हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015
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Saturday, February 25, 2023

संजीव : जिनका जीवन तो प्रभावनामय ही था; पर मृत्यु भी जिनशासन की प्रभावना बन गई...



उस को रुख़्सत तो किया था पर हमें मालूम था

मानो सारा जहाँ ले गया, जहाँ छोड़ के जाने वाला।।

संजीव। तुम्हारे नाम में ही है समता और तुम्हारे नाम में ही है जीव। इन दोनों के लिये ही तो अपने पूरे जीवन का जर्रा जर्रा लगा दिया तुमने। दृष्टि में त्रिकाली जीव द्रव्य हो और पर्याय में प्रकटे समता। इसका ही शंखनाद करने वाले मानो एक साकार स्वरूप थे आप संजीव।

पंडित टोडरमलजी, जयचंद जी छावड़ा, दौलतराम जी कासलीवाल जैसे दर्जनों विद्वानों की जन्मस्थली रही ढुंढार क्षेत्र की भूमि वर्ष 1976 में एक बार फिर गौरवान्वित हुई, जब इसी जमीं पर महेन्द्र और मंजु गोधा के घर सौम्य सी, निश्छल छवि लिये एक बालक का जन्म हुआ। संयोग की बात है कि पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की मंगल प्रेरणा के प्रभाव से अमूमन यही वो वर्ष था जब जयपुर की भूमि सहस्त्राधिक विद्वानों की भूमि बनने को तैयार हो रही थी और इस जमीं पर ही पंडित टोडरमल दिगंबर जैन सिद्धांत महाविद्यालय की नींव पड़ रही थी। मानो नियति उन निमित्तों को भी भलीभांति तैयार कर रही थी जिसकी गर्त में भविष्य के संजीव गोधा का आविर्भाव छुपा था।

पाठशाला में बालबोध, वीतराग विज्ञान पढ़ते हुये इक अबोध बालक में तत्त्वज्ञान के ऐसे संस्कार पढ़े, जिसके चलते लौकिक शिक्षा तो महज नाम की रह गई और आध्यात्मिक शिक्षा इस बालक के जीवन का ध्येय बन गई। फिर क्या था जैन आगम के गूढ़तम सिद्धांतों, आगम के चारों अनुयोग, न्याय आदि का अध्ययन कर और पूज्य गुरुदेव श्री के प्रभावना योग में अध्यात्म से भीगकर अल्पवय में ही एक ऐसा विद्वान तैयार हो चुका था जो पंडित टोडरमल जी की गादी से तत्त्वज्ञान को जनसामान्य के सामने परोसकर साढ़े तीन सौ वर्ष की समृद्ध परंपरा को आगे बढ़ाने के लिये तैयार था।

वक्त आगे बढ़ा... और संजीव का कारवां भी उससे भी तेजगति से बढता चला गया। गृहस्थी बढ़ी लेकिन वह भी तत्वज्ञान को पोषित पल्लवित करने वाली ही रही। संजीव को मिली संस्कृति ने इनकी प्रकृति को और निखारा, और आखिर तक तत्त्वज्ञान के मार्ग में एक योग्य सहधर्मिणी का दायित्व निभाया। अब हमें यकीन है कि इन्हीं के नक्शे कदमो पर चल आपका ही अक्स हमें आर्जव के जरिये देखने को मिलता रहेगा।

जमाने ने इस विद्वान की प्रतिभा तो समझी ही पर अंतर की विशुद्धि भी जानी, यही वजह है कि जिनधर्म को मानने वाला ऐसा कोई वर्ग बाकी न रहा जिसे संजीव की संजीवनी ने प्रभावित न किया हो।

