुछ होता भी है? या कोई इन्हें सुनता भी है? इस बारे में अलग-अलग मत हो सकते हैं। लेकिन इस संबंध में अपना व्यक्तिगत नजरिया रखूं जो मेरे अब तक के अध्ययन से निर्मित है तो मैं कहूँगा कि प्रार्थनाओं का असर होता है लेकिन सच ये भी है कि कोई इन्हें सुनने वाला नहीं बैठा है। प्रार्थनाओं में चाहत छुपी होती है और जो चीज हम शिद्दत से चाहते हैं वो हमें मिलकर रहती है। यदि कोई चीज आपको नहीं मिल रही है तो आपकी चाहत में शिद्दत की कमी है। हम हमारी दुआओं, प्रार्थनाओं, चाहतों से ऐसे परमाणु (vibration) उत्सर्जित करते हैं जो हमें वांछित वस्तु की उपलब्धि में सहायक साबित होते हैं। तो इस तरह ये जरुरी नहीं की प्रार्थनाओं या दुआओं के लिए किसी भगवान के दर पर माथा टेका जाये या व्रत-उपवास अथवा गंडा-ताबीज का सहारा लिया जाये। व्रत रखकर या निर्जला उपवास करके हम बस अपनी चाहत की शिद्दत दिखाना चाहते हैं।

दरअसल, ये इंसानी फितरत है कि वो नियति को कभी मंजूर नहीं करता और अपने आसपास घट रही समस्त घटनाओं के लिए किसी न किसी को जिम्मेदार या कर्ता मानता है। जब तक सब सही-सही होता है तो कहता है ये मैंने किया, ये मेरा कर्मफल है और जब खुद के अनुकूल घटित नहीं होता तो किस्मत को या भगवान के मत्थे उस यथार्थ को मढ़ देता है और फिर ईश्वर की चौखट पे जाके कहता है तूने मेरे साथ ही ऐसा क्यूँ किया या मेरा तुझसे विश्वास हट गया। बस इसी क्षणिक सापेक्ष श्रद्धा का नाम छद्म आस्तिकता है। जो गलत हो वो भगवान कैसे हो सकता है ईश्वर के सर पे दोष मढना बंद करें। इसलिए मेरा मानना है कि धार्मिक नहीं, आध्यात्मिक होना चाहिए। god से पहले खुद की पहचान करो।

बहरहाल, गीता के कर्मफलवाद, जैनदर्शन के क्रमबद्धपर्याय और बौद्ध मत के सृष्टि रहस्यवाद को समझने के बाद नियति पर यकीन हो। पाश्चात्य दार्शनिक अरस्तु, सुकरात घटनाओ के इस नियम को 'predestined uncontrollable incident' कहते हैं। वहीँ आइन्स्टीन का इस बारे में कथन भी दृष्टव्य है-"Events do not heppen, they already exist and are seen on the time-machine" वे घटनाओं को पूर्व नियोजित और पहले से विद्यमान मानते हैं। तो फिर प्रश्न उठता है कि यदि नियति ही सब कुछ है तो क्या हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें तो मैं कहना चाहूँगा कि नहीं, हमें अपने स्तर पर कर्म करना कभी बंद नहीं करना चाहिए क्योंकि हमारे हाथ न तो नियति है नहीं कर्म का फल। हमारे हाथ सिर्फ और सिर्फ कर्म है जिसे पुरुषार्थ भी कहते हैं....और हमें अपना काम बंद नहीं करना चाहिए। लेकिन उस काम में ईमानदारी और सद्भावना बनी रहने दें। यही गीता का 'कर्म करो और फल की इच्छा न करो' का सिद्धांत है....और भगवान को अनावश्यक जगत का कर्ता बनाकर इस पचड़े में न डालें तभी बेहतर है।

प्रार्थनाएं तो करें पर निरपेक्ष, जो सापेक्ष होती है वे प्रार्थनाएं नहीं इच्छाएं होती है। भगवान के दर दुनिया की चीजें नहीं स्वयं के लिए आत्मबल मांगने जाएँ। समस्याओं को समस्या की तरह देखना बंद करें। अनुकूलता में अति उत्साह और प्रतिकूलता में अवसाद से बचें तथा इस तरह के व्यक्तित्व को बनाना स्थितप्रज्ञ या स्थिरबुद्धि हो जाना है।

प्रार्थनाओं से ज्यादा जरुरी है कभी सत्य का साथ न छोड़ना, चाहे कुछ मिले या न मिले। दुनिया की बड़ी टुच्ची चीजों (पैसा, पद, प्रतिष्ठा) के लिए जिस तरह से हम सत्य और सिद्धांतों का बलात्कार करते हैं वह तो महा अशोभनीय है। दुनिया की चीजों से क्षणभर की ख़ुशी मिल सकती है परमसुख अपने अन्दर से ही आता है। इसलिए 'प्यासा' फिल्म में साहिर लुधयानवी कहते हैं "ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है"।

खैर, प्रार्थनाओं और कर्म के रसायन की तरह ये लेख भी बहुत जटिल हो गया...इस संबंध में कहा तो बहुत कुछ जा सकता है लेकिन फ़िलहाल इतना ही...लेख अतिविस्तार पा लेगा। ये सारी मेरी अपनी व्यक्तिगत सोच है जो आपके हिसाब से गलत भी हो सकती है...और आप इससे सहमत हों ऐसा मेरा कतई आग्रह नहीं है।

Saturday, June 18, 2011

द्वन्द जीवन-स्वपन चिंतन

लेटने के बाद और नींद आने तक किया गया चिन्तन न तो चिन्तन की श्रेणी में आता है और न ही स्वप्न की श्रेणी में। दिन भर के एकत्र अनुभव से उपजे विचारों की ऊर्जा शरीर की थकान के साथ ही ढलने लगती है, मन स्थिर हो जाने के प्रयास में लग जाता है। कुछ विचार स्मृति में जाकर ठहर जाते हैं, हठी विचार कुछ और रुकना चाहते हैं, महत्व व्यक्त करते हैं चिन्तन के लिये। शरीर अनुमति नहीं देता है, निष्चेष्ट होता जाता है, मन चलता रहता है, चिन्तन धीरे धीरे स्वप्न में विलीन हो जाता है। इस प्रक्रिया को अब क्या नाम दें, स्वप्न-चिन्तन संभवतः इसे पूरी तरह से स्पष्ट न कर पाये।

बड़े भाग्यशाली होते हैं वे, जिनको बिस्तर पर लेटते ही नींद आ जाती है, उनके लिये यह उथल पुथल न्यूनतम रहती है। जब दिन सामान्य नहीं बीतता है, तब यह कालखण्ड और भी बड़ा हो जाता है। कटु अनुभव या तो कोई हल निकाल लेता है या क्षोभ बनकर मानसिक ऊर्जा खाता रहता है। सुखद अनुभव या तो आनन्द की हिलोरें लेने लगता है या गुरुतर संकल्पों की मानसिक ऊर्जा बन संचित हो जाता है। जो भी निष्कर्ष हो, हमें नींद के पहले कोई न कोई साम्य स्थापित कर लेना होता है स्वयं से।

यही समय है जब आप नितान्त अकेले होते हैं, विचार श्रंखलाओं की छोटी-छोटी लहरियाँ इसी समय उत्पन्न होती हैं और सिमट जाती हैं, आपके पास उठकर लिखने का भी समय नहीं रहता है उसे। सुबह उठकर याद रह गया विचार आपकी बौद्धिक सम्पदा का अंग बन जाता है।

