हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Friday, December 31, 2010

शास्त्री अंतिम वर्ष द्वारा आयोजित स्मारक कप २०१०-२०११

स्मारक कप के उदघाटन की झलकियाँ





शास्त्री अंतिम वर्ष द्वारा आयोजित स्मारक कप का उदघाटन हर्षोल्लास के साथ हुआ। एक और हर्ष की बात यह भी है कि इस बार प्रतियोगिता का यह पन्द्रहवां आयोजन है. प्रस्तुत हैं उसकी कुछ झलकियाँ -

Wednesday, December 22, 2010

कांच की बरनी और दो कप चाय


जीवन में जब सबकुछ जल्दी- करने की इच्छा होने लगती है। सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है..और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ने लगे हैं...उस समय ये बोध कथा "कांच की बरनी और दो कप चाय " याद आती है-
दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज उन्हें जिन्दगी का एक ख़ूबसूरत पाठ पढ़ाने जा रहे हैं। उन्होंने अपने साथ ली एक कांच की बरनी (जार) टेबल पे रखी और उसमे टेनिस की गेंद तब तक डालते रहे जब तक उस जार में एक भी गेंद के समा सकने की जगह नहीं बची। फिर उन्होंने छात्रों से पूछा की क्या बरनी भर गई?
आवाज आई- हाँ!!
फिर प्रोफ़ेसर साहब ने कुछ छोटे- कंकर उस बरनी में भरने शुरू किये...और वे कंकर भी बरनी में जहाँ-जहाँ जगह थी वहां समा गए। प्रो. साहब ने फिर पुछा क्या बरनी भर गई?
छात्रों की आवाज आई- हाँ!!
अब प्रो.साहब ने उस बरनी में रेत भरना शुरू किया...और देखते ही देखते वो रेत भी उस बरनी में समा गई, अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे। प्रो.साहब ने फिर पुछा-अब तो बरनी भर गई ना?
इस बार सारे छात्रों की एक स्वर में आवाज आई- हाँ अब भर गई!!
प्रो.साहब ने टेबल के नीचे से कप निकालकर उसमे स्थित चाय को बरनी में उड़ेल दिया..बरनी में वो चाय भी जगह पा गई....
विद्यार्थी भौचक्के से देखते रहे!!!
अब प्रो.साहब ने समझाना शुरू किया- "इस कांच की बरनी को तुम अपनी जिन्दगी समझो...टेनिस की गेंदे सबसे महत्त्वपूर्ण भाग मतलब भगवान, परिवार, रिश्ते-नाते, स्वास्थ्य, मित्र, शौक वगैरा। छोटे कंकर मतलब नौकरी, कार, बड़ा मकान या अन्य विलासिता का सामान...और रेत का मतलब और भी छोटी-मोटी बेकार सी बातें, झगडे, मन-मुटाव वगैरा।
अब यदि तुमने रेत को पहले जार में भर दिया तो उसमे टेनिस की गेंद और कंकरों के लिए जगह नहीं रह जाती, यदि पहले कंकर ही कंकर भर दिए होते तो गेंदों के लिए जगह नहीं बचती, हाँ सिर्फ रेत जरुर भरी जा सकती।
ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है यदि तुम छोटी- बातों के पीछे पड़े रहोगे और अपनी उर्जा और समय उसमे नष्ट करोगे तो जीवन की मुख्य बातों के लिए जगह नहीं रह जाती। मन के सुख के लिए क्या जरुरी है ये तुम्हे तय करना है।
धर्म-अध्यात्म में समय दो, परिवार के साथ वक़्त बिताओ, व्यसन मुक्त रहकर स्वास्थ्य पर ध्यान दो कहने का मतलब टेनिस की गेंदों की परवाह करो। बाकि सब तो रेत और कंकर हैं....
इसी बीच एक छात्र खड़ा हो बोला की सर लेकिन आपने ये नहीं बताया कि 'चाय के दो कप क्या हैं?'
प्रोफ़ेसर मुस्कुराये और बोले मैं सोच ही रहा था कि किसी ने अब तक ये प्रश्न क्यूँ नहीं पूछा.....इसका उत्तर ये है कि जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट क्यूँ ना लगे लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा बचा कर रखना चाहिए.........
क्यूंकि आगे बढ़ने की चाह में करीबी रिश्तों को भुला देना समझदारी नहीं है...करीबी मित्र के साथ बिताये चंद लम्हों का सुख इस चराचर जगत का उत्तम आनंद है...इस आनंद के लिए वक़्त बचाए रखिये................

Tuesday, December 21, 2010

"कविता"-तू ज़िन्दा है तू ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर

तू ज़िन्दा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर,
अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!

सुबह औ' शाम के रंगे हुए गगन को चूमकर,
तू सुन ज़मीन गा रही है कब से झूम-झूमकर,
तू आ मेरा सिंगार कर, तू आ मुझे हसीन कर!
अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!.... तू ज़िन्दा है

ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन,
ये दिन भी जाएंगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन,
कभी तो होगी इस चमन पर भी बहार की नज़र!
अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!.... तू ज़िन्दा है

हमारे कारवां का मंज़िलों को इन्तज़ार है,
यह आंधियों, ये बिजलियों की, पीठ पर सवार है,
जिधर पड़ेंगे ये क़दम बनेगी एक नई डगर
अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!.... तू ज़िन्दा है

हज़ार भेष धर के आई मौत तेरे द्वार पर
मगर तुझे न छल सकी चली गई वो हार कर
नई सुबह के संग सदा तुझे मिली नई उमर
अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!.... तू ज़िन्दा है

ज़मीं के पेट में पली अगन, पले हैं ज़लज़ले,
टिके न टिक सकेंगे भूख रोग के स्वराज ये,
मुसीबतों के सर कुचल, बढ़ेंगे एक साथ हम,
अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!.... तू ज़िन्दा है

बुरी है आग पेट की, बुरे हैं दिल के दाग़ ये,
न दब सकेंगे, एक दिन बनेंगे इन्क़लाब ये,
गिरेंगे जुल्म के महल, बनेंगे फिर नवीन घर!
अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!.... तू ज़िन्दा है

"शैलेन्द्र"

Saturday, December 18, 2010

Pandit Todarmal Smarak Trust

You can now become a fan of "Pandit Todarmal Smarak Trust" on facebook. Don't miss it!!