तुम्हें जानते थे बखूब तुम्हारे होते हुये भी हम,

पर बहुत कुछ तेरी हस्ती को तिरे जाने के बाद जाना।

अब देश की सीमाओं का दायरा इन के लिये नाकाफी था और संजीव अब दुनिया के हर महाद्वीप में जिनशासन का डंका बजा रहे थे। जैसे सरहदों पर तैनात सैनिक माँ भारती के लिये सब कुछ समर्पित कर तैनात रहते हैं ऐसे ही संजीव ने मानो जीवन का हर क्षण सिर्फ माँ जिनवाणी की सेवा के लिये समर्पित कर दिया हो और इसमें फिर चाहे अपने पुत्र का बाल्यकाल देखना हो, पारिवारिक उत्सव हों, लौकिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना हो सब कुछ न्यौछावर कर दिया।

यदि हम संजीव जी की उम्र सैंतालीस वर्षों में गिने तो उन्हें इस जीवन में मिले लगभग सत्रह हजार दिवस, उसके करीब चार लाख ग्यारह हजार घंटे और उसमें भी दो करोड़ सैतालीस लाख मिनटों में आधे से ज्यादा वक्त इन्होंने सिर्फ जिनवाणी के पठन, पाठन, श्रवण, प्रवचन और तत्वचिंतन में ही बिताये। ऐसा मां जिनवाणी का सपूत यदि अल्पकाल में मुक्ति न पा सका तो इस पंचमकाल में भला और कौन है जो मोक्ष का अधिकारी होगा?

जब वर्चुअल दुनिया का रियल विश्व पर प्रभाव पड़ा तो संजीव मानो जिनधर्म की पताका को लहराने उस दुनिया का भी अधिपति बन गया। यूट्यूब, फेसबुक पर हर रोज एक शिविर ही उनके साथ लगने लगा, जिसमें तीन चार हजार लोग सीधे तत्त्वज्ञान का रसास्वादन लेने लगे। कोविड ने जब दुनिया को घेरा, लॉकडाउन के चलते दुनिया घरों में सिमटी तब सबसे पहला  वैक्सीन समझो संजीव ही लोगों के लिये लेकर आया और दिन में तीन-तीन टाइम लोगों को श्रुत रूपी अमृत से भिगोकर भयमुक्त किया। ये आलम देख याद आती हैं कुछ पंक्तियां कि

हुआ है तुझ से बिछड़ने के बा' ये मा'लूम

कि तू नहीं था तिरे साथ एक दुनिया थी।

      तत्त्वज्ञान से समाज को भिगोने वाले इस मां जिनवाणी के चितेरे पुत्र पर समाज ने भी उपाधियों की वर्षा कर दी मानो लोगों को भी लग रहा हो कि अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने का वक्त हम पर ज्यादा नहीं है। युवा विद्वत रत्न, उपाध्याय कल्प, अध्यात्म चक्रवर्ती, अध्यात्वेत्ता और न जाने क्या क्या? हालांकि इन उपाधियों से न तो आपके अवदान का ही मूल्यांकन हो सकता है न आपके व्यक्तित्व का और हमें पता है गहन व्याधि के वक्त में भी आपको इन उपाधियों का नहीं सहज समाधि का ही लक्ष्य रहा होगा, जिसे आपने पाया भी है।

   वे जीव धन्य हैं जो अपने जीते हुए जीवन का कतरा कतरा जिनशासन की प्रभावना करते हुए बिताएं पर विरले ही होते हैं वे जिनकी मृत्यु भी जिनशासन की प्रभावना का कारण बन जाए। आप का दुनिया से चले जाना भी इस जमाने को एक शिक्षा है मानो आपने जीवन भर जिनशासन के सिद्धांतों को सिखाया और आखिर में उसका प्रेक्टिकल भी सिखा गए। और इस विदाई में सीख थी "होता स्वयं जगत परिणाम, मैं जग का करता क्या काम" इस विदाई में क्रमबद्धपर्याय, वास्तु स्वातंत्र्य, अकर्तावाद, उदय की विचित्रता, समाधि का सार सब कुछ समाया हुआ था। जिसे देख समझ ये जमाना तत्त्वज्ञान के संस्कार अपने भीतर पुष्पित पल्लवित कर सके।

