हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Tuesday, June 28, 2011

विकास के रथ पे सवार...परिवर्तन की ओर हमारा स्मारक













आगामी पंचकल्याणक से पूर्व टोडरमल स्मारक नए चोगे को पहनने के लिए तेजी से आगे बढ़ रहा है...विगत दो वर्षों से जारी नवीनीकरण की श्रृंखला में अब प्रवचन हाल और बाबु भाई हाल के बाद त्रिमूर्ति और मुख्य प्रवेश द्वार पर निर्माण कार्य तीव्र गति से जारी हैं...उस नव-निर्माण की कुछ झलकियाँ यहाँ प्रस्तुत हैं...स्मारक के न्यू प्रपोस्ड प्लान की झलकियाँ यहाँ पूर्व में प्रकाशित की जा चुकी हैं...

Thursday, June 23, 2011

स्मारक रोमांस - दंगल में चैतन्य की चहल-पहल

(स्मारक रोमांस की पिछली श्रंखला पढ़ ही इसमें प्रवेश करें)

लड़के बड़े उद्दंड हैं, कौन इन्हें शास्त्री कहेगा, ये बस जिनवानी की गद्दी पे ही बड़ी-बड़ी बातें कर सकते हैं, हओ काय के पंडित..फ़िल्में जे देखें, गाना जे गाएं, ऊधम जे मचाय, अरे इनकी तो बस बातें ही बातें हैं.........ये कथा अनंत है। कुछ तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के शास्त्री वन्धुओं के बारे में यही धारणाएं रहती हैं और फिर भान्त-भान्त के शब्द बाणों से उनका यशोगान भी किया जाता है....इन ठेकेदारों कों अपनी औलाद सिगरेट पीती नजर नही आती और शास्त्री चाय पीता नजर आ जाता है...बात फिर वही याद आती है कि "बुद्ध पैदा हों, महावीर पैदा हों पर हमारे घर में नही पडोसी के घर में। मानो सारा चरणानुयोग सिर्फ इन शास्त्रियों के लिए ही लिखा है...बेटा शास्त्री करने के बाद बस मुंह बना के घूमो यदि गलती से हंस दिए तो नोकषाय का बंध हो जायेगा... कहाँ लो कथन करें...छोडो बात दूसरी करना है.....

स्मारक रोमांस के पिछले लेखों ने जितनी प्रशंसा पाई तो इसकी आलोचना में मुखर होने वाले स्वर भी कम नही थे। शास्त्रियों की सहज दिनचर्या को उद्घाटित करते लेखों में उन्हें बस दंगल ही दंगल नजर आया अब भैया नहाने-सोने-खेलने-बतियाने की क्रियाओं में जीव जुदा पुद्गल जुदा कहाँ से लाऊं...ऐसा भेद-विज्ञान तो नरक में आपस में पूर्ण नारकीवत लड़ते रावण और राजाश्रेणिक के जीवों में भी सम्यक्त्व होने के वावजूद नही है। स्वाध्यायी हो जाने के बाद भी एक १५-१६ साल का लड़का अपनी पर्याय का स्वभाव छोड़कर कैसे ४५-५० साल वाली गंभीरता ला सकता है...स्वाध्याय योग्य वैराग्य न आने से आप उसके उस स्वाध्याय को तो निरर्थक नही कह सकते। वैसे भी एक बड़ी काम की बात बताऊ जो शायद आप सब को अटपटी लगेगी "विद्यार्थी जीवन सर्व प्रकार के विषयों को मात्र पूरी शिद्दत से रटने के लिए होता है उसे समझने के लिए नही, शिक्षा से समझ नही आती..समझ तो स्वयं से विकसित होती है और जब समझ विकसित हो जाती है तब आपका विद्यार्थी जीवन में रटा-रटाया ज्ञान काम आ जाता है" इसलिए कंठपाठ की अहमियत है। लेकिन रटने में पूरी ईमानदारी और मेहनत का परिचय दें। ह्म्म्म...अभी भी मुद्दे पे नही आ पा रहा हूँ......