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Thursday, December 9, 2010

Federation यात्रा: एक अभूतपूर्व अनुभव

श्री वीतराग विज्ञान यात्रा संघ इस साल अपने तीसरे वर्ष में प्रवेश कर चुका है और बुंदेलखंड, दक्षिण भारत के तीर्थो के बाद अब मौका है २५ से ३१ दिसम्बर तक मालवा और निमाड़ के तीर्थ क्षेत्रों की यात्रा का| देश भर के लोगों को पूरे वर्ष भर इस यात्रा का इंतज़ार रहता है आखिर हो भी क्यूँ न? जब यह ४०० लोगों का चलता-फिरता मेला अपने कैप्टेन छोटे दादा और बड़े दादा के साथ किसी तीर्थ पर पहुचता है तो गाँव की हवा बदल जाती है. और फिर वहां के मंदिरों मे प्रवचन, पूजन, भक्ति आदि के कार्यक्रमों से सब आनंदित हो जाते है| यात्रा की व्यवस्थाओ के बारे मे सुनते-सुनते यदि आपके कान पक भी गए हो तो ज्यादा नहीं समझूंगा| वास्तव मे यात्रा की इन तय्यारिओं का श्रेय पंडित शुद्धात्म प्रकाश जी और पंडित पियूष जी शास्त्री को जाता है जिनके मैनेजमेंट के बिना यह यात्रा संघ शायद इस मुकाम पर नहीं पहुच पाता| इन्ही के साथ पंडित धर्मेन्द्र जी शास्त्री अपनी छोटी गुडिया के अधिक छोटे होने के कारण सम्मिलित नहीं हो पा रहे है| इतने सारे यात्रिओं की व्यवस्था के लिए हर बस मे रहने वाले विद्यार्थी विद्वान (लीडर) भी पूरे-पूरे धन्यवाद के पात्र है|

इस यात्रा के दौरान ली जा रही LIVE PHOTOS का मज़ा आप स्मारक के फेसबुक पेज पर देख सकते है जो यात्रा के दौरान निरंतर अपलोड की जाएगी!

इस यात्रा में मुंबई, देल्ही, कोलकाता, अहमदाबाद से लोग पधार रहे हैं| आशा करते है आप सभी की यात्रा मंगलमय हो|

Wednesday, December 8, 2010

लाख कोशिशो के बाद होगा सपना साकार ........



            हाँ ,सच मै हमारा सपना साकार होने जा रहा है  ...............                             
                          
                                       स्मारक के बो दिन कौन भूल सकता है जब चारो और एक ही नजारा रहता है एक ही बात की चर्चा होती है जब हम खाना , पीना सब भूल कर एक ही बात की चर्चा करते है ...........बस अब मेरे को और कहने की जरुरत नहीं है आप सब समझ ही गए होगे की मै किस बात की और आप का ध्यान आकर्षित कर रहा हूँ ...........जी हाँ स्मारक कप     
                                      स्मारक का ये समय एक उत्साह, उमंग और खुशियों से भरा होता है। जो विद्यार्थियों के मानसिक और शारीरिक क्षमताओं को प्रदर्शित करने के लिए एक मंच देता है। इन समस्त गतिविधियों में बात यदि स्मारक क्रिकेट कप की हो तो फ़िर  कहना ही क्या ?वैसे इस दौरान तकरीबन १५ खेलों का आयोजन किया जाता है। लेकिन उमंग सिर्फ़ क्रिकेट कप को लेकर ही सबसे ज्यादा होती है। हर तरफ़ अगले दिन के मैच की चर्चा और रणनीतियां तय की जाती है। कई विवाद होते हैं तो कभी बात हाथ-पाई तक पे उतर आती है। कुल मिलाकर ये फुल मस्ती का टाइम होता है और ज़हन में सिर्फ़ जोश और उमंग साथ होती है। 
                                      पर किन्ही कारणो ये सब बंद होने जा रहा था  स्मारक के वे सभी लोग जिन्होंने स्मारक कप देखा है और उसका अनुभव किया है  वे सब ये नहीं चाहते थे की स्मारक कप  बंद हो जाये इस बात को शास्त्री अंतिम वर्ष ने साकार नहीं होने दिया और एक बार फिर लाख कोशिशो के बाद होगा सपना साकार .......
                                           
                                   २८ दिसम्बर से १ जनवरी २०११ तक

                                            इस उमंगोत्सव में सभी वर्तमान विद्यार्थी तो भाग लेंगे ही साथ ही सभी भूतपूर्व विद्यार्थियों को भी आमंत्रण है। जिससे वे भी इस उल्लास में भागीदार बनकर अपनी यादें पुनः ताज़ा करें। यदि आप चाहते हैं एक बार फ़िर ख़ुद को ताज़ा महसूस करना तो आ जाइये स्मारक कप में हिस्सा लेने, ये निश्चित ही आपके उबाऊ और व्यस्त जीवन में आपको कुछ सुकून देने का काम करेगा। 


                                       इस दौरान  स्मारक कप का पूरा व्यय शास्त्री अंतिम वर्ष उठाएगी यदि आप हमारा आर्थिक रूप से या किसी भी प्रकार से सहयोग  करना चाहते है  तो भी इन नम्बर्स पर कांटेक्ट कर सकते है ................


सौरभ जैन अमरमऊ  - 9529839719
सचिन जैन भगवा -9694773876
सुदीप जैन अमरमऊ - 9785160164
                                        
                विशेष जानकारी के लिएभी इन नम्बर्स पर कांटेक्ट कर सकते है ...............

 स्मारक कप की सारी जानकारी एवं तथा फोटोस वीडीयो और स्कोर यहाँ लोड होता रहेगा ........

Friday, December 3, 2010

पीटीएसटी संचार : सफलता का एक वर्ष एक नज़र में!!!

कुछ प्रयास अपनी उम्मीदों से भी ज्यादा फल दे जाते हैं...इसकी बानगी देखना है तो हमारे ब्लॉग से अच्छा उदाहरण नही मिलेगा...महज टोडरमल स्मारक के विद्यार्थियों कों आपस में जोड़े रखने की भावना से शुरू किया गया ये ब्लॉग आज हिंदी चिट्ठाजगत के प्रमुख ब्लॉग में से एक है। हालाँकि आंकड़े सफलता का वास्तविक पैमाना नही होते लेकिन मजबूरन हमें कुछ आंकड़े बताना होंगे जो इसकी लोकप्रियता को खुद ब खुद जाहिर करते हैं-इनके चलते ही हमारे ब्लॉग ने महज एक साल में अपनी अच्छी खासी पहचान ब्लॉग के इस बड़े से संसार में बना ली...