      अब आपके जाने के बाद यूं तो हमारे पास आपका दिया हुआ बहुत कुछ है जिसे सुन, समझ हम मां जिनवाणी को समझ सकते हैं और तत्त्वज्ञान से खुद को पुष्ट कर जन्म-मरण के अभाव का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। साथ ही आपकी वो प्रेरणा भी संग है जो हमें विषय-भोगों से बच निरंतर स्वाध्याय और तत्वविचार के लिये प्रेरित करती है लेकिन इस सबके बीच आपके न होने से जो खालीपन उपजा है उसे भर पाने का अभी हमारी पर्याय का स्वभाव तो नहीं।

गुज़र तो जायेगी तुम्हारे बग़ैर भी लेकिन,

बहुत उदास बहुत बे-क़रार गुज़रेगी।।


-अंकुर जैन, भोपाल

Friday, February 17, 2023

अभी तो बड़े सलीके से सुन रहा था तुमको जमाना, पर तुम्हीं सो गए दास्तां कहते-कहते...


(आद. भाईसाहब संजीव जी गोधा के वियोग प्रसंग पर)

मां जिनवाणी की पताका को देश दुनिया में पूरी शान से लहराने का सफर, अभी बस शुरू ही तो किया था... जो हमें पसंद नहीं करते थे उस पक्ष में भी आपने अपनी सरल सुबोध शैली से खुद की मौजूदगी दर्ज कराकर शुद्ध तत्वज्ञान के ग्रहण का रास्ता अभी ही तो प्रशस्त किया था। अभी ही तो मिटना शुरू हुई थी जन जन की सुषुप्त मिथ्यात्व की कारा.. पर ये क्या? सुन रहा था जमाना बड़े जागे मन से तुम्हें और तुम ही चल दिए बिना ठीक से अलविदा किए हमें।

लेकिन हमें भरोसा है चैतन्य का शंखनाद करने वाले आपने, बेहोशी में नहीं पूरे होश में ही इस फानी दुनिया से विदा ली होगी और इस विदाई में अंतिम वक्त तक स्मृति में होगी मां जिनवाणी की लोरियां और सुध इस बात की कि "मैं ज्ञानानंद स्वभावी हूं"।

आज भी याद है वो दिन शायद ४ अगस्त २००२ की तिथि रही होगी, जब टोडरमल स्मारक के जुलाई अगस्त शिविर में पहली बार किसी २५-२६ साल के युवा को  बड़ी सरलता के साथ, छोटे छोटे वाक्यों का प्रयोग करते हुए जनभाषा में बड़े धाराप्रवाह और जोशीले अंदाज में आप्तमीमांसा पर कक्षा लेते देखा था। मैंने तब स्मारक में प्रवेश ही लिया था, आगम अध्यात्म की विशेष समझ तो नहीं थी पर आपके अंदाज ने मानो मुरीद ही बना लिया। बाद में आपसे कई विषय अपने अध्ययन काल के दौरान प्रथम मर्तबा पढ़ने मिले। और जिस शैली में अबोध बालक को अपना कायल करने की क्षमता थी वो कालांतर में जन जन की प्रिय हो जाए इसमें क्या आश्चर्य!

बाद में मुझे गुरु शिष्य से बढ़कर मित्रवत स्नेह आपका मिला, और तत्वप्रचार, स्वाध्याय के लिए सतत प्रोत्साहन भी मिला। लेकिन अब भी बहुत कुछ ऐसा था जो आपसे चर्चा करनी थी, आपसे पूछना था आपसे सीखना था पर नियति की विडंबना; कि ये वहीं पटाक्षेप करती हैं जहां एक लंबी कहानी की आस होती है। 