अनिश्चय की स्थिति इस कालखण्ड के लिये अमृतसम है, इसे ढलने नहीं देती है। कई बार तो यह समय घंटों में बदल जाता है, कई बार तो नींद खड़ी प्रतीक्षा करती रहती है रात भर, कई बार तो मन व्यग्र हो आन्दोलित सा हो उठता है, कई बार उठकर आप टहलने लगते हैं, ऐसा लगता है कि नींद के देश जाने के पहले विषय आपसे अपना निपटारा कर लेना चाहते हों। यदि क्षुब्ध हो आप अनिर्णय की स्थिति को यथावत रखते हैं तो वही विषय आपके उठने के साथ ही आपके सामने उठ खड़ा होता है।

निर्णय ऊर्जा माँगता है, निर्भीकता माँगता है, स्पष्ट विचार प्रक्रिया माँगता है। अनुभव की परीक्षा निर्णय लेने के समय होती है, अर्जित ज्ञान की परीक्षा निर्णय लेने के समय होती है, बुद्धि विश्लेषण निर्णय लेने के समय काम आता है, जीवन का समस्त प्रशिक्षण निर्णय लेने के समय परखा जाता है। यह हो सकता है कि आप अनिश्चय से बचने के लिये हड़बड़ी में निर्णय ले लें और निर्णय उचित न हो पर निर्णय न लेकर मन में उबाल लिये घूमना तो कहीं अधिक कष्टकर है।

जिस प्रकार निर्णय लेकर दुःख पचाने का गुण हो हम सबमें, उसी प्रकार उल्लास में भी भारहीन हो अपना अस्तित्व न भूल बैठें हम। सुखों में रम जाने की मानसिकता दुखों को और गहरा बना देती है। द्वन्द के किनारों पर रहते रहते बीच में आकर सुस्ताना असहज हो जाता है हमारे लिये। 1 या 0, आधुनिक सभ्यता के मूल स्रोत भले ही हों पर जीवन इन दोनों किनारों के भीतर ही सुरक्षित और सरल रहता है।

सुख और दुःख के बीच का आनन्द हमें चखना है, स्वप्न और चिन्तन के बीच का अभिराम हमें रखना है, प्रेम और घृणा के बीच की राह हमें परखना है, दो तटों से तटस्थ रह एक नया तट निर्मित हो सकता है जीवन में।

पिताजी आजकल घर में हैं, सोने के पहले ईश्वर का नाम लेकर सोने की तैयारी कर रहे हैं, 'राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट'। अपने द्वन्द ईश्वर को अर्पित कर, चिन्तन और स्वप्न के बीच के अनिश्चय को कर्ता के समर्थ हाथों में सौंप कर निशा-मग्नता में उतर गये, अनिर्णयों की श्रंखला का समुचित निर्णय कर निद्रा में उतर गये।

अपना द्वन्द स्वयं ही समझना है। ईश्वर ने संकेत दे दिया है। मैं भी रात भर के लिये अपनी समस्याओं की टोकरी भगवान के नाम पर रखकर सोने जा रहा हूँ। रात भर में संभावना यही है कि समस्या अपना रूप नहीं बदलेगीं, सुबह होगी, नयी ऊर्जा होगी, तब उनसे पुनः जूझूँगा।

साभार गृहीत-praveenpandeypp.blogspot.com

परम्पराओं का आग्रह और शिक्षा






लार्ड मेकाले की शिक्षा पद्धत्ति को पाश्चात्य दृष्टि से देखने पर हम कह सकते हैं की आज रूढ़ीवाद, धर्मान्धता, कट्टरवाद का अंत हुआ है पर गहराई में जाकर विचार करने से हम देखते हैं कि कुछ नहीं बदला सिवा कलेवर के।

ऊपर से जींस-टी शर्ट पहने नजर आ रही संस्कृति आज भी उसी कच्छे-बनयान में हैं। सारा mordanization खान-पान बोलचाल और पहनावे तक सीमित है विचारों पर आज भी जंग लगी है। तमाम शिक्षा संस्थानों में महज साक्षरता का प्रतिशत बढाया जा रहा है शिक्षित कोई नहीं हो रहा है। इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट कॉलेज में दाखिला लेकर छात्र रचनात्मकता के नाम पर बस हालीवुड की फ़िल्में देखना और सिगरेट के धुंए का छल्ला बनाना सीख रहे हैं सोच तो मरी पड़ी है।

शिक्षा सफलता के लिए है सफलता स्टेटस पर निर्भर है स्टेटस सिर्फ अर्निंग और प्रापर्टी केन्द्रित है। ऐसे में कौन विचारों कि बात करे, कैसे नवीन सुसंगातियो का प्रसार हो? यहाँ तो विसंगतियों का बोझा परम्पराओं के नाम पर ढ़ोया जा रहा है। शिक्षा का हथोडा कोने में खड़े परम्पराओं के स्तम्भ को नहीं तोड़ पाता मजबूरन उस स्तम्भ पर छद्म-आधुनिकता का डिस्टेम्पर पोतना पड़ता है।

दिल में पैठी पुरानी मान्यताएं महज जानकारी बढ़ाने से नहीं मिटने वाली, सूचनाओं की सुनामी से समझ नहीं बढती। जनरल नालेज कभी कॉमन सेन्स विकसित नहीं करता। जनरल नालेज बहार से आता है कॉमन सेन्स अन्दर पैदा होता है। विस्डम कभी सूचनाओं से हासिल नहीं होता। भोजन बाहर मिल सकता है पर भूख और भोजन पचाने की ताकत अन्दर होती है। इन्फार्मेशन एक्सटर्नल हैं पर विचार इन्टरनल। अभिवयक्ति आउटर होती है पर अनुभूति इनर।

पर आज हालात सिर्फ इमारतों को मजबूत कर रहे हैं नींव का खोखलापन बरक़रार है। इसी कारण चंद संवेदनाओं के भूचाल से ये इमारतें ढह जाती हैं। फौलादी जिस्म के आग्रही इस दौर में श्रद्धा सबसे कमजोर है। उस कमजोर श्रद्धा का फायदा उठाने ठगों की टोली हर चौक-चौराहों पर बैठी है। गले में ताबीज, हाथ में कड़ा, अँगुलियों में कई ग्रहों की अंगूठियाँ पहनकर लोग किस्मत बदलना चाहते हैं। व्रत, उपवास, पूजा, अर्चना बरक़रार है पर नम्रता, शील, संयम आउटडेटेड हो गए हैं। जितनी भी तथाकथित धार्मिकता की आग धधक रही है वह लोगों के दिमाग में पड़े भूसे के कारण जल रही है इनमें तर्क कहीं नहीं है।

गोयाकि वेस्टर्न टायलेट पर बैठने का स्टाइल खालिश भारतीय है। ऐसे में खुद को माडर्न बताने का राग आलाप जा रहा है। नए वक्त में परम्पराएँ पुरानी ही है और उन परम्पराओं का अहम् भी है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर सड़ी हुई रूढ़ियाँ धोयी जा रही हैं और न्यू-माडर्नस्म के नाम पर नंगापन आयात किया जा रहा है। इन्सान की फितरत भी समंदर सी हो गयी है परिवर्तन बस ऊपर-ऊपर है तल में स्थिति जस की तस है।

