हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Tuesday, August 30, 2016

ज्ञानतीर्थ के स्वर्णजयंती वर्ष के बहाने।

कुछ भी आगे लिखने से पहले कुछ सवालों से अपनी बात शुरु करना चाहूंगा..सवाल है कि रेगिस्तान में दूर किसी किनारे पर खड़े वृक्ष की क्या अहमियत है? घनघोर तिमिर में डूबे किसी वन में दीपक की क्या अहमियत है? काल के गाल में समा रहे किसी कई दिनों के प्यासे व्यक्ति के लिये जलबिन्दु की क्या अहमियत हैं? जैसे इन तमाम चीज़ों की कीमत जानते हुए भी बयां करने में हम असमर्थ हैं और इनके बारे में कुछ कहकर जो भी हमा बयां कर दें पर उतना मात्र कहा हुआ कभी भी इनकी असल अहमियत को ज़ाहिर नहीं कर सकेगा। कुछ चीज़ें बस महसूस की जा सकती है उन अनुभूत चीज़ों के बारे में मन में वर्तने वाली श्रद्धा ही उनका असल सम्मान है अल्फाजों के तमाम नगीने भी ऐसी चीज़ों, परिस्थितियों या व्यक्तियों के सम्मान को प्रदर्शित नहीं कर सकते।

टोडरमल स्मारक। यहां से संबद्ध हर व्यक्ति मात्र के लिये कुछ ऐसी ही श्रद्धा का विषय है कुछ लफ्जों में समेट इसके महिमा प्रदर्शन का कार्य अनंत को संख्या में समेटने की गुस्ताख़ी है। पर चुंकि स्वर्ण जयंती वर्ष में प्रवेश कर रहे इस परिसर की महिमा में कुछ कह देने की औपचारिकता निभाना आवश्यक है तो बस दिल को रखने के लिये कुछ कह देने का उपक्रम कर रहा हूँ। पर ये जानता हूँ कि मेरा तमाम शब्द चातुर्य कम से कम इस विषय में आकर तो असफल होगा ही। क्योंकि यहाँ दुविधा ये होगी कि क्या भूलूं या क्या याद करूं और जो भी याद करुं उसकी शुरुआत कहाँ से करुं।

फिर भी शुरु करता हूँ। वर्ष 2002। कक्षा दस में अध्ययन के दौरान ही कानों में ये सुगबुगाहट शुरु हो गई थी कि आगे पढ़ने के लिये टोडरमल स्मारक में जाना है। उससे पहले तक इस भवन से नाता बस बालबोध-वीतराग विज्ञान के पहले पृष्ठ पर प्रकाशक के नाम पर छपे कुछ शब्दों के तौर पर ही था। लेकिन उन बालबोध और वीतराग विज्ञान के जरिये ही इस भवन की छवि किसी भव्य ज्ञान तीर्थ के रूप में दिलोदिमाग में अंकित थी ये बात अलग है तब तक हम ज्ञानतीर्थ शब्द की व्याख्या करने में समर्थ बुद्धि के धारक नहीं थे। ये कुछ कुछ वैसा ही था जैसे एनसीआरटी या माध्यमिक शिक्षा मंडल की किताबों के पीछे छपे इनके नाम इन परीक्षा बोर्डों के प्रति एक अलग ही कौतुलह पैदा करते हैं वैसा ही कौतुहल उस बालमन में पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट को लेकर था। लेकिन जब 2002 के उस वर्ष में मुझे इस परिसर में जाने का अवसर आया तो स्वभावतः अपने घर और गांव का प्रेम भला कैसे अपनी पगडंडी छोड़कर आगे बढ़ने की इज़ाजत दे देता।