मुझे आज भी याद है टोडरमल स्मारक से हमारी विदाई के वक्त कही आपकी बात कि ये ५०-६० वर्ष का भविष्य हमारा भविष्य नहीं है हमारा भविष्य तो है "रहिए अनंतानंत काल, यथा तथा शिव परिणये" और आपकी ये प्रेरणा कि उस भविष्य के लिए तैयारी करो। आप तो यकीनन उस भविष्य को संवारने सादि अनंत काल के महासौख्य को पाने अनंत की यात्रा पर गतिमान हो गए और शीघ्र ही अपने पुरुषार्थ को प्रबल कर कुछेक भवों में ही मुक्तिश्री के स्वामी होंगे, लेकिन आपकी अनुपस्थिति में तत्व प्रभावना के जगत में यहां जो शून्य उभरा है वह एक लंबे अरसे तक भर पाना मुमकिन न होगा।

पूज्य गुरुदेव श्री द्वारा उद्घाटित, छोटे दादा द्वारा विस्तारित जैनदर्शन के महान सिद्धांत क्रमबद्धपर्याय को जीवन भर आपने सरलता से प्रचारित कर जन जन के हृदय का हार बनाया, और उसका विचार कर परिणामों में समता लाने का प्रयास भी करते हैं लेकिन बारंबार विचारने पर भी नियति के कुछ सत्य, हृदय उतरना कठिन है।

भाईसाहब संजीव जी, कम वक्त में जो ज्यादा काम आप कर गए हैं वह हम सबके लिए प्रेरक है। और आपको देख हम कह सकते हैं जिंदगी लंबी नहीं बड़ी होना चाहिए बेशक आपके जीवन के पल, हमारी आशा के अनुरूप जितने होना चाहिए थे उतने न रहे हों पर जो अवदान आपने इस छोटे से समय में दिया वो अनमोल है। और पूरा विश्वास है कि तत्व की जिस फुहार से आपने जन जन को भिगोया है स्वयं भी उसमे भीगकर अपना प्रयोजनीय कार्य सिद्ध कर लिया है। ये भी एक संयोग ही है कि जिस टोडरमल जी की गादी पर प्रवचन करते हुए आप जिनशासन की ध्वज थामे हुए थे आपकी उम्र भी उनके समान अमूमन ४७ वर्ष के करीब ही रही, पर आप दोनों ने ही कम उम्र में बड़ा काम किया।

आपको चाहने वाले तत्व के पिपासु जन भी इस वज्रपात के वक्त जिनवाणी मां का ही अवलंबन लेंगे और स्वयं भी संसार शरीर, भोगों की क्षणभंगुरता का विचार कर झटति निज हित करो के लिए पुरुषार्थी होंगे।

भाव तो बहुत हैं जो इस वक्त उमड़ रहे हैं पर उन्हें क्रमबद्ध रूप में शब्दों का लिबास देना नहीं बन पा रहा है, आखिर में बस इतना ही -


बिछड़ा कुछ इस अदा से कि रुत ही बदल गई।

इक शख़्स सारे शहर को वीरान कर गया।।


विनम्र श्रद्धांजलि, अभ्युदय व निःश्रेयस सुख की कामना।

-अंकुर शास्त्री, भोपाल

Tuesday, May 12, 2020

तो... हमारा भी शगल है आंधियों में कश्ती चलाने का !!!



आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज हृदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

शिवमंगल सिंह सुमन की यह कविता बहुतों ने कई मर्तबा सुनी होगी... पर अल्फाज़ तब तक महज कोरे हर्फ ही बने रहते हैं जब तलक उन्हें साकार कर सकने की कुव्वत मानव पैदा न कर सके। कोरोना संक्रमण काल के दरमियां जब जिंदगियां थमी हैं और कुदरती तौर पर अनचाहा ही सही, पर विराम का वक्त अनायास ही विचार का वक्त बन पड़ा है। ऐसे में जिनशासन की पताका को बदस्तूर पूरी शिद्दत के साथ लहराने में टोडरमल स्मारक और इसके नेतृत्व से ओतप्रोत हो अन्य संस्थाओं ने एक बार फिर चुनौती को अवसर में बदलकर मिसाल कायम कर दी है। सुमन की इन पंक्तियों के मायनों को चरितार्थ कर एक उदाहरण आध्यात्मिक जगत के समक्ष खड़ा कर दिया है। अध्यात्म जगत में क्रांति लाने वाले महान युगपुरुष पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के प्रभावना योग को जिस संकल्पना के साथ निभाने की जरुरत थी उसे एक मर्तबा फिर टोडरमल स्मारक और इसकी छत्रछाया में चल रही अर्हं पाठशाला ने चरितार्थ कर दिखाया है।