बातें महज बातें नही रह जाती अनायास ही उन बातो से तत्वज्ञान बह उठता है। समस्याओं के समाधान स्वयं से मिलने लगते हैं..अंतर से निकली आवाज कुत्सित पथो पर निर्भयता के साथ चलने से रोकती है...विषय भोग में स्वछंदता घट जाती है..विपदाओं में आत्म्सम्बल आ जाता है...जग में रमे रहने पर भी एक खटका मन में होता है कि ये भव महज इन सब कामों के लिए नही मिला...एक अलग ढंग की शारीरिक भाषा (बॉडी-लैंग्वेज) होती है जो उस उम्र के दुसरे युवाओं से इन शास्त्रियों को अलग करती है...ये दंगल में कैसा मंगल है...ये चहल-पहल क्यूँ चैतन्यमुखी हो रही है। जबाव साफ हैं जिनवाणी का समागम भला असर क्यों ना दिखायेगा।

जगत की सम्पूर्ण शिक्षा पद्धत्ति जो कि ज्ञेय-तत्व की मीमांसा कराने वाली है के सामने ये ज्ञान-तत्व की मीमांसा कराने वाली शिक्षा से जन्मी क्रियाविधि ऊपर से भले परिवर्तन न दिखाए...मगर अंतस के नजरिये को आमूल-चूल बदल देती है। जिस तरह चटक सफ़ेद चादर पर हल्का काला दाग सहज आकर्षण पा जाता है ठीक वैसे ही इस दिनचर्या में समाहित चैतन्य की चहल-पहल में हल्का सा दंगल सहज आलोचना में आ जाता है..पर सर्वदा वह आलोचना सही हो ये जरुरी नही।

यहाँ लौकिक बातों में भी निश्चय-व्यवहार के पंच छोड़े जाते हैं, समस्त बातें अपेक्षाओं के साथ ग्रहण की जाती हैं, सप्त-भंग पर ढेरों प्रयोग किये जाते हैं...स्नान के वक़्त भक्तामर का पाठ गुनगुनाया जाता है। भोजन भी तत्वचर्चा के साथ ग्रहण किया जाता है...भजन गायन के साथ सीढियां चढ़ी जाती है...मित्रों में परस्पर चिंता भी इस भांति की व्यक्त की जाती है कि "अरे परीक्षा मुख के कितने अध्याय याद हुए?" या "यार दृष्टि के विषय में दृष्टि को शामिल किया जायेगा या नही?" अथवा "सुन यार मैं प्रमेयरत्नमाला के चौथे अध्याय को नही समझ पा रहा हूँ" भला दुनिया के किस कौने में ये चहल-पहल सुनाई देगी।

जगत में चर्चा के विषय बस क्रिकेट-फिल्म और राजनीति ही हैं दर्शन का गागर तो कुछ ही कुटियो में पिपासुओं की प्यास बुझा रहा है..और उस दर्शन में भी विशुद्ध चैतन्य की वार्ता तो मिलना नामुमकिन है। इस चैतन्य विमुख जगत रेगिस्तान में कमल खिला देख जाने क्यों लोगों को आश्चर्य नही होता..कैसे उत्कृष्टता की महिमा न आकर आलोचना के स्वर फूटते हैं...डांस इण्डिया डांस और इन्डियन आइडल जैसे रियलिटी शो के उन नचैयों और गवैयों पे ताली बजाने वाले ये लोग.. जाने क्यों जिनवाणी को कंठ में लेके घूमने वाले इन शास्त्रियों पर वो प्रशंसा का भाव नही ला पाते, जिसकी दरकार है। और हम यत्र-तत्र के हर किसी जन से ये अपेक्षा नही करते की वे हमारी प्रशंसा करें... अपेक्षा कुछ अपने ही लोगों से हैं...अपेक्षा जिनवाणी माँ के सपूतों से ही है।

बहरहाल, सर्वत्र सब कुछ हरा-हरा हो ये जरुरी नही, विसंगतियां सर्वत्र हैं। पर सर्वत्र बिखरी इन कुछ एक विसंगतियों को सर्वस्व मान लेना कहाँ तक उचित है...आखिर क्यों विस्तृत की प्रशंसा न कर हम लघुतर की आलोचना विस्तृत के सर मढ़ते रहेंगे। खैर, हमारा कर्त्तव्य है स्वयं को योग्य बनाये रखना उसमे जन समूह के समर्थन की परवाह न करें...एवं स्वयं की स्थिति औरों से बेहतर देख स्वछंदता ग्रहण न करें..खुद को और बेहतर बनाये तथा उस बेहतरी को कायम रखने का प्रयास भी करें। अंत में कुछ पंक्तियों के साथ बात ख़त्म करूँगा-