पर कहें कि भली होनहार थी सो लाख घर पर रुकने की कोशिशों के बावजूद भी टोडरमल स्मारक में अगले पांच साल बिताने का सुअवसर हाथ लगा। ये पांच साल, ज़िंदगी के अगले संभावित पचास सालों की आधारशिला रखने को तैयार थे। एक मजबूत आधार शिला। जहाँ सिर्फ संस्कारों का आधार ही नहीं बल्कि तत्वज्ञान के पंख भी हमें मिलने जा रहे थे जिनके सहारे हम इस भव और भवांतरों के भी समंदर को पार करने का साहस रख सकते थे...आत्मविश्वास से संपन्न हो ये साहस कर भी रहे हैं। हां कुछ विसंगतियां अभी भी होंगी जीवन में, किंतु वे निश्चित ही उन संभावित विसंगतियों से कम होंगी जो तब पैदा होती जब हम टोडरमल स्मारक न गये होते। 

टोडरमल स्मारक स्वर्णजयंती वर्ष पर प्रकाशित होने वाली स्मारिका में प्रकाशन हेतु मांगे गये लेख में एक बिंदु है संस्था का समाजहित में योगदान। मैं प्राधिकृत आंकड़ों के आधार पर नहीं बता सकता कि इस व्यापक समाज में टोडरमल स्मारक अपने प्रयासों से क्या योगदान दे रहा है उस निराकार समष्टि को साकार कर प्रस्तुत भी नहीं किया जा सकता। लेकिन कहते हैं व्यष्टि (व्यक्ति) ही समष्टि (समाज) की रचना करता है। किसी भी भले प्रयास को आयाम देते वक्त समष्टि का नहीं व्यष्टि का ही विचार किया जाता है और टोडरमल स्मारक के प्रयासों का समस्त केन्द्रीकरण व्यष्टि के हित में ही रहा है। जी हाँ पांच साल तक एक ऐसे अबोध बालक का निर्माण जो तमाम  दुनियादारी या हित-अहित के विचार से परे बस एक बालक है लेकिन जब वो यहाँ से निकलता है तब स्वयं तो एक आधार स्तंभ बनता ही है साथ ही जहाँ भी वो खड़ा होता है वहीं एक संस्था का काम करता है। अपने आसपास स्थित समस्त परिसर को गुलजार करता है। इस तरह देखें तो एक व्यष्टि का हित ही अंततोगत्वा समाज का हित बन जाता है। इससे पैदा हुए सकारात्मक बदलाव का जो भी हम आकलन करते हैं वो असल से बहुत कम ही होता है। क्योंकि एक स्नातक अपने गुणों की गंध सिर्फ अपने परिवार, जाति या वर्ग विशेष तक ही नहीं फैलाता बल्कि वो धर्म और समाज के इतर भी लोगों में अपने संस्कार और ज्ञान की सौरभ पहुंचाता है।

बात यदि संस्था की कार्यप्रणाली की करुं तो कहना चाहुंगा कि कोई भी प्रणाली या व्यवस्थाएं सफलता का आधार नहीं होती बल्कि उद्देश्य ही सफलता के सुनिश्चितिकरण का आधार होते हैं। आपके उद्देश्य यदि महान हैं तो व्यवस्था की खामियों के बावजूद आप अपने लक्ष्य की उपलब्धि करने में सक्षम होते हैं किंतु यदि उद्देश्यों में ही छल है तो दुरुस्त व्यवस्थाएं भी गंतव्य तक पहुंचाने में सक्षम नहीं है। टोडरमल स्मारक का बीते पचास साल का इतिहास स्वयं इसकी प्रणाली की कहानी बयां करता है। करीब एक हजार विद्वानों की फौज, व्यापक तत्व प्रचार की सुदृढ़ परंपरा, जन-जन तक सत्साहित्य की पहुंच सुनिश्चित करने में यकीनन संस्था की कार्यप्रणाली का हाथ नहीं हो सकता बल्कि उन उद्देश्यों का हाथ हैं जिनको लेकर संस्था काम करती है। पचास साल की इस यशस्वी परंपरा को अगले पचास साल और कहें कि अगले पांच सौ साल या इसके परे भी ले जाना है तो उन महान् उद्देश्यों के साथ समझौता नहीं करना है जिनका आधार पूज्य गुरुदेव श्री और आदरणीय छोटे दादा के द्वारा रखा गया है। इन उद्देश्यों के सहारे चाहे किसी भी प्रणाली का लिबास क्युं न हों उसका सफल होना तय है।