विचारों के ज्वार-भाटे परम्पराओं की चट्टानों से माथा कूट-कूटकर रह जाते हैं पर सदियों से उन चट्टानों में एक दरार तक नहीं आई। शिक्षा पद्धति की उत्कृष्टता का बखान करने वाले लोगों के लिए ये सांस्कृतिक शुन्यता आईना दिखाने का काम करती है।

Tuesday, June 14, 2011

अभिव्यक्ति और अनुभूति

एक विचारणीय sms कुछ इस प्रकार है- "किलोग हमें हमारे प्रस्तुतिकरण से आंकते हैं, हमारे अभिप्रायों से नहीं जबकि ईश्वर हमें हमारे अभिप्रायों से आंकते हैं प्रस्तुतिकरण से नहीं"। विज्ञापन के इस दौर में जो दिखता है वही बिकता है। संस्कार सम्पन्नता महज एक दिखावा है जिसे so called manners कहते हैं।

अभिव्यक्ति पूर्णतः अचेतन प्रक्रिया है जिसे चेतन इंसानी पुतलों ने अपना लिया है। शुभेच्छाए, प्यार, सम्मान, विनम्रता सब अभिव्यक्ति तक सीमित है। सूचनाएँ जीवन को अनुशाषित कर रही है पर नैतिक कोई नहीं हो रहा। अनुशाषन भी so called manners है। प्रैक्टिकल होने के उपदेश दिए जाते हैं, इमोशंस सबसे बड़ी कमजोरी बताई जाती है। डिप्लोमेटिक होने के लिए मैनेजमेंट की शिक्षा है सत्य को पर्स में दबाकर रखना ही समझदारी है। बस आप वही कहिये जो लोग सुनना चाहते हैं वह नहीं जो सुनाना चाहिए। गर्दन को सलामत रखना है तो सत्य छुपाकर रखिये।

भर्तहरी, चाणक्य, सुकनास के सिद्धांतो पर फेयोल और कोटलर कि शिक्षा भारी हो गयी है। रामायण और गीता के चीरहरण का दौर जारी है। संवेदन शुन्यता को परिपक्वता का पर्याय माना जाता है। ख़बरों की बाढ़ के चलते खबर का असर होना बंद हो गया है। गोयाकि बासी रोटी गरम करके बेंची जा रही है या गोबर की मिठाई पर चांदी की वर्क चढ़ी हुई है।
पढ़-सुनकर हम अच्छे वक्ता हो रहे है या फिर अच्छे लेखक, पर घटनाएँ अनुभूत नहीं हो रही है। प्रेम की परिभाषा रटने वाले या प्रेम पर पी एच डी करने वाले जीवन भर प्रेम से अछूते रहते हैं। तथाकथित प्रेमप्रदर्शन के तरीके ईजाद हो रहे हैं पर मौन रहकर महसूस किया जाने वाला उत्कृष्ट अहसास कहाँ हैं? मदर्स डे फादर्स वेलेंटाइन डे से लेकर कुत्ते-बिल्ली को पुचकारने वाले दिन तक उत्साह से सेलिब्रेट किये जा रहे हैं पर माँ-बाप का असल सम्मान नदारद है। प्रातःकालीन चरण स्पर्श पर ग्रीटिंग कार्ड्स का अतिक्रमण है। सम्मान के बदले गिफ्ट्स के लोलीपोप पकड़ा दिए जाते हैं। श्रवण कुमार को कौन याद करता है? तमाम ताम-झाम अभिव्यक्ति की मुख्यता से हैं।

अभिव्यक्ति की चकाचौंध में अनुभूति भी दूषित हो रही है। सहानुभूति शब्द सर्वाधिक बदनाम हो गया है। दुःख में सहानुभूति सांत्वना पुरुस्कार सरीखी लगती है एक sms, scrap या readymade email ही सहानुभूति के लिए काफी है। समझ नहीं आता इस अभिव्यक्ति में अनुभूति कहाँ है? विपदा में सहानुभूति तो बहुत मिल जाती है पर साथ नहीं मिलता। एक्सपेक्टेशन बहुत हावी हैं इंटेंशन पर। सहज प्रेम, करुणा, त्याग गयी गुजरी बात बन गये हैं।

उसूल सिर्फ बघारने के लिए हैं जिन पर ताली बजती है जीवन जीने के लिए 'सब चलता है' के जुमले बोले जाते हैं। किसी ने कहा भी है-"झूठ न कहें, चोरी भी न करें..पेट भरने के लिए क्या उसूल सेंककर खायेंगे" भैया उसूलों से चलकर पेट भर जाता है अलबत्ता पेटी न भर पाए। नवसंस्कृति मशीनी हो गयी है और मशीनों के अनुभूति नहीं होती। इस संस्कृति ने दादी-नानी को वृद्धाश्रम में छोड़ दिया है, पुराने साहित्य और पुराणों के पन्ने समोसे के नीचे पड़े हैं, पुरानी धरोहरें, इमारतें टूटकर कोम्प्लेक्स और शापिंग माल में बदल गयी हैं ऐसे में पुरा संस्कारों के समस्त स्त्रोत अपाहिज हो गए हैं।

बहरहाल, इस शुन्यता के माहौल में भी कहीं न कहीं भावनाओं का दीपक टिमटिमा रहा है जो राहत देता है। जो आधुनिकता की आंधी को ललकार रहा है ....और यही संवेदना, संस्कारो और भावनाओं का दिया मजबूर कर रहा है हमें आश्चर्य करने पर कि जो असंवेदना और संस्कारविहीनता के सूरज को सिद्धांतों की रौशनी दिखाने का उद्यम कर रहा है।

Sunday, June 12, 2011

वक़्त कैसा भी हो गुजर जाता है....

एक बड़ी प्रसिद्द पंक्ति है कि "अच्छे वक़्त कि एक बुरी बात होती है कि वो गुजर जाता है और बुरे वक़्त कि एक अच्छी बात होती है कि वो भी गुजर जाता है" अनुकूलता और प्रतिकूलता के ज्वारभाटे में स्थिरता कितनी है वह प्रशंसनीय होती है। उत्सव के लम्हों के अति उत्साह और निराशा के दौर में अति अवसाद से बचना जरुरी है क्योंकि दोनों ही लम्हों में अध्रुवता एक सामान है। ऐसे व्यक्तित्व को निर्मित करने का नाम ही 'स्थितप्रज्ञ' हो जाना है।

खैर ये लम्बा-चौड़ा दर्शन आपको पिलाने का मेरा उद्देश्य सिर्फ अपनी ब्लॉग पर वापसी कि सूचना आप तक पहुँचाना है। पिछले लगभग डेढ़ वर्ष से अनवरत संचालित पी टी एस टी संचार विगत लगभग दो माह से बिना किसी पोस्ट के वीरान पड़ा था। कारण बताना जरुरी नही क्योंकि ब्लॉग के नियमित पाठक इससे भलीभांति परिचित है। जिन्दगी के कठिन दौर से मुखातिब होकर और नए अनुभवों के साथ वापिस लौटा हूँ। दौर कठिन था पर सरलता से गुजर गया। समस्या अपने अंतस में समाधान लिए रहती है बस समस्या को समस्या न मानकर एक अध्यापक मानें क्योंकि जाते-जाते ये बहुत कुछ सिखा जाती है। वैसे भी समस्या उतनी बड़ी होती है जितना बड़ा हम उसे मानते हैं।