नज़र-नज़र में उतरना कमाल है, नफ्स-नफ्स में बिखरना कमाल है।
महज बुलंदियों को छूना कमाल नही, बुलंदियों पे बने रहना कमाल है।।

Wednesday, June 22, 2011

प्रार्थना और कर्म का रसायन


चरम मजबूरियों में जन्म लेता है अक्सर एक वाक्य-"होनी को कौन टालसकता है" लेकिन जब तक ये त्रासद समय हमसे दूर रहता है हम इस अहंकार या कहें कि मुगालते में ही जीवन गुजारते हैं कि हम सब कर सकते हैं।

साया फिल्म का एक गीत है 'कोई तो है जिसके आगे है आदमी मजबूर, हर तरफ हर जगह हर कहीं पे है हाँ उसी का नूर'। इन मजबूरियों के हालात ही प्रार्थनाओं को जन्म देते हैं। असफलताएं, लाचारियाँ, परेशानियाँ मजबूर करती हैं दुआओं के लिए। अगर हमें प्रकृति से ये लाचारियाँ न मिले तो शायद हम ये भूल ही जाएँ कि हम एक इन्सान हैं, फिर शायद भगवान की याद भी न आये।

दुःख का दौर हमें भगवान के सामने ये गुनगुनाने को मजबूर करता है कि "तेरा-मेरा रिश्ता है पुराना"। जीवन भर कर्म को सर्वस्व मानने वाले इन्सान के सामने जब विपदाओं के ववंडर आते है तब कर्म बेअसर और प्रार्थनाएं असरदार बन जाती हैं। अनिष्ट की आशंका प्रार्थनाओं की जनक है और अनिष्ट की आशंका हर उस जगह विद्यमान है जहाँ प्रेम होता है। हमें अपने जीवन से, रिश्तों से, संवंधों से इस कदर आसक्ति है जो हमारे अन्दर एक डरको पैदा करती है। जी हाँ डर, इनके खोने का, बिखरने का, टूट जाने का। इस तरह गाहे-बगाहे प्रार्थनाएं प्रेम से जुड़ जाती हैं।

तो क्या प्रार्थनाओं से कुछ होता भी है? या कोई इन्हें सुनता भी है? इस बारे में अलग-अलग मत हो सकते हैं। लेकिन इस संबंध में अपना व्यक्तिगत नजरिया रखूं जो मेरे अब तक के अध्ययन से निर्मित है तो मैं कहूँगा कि प्रार्थनाओं का असर होता है लेकिन सच ये भी है कि कोई इन्हें सुनने वाला नहीं बैठा है। प्रार्थनाओं में चाहत छुपी होती है और जो चीज हम शिद्दत से चाहते हैं वो हमें मिलकर रहती है। यदि कोई चीज आपको नहीं मिल रही है तो आपकी चाहत में शिद्दत की कमी है। हम हमारी दुआओं, प्रार्थनाओं, चाहतों से ऐसे परमाणु (vibration) उत्सर्जित करते हैं जो हमें वांछित वस्तु की उपलब्धि में सहायक साबित होते हैं। तो इस तरह ये जरुरी नहीं की प्रार्थनाओं या दुआओं के लिए किसी भगवान के दर पर माथा टेका जाये या व्रत-उपवास अथवा गंडा-ताबीज का सहारा लिया जाये। व्रत रखकर या निर्जला उपवास करके हम बस अपनी चाहत की शिद्दत दिखाना चाहते हैं।

दरअसल, ये इंसानी फितरत है कि वो नियति को कभी मंजूर नहीं करता और अपने आसपास घट रही समस्त घटनाओं के लिए किसी न किसी को जिम्मेदार या कर्ता मानता है। जब तक सब सही-सही होता है तो कहता है ये मैंने किया, ये मेरा कर्मफल है और जब खुद के अनुकूल घटित नहीं होता तो किस्मत को या भगवान के मत्थे उस यथार्थ को मढ़ देता है और फिर ईश्वर की चौखट पे जाके कहता है तूने मेरे साथ ही ऐसा क्यूँ किया या मेरा तुझसे विश्वास हट गया। बस इसी क्षणिक सापेक्ष श्रद्धा का नाम छद्म आस्तिकता है। जो गलत हो वो भगवान कैसे हो सकता है ईश्वर के सर पे दोष मढना बंद करें। इसलिए मेरा मानना है कि धार्मिक नहीं, आध्यात्मिक होना चाहिए। god से पहले खुद की पहचान करो।