करीब तेरह हजार की विशाल संख्या में लगभग सवासौ कक्षाओं का एकसाथ संचालन कर और जबरदस्त प्रबंधन के जरिये उन धारणाओं को विफल कर दिखाया है जो कहा करती थीं कि प्रभावना के कार्य अनुकूलताओं के मोहताज हैं। जब बतौर ऑब्जर्वर इन कक्षाओं का अवलोकन करने का अवसर मिला तो लगा कि क्या हुआ गर हम प्रशिक्षण शिविर न लगा सके... क्या हुआ कि हर वर्ष लगने वाले सैंकड़ो ग्रुप एवं बाल संस्कार शिविर अब न लग सके... क्या हुआ कि स्थानीय स्तर पर धार्मिक गतिविधियों पर विराम लग गया। हम यानि टोडरमल स्मारक जिस उद्देश्य के साथ गढ़े थे और कालांतर में उसी उद्देश्य के साथ आगे बढ़े थे वही अब भी कर रहे हैं और कायनात के आखिरी पल यानि इस अवसर्पिणी में पंचमकाल के आखिरी समय तक करेंगे क्योंकि सच्ची बात ये है कि हमें कुछ और करना आता ही नहीं है।

      संक्रमण काल के दौरान जबकि प्रभावना का दंभ भरने वाले अनेक स्तंभ इंतजार कर रहे थे हम इतिहास गढ़ रहे थे। क्या ये सहज यकीन कर सकने वाली घटना है कि तेरह हजार की संख्या नेटफ्लिक्स या अमेजन पर वेबसीरीज देखने के लिये दीवानी नहीं हुई। क्या इस दौर में आप ये सहज मान सकते हो कि इन कक्षाओं में फिजिक्स, कैमिस्ट्री, मैथ या बॉयोलॉजी की कथित लौकिक शिक्षा के बगैर बच्चे पूरी जागरुकता के साथ आत्मा-परमात्मा का इल्म (ज्ञान) अर्जित कर रहे हैं। जो भले बड़ी डिग्रियां इन बच्चों को न दिला सके लेकिन एक बेहतर किरदार इन बच्चों को मुहैया करायेगा जिसकी गंध से आसपास का जर्रा जर्रा महकता नजर आयेगा। किसी ने बड़ी सुंदर बात कही है-

डिग्रियां तो पढ़ाई के खर्चों की रसीदें हैं...
इल्म तो वही है जो किरदार में नजर आये।

      और यकीन मानिये इस विशाल ऑनलाइन ई शिविर में जो ज्ञान बच्चे, युवा, प्रौढ़ सीख रहे हैं वह लॉकडाउन के बाद भी उनके किरदार मे दिखेगा। लोगों के बीच ये खालीपन, ये कुछ खो दिया हो ऐसी महसूसियत, अप्रकट-अकथित खौफ और भविष्य के मनगढ़ंत कयासों की उधेड़बुन जैसी अनेक मनोवृत्तियों के बीच जो कुछ भी टोडरमल स्मारक और अर्हं पाठशाला द्वारा दिया जा रहा है वो ज़ेहन की ज़मी पर अरसे तक जमा रहने वाला है। बकौल टोडरमलजी- इस भव में अभ्यास करके कदाचित् परलोक में तिर्यंचादि गति में भी जाये तो वहां संस्कार के बल से देव-गुरु-शास्त्र के निमित्त बिना ही सम्यक्त्व हो जाये, क्योंकि ऐसे अभ्यास के बल से मिथ्यात्व का अनुभाग हीन होता है। जहाँ उसका उदय न हो वहीं सम्यक्त्व हो जाना है। जिस माहौल के दरमियां हम ये कोशिशें कर रहे हैं वो कोरी नहीं जाने वाली, क्योंकि बात निकली है तो दूर तलक जायेगी।