पिछले एक वर्ष में हमने कुल ११८ पोस्ट इस ब्लॉग पर प्रकाशित की, जिनमे ओवरआल विसिटर्स की संख्या ४०००० के ऊपर दर्ज की गयी...सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली पोस्ट 'स्मारक रोमांस पार्ट-१' रही जिसे ५५८ बार ओपन किया गया, वर्तमान में कुल ४८ followers हैं, अब तक लोगों द्वारा पोस्ट पर १९३ comments प्राप्त हुए, ब्लॉग से कुल १६ लेखक अब तक जुड़े हुए हैं और ये संख्या सतत जारी है...ब्लॉग ने लोकप्रिय श्रृंखला स्मारक रोमांस और मेरे सपनो का स्मारक प्रकाशित की जिसने हर तरफ वाहवाही लूटी...३ बार ब्लॉग की पोस्ट दैनिक अखवारों में प्रकाशित हुई जिनमे राष्ट्रीय समाचार पत्र 'जनसत्ता' भी शामिल है...ब्लॉग की लोकप्रियता के चलते हमें ब्लोगर्स मीट में शिरकत करने का आमंत्रण भी मिला। इस तरह इन कुछ उपलब्धियों के साथ हम अपने इस लघुतम प्रयास के साथ आगे बढ़ रहे हैं....लेकिन ये उपलब्धियां सिर्फ हमारे कारन नही, इसका कारण आप सभी का सतत मिलने वाला प्यार है...जो हमें नित नया करते रहने के लिए प्रेरित करता रहता है....अब हम चाहेंगे कि हमारे इस कारवां में महज स्मारक परिवार ही नही बल्कि हर तत्वरसिक, शास्त्रिवंधू चाहे वो मंगलार्थी हो, आत्मार्थी हो, कोटा-बांसवाडा-सोनगढ़-सोनागिरी या जहाँ कहीं से भी जुड़े हो, उसे हम हमारे साथ शामिल करना चाहेंगे एवं आपकी सक्रिय सहभागिता चाहेंगे....क्योंकि आध्यत्मिक जमीन पर हम सब एक हैं।

साथ ही मैं कुछ लोगों को शुक्रिया अदा किये वगैर अपनी बात समाप्त नही कर सकता...जिसमे सबसे पहले स्मारक के हमारे अध्यापकगण बड़े दादा, छोटे दादा को याद करूँगा जिनका आशीष सदा हमारे साथ हैं...आदरणीय शांतिजी भाईसाहब, पीयूषजी, धर्मेंद्रजी, प्रवीणजी का शुक्रगुजार हूँ जिन्होंने हमारे इस कृत्य के लिए हमारा सतत उत्साहवर्धन किया। मेरे कुछ अग्रज जैसे मनीषजी 'रहली', आशीषजी 'टीकमगढ़', अभिषेकजी 'सिलवानी' संभवजी को धन्यवाद दूंगा जिन्होंने नियमित ब्लॉग प़र प्रतिक्रिया जाहिर कर या फोन से मेरे कृत्य कि सराहना की। इसके आलावा चेतन 'बक्सवाहा', मेरे आत्मीय मित्र रोहन रोटे, प्रिय अनुज सर्वज्ञ भारिल्ल को भी धन्यवाद दूंगा जिनकी सक्रिय सहभागिता ने ब्लॉग को इस मुकाम तक पहुचाया...साथ ही कुछ अनुजो का असीम स्नेह भी सतत हमारे साथ रहा जिनमे तन्मय, अभिषेक, सजल, राहुल, एकत्व, सुदीप, सौरभ प्रमुख हैं....साथ ही उन तमाम शास्त्री मित्रों का जो निरंतर हमारे प्रयासों का अनुमोदन करते हैं और मेरे दिल में हमेशा अपना घर बनाकर बैठे हुए हैं...भले उनका जिक्र में यहाँ न कर सकुं...क्योंकि प्रेम का संसार अगाध है और शब्द सीमित...

Tuesday, November 30, 2010

स्मारक रोमांस-सर्द मौसम का गर्म मिजाज़

(इसे पढने से पहले स्मारक रोमांस की पूरी श्रंखला पढ़ें)

दीवाली की छुट्टियों से लौटकर जब स्मारक में प्रवेश होता तो सर्दी के मौसम की दस्तक जयपुर शहर में हो चुकी होती थी..और जयपुर की सर्दी प्राण निकालने वाली होती है। इस रेतीले राजस्थान की गर्मी जितनी भयानक है उतना ही शख्त सर्दी का मिजाज भी है...लगता है मानो सर्दी और गर्मी के मौसम में एक दूसरे को हराने की होड़ लगी हो। खैर....

जब छुट्टियों से वापस आते तो अपने साथ सर्दी से बचने के लिए कम्बल, स्वेटर, रजाई आदि समस्त चीजों का प्रबंध कर आते। इन सब चीजों के साथ अपने सूटकेश में कुछ बहाने भी साथ रखकर लाते जो दीवाली की छुट्टियों से लेट आने के चलते अपने भाई साहब को देने होते। या फिर १००-५०० रुपये का अतिरिक्त प्रबंध करके लाते, जिससे लेट आने का दण्ड शुल्क चुका के मामला रफा-दफा किया जाय...नही तो भैया खाना भी नसीब नही होता था। रसीद न कटाने पर भोजनालय के अन्दर भरी महफ़िल में इस तरह हमारे नामों की घोषणा होती कि मानो हमपे बीसियों आपराधिक मामले चल रहे हों....रसीद का टंटा भी कमाल था भाई, कई वन्धुवर तो रसीद कटाने का रिकार्ड बनाया करते थे..और बड़ी शेखी से अपनी यशोगाथा सुनाया करते थे-"भैया अभी तक अपन ने २००० रुपये स्मारक को दान कर दिए" या फिर कहते-"देखो साहब, अपन को चार बातें सुनना पसंद नही हैं, आप तो ये बताओ रसीद कित्ते कि कटाना है"...अजब कहानी थी भाई।