बहरहाल, गीता के कर्मफलवाद, जैनदर्शन के क्रमबद्धपर्याय और बौद्ध मत के सृष्टि रहस्यवाद को समझने के बाद नियति पर यकीन हो। पाश्चात्य दार्शनिक अरस्तु, सुकरात घटनाओ के इस नियम को 'predestined uncontrollable incident' कहते हैं। वहीँ आइन्स्टीन का इस बारे में कथन भी दृष्टव्य है-"Events do not heppen, they already exist and are seen on the time-machine" वे घटनाओं को पूर्व नियोजित और पहले से विद्यमान मानते हैं। तो फिर प्रश्न उठता है कि यदि नियति ही सब कुछ है तो क्या हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें तो मैं कहना चाहूँगा कि नहीं, हमें अपने स्तर पर कर्म करना कभी बंद नहीं करना चाहिए क्योंकि हमारे हाथ न तो नियति है नहीं कर्म का फल। हमारे हाथ सिर्फ और सिर्फ कर्म है जिसे पुरुषार्थ भी कहते हैं....और हमें अपना काम बंद नहीं करना चाहिए। लेकिन उस काम में ईमानदारी और सद्भावना बनी रहने दें। यही गीता का 'कर्म करो और फल की इच्छा न करो' का सिद्धांत है....और भगवान को अनावश्यक जगत का कर्ता बनाकर इस पचड़े में न डालें तभी बेहतर है।

प्रार्थनाएं तो करें पर निरपेक्ष, जो सापेक्ष होती है वे प्रार्थनाएं नहीं इच्छाएं होती है। भगवान के दर दुनिया की चीजें नहीं स्वयं के लिए आत्मबल मांगने जाएँ। समस्याओं को समस्या की तरह देखना बंद करें। अनुकूलता में अति उत्साह और प्रतिकूलता में अवसाद से बचें तथा इस तरह के व्यक्तित्व को बनाना स्थितप्रज्ञ या स्थिरबुद्धि हो जाना है।

प्रार्थनाओं से ज्यादा जरुरी है कभी सत्य का साथ न छोड़ना, चाहे कुछ मिले या न मिले। दुनिया की बड़ी टुच्ची चीजों (पैसा, पद, प्रतिष्ठा) के लिए जिस तरह से हम सत्य और सिद्धांतों का बलात्कार करते हैं वह तो महा अशोभनीय है। दुनिया की चीजों से क्षणभर की ख़ुशी मिल सकती है परमसुख अपने अन्दर से ही आता है। इसलिए 'प्यासा' फिल्म में साहिर लुधयानवी कहते हैं "ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है"।

खैर, प्रार्थनाओं और कर्म के रसायन की तरह ये लेख भी बहुत जटिल हो गया...इस संबंध में कहा तो बहुत कुछ जा सकता है लेकिन फ़िलहाल इतना ही...लेख अतिविस्तार पा लेगा। ये सारी मेरी अपनी व्यक्तिगत सोच है जो आपके हिसाब से गलत भी हो सकती है...और आप इससे सहमत हों ऐसा मेरा कतई आग्रह नहीं है।

Saturday, June 18, 2011

द्वन्द जीवन-स्वपन चिंतन

लेटने के बाद और नींद आने तक किया गया चिन्तन न तो चिन्तन की श्रेणी में आता है और न ही स्वप्न की श्रेणी में। दिन भर के एकत्र अनुभव से उपजे विचारों की ऊर्जा शरीर की थकान के साथ ही ढलने लगती है, मन स्थिर हो जाने के प्रयास में लग जाता है। कुछ विचार स्मृति में जाकर ठहर जाते हैं, हठी विचार कुछ और रुकना चाहते हैं, महत्व व्यक्त करते हैं चिन्तन के लिये। शरीर अनुमति नहीं देता है, निष्चेष्ट होता जाता है, मन चलता रहता है, चिन्तन धीरे धीरे स्वप्न में विलीन हो जाता है। इस प्रक्रिया को अब क्या नाम दें, स्वप्न-चिन्तन संभवतः इसे पूरी तरह से स्पष्ट न कर पाये।