      ये वक्त हमें समझा रहा है कि जीवन के अथाह प्रवाह में हम सब छोटे छोटे द्वीप हैं, उस प्रवाह से घिरे हुये भी, उससे कटे हुये भी... भूमि से बंधे और स्थिर भी पर प्रवाह में सदा असहाय भी- न जाने कब प्रवाह की एक स्वैरणी आकर मिटा दे और बहा ले जाये.... फिर चाहे द्वीप का फूल पत्ते का आच्छादन (भौतिक सुख सुविधा) कितनी ही सुंदर क्यों न हों। इस अहसास के बीच पर्यायों की क्रमबद्धत्ता का बोध होना अधिक आसान बन पड़ता है। इस वक्त भलीभांति समझा जा सकता है कि वो कथित भविष्य है ही नहीं जिसकी चिंता में हम सूखे जा रहे हैं- एक निरंतर विकासमान वर्तमान ही सब-कुछ है। पानी के फव्वारे पर टिकी हुई गेंद के मानिंद... बस जीवन वैसा ही, क्षणों की धारा पर उछलता हुआ सा- जब तक धारा है तब तक बिल्कुल सुरक्षित, सुस्थापित। नहीं तो पानी पर टिके रहने से अधिक बेपाया क्या चीज़ होगी ऐसे ही पर्यायों की इस धारा के बीच वहीं क्षण सार्थक है जो त्रिकाली को विषय बनाने के लिये उद्यत हो अन्यथा पर्यायों सी बेपाया चीज़ पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर, हम आखिर पा भी क्या रहे हैं महज एक व्यर्थ और व्यग्र वर्तमान तथा भविष्य के।

      वस्तुतः बहुतेरे लोगों का साध्य जीवन का आनंद न रहकर, जीवन की सुविधाएं भर रह गया है, आज हम जीवन के शोध की नहीं, जीवन के दौड़ की बात कहने लगे हैं। अंधी दौड़ की आपाधापी के इस समय में चिंतन का आधार उपलब्ध कराने का उपक्रम अनेक अर्थों में प्रशंसनीय है। और हर वो छोटा-बड़ा शख्स जो इस ज्ञान यज्ञ में अपने योगदान की आहूति दे रहा है वो अभिनंदनीय हो गया है।


    
  मैं ये नहीं कहता कि किसी प्रयास में कोई नुक्स नहीं होते... यकीनन वे होते हैं लेकिन उद्देश्यों की महानता प्रयासों की कमी को धूमिल कर देती है। जिस महान उद्देश्य को लेकर हम बढ़ रहे हैं वो चिंगारी ज्वाला में ज़रूर बदलेगी और इस हजारों की संख्या में से चंद लोग तो ऐसे ज़रूर तैयार हो सकेंगे जो शब्दों की राख के नीचे छिपी चैतन्य की जीवंत आग को पकड़ सकेंगे।

