बड़ी पाकीजगी से मुसलसल जो सफ़र गुज़रा।
बयां हो अज़्म कैसें यूं, मिला जो आपसे दादा।।
कलम की जान हो तुम, और तुम फख्र ए सहाफत भी।
हर इक तहरीर पे जिनकी फ़साहत नाज़ है करती।
हर इक लब रहे जारी तुम ऐसा साज़ हो दादा।
ख़िलाफ़-ए-मालिकाना ज़हन, सख़्त आवाज़ हो दादा।।
जमाने का मजाजी इश्क़, छुड़ाया अपने बयानों से।
हकीकी इश्क़ का जो इल्म, दे डाला बखानों से।।
सबक फ़ितरी के दे डाले, मुसलसल-हाल समझाया।
मसलक-ए-फ़िक्र-ओ-'अमल', भी तुमने ही बतलाया।।
खुदी को जान खुदा होने के हो इल्म में माहिर।
हो टोडरमल की धारा के, हुकुमचंद नाम जगजाहिर।।
कभी अल्फ़ाज़ का जामा, दिया अंदाज़-ए-अक़ीदत को।
है बदला फितरत ए इंसां, और मज़ाजी उल्फत को।।
थी मजहब के फ़रेबों में, दबी ये रूह अरसे से।
उसे हर आमो-खास इंसा को किया मुमकिन बड़ा तुमने।।
गुरु ‘कहान’ ने जहाँ छोड़ा, बढ़ाई है सिफ़ारत ये।
दिये फरमान मुनियों के, मु’अल्लिम’ बन नज़ाकत से।।
तुम्हारी यौम ए पैदाइश पे, है ये अज़्म हम सबका।
करेंगे बस वही ताउम्र, है राह-ए-नजात जो बंधन का।।
~ अंकुर जैन, भोपाल
शब्दार्थ- मुसलसल- लगातार, मुख्तसर- संक्षिप्त, सहाफत- विशिष्ट प्रकार के लेखक, अज़्म- संकल्प, पाकीजगी- शुद्धत्ता, तहरीर- लेखन, फसाहत- स्वाभाविक लेखकीय प्रवाह, खिलाफ ए मालिकाना जहन- परकर्तत्वबुद्धि, मजाजी इश्क- भौतिक प्रेम, हकीकी इश्क- आध्यात्मिक प्रेम, इल्म- ज्ञान, फितरी-सहजता, मुसलसल हाल- क्रमबद्धपर्याय, मसलक ए फिक्र ओ अमल- जीवन जीने की कला, अकीदत- श्रद्धा, मजाजी उल्फत- विषयों की इच्छा, सिफारत-मिशन, मु’अल्लिम’- धर्मज्ञान देने वाला, यौम ए पैदाइश- जन्मदिन, राह ए नजात- मुक्ति का मार्ग