बड़े भाग्यशाली होते हैं वे, जिनको बिस्तर पर लेटते ही नींद आ जाती है, उनके लिये यह उथल पुथल न्यूनतम रहती है। जब दिन सामान्य नहीं बीतता है, तब यह कालखण्ड और भी बड़ा हो जाता है। कटु अनुभव या तो कोई हल निकाल लेता है या क्षोभ बनकर मानसिक ऊर्जा खाता रहता है। सुखद अनुभव या तो आनन्द की हिलोरें लेने लगता है या गुरुतर संकल्पों की मानसिक ऊर्जा बन संचित हो जाता है। जो भी निष्कर्ष हो, हमें नींद के पहले कोई न कोई साम्य स्थापित कर लेना होता है स्वयं से।

यही समय है जब आप नितान्त अकेले होते हैं, विचार श्रंखलाओं की छोटी-छोटी लहरियाँ इसी समय उत्पन्न होती हैं और सिमट जाती हैं, आपके पास उठकर लिखने का भी समय नहीं रहता है उसे। सुबह उठकर याद रह गया विचार आपकी बौद्धिक सम्पदा का अंग बन जाता है।

अनिश्चय की स्थिति इस कालखण्ड के लिये अमृतसम है, इसे ढलने नहीं देती है। कई बार तो यह समय घंटों में बदल जाता है, कई बार तो नींद खड़ी प्रतीक्षा करती रहती है रात भर, कई बार तो मन व्यग्र हो आन्दोलित सा हो उठता है, कई बार उठकर आप टहलने लगते हैं, ऐसा लगता है कि नींद के देश जाने के पहले विषय आपसे अपना निपटारा कर लेना चाहते हों। यदि क्षुब्ध हो आप अनिर्णय की स्थिति को यथावत रखते हैं तो वही विषय आपके उठने के साथ ही आपके सामने उठ खड़ा होता है।

निर्णय ऊर्जा माँगता है, निर्भीकता माँगता है, स्पष्ट विचार प्रक्रिया माँगता है। अनुभव की परीक्षा निर्णय लेने के समय होती है, अर्जित ज्ञान की परीक्षा निर्णय लेने के समय होती है, बुद्धि विश्लेषण निर्णय लेने के समय काम आता है, जीवन का समस्त प्रशिक्षण निर्णय लेने के समय परखा जाता है। यह हो सकता है कि आप अनिश्चय से बचने के लिये हड़बड़ी में निर्णय ले लें और निर्णय उचित न हो पर निर्णय न लेकर मन में उबाल लिये घूमना तो कहीं अधिक कष्टकर है।

जिस प्रकार निर्णय लेकर दुःख पचाने का गुण हो हम सबमें, उसी प्रकार उल्लास में भी भारहीन हो अपना अस्तित्व न भूल बैठें हम। सुखों में रम जाने की मानसिकता दुखों को और गहरा बना देती है। द्वन्द के किनारों पर रहते रहते बीच में आकर सुस्ताना असहज हो जाता है हमारे लिये। 1 या 0, आधुनिक सभ्यता के मूल स्रोत भले ही हों पर जीवन इन दोनों किनारों के भीतर ही सुरक्षित और सरल रहता है।

सुख और दुःख के बीच का आनन्द हमें चखना है, स्वप्न और चिन्तन के बीच का अभिराम हमें रखना है, प्रेम और घृणा के बीच की राह हमें परखना है, दो तटों से तटस्थ रह एक नया तट निर्मित हो सकता है जीवन में।

पिताजी आजकल घर में हैं, सोने के पहले ईश्वर का नाम लेकर सोने की तैयारी कर रहे हैं, 'राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट'। अपने द्वन्द ईश्वर को अर्पित कर, चिन्तन और स्वप्न के बीच के अनिश्चय को कर्ता के समर्थ हाथों में सौंप कर निशा-मग्नता में उतर गये, अनिर्णयों की श्रंखला का समुचित निर्णय कर निद्रा में उतर गये।

अपना द्वन्द स्वयं ही समझना है। ईश्वर ने संकेत दे दिया है। मैं भी रात भर के लिये अपनी समस्याओं की टोकरी भगवान के नाम पर रखकर सोने जा रहा हूँ। रात भर में संभावना यही है कि समस्या अपना रूप नहीं बदलेगीं, सुबह होगी, नयी ऊर्जा होगी, तब उनसे पुनः जूझूँगा।