इस दरमियाँ मित्रों और परिजनों का सहयोग एवं साथ हृदयस्थल पे हमेशा अमिट रहेगा। टोडरमल स्मारक से प्राप्त ज्ञान कठिन वक्त में जहाँ अंतर को मजबूत बनाये हुए था तो स्मारक परिवार के गुरुजन और मित्रवर बाहर सहयोग एवं साथ प्रदान कर सुरक्षा कवच बनाये हुए थे। ऐसे में परेशानी आखिर कितना परेशान करती। अपने स्मारक का विद्यार्थी होने पर एक बार फिर गुरूर हुआ।

बहुत क्या कहूँ 'कम कहा ज्यादा समझना'...वैसे भी शुभेच्छाओं का कर्ज कभी नही चुकाया जा सकता। स्मारक परिवार से मिला साथ धन्यवाद का मोहताज भी नही है और धन्यवाद ज्ञापित करके में खुद कि लघुता भी प्रदर्शित करना नही चाहता।

खैर बातें बहुत है जो समयानुसार होंगी फ़िलहाल कुशलता की बात कहते हुए नयी शुरुआत के लिए तैयार हूँ।

-अंकुर'अंश'

Sunday, March 27, 2011

शाकाहार---स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन की कुंजी

किसी पश्चिमी विद्वान नें शान्ती की परिभाषा करते हुए लिखा है, कि " एक युद्ध की सामप्ति और दूसरे युद्ध की तैयारी---इन दोनों के बीच के अन्तराल को शान्ति कहते हैं". आज हकीकत में हमारे स्वास्थय का भी कुछ ऎसा ही हाल है. "जहाँ एक बीमारी को दबा दिया गया हो और द्सरी होने की तैयारी में हो, उस बीच के अन्तराल को हम कहते हैं---स्वास्थ्य". क्योंकि इसके सिवा हमें अच्छे स्वास्थ्य की अनुभूति ही नहीं हो पाती.
आज समूची दुनिया एक विचित्र रूग्ण मनोदशा से गुजर रही है. उस रूग्ण मनोदशा से छुटकारा दिलाने के लिए लाखों-करोडों डाक्टर्स के साथ साथ वैज्ञानिक भी प्रयोगशालाओं में दिन-रात जुटे हैं. नित्य नई नईं दवाओं का आविष्कार किया जा रहा है लेकिन फिर भी सम्पूर्ण मानवजाति अशान्त है, अस्वस्थ है, तनावग्रस्त है और न जाने कैसी विचित्र सी बेचैनी का जीवन व्यतीत कर रही है. जितनी दवायें खोजी जा रही हैं, उससे कहीं अधिक दुनिया में मरीज और नईं-नईं बीमारियाँ बढती चली जा रही हैं. इसका एकमात्र कारण यही है कि डाक्टर्स, वैज्ञानिक केवल शरीर का इलाज करने में लगे हैं, जबकि आवश्यकता इस बात की है कि इस पर विचार किया जाये कि इन्द्रियों और मन को स्वस्थ कैसे बनाया जाये. कितना हास्यस्पद है कि 'स्वस्थ इन्द्रियाँ' और 'स्वस्थ मन' कैप्स्यूल्स, गोलियों, इन्जैक्शन और सीलबन्द प्रोटीन-विटामिन्स के डिब्बों में बेचने का निहायत ही मूर्खतापूर्ण एवं असफल प्रयास किया जा रहा है.
दरअसल पेट को दवाखाना बनने से रोकने और उत्तम स्वास्थ्य का केवल एक ही मार्ग है-----इन्द्रियाँ एवं मन की स्वस्थ्यता और जिसका मुख्य आधार है------आहार शुद्धि. आहार शुद्धि के अभाव में आज का मानव मरता नहीं, बल्कि धीरे-धीरे अपनी स्वयं की हत्या करता है. हम अपने दैनिक जीवन में शरीर का ध्यान नहीं रखते,खानपान का ध्यान नहीं रखते. परिणामत: अकाल में ही काल कलवित हुए जा रहे हैं.

आईये इस आहार शुद्धि के चिन्तन के समय इस बात पर विचार करें कि माँसाहार इन्सान के लिए कहाँ तक उचित है. अभी यहाँ हम स्वास्थ्य चिकित्सा के दृ्ष्टिकोण से इस विषय को रख रहे हैं. आगामी पोस्टस में वैज्ञानिक, धार्मिक, नैतिक इत्यादि अन्य विभिन्न दृष्टिकोण से हम इन बिन्दुओं पर विचार करेगें.....
स्वास्थ्य चिकित्सा एवं शारीरिक दृष्टि से विचार करें तो माँसाहार साक्षात नाना प्रकार की बीमारियों की खान है:-
1. यूरिक एसिड से यन्त्रणा---यानि मृत्यु से गुप्त मन्त्रणा:-
सबको पता है कि माँस खाने से शरीर में यूरिक एसिड की मात्रा बढ जाती है. ओर ये बढा हुआ यूरिक एसिड इन्सान को होने वाली अनेक बीमारियों जैसे दिल की बीमारी, गठिया, माईग्रेन, टी.बी और जिगर की खराबी इत्यादि की उत्पत्ति का कारण है. यूरिक एसिड की वृद्धि के कारण शरीर के अवयव Irritable, Painful & Inflamed हो जाते हैं, जिससे अनेक रोग जन्म लेते हैं.
2. अपेडीसाइटीज को निमन्त्रण:-
अपेन्डीसाइटीज माँसाहारी व्यक्तियों में अधिक होता है. फ्रान्स के डा. Lucos Champoniere का कहना है कि शाकाहारियों मे अपेन्डासाइटीज नहीं के बराबर होती है. " Appendicites is practically unknown among Vegetarians."
3. हड्डियों में ह्रास:-
अमेरिका में हावर्ड मेडिकल स्कूल, अमेरिका के डा. ए. वाचमैन और डा. डी.ए.वर्नलस्ट लैसेंट द्वारा प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि मासाँहारी लोगोम का पेशाब प्राय: तेजाब और क्षार का अनुपात ठीक रखने के लिए हड्डियों में से क्षार के नमक खून में मिलते हैं और इसके विपरीत शाकाहारियों के पेशाब में क्षार की मात्रा अधिक होती है, इसलिए उनकी हड्डियों का क्षार खून में नहीं जाता और हड्डियों की मजबूती बरकरार रहती है. उनकी राय में जिन व्यक्तियों की हड्डियाँ कमजोर हों, उनको विशेष तौर पर अधिक फल, सब्जियों के प्रोटीन और दूध का सेवन करना चाहिए और माँसाहार का पूर्ण रूप से त्याग कर देना चाहिए.
4. माँस-मादक(उत्तेजक): शाकाहार शक्तिवर्द्धक:-
शाकाहार से शक्ति उत्पन होती है और माँसाहार से उत्तेजना. डा. हेग नें शक्तिवर्द्धक और उत्तेजक पदार्थों में भेद किया है. उत्तेजना एक वस्तु है और शक्ति दूसरी. माँसाहारी पहले तो उत्तेजनावश शक्ति का अनुभव करता है किन्तु शीघ्र थक जाता है, जबकि शाकाहार से उत्पन्न शक्ति शरीर द्वारा धैर्यपूर्वक प्रयोग में लाई जाती है. शरीर की वास्तविक शक्ति को आयुर्वेद में 'ओज' के नाम से जाना जाता है और दूध, दही एवं घी इत्यादि में ओज का स्फुरण होता है, जबकि माँसाहार से विशेष ओज प्रकट नहीं होता.
5. दिल का दर्दनाक दौरा:-
यों तो ह्रदय रोग के अनेक कारण है. लेकिन इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि उनमें से माँसाहार और धूम्रपान दो बडे कारणों में से हैं. वस्तुत: माँसाहारी भोजन में कोलोस्ट्रोल नामक् चर्बी तत्व होता है, जो कि रक्त वाहिनी नलिकाओं के लचीलेपन को घटा देता है. बहुत से मरीजों में यह तत्व उच्च रक्तचाप के लिए भी उत्तरदायी होता है. कोलोस्ट्राल के अतिरिक्त यूरिक एसिड की अधिकता से व्यक्ति "रियूमेटिक" का शिकार हो जाता है. ऎसी स्थिति में आने वाला दिल का दौरा पूर्णत: प्राणघातक सिद्ध होता है. (Rheumatic causes inflammation of tissues and organs and can result in serious damage to the heart valves, joints, central nervous system)
माँस-मद्य-मैथुन----मित्रत्रय से "दुर्बल स्नायु"(Nervous debility):-
माँस एक ऎसा उत्तेजक अखाद्य पदार्थ है, जो कि इन्सान में तामसिक वृति की वृद्धि करता है. इसलिए अधिकांशत: देखने में आता है कि माँस खाने वाले व्यक्ति को शराब का चस्का भी देर सवेर लगने लग ही जाता है, जबकि शाकाहारियों को साधारणतय: शराब पीना संभव नहीं. एक तो माँस उत्तेजक ऊपर से शराब. नतीजा यह होता है कि माँस और मद्य के सेवन से मनुष्य के स्नायु इतने दुर्बल हो जाते हैं कि मनुष्य के जीवन में निराशा भावना तक भर जाती है. फिर एक बात ओर---माँस और मद्य की उत्तेजना से मैथुन(सैक्स) की प्रवृति का बढना निश्चित है. परिणाम सब आपके सामने है. इन्सान का वात-संस्थान (Nerve System ) बिगड जाता है और निराशा दबा लेती है. धर्मशास्त्रों के वचन पर मोहर लगाते हुए टोलस्टाय के शब्दों मे विज्ञान का भी कुछ ऎसा ही कहना है-----Meat eating encourages animal passions as well as sexual desire।