कड़ाके की सर्दी में सुवह उठना तो ऐसा जान पड़ता था कि 'तिल-तिल करें देह के खंड, हमें उठावें ...... प्रचंड'। और ऐसे में सवेरे-सवेरे कक्षा में जाना 'मानो करेला वो भी नीम चढ़ा'। सो जैसे-तैसे मूंह पे पानी फेरकर अध्निंदयाये से पहुँच जाया करते...कुछ लोग तो दुल्हन बनकर पंहुचा करते थे, नही समझे! मतलब ठण्ड से बचने के लिए अपनी shawl को कुछ इस अंदाज में सर पे रखा करते कि नयी-नवेली दुल्हनिया आई हो। और हाँ, कुछ वल्लम तो ऐसे भी होते जो सवेरे-सवेरे नहाकर कक्षा में जाया करते...ये कुछ तथाकथित पढ़ाकू किस्म के विद्यार्थी होते थे, जिन्हें अपनी इस सवेरे नहाने वाली प्रवृत्ति का खासा अभिमान होता था, मानो सवेरे नहाकर ये महाशय ओलम्पिक के तैराकी का गोल्ड मेडल जीत आये हों।

इन सर्दियों की सुवह में कुछ खुशनुमा होता था तो वह था-चाय का आस्वादन...स्मारक की चाय को यदि चाय का अविष्कारक चख ले तो उसे भी अपने आप पे शर्म आ जाएगी...इस कदर लजीज हुआ करती थी ये चाय। लेकिन हमें शिकायत ये भी थी कि दूध पीने वालों को फुल गिलास दूध दिया जाता पर चाय पीने वालों को बस आधे गिलास...लेकिन उस आधी गिलास में भी गजब कि स्फूर्ति होती थी कि उस चाय के लिए पूरा साल ठण्ड सहने को तैयार रहते थे हम...और दूध पीने वालों पे तरस भी आता था जो चाय के इस अद्भुत आनंद से वंचित रह जाते थे...उनके हालात पे हमें वो भजन याद आता कि 'अचरज है जल में रहके भी मछली को प्यास है'। लेकिन चाय पीने के बाद सबसे बड़ी आफत होती थी गिलास धोने की...दरअसल हमें अपने-अपने गिलास चाय लाने के लिए ले जाने होते थे...चाय को हथियाने जब छात्रों की टोली भोजनालय को कूच किया करती तो हाथ में गिलास और चद्दर ओढ़े इन छात्रो का दृश्य अद्भुत बन पड़ता था। कई छात्रों के गिलास तो अगले ही दिन भोजनालय में धुला करते थे।

सवेरे-सवेरे नहाने के लिए गरम पानी की भी बढ़ी जद्दोजहद हुआ करती थी...पानी लाने के लिए कतारें लगना,
वालटी -मग्घा का न मिलना जैसी घटनाये आम थी...और कुछ खास किस्म के विद्यार्थी दो-दो व़ालटी पानी जब लाते तो दूसरे छात्रों का खून खोल उठता था...कई बार ये लड़ाइयाँ क्षेत्रवाद का रूप अख्तियार कर लेती "कोई कहता ये मराठी ही दो-दो वालटीयों का यूस करते हैं" तो दूसरा कहता "इन बुन्देलियों को तो नहाना ही नही आता तभी तो घिना से घूमते रहते हैं" सब बड़ा कमाल था।

नहा-धोके प्रवचन में भी उसी मुद्रा में पहुँच जाया करते जैसे क्लास में जाया करते...कुछ सज्जन तो यहाँ भी महज ड्राई-क्लीन कर ही पहुँच जाते...मतलब मात्र हाथ-मूंह धोके। बन-ठन के प्रवचन सुना करते.. इसी बीच एक छात्र अपने बगल वाले से कहता 'ए द्रविड़ आउट हो गया'.. बगल वाला भी हैरत में कि ये प्रवचन के बीच द्रविड़ कहाँ से आ गया...बाद में पता चलता जनाब अपने सर्दी से बचने के लिए इस्तेमाल टोपे के अन्दर ear-phone फ़साये हुए थे। इसी बीच स्मारक के एक्साम का सिलसिला चला करता था...उन एक्साम की तैयारी भी पूरे रंगीन मिजाज के साथ सर्दियों में छत पे धूप सेंकते हुए ग्रुप में की जाती। उस सोंधी-सोंधी धूप और दोस्तों के साथ से माहौल बेहद हसीन हो जाया करता था।

शाम के समय अपने चौकीदार चाचा के साथ बैठ आग तापना भी एक शगल हुआ करता था...जहाँ लम्बी-लम्बी बातों का दौर भी अनायास ही चल पड़ता। कुछ होनहार लोहे की बकेट में कुछ जलती हुई लकड़ी के टुकड़े ले आते और आग सेंकने का ये सिलसिला अपने-२ कमरे में भी जारी रहता। कई धुरंधर अपने पास हीटर रखा करते थे जिससे कभी-कभी रात में चाय का जायका भी हो जाया करता था। ह्म्म्म... रंगीनियाँ अनंत हैं.......

तिब्बती मार्केट भी इन दिनों खासा चर्चा का केंद्र हुआ करता था जहाँ से भांत-भांत के ठण्ड निवारक वस्त्रों का क्रय किया जाता। यहाँ भी कई बार अन्धानुकरण का दौर बरक़रार रहता कई बार एक जैसे स्वेटर या जैकेट कई विद्यार्थियों के पास मिल जाया करते थे... सर्दी से बचने के लिए हर चीज खरीदी जाती पर इनर कोई नही खरीदता था क्योंकि इनर की प्राप्ति स्मारक द्वारा ही किसी सज्जन के दान-पुण्य द्वारा हो जाया करती थी...यहाँ भी कई लोगों में असंतुष्टि बनी रहती किसी को अपने साइज से बड़ी इनर मिल जाती तो किसी को साइज से छोटी। कई बार मोजों का वितरण भी हो जाया करता था.....

जिम जाने का सुरूर भी इस समय इन शास्त्रियों पे छाया रहता था...और इंजमाम जैसे मोटे से लेकर इशांत शर्मा जैसे टटेरी शास्त्री के अन्दर अपने वदन को सलमान जैसा बनाने की कशमकश हुआ करती थी...जिम करने के बाद भी दिनभर अपने सीने और बाजुओं को निहारना इनकी दैनिक चर्या का हिस्सा हो जाता है...तथा दूध और केले नित्य आहार का अंग बन जाते हैं...यदा-कदा किसी जूनियर छात्र द्वारा इन जनाब को खजूर पे भी चढ़ा दिया जाता है कि ".........जी आपके मसल्स तो कमाल के बन गए हैं, कुछ दिन बाद आप तो छा जाओगे" अपनी प्रशंसा सुनके ये महाशय एक केला अपने उस जूनियर को दे दिया करते। इस तरह केला पाके जूनियर भी खुश और प्रशंसा पाके सीनियर भी...हर तरफ feel good ..........