साभार गृहीत-praveenpandeypp.blogspot.com

परम्पराओं का आग्रह और शिक्षा






लार्ड मेकाले की शिक्षा पद्धत्ति को पाश्चात्य दृष्टि से देखने पर हम कह सकते हैं की आज रूढ़ीवाद, धर्मान्धता, कट्टरवाद का अंत हुआ है पर गहराई में जाकर विचार करने से हम देखते हैं कि कुछ नहीं बदला सिवा कलेवर के।

ऊपर से जींस-टी शर्ट पहने नजर आ रही संस्कृति आज भी उसी कच्छे-बनयान में हैं। सारा mordanization खान-पान बोलचाल और पहनावे तक सीमित है विचारों पर आज भी जंग लगी है। तमाम शिक्षा संस्थानों में महज साक्षरता का प्रतिशत बढाया जा रहा है शिक्षित कोई नहीं हो रहा है। इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट कॉलेज में दाखिला लेकर छात्र रचनात्मकता के नाम पर बस हालीवुड की फ़िल्में देखना और सिगरेट के धुंए का छल्ला बनाना सीख रहे हैं सोच तो मरी पड़ी है।

शिक्षा सफलता के लिए है सफलता स्टेटस पर निर्भर है स्टेटस सिर्फ अर्निंग और प्रापर्टी केन्द्रित है। ऐसे में कौन विचारों कि बात करे, कैसे नवीन सुसंगातियो का प्रसार हो? यहाँ तो विसंगतियों का बोझा परम्पराओं के नाम पर ढ़ोया जा रहा है। शिक्षा का हथोडा कोने में खड़े परम्पराओं के स्तम्भ को नहीं तोड़ पाता मजबूरन उस स्तम्भ पर छद्म-आधुनिकता का डिस्टेम्पर पोतना पड़ता है।

दिल में पैठी पुरानी मान्यताएं महज जानकारी बढ़ाने से नहीं मिटने वाली, सूचनाओं की सुनामी से समझ नहीं बढती। जनरल नालेज कभी कॉमन सेन्स विकसित नहीं करता। जनरल नालेज बहार से आता है कॉमन सेन्स अन्दर पैदा होता है। विस्डम कभी सूचनाओं से हासिल नहीं होता। भोजन बाहर मिल सकता है पर भूख और भोजन पचाने की ताकत अन्दर होती है। इन्फार्मेशन एक्सटर्नल हैं पर विचार इन्टरनल। अभिवयक्ति आउटर होती है पर अनुभूति इनर।

पर आज हालात सिर्फ इमारतों को मजबूत कर रहे हैं नींव का खोखलापन बरक़रार है। इसी कारण चंद संवेदनाओं के भूचाल से ये इमारतें ढह जाती हैं। फौलादी जिस्म के आग्रही इस दौर में श्रद्धा सबसे कमजोर है। उस कमजोर श्रद्धा का फायदा उठाने ठगों की टोली हर चौक-चौराहों पर बैठी है। गले में ताबीज, हाथ में कड़ा, अँगुलियों में कई ग्रहों की अंगूठियाँ पहनकर लोग किस्मत बदलना चाहते हैं। व्रत, उपवास, पूजा, अर्चना बरक़रार है पर नम्रता, शील, संयम आउटडेटेड हो गए हैं। जितनी भी तथाकथित धार्मिकता की आग धधक रही है वह लोगों के दिमाग में पड़े भूसे के कारण जल रही है इनमें तर्क कहीं नहीं है।

गोयाकि वेस्टर्न टायलेट पर बैठने का स्टाइल खालिश भारतीय है। ऐसे में खुद को माडर्न बताने का राग आलाप जा रहा है। नए वक्त में परम्पराएँ पुरानी ही है और उन परम्पराओं का अहम् भी है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर सड़ी हुई रूढ़ियाँ धोयी जा रही हैं और न्यू-माडर्नस्म के नाम पर नंगापन आयात किया जा रहा है। इन्सान की फितरत भी समंदर सी हो गयी है परिवर्तन बस ऊपर-ऊपर है तल में स्थिति जस की तस है।