साभार गृहीत-http://niraamish.blogspot.com/

Friday, March 11, 2011

टोडरमल महाविद्यालय का kin anthem...(कुल गीत)

वन्धुओं..टोडरमल दिगंबर जैन सिद्धांत महाविद्यालय बहुत जल्द अपना कुल गीत जन सामान्य के समक्ष लाने जा रहा है। आगामी पंचकल्याणक एवं अन्य विशिष्ट कार्यक्रमों कों ध्यान में रखते हुए इसे शीघ्रातिशीघ्र worldwide launch किया जायेगा। इस गीत के लिए तमाम कवि, गीतकार, लेखकों...हमारे ब्लॉग पाठकों एवं शास्त्रिवंधुओं की प्रविष्टियाँ आमंत्रित हैं...इस हेतु उनके lyrics यदि पसंद किये गए तो उन्हें इस गीत में शामिल किया जायेगा....आपके गीत के बोल कुछ इस तरह हों जो स्मारक, महाविद्यालय की गतिविधियों को, उसकी महिमा को, इतिहास को बताते हों...जो इस हेतु सान्दर्भिक हो...आपकी प्रविष्टियाँ उपयुक्त होने पर ब्लॉग पे भी प्रकाशित की जाएगी एवं जनसामान्य की प्रतिक्रिया इसमें ली जाएगी। प्रविष्टियाँ शीघ्रातिशीघ्र हमें भेजें....सब कुछ ठीक रहा तो ये गीत मई के जयपुर प्रशिक्षण शिविर में आपके सामने होगा..........

प्रविष्टियाँ निम्न पते पर भेजें-
पीयूष शास्त्री - ptstjaipur@yahoo.com mo.-09785643202
अंकुर जैन- ankur_shastri@yahoo.com mo.-9893408494
सर्वज्ञ भारिल्ल - sarvagyabharill@yahoo.co.in mo.-09887100010

Wednesday, March 9, 2011

.........Sarvoday Ahinsa.........: पोस्टर विमोचन सम्पन्न

.........Sarvoday Ahinsa.........: पोस्टर विमोचन सम्पन्न: "अखिल भारतीय जैन युवा फेडरेशन, राजस्थान प्रदेश के तत्त्वावधान में आयोजित सर्वोदय अहिंसा अभियान के अंतर्गत प्रकाशित सचित्र पोस्टर का विमोचन डॉ..."

Monday, March 7, 2011

ब्रेकिंग न्यूज़: स्मारक मे पंचकल्याणक ?

सूत्रों के हवाले से पता चला है की स्मारक मे शायद पंचकल्याणक करने की योजना बन रही है| स्मारक मे होने वाला यह पंचकल्याणक शायद वर्ष २०१२ के अंतिम महीने मे रखा जाये| अभी कुछ भी स्पष्ट नहीं कहा जा सकता है पर इतना ज़रूर है की यदि ऐसा हुआ तो यह इतिहास के पन्नो मे सबसे बड़ा पंचकल्याणक होगा! अगर हुआ तो इस पर आपके क्या विचार है?

Tuesday, March 1, 2011

स्मारक रोमांस- "विदाई का गम और गम में हम"

"Dedicated to all shastri final year"

खुशियाँ जब अपने चरम से उतरती हैं तो गम भी उतना ही बढ़ जाता है। स्मारक में अध्ययन के दौरान उत्साह का ज्वार जब चरम से चरमतम की स्थिति में पहुच जाता है तभी कमबख्त विदाई का भाटा दस्तक दे देता है। पांच साल तक सोचते हैं कि विदाई में ये बोलेंगे-वो बोलेंगे...तैयारी का आलम कुछ यूँ होता है मानो टीम इण्डिया वर्ल्ड कप की तैयारी को उतारू हो। पर जब ये दिन आता है तो शब्द ब्रह्माण्ड में कहीं विलुप्त हो जाते हैं...और शब्दों से ज्यादा मुखर ख़ामोशी होती है।

सुनाना चालू होता है अपनी वो गुजरी दास्ताँ, वो सफ़र जो इन नौजवानों को स्मारक के दर तक लेकर आया। शुरू होता है वो सिलसिला जो अपनी राहों की बाधाएं बयां करते हैं। यहाँ मैं ये कतई नही कह रहा कि विदाई का समय हमारी मंजिल है...दरअसल ये तो वो सेतु है जहाँ राहें न ख़त्म हुई हैं न मंजिल हासिल हुई है...जहाँ न बचपन दूर हुआ है न जवानी ने दस्तक दी है...न फैसले लिए गए हैं न नतीजे निकल कर आये है। सब कुछ कहीं अटका हुआ है और इस अटकाव के बीच ही एक प्रश्न हम पर दाग दिया जाता है-भविष्य की योजनायें ? स्मारक में रहते हुए कहाँ लगा था कि जिन्दगी जीने के लिए कुछ योजनायें भी बनानी होती हैं...हमने तो बस यही सोचा था कि क्रमबद्धपर्याय को जपते हुए जीवन गुजार देंगे और उस क्रमबद्धता कि जपन में योजनाओं के लिए जगह कहाँ बनती है? लेकिन भैया योजना तो बनाना होगा...तब तुरत-फुरत में जो एक वाक्य मुंह से निकलता है वो ये है कि ताउम्र तत्वप्रचार और तत्वविचार तो जारी रहेगा ही...बाद में भले ये अवधारणा सिस्टम के हाथों घोंट दी जाती हो...लेकिन इस समय तक ये भावना पूर्ण पवित्र होती है।