टोडरमल स्मारक और जैनतत्वज्ञान के शिक्षा के क्षेत्र में योगदान की बात करें तो आज समाज में संचालित दर्जन भर से ज्यादा संस्थाएं टोडरमल स्मारक की सफलता की गवाही दे रही हैं। यदि इस क्षेत्र में टोडरमल स्मारक का योगदान नगण्य होता तो निश्चित ही खुद टोडरमल स्मारक महाविद्यालय ही काल के प्रवाह में कहीं खो गया होता लेकिन ये तो दोगुनी शक्ति से बढ़ ही रहा है साथ ही कई अन्य को भी इस जैसा बनने के लिये प्रेरित कर रहा है। ये प्रतिस्पर्धा अच्छी है हम तो चाहेंगे सब टोडरमल स्मारक जैसा बनना चाहें बल्कि इससे भी आगे निकलने का प्रयास करें क्यों कि इन प्रयासों से अंततः जिनशासन को ही गति मिलेगी। लेकिन प्रतिस्पर्धा के बीच आलोचना के सुर तेज करना समझ से परे हैं। ये स्वस्थ प्रतिस्पर्धा कहीं बाजारु न हो जाये इसका ध्यान रखना जरुरी है क्योंकि ये समझ लें कि भले ही कोई नई संस्था टोडरमल स्मारक से ज्यादा ऊंचाई हासिल कर ले लेकिन टोडरमल स्मारक जितनी गहराई पा लेना आसान काम नहीं है। आज विरोधी संस्थाओं के बीच भी जो खुद को बेहतर बनाने की होड़ है वो भी टोडरमल स्मारक की ही देन हैं। इस तरह यदि मैं कहूं कि तमाम क्रियाकांड के बीच शिक्षा के क्षेत्र में जितना भी जैन तत्वज्ञान विद्यमान है वो सिर्फ और सिर्फ टोडरमल स्मारक की वजह से है तो अतिश्योक्ति नहीं होगा।

इन सबके बावजूद बेशक हम खुद की बीते सालों की उपलब्धियों से नई ऊर्जा और प्रेरणा प्राप्त करें किंतु इन गुजरे वर्षों की सफलता के व्यामोह में अंधा हमें नहीं होना है। इस धारा को अक्षुण्ण रखना है तो गुजरे वक्त से ज्यादा अपने वर्तमान और भविष्य पर नजर रखना है। अपने उद्देश्यों में किसी भी भांति कलुषता नहीं आने देना है। पद, प्रतिष्ठा और पैसे का वर्चस्व कम से कम हमारी इस मातृ संस्था में तो न रहे। परस्पर साधर्मी वात्सल्य और सरलता से सहयोगी वृत्ति बनाये रखें। राजनीति और छल का प्रवेश यहाँ न होने पाये इसके लिये समग्र प्रयासों की जरुरत है। आलोचना और अपनी निंदा को भी सुने तथा उसे अंतर्मन से गुने भी, यदि आलोचना सही है तो उन गलतियों को सुधारें। और यदि आलोचना निरर्थक है तब भी आलोचना करने वाले पर द्वेष या वैमनस्य न बरतें। हमें सहिष्णु भी होना है और साहसी भी। प्रतिकार करें, प्रतिस्पर्धा भी करें पर प्रतिद्वंदी किसी के भी न बने। सफलता में प्रसन्न हों किंतु असफलता में खेदखिन्न नहीं। थोड़ा ही सही पर अपने अपने स्तर पर प्रयास जरुर करें क्योंकि हम सब द्वारा थोड़े-थोड़े अंशों में सींचे गये जल से ही इस बोधिवृक्ष का पल्लवन बरकरार रहेगा। मेरा अपने हर शास्त्री भाई से निवेदन है कि टोडरमल स्मारक के स्वर्णिम अतीत ने हमारा वर्तमान गढ़ा है अब हमारे वर्तमान का ये फर्ज है कि हम इसका भविष्य यशस्वी और जीवंत बनायें।
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