विचारों के ज्वार-भाटे परम्पराओं की चट्टानों से माथा कूट-कूटकर रह जाते हैं पर सदियों से उन चट्टानों में एक दरार तक नहीं आई। शिक्षा पद्धति की उत्कृष्टता का बखान करने वाले लोगों के लिए ये सांस्कृतिक शुन्यता आईना दिखाने का काम करती है।

Tuesday, June 14, 2011

अभिव्यक्ति और अनुभूति

एक विचारणीय sms कुछ इस प्रकार है- "किलोग हमें हमारे प्रस्तुतिकरण से आंकते हैं, हमारे अभिप्रायों से नहीं जबकि ईश्वर हमें हमारे अभिप्रायों से आंकते हैं प्रस्तुतिकरण से नहीं"। विज्ञापन के इस दौर में जो दिखता है वही बिकता है। संस्कार सम्पन्नता महज एक दिखावा है जिसे so called manners कहते हैं।

अभिव्यक्ति पूर्णतः अचेतन प्रक्रिया है जिसे चेतन इंसानी पुतलों ने अपना लिया है। शुभेच्छाए, प्यार, सम्मान, विनम्रता सब अभिव्यक्ति तक सीमित है। सूचनाएँ जीवन को अनुशाषित कर रही है पर नैतिक कोई नहीं हो रहा। अनुशाषन भी so called manners है। प्रैक्टिकल होने के उपदेश दिए जाते हैं, इमोशंस सबसे बड़ी कमजोरी बताई जाती है। डिप्लोमेटिक होने के लिए मैनेजमेंट की शिक्षा है सत्य को पर्स में दबाकर रखना ही समझदारी है। बस आप वही कहिये जो लोग सुनना चाहते हैं वह नहीं जो सुनाना चाहिए। गर्दन को सलामत रखना है तो सत्य छुपाकर रखिये।

भर्तहरी, चाणक्य, सुकनास के सिद्धांतो पर फेयोल और कोटलर कि शिक्षा भारी हो गयी है। रामायण और गीता के चीरहरण का दौर जारी है। संवेदन शुन्यता को परिपक्वता का पर्याय माना जाता है। ख़बरों की बाढ़ के चलते खबर का असर होना बंद हो गया है। गोयाकि बासी रोटी गरम करके बेंची जा रही है या गोबर की मिठाई पर चांदी की वर्क चढ़ी हुई है।
पढ़-सुनकर हम अच्छे वक्ता हो रहे है या फिर अच्छे लेखक, पर घटनाएँ अनुभूत नहीं हो रही है। प्रेम की परिभाषा रटने वाले या प्रेम पर पी एच डी करने वाले जीवन भर प्रेम से अछूते रहते हैं। तथाकथित प्रेमप्रदर्शन के तरीके ईजाद हो रहे हैं पर मौन रहकर महसूस किया जाने वाला उत्कृष्ट अहसास कहाँ हैं? मदर्स डे फादर्स वेलेंटाइन डे से लेकर कुत्ते-बिल्ली को पुचकारने वाले दिन तक उत्साह से सेलिब्रेट किये जा रहे हैं पर माँ-बाप का असल सम्मान नदारद है। प्रातःकालीन चरण स्पर्श पर ग्रीटिंग कार्ड्स का अतिक्रमण है। सम्मान के बदले गिफ्ट्स के लोलीपोप पकड़ा दिए जाते हैं। श्रवण कुमार को कौन याद करता है? तमाम ताम-झाम अभिव्यक्ति की मुख्यता से हैं।

अभिव्यक्ति की चकाचौंध में अनुभूति भी दूषित हो रही है। सहानुभूति शब्द सर्वाधिक बदनाम हो गया है। दुःख में सहानुभूति सांत्वना पुरुस्कार सरीखी लगती है एक sms, scrap या readymade email ही सहानुभूति के लिए काफी है। समझ नहीं आता इस अभिव्यक्ति में अनुभूति कहाँ है? विपदा में सहानुभूति तो बहुत मिल जाती है पर साथ नहीं मिलता। एक्सपेक्टेशन बहुत हावी हैं इंटेंशन पर। सहज प्रेम, करुणा, त्याग गयी गुजरी बात बन गये हैं।