कई कशिश रह जाती है सीने में कि काश मेने ये और किया होता स्मारक में...काश में ऐसे रहा होता स्मारक में...काश कुछ पहले समझा होता इन दिनों की कीमत को वगैरा-वगैरा...पर अब महज अपने उन कडवे अनुभवों से अनुजों को सीख देने के आलावा कुछ नही होता...और अनुज भी कोई हमारे अनुभवों से सुधरने वाले नही हैं है इन्सान खुद ठोकर खाके सीखता है। दरअसल कुछ सीखने के लिए कई चीजों की जरुरत होती है उनमे दूसरों के अनुभव, स्वयं की प्रतिभा तो जरुरी है ही साथ ही साथ अच्छी किस्मत की दरकार भी होती है। इसलिए यदि कुछ रह गया तो रह गया अब एक नए सिरे से जिन्दगी को देखना है और गुजिश्ता दौर की गलतियों को आगामी दौर से दूर रखना है।

सही होने के संकल्प से ज्यादा जरुरी है इस संकल्पना की निरंतरता का बने रहना। उस संकल्पना के निर्वहन में कई बार ऐसे फैसले भी आपको लेने होंगे जिनमे आपके पास जन वहुमत न होगा..जो क्रांतिकारी होंगे..जो कई लोगों को ठेस पहुचाएंगे पर वो सही होंगे...बस ध्यान रखें की उन्हें समाज के आलोक में न देखकर जिनवाणी के आलोक में देंखे। बड़े-बड़े वादे जो हम अपने दीक्षांत समारोह में कर आते हैं, वे यदि कुछ हद तक भी बने रहे तो हम एक बेहतर जिन्दगी गुजारते हैं। दरअसल उस माहौल में मनोभावों का विरेचन जिस अंदाज में होता है वे मनोभाव बाद में अपनी उस निरंतरता को नही पा पाते। लेकिन तत्समय में उनकी प्रमाणिकता में संदेह नही हो सकता..वो तत्काल का सत्य होते हैं।

अभी तक सब हरा-हरा था दुनिया के असली रंगों से वास्ता तो अब पड़ेगा...इन रंगीनियों में चेतन के चिंतवन की धवलता को बनाये रखना ज्यादा जरुरी है। परिवर्तनों में अपरिवर्तनीय को संभाले रखना बड़ी जिम्मेदारी है। यहाँ फिर मैं वही बात कहूँगा जो मैं पहले भी कह चूका हूँ कि धार्मिक होने से ज्यादा जरुरी धर्म पर विश्वास का होना है।
इस महफ़िल से हम अलग होकर एक नई महफ़िल में जायेंगे कुछ दिन उन महफ़िलों में वीरानियाँ नजर आएंगी फिर वही हसीन लगने लगेंगी। पुराने दोस्तों के सम्बंद्धों का धागा महीन होते-होते कब टूट जाता है पता ही नही चलता...मुलाकाते अक्सर बस ख्यालों में होती हैं।

बहरहाल, जिदगी का सच है ये जिससे हम पहली बार मुखातिब होते हैं तो झटका थोडा ज्यादा लगता है फिर तो ऐसे कई मौके आते हैं और हम उन के आदी हो जाते हैं। जिन्दगी की सबसे अच्छी बात यही है कि वो चलती जाती है और शायद सबसे बुरी बात भी यही है। वक्त गुजरकर सब धुंधला कर देता है...तो कभी लगता है कि हम तो वही खड़े हैं बस समय हमारे ऊपर से निकल गया। विदाई को देखने की एक नजर ये हो सकती है कि ये अंत है तो एक नजर इसे शुरुआत की तरह देखती है। नजर अपनी-अपनी है.............................

जारी.........

Monday, February 28, 2011

सारे जहां से अच्छा...हमारा स्मारक!!

विकास के इस दौर मैं जहाँ पूरी दुनिया आगे बढ रही है, तो हमारी-आपकी भूमि-- स्मारक पीछे क्यों रहे? स्मारक भले ही अपने निर्माण की "हाफ सेनचुरी" पूरी करने वाला हो, पर यहाँ नवीनीकरण की पूरी गुंजाईश है| मुख्य प्रवचन हॉल के बाद, बाबू भाई हॉल का नवीनीकरण हुआ और अब बारी है उसकी जिसकी शायद आपने कल्पना भी नहीं की होगी या सोचा होगा की यहाँ तो जो होना था हो चुका| पर आपके भ्रम को तोड़ते हुए बताने जा रहा हूँ, दिल थाम के बैठिये|

स्मारक मे स्थित भव्य त्रिमूर्ति मंदिर, सीमंधर जिनालय एवं फ्रंट elevation पूरा नवीनीकृत होने जा रहा है| जिसमे सीमंधर जिनालय का extension भी शामिल है| यह पढकर आपके दिल मे धुकुर-पुकुर ज़रूर हो रही होगी| चिंता मत कीजिये, ब्लॉग टीम पूरी कोशिश करेगी की इन तीनो का proposed प्लान आपके समक्ष प्रस्तुत करे| तब तक के लिए थोड़ी कल्पना कीजिये....आखिर कैसा लगेगा हमारा-अपना स्मारक?????? जाते जाते सुनते जाइये की इसका शिलान्यास 2nd मार्च को है...

विदाई समारोह 2011

प. टोडरमल स्मारक भवन में शास्त्री तृतीय वर्ष के छात्रों का विदाई एवं दीक्षांत समारोह दिनांक 1st march'11 को शास्त्री द्वितीय वर्ष के छात्रों द्वारा स्मारक के नव-निर्मित हॉल में रखा गया हैं. इस दिन सुबह से ही स्मारक में कार्यक्रमों की बेला शुरू हो जाएगी.

प्रात: 7 बजे पूजन, 8:15 बजे नाश्ता, 8:45 बजे आ. बड़े दादाजी का मार्मिक प्रवचन और फिर ठीक १ बजे दोपहर में "भेलपुरी" के शानदार नाश्ते के बाद विदाई समारोह का भव्य उद्घाटन होगा, यह पहला सत्र ५:०० बजे तक चलेगा. रात्रि का सत्र ठीक ८:०० बजे से १०:०० बजे तक चलेगा.

समारोह में शास्त्री तृतीय वर्ष के छात्र स्मारक में अपने ५ साल के अनुभव बताएँगे साथ ही, समारोह में उपस्थित रहेंगे-आ. बड़े दादा, छोटे दादा, अन्ना जी, छाबरा जी, शांति जी, शुद्धात्म प्रकाश जी, संजीव जी गोधा, पीयूष जी, संजय जी एवं कॉलेज के गुरुओ को भी आमंत्रित किया गया हैं. विद्यार्थियों को अपने गुरुजनों के उद्भोदन सुनने की तीव्र उत्सुकता रहेगी. साथ ही इसी कार्यक्रम में उन्हें सिद्धांत शास्त्री की डिग्री भी दी जाएगी.