बहरहाल, मौसम तो सर्द होता था पर मिजाज बहुत गर्म...इन दिनों ही खेलकूद, सांस्कृतिक सप्ताह, राजस्थान उत्सव, कवि सम्मलेन, सक्रांति की पतंगबाजी जैसे तमाम तरह के आयोजन मौसम को और गरम बना देते...माहौल की रंगीनियों को तो वही जान पायेगा जिसे स्मारक से शास्त्री होने का गौरव प्राप्त है....उन दिनों परेशानियाँ भी थी, तनहाइयाँ भी थी पर रंगीनियाँ हमेशा उन पर भारी रहा करती थीं....और आज तो वो सारी चीजें सुरम्य फलसफां बन गयी हैं....सही कहा है "अतीत भले कडवा क्यूँ हो पर उसकी यादें हमेशा मीठी हुआ करती हैं"...................

(विशेष- ये स्मारक को देखने का व्यक्तिगत नजरिया हो सकता है...अनायास कोई धारणा बनाये...सब कुछ ऐसा नही था जैसा विवरण है...कुछ लोगों को शिकायत हो सकती है इससे स्मारक की छवि पे असर पड़ेगा तो उनसे कहना चाहूँगा कि ये आपका मुगालता है क्योंकि स्मारक से भली-भांति परिचित व्यक्ति इससे कभी भ्रमित नही होगा और जो परिचित नही हैं उनके दिग्भ्रमण का प्रश्न ही नही उठता...वैसे भी शास्त्रित्व जाने से उस उम्र सम्बन्धी पर्याय का स्वभाव थोड़ी बदल जायेगा...चंचलता होना लाजमी है...और यदि कुछ विसंगती हममे हैं तो वो भी हमारा सच है, उससे मुंह मोढ़ना मूर्खता है....कडवे यथार्थ को स्वीकार करने का दम होना चाहिए, उसे परदे में रखना बंद कीजिये.....चंद कमियां तो व्यक्तित्व का सर्वतः वर्णन करती हैं व्यक्तित्व की महानता को कम करती हैं..बशर्त उन कमियों को पहचाना जाय)

जारी..........प्रतिक्रिया जरुरी-अच्छी हो या बुरी!!!!!!

Monday, November 29, 2010

हर चेहरा विदा.


क्या वाकई तिथियों के साथ गम भी विदा हो जाते हैं ? काश यादों का भी तर्पण हो सकता और यदि नहीं तो कागे की जगह एक बार ही वह दिखाई दे जाता जिसके लिए आँखों से नमी का नाता टूट ही नहीं पा रहा है.
सांझ
सां .....झ
हर चेहरा विदा.

अन्तिम तीन पंक्तियाँ कवि अशोक वाजपेयी की हैं जो उन्होंने 1959 में लिखी थीं । क्या वाकई हर चेहरा विदा है? विदा होते ही सब कुछ खत्म हो जाता है कि कुछ रह जाता है तलछट की तरह। सालता, भिगोता, सुखाता और फिर सराबोर करता। कभी किसी प्रेम में डूबे को देखा है आपने? एक ऐसे सम पर होता है जहां चीजें एक लय ताल में नृत्य करती हुई नजर आती हैं। इतना सिंक्रोनाइज्ड कि कोई चूक नहीं। समय से बेखबर बस वह उसी में जड़ हो जाता है। यह जड़ता तब टूटती है जब दोनों में से कोई एक बिखरता है। विदा होता है। अवचेतन टूटता है। चेतना जागती है। तकलीफ, दुख, पीड़ा जो भी नाम दें, सब महसूस होने लगते हैं। एहसास होता है जिंदा होने का। एहसास होता है उस ...ताकत का जो इस निजाम को चला रही है। इससे पहले तक लगता है जैसा हम चाह रहे हैं वही हो रहा है। हमने यह कर दिया, वह कर दिया। हमारे प्रयास से ही सब बेहतर हुआ। फिर पता चलता है कि आपके हाथ से सारे सूत्र निकल गए। आप खाली हाथ रह जाते हैं और वह उड़कर जाने किस जहां में खो जाता है। उस दिन आपको यकीन होने लगता है कि आपकी हस्ती से बड़ी कोई बहुत बड़ी हस्ती है जिसके चलाए सब चल रहे हैं। यह सृष्टि भी और इसमें जी रही चींटी भी। आपकी बिसात कुछ नहीं। यह आपको अपनी हार लग सकती है। आप ठगे से रह जाते हैं कि जिसकी आवाज कानों में मिश्री घोला करती थीं... बांहें भरोसा देती थी... आंखें उम्मीद बंधाया करती थी.... वह आज नहीं है। वह खत्म है। अतीत है। उसके साथ थां जुड़ गया है। नाम के आगे स्वर्गीय लगाना पड़ रहा है और नगर निगम ने उसका मृत्यु प्रमाण पत्र जारी कर दिया है। यह सब एक जिंदा शख्स को मृत्यु की कगार पर लाने से कम नहीं होता है। जीते जी मरने की यह तकलीफ सिर्फ वही पाता है जिसका अपना उससे विदा ले गया हो। 1987 में वाजपेयी जी ने फिर लिखा विदा शीर्षक से-
तुम चले जाओगे
पर
थोड़ा-सा यहां भी रह जाओगे

जैसे रह जाती है
पहली बारिश के बाद
हवा में धरती की सोंधी सी गंध
भोर के उजास में
थोड़ा सा चंद्रमा
खंडहर हो रहे मंदिर में
अनसुनी प्राचीन नूपुरों की झंकार।
तुम चले जाओगे
पर मेरे पास
रह जाएगी
प्रार्थना की तरह पवित्र
और अदम्य
तुम्हारी उपस्थिति
छंद की तरह गूंजता
तुम्हारे पास होने का अहसास।

तुम चले जाओगे

और थोड़ा सा यहीं रह जाओगे
!