उसूल सिर्फ बघारने के लिए हैं जिन पर ताली बजती है जीवन जीने के लिए 'सब चलता है' के जुमले बोले जाते हैं। किसी ने कहा भी है-"झूठ न कहें, चोरी भी न करें..पेट भरने के लिए क्या उसूल सेंककर खायेंगे" भैया उसूलों से चलकर पेट भर जाता है अलबत्ता पेटी न भर पाए। नवसंस्कृति मशीनी हो गयी है और मशीनों के अनुभूति नहीं होती। इस संस्कृति ने दादी-नानी को वृद्धाश्रम में छोड़ दिया है, पुराने साहित्य और पुराणों के पन्ने समोसे के नीचे पड़े हैं, पुरानी धरोहरें, इमारतें टूटकर कोम्प्लेक्स और शापिंग माल में बदल गयी हैं ऐसे में पुरा संस्कारों के समस्त स्त्रोत अपाहिज हो गए हैं।

बहरहाल, इस शुन्यता के माहौल में भी कहीं न कहीं भावनाओं का दीपक टिमटिमा रहा है जो राहत देता है। जो आधुनिकता की आंधी को ललकार रहा है ....और यही संवेदना, संस्कारो और भावनाओं का दिया मजबूर कर रहा है हमें आश्चर्य करने पर कि जो असंवेदना और संस्कारविहीनता के सूरज को सिद्धांतों की रौशनी दिखाने का उद्यम कर रहा है।

Sunday, June 12, 2011

वक़्त कैसा भी हो गुजर जाता है....

एक बड़ी प्रसिद्द पंक्ति है कि "अच्छे वक़्त कि एक बुरी बात होती है कि वो गुजर जाता है और बुरे वक़्त कि एक अच्छी बात होती है कि वो भी गुजर जाता है" अनुकूलता और प्रतिकूलता के ज्वारभाटे में स्थिरता कितनी है वह प्रशंसनीय होती है। उत्सव के लम्हों के अति उत्साह और निराशा के दौर में अति अवसाद से बचना जरुरी है क्योंकि दोनों ही लम्हों में अध्रुवता एक सामान है। ऐसे व्यक्तित्व को निर्मित करने का नाम ही 'स्थितप्रज्ञ' हो जाना है।

खैर ये लम्बा-चौड़ा दर्शन आपको पिलाने का मेरा उद्देश्य सिर्फ अपनी ब्लॉग पर वापसी कि सूचना आप तक पहुँचाना है। पिछले लगभग डेढ़ वर्ष से अनवरत संचालित पी टी एस टी संचार विगत लगभग दो माह से बिना किसी पोस्ट के वीरान पड़ा था। कारण बताना जरुरी नही क्योंकि ब्लॉग के नियमित पाठक इससे भलीभांति परिचित है। जिन्दगी के कठिन दौर से मुखातिब होकर और नए अनुभवों के साथ वापिस लौटा हूँ। दौर कठिन था पर सरलता से गुजर गया। समस्या अपने अंतस में समाधान लिए रहती है बस समस्या को समस्या न मानकर एक अध्यापक मानें क्योंकि जाते-जाते ये बहुत कुछ सिखा जाती है। वैसे भी समस्या उतनी बड़ी होती है जितना बड़ा हम उसे मानते हैं।

इस दरमियाँ मित्रों और परिजनों का सहयोग एवं साथ हृदयस्थल पे हमेशा अमिट रहेगा। टोडरमल स्मारक से प्राप्त ज्ञान कठिन वक्त में जहाँ अंतर को मजबूत बनाये हुए था तो स्मारक परिवार के गुरुजन और मित्रवर बाहर सहयोग एवं साथ प्रदान कर सुरक्षा कवच बनाये हुए थे। ऐसे में परेशानी आखिर कितना परेशान करती। अपने स्मारक का विद्यार्थी होने पर एक बार फिर गुरूर हुआ।

बहुत क्या कहूँ 'कम कहा ज्यादा समझना'...वैसे भी शुभेच्छाओं का कर्ज कभी नही चुकाया जा सकता। स्मारक परिवार से मिला साथ धन्यवाद का मोहताज भी नही है और धन्यवाद ज्ञापित करके में खुद कि लघुता भी प्रदर्शित करना नही चाहता।

खैर बातें बहुत है जो समयानुसार होंगी फ़िलहाल कुशलता की बात कहते हुए नयी शुरुआत के लिए तैयार हूँ।

-अंकुर'अंश'