संभव हुआ तो ब्लॉग टीम आपको स्मारक के इसी ब्लॉग पर विदाई समारोह की कुछ झलकिया दिखायेगी. समारोह को लाइव देखे ustream पर. www.ustream.tv/channel/ptst

शास्त्री द्वितीय वर्ष को इस कार्यक्रम के सफल आयोजन के लिए बेस्ट ऑफ़ लक!!!

Sunday, February 27, 2011

आमंत्रण

You are cordially invited on 2.3.11 at 7.00 am to lay the foundation for the renovation work of TRIMURTI & SIMANDHAR JINAYALAY followed by pravchan of Dr. Hukamchand bharill at Todarmal Smarak Bhavan. Please Grace the occasion with your esteemed presence. 
Regards Piyush Jain 

Monday, February 14, 2011

बेहतर है....

जिस तट पर प्यास बुझाने से , अपमान प्यास का होता हो ॥
उस तट पर प्यास बुझाने से , प्यासा मर जाना बेहतर है॥

जब आंधी नाव डूबा देने को
अपनी जिद पे अड़ जाये ,
हर एक लहर नागिन बन के
डसने को फन फैलाये ।

ऐसे में भीख किनारों की मांगना धार से ठीक नहीं,
पागल तुफानो को बढकर आवाज़ लगाना बेहतर है ॥

कांटे तो अपनी आदत के
अनुसार, नुकीले होते है
कुछ फूल मगर कांटो से भी,
जादा जहरीले होते है ॥

जिसको माली आँखे मीचे मधु के बदले विष से सींचे ॥
ऐसी डाली पे खिलने से पहले मुरझना बेहतर है ॥

जो दिया उजाला दे न सके
तम के चरणों का दास रहे
अंधियारी रातो में सोये
दिन में सूरज के पास रहे ।

जो केवल धुंआ उगलता हो, सूरज पे कालिख मलता हो ॥
ऐसे दीपक का जलने से पहले , बुझ जाना बेहतर है ॥

Thursday, February 3, 2011

गौर कीजियेगा...बात तजुर्बे की!!!

मेरी ज़िन्दगी के कडवे मिज़ाज,हमसफर की बेरुखी और दूनियादारी की कम समझ होने के साथ ज़ज्बाती होने की जो सज़ा मुकर्रर की गई है उसी का फलसफा यहाँ हिस्सों मे पेश कर रहा हूँ यह मेरी शाश्वत भटकन का प्रतीक है और अपने जैसे किसी की तलाश का परिणाम भी...। इसे मेरे द्वारा किसी व्यक्ति विशेष का चरित्र चित्रण अथवा व्यक्तिगत अनुभव का सारांश न समझा जाए बल्कि इसका अर्थ अधिक व्यापक एवं सम्रग है...मै ऐसा समझता हूँ....।

अथ कथारम्भे:

  1. दूनिया मे अपने जैसा कोई और भी होगा ऐसा सोचना सबसे बडी मूर्खता है लोग अपने जैसे प्रतीत होतें है लेकिन होता कोई नही।
  2. ऐसे आदमी से सदैव सावधान रहना चाहिए जिसके पास खोने के लिए कुछ भी न हो।
  3. किसी के लिए अपने सपनों के साथ समझौता किसी हालत मे नही करना चाहिए वरना ज़िन्दगी भर एक कसक बनी रहती है।
  4. विश्वास मत करो संदेह करो डेकार्ते यह दर्शन ज्यादा प्रेक्टिकल है जिसे अक्सर भावुक लोग नकार देते है।
  5. अपने अतिरिक्त किसी से भी वफा की उम्मीद करना बेमानी है, सबकी अपनी-अपनी मजबूरी होती हैं।
  6. कच्ची भावुकता और परिपक्व संवेदनशीलता मे फर्क करना जितनी जल्दी सीख सको सीख लेना चाहिए वरना आप अक्सर रोते हुए पाए जाते हैं और हालात आप पर हँसते है।
  7. मित्रता के साथ कभी सामूहिक व्यवसायिक प्रयास की सोचना भी मूर्खता है अंत मे न दोस्ती नसीब होती है और न ही कुछ व्यवसायिक काम सिद्द होता है।
  8. अक्सर लोग आपका ज्ञान आपसे सीखकर आपके सामने ही बडी ही बेशर्मी के साथ बघार सकने की हिम्मत रखते है सो इसके लिए मानसिक रुप से तैयार रहना चाहिए।
  9. आप किसी के लिए सीढी बन सकतें लेकिन मंजिल कभी नही अक्सर लोग एक पायदान का सहारा लेकर उपर चढ जाते हैं और आप जडतापूर्वक यथास्थान खडे हुए रह जातें है।
  10. रंज,मलाल,अपेक्षा और अधिकारबोध ऐसे भारी भरकम शब्दों को समझने की मैंटल फैकल्टी लोगो के पास होती ही नही है।
  11. रिश्तों मे अपनी जवाबदेही अक्सर कम ही लोग समझ पातें है दोषारोपण बेहद आसान है लेकिन किसी की कमजोरियों के साथ उसका साथ निभाना बहुत मुश्किल काम है।
  12. सफलता सम्बन्धों का फेवीकोल है असफल लोग अक्सर एक साथ नही रह पातें है।
  13. अतीत व्यसन से बडा कोई दूसरा व्यसन दूनिया मे हो ही नही सकता यह आपको रोजाना जिन्दा करता है और रोजाना मारता हैं।
  14. दूनिया की सबसे बडी सच्चाई यही है कि आदमी इस भरी दूनिया में नितांत ही अकेला है,सम्बन्धो का हरा-भरा संसार एक शाश्वत भ्रम है।
  15. ....अभी बस इतना ही और भी बहुत सी बातें है लेकिन अगर मै सभी को लिखुंगा तो आपको लगेगा कि महान लोगों की उक्तियाँ टीप रहा हूँ।यह मेरा तज़रबा है अगर आप इससे कुछ सबक ले सकें तो मुझे खुशी होगी लेकिन यह सच है कि मैं आज तक नही ले पाया हूँ।.........अंश

Saturday, January 22, 2011

प्रवचनों की विशिष्ट श्रंखला




आज से अध्यात्म रत्नाकर पंडित रतनचंद जी भारिल्ल के प्रवचनों की विशिष्ट श्रंखला पंडित टोडरमल स्मारक भवन, जयपुर में प्रारंभ हो रही हैइसके अंतर्गतअहिंसा, शाकाहार, सुखी जीवन की कला, इन भावों का फल क्या होगा - आदि विषयों पर सरल प्रवचन होंगेकृपया आप सभी पधारेंअपने मित्रों एवं परिजनों को भी लाभ लेने के लिए सूचित करें

Tuesday, January 18, 2011

श्री सम्मेद शिखर पारसनाथ टोंक की झांकी

इस बार २६ जनवरी को दिल्ली में झारखण्ड सरकार की झांकी में श्री सम्मेद शिखर पारसनाथ टोंक की झांकी बन रही हैसभी को बताएं

Friday, January 14, 2011

एक जान तो बची, उसे तो फर्क पड़ता है!!