यही अंत में शुरूआत है? यह कोशिश होती है चीजों को बड़े फलक पर देखने की। एक कमरे से घर, घर से शहर, शहर से देश और देश से दुनिया और दुनिया से ब्रह्मांड को देखने की। इस तुलना में आपको अपना गम छोटा लगने लगता है। सूरज आपको अस्त होता हुआ लगता है लेकिन वह कहीं उदय हो रहा होता है। अंत कहीं नहीं है। एक चक्र है जो चलता है सतत निर्बाध जब हमारे मन का होता है तब हमें भी सब चलता हुआ लगता है और जब नहीं होता तब खंडित होता हुआ। एक और कवि हरिवंश राय बच्चन की बात गौर करने लायक है। मन का हो तो अच्छा है और मन का न हो तो और भी अच्छा। गौर कीजिएगा। शायद जिंदगी आसान हो जाए।

साभार
गृहीत-likhdala.blogspot.com

कारवां गुजर गया

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क़ बन गए,
छंद हो दफ़न गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,
वक्त से पिटे-पिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी,
ग़ाज एक वह गिरी,
पुंछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी,
और हम अजान से,
दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

गोपालदास "नीरज"

Wednesday, November 17, 2010

जैनत्व जागरण शिविर बक्स्वाहा की झलकियाँ!!!










बुंदेलखंड की पावन धरा पर बक्स्वाहा मुमुक्षु मंडल और जैन युवा शास्त्री परिषद् द्वारा आयोजित जैनत्व जागरण शिविर कुशलता के साथ संपन्न हुआ...ये शिविर का द्वितीय वर्ष था...जिसके अंतर्गत लगभग ३० छोटे-२ गांवों में बाल संस्कार और अन्य जैन तत्व का पान लोगों कों कराया गया..लोगों कों स्वाध्याय एवं पाठशाला सञ्चालन के लिए प्रेरित किया गया...इस सम्पूर्ण शिविर में विद्वत समागम टोडरमल स्मारक, ध्रुवधाम, मंगलायतन जैसी अग्रणी संस्थाओं द्वारा प्राप्त हुआ.....समापन में लोगो द्वारा इस सतत जरी रखने की भावना भायी....

Friday, November 12, 2010

अहिंसा अभियान समाचार भेजें

दीपावली को प्रदूषण मुक्त एवं अहिंसात्मक रूप से मनाने के उद्देश्य से आयोजित अहिंसा अभियान के अंतर्गत जो कार्यक्रम करवाएं हों, उनके समाचार एवं फोटो हमें भेजें, हम उन्हें यहाँ पर सचित्र प्रकाशित करेंगे।


सरदारशहर में अहिंसा का प्रचार

सरदारशहर, चुरू में निपुण शास्त्री के संयोजन में दीपावली को प्रदूषण मुक्त एवं अहिंसात्मक रूप से मनाने के उद्देश्य से संचालित सर्वोदय अहिंसा अभियान का जोरदार प्रचार हुआ। विभिन्नविद्यालयों के बालकों ने पटाखे न फोड़ने का संकल्प लिया।
यहाँ प्रस्तुत हैं कार्यक्रम की कुछ छवियाँ -

Wednesday, November 10, 2010

मुख्यमंत्रीजी ने देखा पोस्टर





अखिल भारतीय जैन युवा फेडरेशन, जयपुर महानगर द्वारा आयोजित एवं श्री कुन्दकुन्द कहान पारमार्थिक ट्रस्ट, मुंबई द्वारा प्रायोजित सर्वोदय अहिंसा अभियान के अंतर्गत प्रकाशित पोस्टर का अवलोकन माननीय अशोक गहलोत, मुख्यमंत्री राजस्थान सरकार ने किया उन्होंने इस कार्य के प्रति हर्ष व्यक्त करते हुए कहा कि यह बहुत अच्छा कार्य है
अभियान के राष्ट्रीय संयोजक संजय शास्त्री, जयपुर ने मुख्यमंत्री जी को अभियान की जानकारी देते हुए बताया कि यह अभियान पूरे देश में चलाया गया है. इसका उद्देश्य त्योहारों पर होने वाली हिंसा एवं व्यर्थ प्रदर्शन को, पटाखों से होने वाली जन-धन की हानि के प्रति लोगों को जागरूक करना है। महानगर फेडरेशन अध्यक्ष संजय सेठी ने पोस्टर की प्रति मुख्यमंत्रीजी को भेंट करते हुए फेडरेशन के बारे में बताया


Monday, November 1, 2010

"संकल्प" नाटक का मंचन होगा मुंबई में


पीपल फॉर एनिमल लिबेरशन की पहल,१साल बाद होगा फेसबुक, ट्विट्टर और ब्लॉग्गिंग के माध्यम से हो रहा है प्रचार
शाकाहार के बारे में अब जानेगी मायानगरी मुंबई

दिनांक: 1 नवम्बर, जयपुर- जयपुर आधारित गैर सरकारी संस्था पीपल फॉर एनिमल लिबेरशन जो देश भर में जानवरों के अधिकारों पर काम कर रही है अब चल पड़ी है अपना लोकप्रिय नाटक "संकल्प" लेकर मायानगरी मुंबई. इसका मंचन मुंबई मे १३ नवम्बर को भारतीय विद्या भवन मे रखा गया है|
अनिल मारवाड़ी निर्देशित नाटक "संकल्प' का मंचन जयपुर के कलाकारों ने पिछले साल रविन्द्र मंच पर ९ अगस्त के दिन किया था जिसमे लगभग ७०० लोगों ने शाकाहारी बने रहने का संकल्प लिया था| नाटक मे एक शाकाहारी योगी मे ऐसी अद्भुत शक्ति होती हैं जिससे उसके हाथ लगते ही इंसान के सारे कष्ट दूर हो जाते है. उनकी इस शक्ति के कारण लोग दूर दूर से स्वास्थय लाभ के लिए उनके पास आते है| लेकिन बुरे प्रभाव के कारण वह मांसाहार करना शुरू कर देता हैं| इससे उनके ठीक करने की शक्ति नष्ट हो जाती है और उनमे कई दोष पैदा हो जाते है| नाटक मे कलाकारों ने मांसाहार और अनैतिक आचरण से होने वाले अमानवीय अत्याचार को दर्शाया|

संस्था के सर्वज्ञ भारिल्ल ने बताया की, "नाटक के माध्यम से आजकल शाकाहार के प्रति चल रही ब्र्हान्तियों का निराकरण किया जाता है, शाकाहार में ताकत नहीं होती, अंडा शाकाहारी है जैसे आधारहीन तथ्यों से वाकिफ कराते हुए शाकाहारी रहने और बनने की प्रेरणा दी जाती है|

भारिल्ल का कहना है की गाँधी और महावीर के देश में अहिंसा और शाकाहार की सख्त उपयोगिता है| जानवरों को भी इस पृथ्वी पर रहने का उतना आधिकार है जितना की मनुष्यों का|

Sunday, October 31, 2010

Six Important Managerial Skills For Successful Leadership

A mark of a good leader is to be able to provide consistent motivation to his team encouraging them to attain excellence and quality in their performance. A good leader is always looking for ways to improve production and standards. Here are six management skills you can develop as a leader in working to create a quality effective team.

1. Observation
This is an important aspect that often gets neglected due the demands on a leader's time and schedule. Observation and regular visits to the work environment are a priority and should be scheduled into the calendar. Observing employees at work, the procedures, interaction and work flow is foundational to implementing adjustments to improve results. To have credibility, a leader needs to be seen and be known to be up to date with what is happening in the work place.

2. Monitor Employee Performance
Employee performance needs to be monitored in mutually accepted ways. Policies and procedures need to be clear. Conferencing should be on a regular basis and not just when there is a problem. Assessments and evaluations should not be merely all formality or viewed a necessary paperwork to be done and filed away. Individual and group conferencing should be undertaken not only to monitor performance, but with the expectation of on going professional development and support. There should be frequent encouragement and clear criteria for on going goals both for the group and individual.

3. Implementation of Professional Development Programs
A good leader evaluates weaknesses and provides training and development strategies to strengthen the weaker skills in the team.

4. Demonstrates Working Knowledge and Expertise
Good leadership comes from a place of strong knowledge and experience of the production and process leading to results. If a leader does not possess all the expertise and knowledge personally, then regular consultations with experts involved in the departments should be held. This is important in order to maintain an accurate and informed overall picture.

5. Good Decision Making
Good leadership is characterized by the ability to make good decisions. A leader considers all the different factors before making a decision. Clear firm decisions, combined with the willingness and flexibility to adapt and adjust decisions when necessary, create confidence in the leadership.

6. Ability to Conduct and Evaluate Research
On going review and research is vital in order to keep on the cutting edge in business. While managing the present to ensure on going excellence in product and performance, a good leader is also able to look towards the future. Conducting and evaluating research is an important way of planning and being prepared for the future.

Excellent leadership is always pro active rather than reactive. By developing these six managerial skills builds a solid foundation for success.

Tuesday, October 26, 2010

मापदण्ड बदलो

मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम,
जुए के पत्ते सा
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।
मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं,
कोपलें उग रही हैं,
पत्तियाँ झड़ रही हैं,
मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ,
लड़ता हुआ
नयी राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ ।



अगर इस लड़ाई में मेरी साँसें उखड़ गईं,
मेरे बाज़ू टूट गए,
मेरे चरणों में आंधियों के समूह ठहर गए,
मेरे अधरों पर तरंगाकुल संगीत जम गया,
या मेरे माथे पर शर्म की लकीरें खिंच गईं,
तो मुझे पराजित मत मानना,
समझना –
तब और भी बड़े पैमाने पर
मेरे हृदय में असन्तोष उबल रहा होगा,
मेरी उम्मीदों के सैनिकों की पराजित पंक्तियाँ
एक बार और
शक्ति आज़माने को
धूल में खो जाने या कुछ हो जाने को
मचल रही होंगी ।
एक और अवसर की प्रतीक्षा में
मन की क़न्दीलें जल रही होंगी ।



ये जो फफोले तलुओं मे दीख रहे हैं
ये मुझको उकसाते हैं ।
पिण्डलियों की उभरी हुई नसें
मुझ पर व्यंग्य करती हैं ।
मुँह पर पड़ी हुई यौवन की झुर्रियाँ
क़सम देती हैं ।
कुछ हो अब, तय है –
मुझको आशंकाओं पर क़ाबू पाना है,
पत्थरों के सीने में
प्रतिध्वनि जगाते हुए
परिचित उन राहों में एक बार
विजय-गीत गाते हुए जाना है –
जिनमें मैं हार चुका हूँ ।



मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।

दुष्यंत कुमार

Friday, October 22, 2010

अनन्तवीर बंधेंगे वैवाहिक बंधन में ......

अनंत वीर्य का विवाह 22 नबम्बर को --- स्मारक से २००5 में स्नातक और वर्तमान में मंगलायतन विश्वविद्यालय में लाइब्रेरी विभाग में कार्यरत अनंतवीर्य जैन आने वाली 22 नवंबर को विवाह वन्धन में बंधने जा रहे हैं... उनका विवाह फिरोजाबाद के पास टूंडला में संपन्न होने जा रहा है....... भाई अनंतवीर्य का समस्त स्मारक के नए-पुराने विद्यार्थियों को हार्दिक आमंत्रण है.....

संपर्क सूत्र -अरहंत वीर (९८२९५३७४७६)

Sunday, October 10, 2010

क्या ये भी चुटकुला है .............?

क्या ये भी चुटकुला है .....
सब लोग जानते है कि मेरा घर जला है ,बस इतना याद रखना इसमें भी कुछ भला है
प्रारंध्र है या संचित मुझको पता नहीं है, जितना बड़ा था लोटा उतना ही जल भरा है
पतझड़ के पीले पत्ते कहते सदा यही है, आएगा बसंत फिर से मौसम बदल रहा है
जीना पड़ेगा तुमको हर हाल मे ये इंसा,हर दिन है महा भारत हर रात कर्बला है
मांगी थी भीख तुमने रोते हुए जीने कि वो जिंदगी क्या देगा , मोतों में जो पला है
सुख जाते -जाते बोला दुःख से ये बात कहना , वो भी नहीं रहेगा ऐसा ही सिलसिला है
मेरी चिता पे आकर कुछ लोग ये कहेंगे सचमुच मरा है"मानव " क्या ये भी चुटकुला है
अर्पित जैन "मानव"

Monday, September 6, 2010

प्रतिष्ठित अखवार 'जनसत्ता' पर हमारा ब्लॉग पीटीएसटी संचार


वैसे तो आये दिन पीटीएसटी संचार ब्लॉग के लिए ढेरों वधाईयां एवं प्रोत्साहन हमें मिलता है...लेकिन इस बार हमारे इस ब्लॉग ने देश के प्रतिष्ठित अखवार 'जनसत्ता' के सम्पादकीय पेज पर अपनी जगह बनायीं। जी हाँ जनसत्ता अखवार के सम्पादकीय पृष्ठ पर नियमित प्रकाशित कॉलम 'समान्तर' में हमारे ब्लॉग का एक लेख "अब वैज्ञानिकों ने...." को 'दुनिया बनाने वाले' शीर्षक के नाम से प्रकाशित किया है। यह लेख हमारे ब्लॉग लेखक चेतन जैन के नाम से by line प्रकाशित हुआ है। यह लेख सितम्बर २०१० के जनसत्ता के सम्पादकीय पृष्ठ पर देखा जा सकता है। ब्लॉग टीम पाठकों एवं अन्य सभी सहयोगियों के इस प्यार के लिए तहे दिल से शुक्रिया करते हैं....साथ ही इसे प्रकाशित करने के लिए अरविंद शेष जी का भी धन्यवाद ज्ञापित करते हैं।