मकर संक्रांति जयपुर वासियों ने बड़ी धूम-धाम से मनाई| मकर संक्रांति का त्यौहार जयपुर मे बड़ा महत्व रखता है, जिसमे बड़े-बूढ़े सब बड़-चड़कर भाग लेते हैं| शहर की चार दिवारी का माहौल देखते ही बनता है| बच्चे अपनी-अपनी पतंगे उड़ाते और पेच लड़ाते दिखते है और थोड़ी-थोड़ी देर में हर छत से वो काटा वो मारा की आवाज़ कानो में सुनाई देती रहती हैं| सड़क पर दौड़ रहे बच्चे उस दिन सबसे ज्यादा बिज़ी होते है, पतंग जो लूटना है| चाट, पकोड़ी, कचोड़ी, और चाय का भी लुत्फ़ भरपूर लिया जाता है| लाउड स्पीकर मे सारे लेटेस्ट गाने सुनाई देते है| कुछ लोग पूरे दिन हवा की दिशा निर्धारण करने मे लग जाते है| पतंग उड़ाने लायक हवा नहीं चले तो छत पर फ़ुटबाल, क्रिकेट का भी पूरा इंतज़ाम रहता है| इसी बीच कुछ सद्दे को मंझे मे बाँधने और उलझे धागे को सुलझाने के मैनेजमेंट मे भी लगे रहते है|

इन सबके बीच उस प्यारे, मासूम कबूतर का किसी को ध्यान नहीं रहता जो किसी बिल्डिंग के ऊपर वाली मंजिल के एक छोटे से कोने मे घायल हुआ बैठा है| उसे तो पता भी नहीं था की उसकी उड़ने की स्वतंत्रता मे एक तीखी धागे की डोर बाधा बनेगी जो उसकी गर्दन पर गहरा घाव छोड़ जाएगी जिसके बाद वह अपने बच्चो से शायद ही कभी मिल पाए, वह तो अपने बच्चो को दाना लाने के लिए चला था| यह चित्र तो ऐसा है जैसे बीच सड़क पर किसी आदमी का एक्सिडेंट हो गया हो, उसकी गर्दन से खून बह रहा हो और शहर के सारे लोग बिना ध्यान दिए अपनी मस्ती मे चले जा रहे हो| अनजान आदमी के बारे मे भी ऐसा सोचते ही हमारी रूह काँप जाती है, पर जब पक्षिओं की बात आती है तो हम कितने निर्दयी हो जाते हैं| हमे उस निर्दोष कबूतर की जान जान नहीं लगती पर आदमी की जान जान लगती है|

संक्रांति से पहले शहर के विब्भिन एनजीओ ने पतंग न उड़ाने की शहर वासिओ से अपील की| इस पर कुछ लोगों का सोचना होगा की एक दिन मे क्या फर्क पड़ता है? क्या हम त्यौहार भी न मनाये? उनका सोचना चाहिए की इसी एक दिन से सारा फर्क पड़ता है जब पक्षिओं के लिए चिकित्सा शिविर का आयोजन करना पड़ता है| त्यौहार खुशिया लाता है पर ऐसा त्यौहार किस काम का जो हज़ारों मासूमो की जान ले ले| यह दिन तो शोक के दिन मे परिवर्तित हो रहा है| किसी आतंकवादी हमले मे २०० लोग मरते है तो देश भर मे खलबली मच जाती है| पक्षियों के समुदाय मे इससे बड़ा हमला कभी नहीं हुआ होगा जब लाशो के अम्बार लग जाए| पर वे तो मूक है ना, अपनी आवाज़ नहीं उठा सकते| लोग माने या ना माने पर इन एनजीओ ने उनको आवाज़ दी है और उनके कार्यों से यदि एक जान भी बचती है तो सभी एनजीओ का कार्य सफल है| - सर्वज्ञ भारिल्ल

Wednesday, January 5, 2011

विधानाचार्य प्रशिक्षण शिविर 8.1.2011 to 14.1.2011

विधानाचार्य  प्रशिक्षण शिविर  8.1.2011 to 14.1.२०११


श्री टोडरमल स्मारक भवन मै 8.1.2011 to 14.1.२०११ से विधानाचार्य  प्रशिक्षण शिविर आरभ होने बाला है आप जो भी इस शिविर मै भाग लेना चाहते है वे इन नंबर पर सम्पर्क करे - 
                                            
                                          0141-2705581 & 9785643202 




इस शिविर मै लोकप्रिय प्रवचनकार डॉ. हुकमचंद जी भारिल्ल ब्र. अभिनन्दन कुमार जी,  पं.  रमेशचंद जी ,पं.  शांति जी पाटिल ,पं. राकेश जी नागपुर ,पं. संजय जी मंगलायतन ,द्वारा प्रशिक्षण दिया जायेगा | 


संपूरण शिविर की योजना पं. देवेन्द्र जी विजोलिया एवं पं. पीयूष जी जयपुर करेगे |



Tuesday, January 4, 2011

गया और नया साल


हो कल की जैसे बात,
या कि नींद भरी रात,
किसी अपने की बारात,
बिना लड़े कोई मात।
शायद ऐसे गया, गया साल।।

आये नींद सुनकर गीत,
किसी बेदर्दी की प्रीत,
या कि चुटकी का संगीत,
वर्तमान सा अतीत।
शायद ऐसा ही था वो गया साल।।

चाहे जैसा भी था वो गया साल,
इस बात का किसे है मलाल,
वक़्त आया बनके फिर से द्वारपाल,
आओ सोचें कैसा होगा नया साल?
ज़रा करके देखें खुद से ये सवाल।।

जैसे शादी का हो पत्र,
मिले वर्षों बाद मित्र,
या पुराना कोई इत्र,
कोई ख़बर हो विचित्र।
शायद ऐसा लगे वो नया साल।।

जैसे ग़ज़ल इक हसीन,
कोई सफ़र बेहतरीन,
जैसे दर्द हो महीन,
जैसे साफ हो ज़मीन।
शायद ऐसा लगे वो नया साल।

जैसे घुँघेरू वाली पायल,
या हो जाये कोई क़ायल,
जैसे शेरनी हो घायल,
या कि 'मम्मी जी' का आँचल।
शायद ऐसा लगे वो नया साल।।

जैसे कामगार का पसीना,
बिन श्रृंगार के हसीना,
कोई चुटकुला कमीना,
या फिर मार्च का महीना।
शायद ऐसा लगे वो नया साल।।

जैसे साफ-स्वच्छ दर्पण,
या धुला हुआ बर्तन,
पतिव्रता का समर्पण,
या व्यक्तित्व का आकर्षण।
शायद ऐसा हो वो नया साल।

ये सब थे मान्यवर, मेरे ही उद्‌गार।
कैसा हो नव वर्ष ये, आप ही करें विचार।।
आप ही करें विचार हमें बस इतना कहना।

नया साल मंगलमय हो, प्रतिदिन और रैना।।

साभार गृहीत- cavssanchar.blogspot.com

Saturday, January 1, 2011

'माँ का प्रेम '

वो एहसास अपना सा
जिसमे बस प्रेम है
निर्भीक निस्वार्थ प्रेम
संवेदनाये ,संचेतानाओ से भरा
अद्भुत अनुपम प्रेम
समर्पण से भरा
हमारी खुशियों की दुआओं से भरा
जिसमे वांछा कांक्षा कुछ भी नहीं
बस है तो प्रेम प्रेम और प्रेम
प्रेम की सीमा और सरहदों से पार
वो अनुपम प्रेम
मेरी ख़ुशी सफलता के लिए
समर्पित वो प्रेम मात्र
उस आँचल के अन्दर है
जो हमेशा हर वक़्त
हर क्षण हमारी खुसी के सपने
संजोती है,प्रार्थनाये करती है
येसे उस प्रेम का एहसास मात्र
...

मात्र माँ के प्रेम मैं ही
संभव है !!!!!
अभिषेक जैन