आप इसे जनसत्ता के ई-पेपर www.jansattaraipur.com पर ६ सितम्बर के अंक में देख सकते हैं।

Saturday, September 4, 2010

अलिखित

हमारे ब्लॉग की ये १००वि पोस्ट है....सोचा कुछ खास प्रकाशित किया जाये...तब एक बड़ी ही ख़ूबसूरत कविता हाथ लगी...जो मेरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के अग्रज मयंक सक्सेना द्वारा रचित है..जिसे उनकी प्रत्यक्ष स्वीकृति लिए वगैर छाप रहा हूँ...पर मैं जनता हूँ कि उनकी परोक्ष स्वीकृति मुझे प्राप्त है... अब तक हमने काफी कुछ अपने ब्लॉग में लिखा, प्रकाशित किया लेकिन इतना सब लिखने पर भी बहुत कुछ अब भी अनकहा, अलिखित है...कुछ ऐसा ही भाव बयाँ करती है ये रचना....मजा लीजिये....

"लिखने


और कुछ न लिखने

के बीच

फर्क सिर्फ

कह देने

और

न कह देने सा है

कुछ

जो सोचा गया

कभी

कहा नहीं गया

कुछ

जो मन में चला

कभी

लिखा नहीं गया

कुछ

सोच कर भी

अनकहा रहा

कुछ

जान कर भी

अलिखित है

आज तक...

(साभार गृहीत- www.taazahavaa.blogspot.com)

Friday, September 3, 2010

अब वैज्ञानिको ने भी माना, भगवान् ने नही बनाई दुनिया

हमेशा से ही दुनिया के उत्पाद को लेकर विवाद चला रहा है, हर धर्म में ब्रम्हाण्ड के सृजन कर्ता के रूप में अपने अपने इष्ट देव को माना जाता है....दुनिया के लगभग सभी धर्मो ने पृथ्वी का कर्ता किसी किसी को स्वीकार किया है.....सिर्फ जैन धरम ने हमेशा से ही ब्रम्हाण्ड को अनादि-अनंत बताया है, जिसका सीधा सा मतलब है कि इस दुनिया को किसी ने बनाया है और ही कोई इसे मिटा सकता है.... दुनिया तो जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन द्रव्यों से मिलकर बनी है... काफी समय से दुनिया के तमाम वैज्ञानिक इस बारे में रिसर्च कर रहे थे की दुनिया आखिर बनाई किसने है.... इसी सम्बन्ध में हाल ही में एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक हॉकिंस ने स्वीकार किया है की ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण नहीं किया है... बल्कि इस दुनिया का निर्माण स्वतः ही हुआ है... हम आपको पढ़ाते है उस वैज्ञानिक की लिखी किताब के कुछ अंश ......

सर्वश्रेष्ठ भौतिक वैज्ञानिकों में शुमार किए जाने वाले ब्रिटेन के स्टीफन हॉकिंस का कहना है कि ब्रह्माण्ड के निर्माण के सिद्धांतों में अब ईश्वर की कोई जगह नहीं है। हॉकिंस ने यह बात अपनी नई किताब में कही है, जिसके कुछ अंशों का हाल ही में प्रकाशन हुआ है।
अपनी प्रसिद्ध किताब ब्रीफ हिस्टरी ऑफ टाइममें हॉकिन्स ने जिस तरह ब्रह्माण्ड के निर्माण में ईश्वर की भूमिका के प्रति सहृदयता दिखाई थी उससे अलग हटते हुए हॉकिन्स ने कहा है कि बिग बैंगगुरुत्वाकर्षण के नियमोंकी अनिवार्य परिणति से ज्यादा कुछ नहीं है। हॉकिंस का कहना है कि गुरुत्वाकर्षण का नियम हमें यह बताता है कि ब्रह्माण्ड का निर्माण शून्य से भी हो सकता है और ऐसा होता भी है। उनका मानना है कि स्वत:स्फूर्त तरीके से निर्माण की परिघटना ही वह कारण है, जिसने इस दुनिया और हमारा आस्तित्व संभव बनाया है। अगर ऐसा नहीं होता तो कुछ भी नहीं होता। हॉकिंस ने इन मान्यताओं को अपनी नई किताब ग्रैंड डिजाइनमें सामने रखा है। इस किताब का धारावाहिक के तौर पर लंदन के टाइम्समें प्रकाशन किया जा रहा है। हॉकिंस ने कहा कि इस सृष्टि के संचालन की व्याख्या करने के लिए ईश्वर का सहारा लेना कतई जरूरी नहीं है। हॉकिंस ने इससे पहले अपनी प्रसिद्ध किताब ब्रीफ हिस्टरी ऑफ टाइममें यह राय प्रकट की थी कि दुनिया को वैज्ञानिक तरीके से समझने के लिए ईश्वर की अवधारणा पूर्णत: असंगत नहीं है। लेकिन अपनी इस नई किताब में अपनी पुरानी धारणा से आगे बढ़ते हुए उन्होंने कहा है कि न्यूटन के इस सिद्धांत को कि बेतरतीब अव्यवस्था से ब्रह्माण्ड का निर्माण नहीं हो सकता, आज पूरी तरह से सही नहीं जान पड़ती। अपने इस मत की पुष्टि के लिए हॉकिंस ने १९९२ में हुए उस खोज का हवाला दिया है, जिसमें हमारे सौरमंडल से बाहर एक तारे के चारों ओर घूमते ग्रह के बारे में पता चला था। हॉकिंस ने इस खोज को ब्रह्माण्ड की समझ में बदलाव लाने वाला क्रांतिकारी मोड़ बताया है।

Wednesday, September 1, 2010

लोहे का स्वाद

....सम्भवतः हिंदी के सबसे चमत्कारिक...झकझोर देने वाले कवियों में से एक-धूमिल....ये कविता उनकी आखिरी कविता मानी जाती है....

"शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज है या
मिट्टी में गिरे हुए खून
का रंग"
लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है.