     देखा जाये तो हमने लॉकडाउन के दरमियां बीते दो महीने से ही सतत् ज्ञान ज्योति प्रज्वलित रखी है। अनेक विद्वानों के नियमित लाइव प्रवचन, ज्ञान गोष्ठियां, बाल संस्कार शिविर उन्हीं नियमित प्रयासों का परिणाम रहे हैं। मसलन हर किसी के लिये अपनी रुचि, बुद्धि और जिज्ञासा के अनुरूप विषय उपलब्ध कराये ही गये है उन सभी प्रयासों को भी टोडरमल स्मारक से अलग कर नहीं देखा जा सकता। पूज्य गुरुदेव श्री के प्रवचनों का सतत् प्रसारण, छोटे दादा डॉक्टर हुकुमचंद जी भारिल्ल के समय समय पर मिले उद्बोधन, संजीव जी भाईसाहब, मनीष जी, विपिन जी आदि विद्वानों की नियमित कक्षायें, प्रासंगिक गोष्ठियां और अनेक विद्वानों द्वारा स्थानीय स्तर पर चलाई गई ऑनलाइन कक्षायें सभी इसी ज्ञानगंगा से निकली सरिताएं ही हैं। इनका मूल्यांकन लोगों की संख्या के आधार पर नहीं, तत्वबोध की जिज्ञासाओं के प्रशमन के आधार पर किया जाना चाहिये जो सभी के द्वारा अपने-अपने स्तर पर सार्थक सिद्ध हुई हैं। इन समान धाराओं को परस्पर प्रतिस्पर्धा भी न माना जाये, दरअसल ये सब एक दूसरे की पूरक ही हैं। अतः इन्हें इस नजर से न देखा जाये कि फलां के प्रवचन को पांच हजार व्यू मिले, फलां को पांच सौ और फलां को पचास। इन धाराओं को देख दुष्यंत की कविता को आज के संदर्भ में नये सिरे से याद करने को जी चाह रहा है-

सिर्फ दर्शक व्यू बढ़ाना ही मेरा मकसद नहीं
श्री जिनेन्द्र की देशना हृदय उतरना चाहिये।
मेरे यूट्यूब पर नहीं तो तेरे यूट्यूब पर सही
हो कहीं भी तत्व लेकिन तत्व बहना चाहिये।
     
      कोरोना संक्रमण काल के बाद जो दौर आयेगा वो एक नई संस्कृति विकसित करेगा... दुनिया विभिन्न प्रयोजनों को सिद्ध करने के लिये वक्त के माकूल बदलने की जुगत में लग रही है और हमें खुशी है हमने बने हुये पदचिन्हों पर चलने के बजाय खुद पदचिन्ह बनाये हैं। अब आश्चर्य नहीं कि अनेक सभाओं मे जैसे गुरुदेव के प्रताप से तत्व की झांकियां देखादेखी ही सही, पर नजर आने लगी हैं कुछ ऐसा ही इन प्रयासों के बाद भी दिखने लगे।  

      जो इन कोशिशों की आलोचना कर रहे हैं उनका भी स्वागत है और उनसे भी हम सीखेंगे। लेकिन एक सवाल ये भी है कि सोचिये यदि हम ये भी न कर रहे होते तो आखिर क्या कर रहे होते। कैसे ये संक्रमण काल स्व-स्मरण का काल बनता। कैसे विराम का वक्त विचार के वक्त में बदलता। महज, चारों ओर बिखरी पीड़ा, मौतों के आंकड़े, बेचैनियों के भंवर की चर्चा कर ही इष्ट सिद्धि तो संभव नहीं हो सकती न। और जिस जंगल के वृक्ष पर हम बैठे हैं जब वहीं आग लगी हो तो जो भी जितना भी जैसा भी समय हो क्यों न उसे जिनवाणी के अभ्यास, तत्व विचार और भेदविज्ञान में न लगा दिया जाये। आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं-

विपत्तिमात्मनो मूढ़ः परेषामिव नेक्षते।
दह्यमान- मृगाकीर्णवनांतर- तरुस्थवत्।

यानि दावानल की ज्वाला से जल रहे मृगों से आच्छादित वन के मध्य में बैठे मनुष्य की तरह मूढ़ प्राणी अन्य की विपत्ति तो देखता है पर अपनी विपत्ति की सुध नहीं लेता।

यकीन मानिये इस दौर में अखबार पढ़के, समाचार चैनलों को देखकर, रागरंजित उपन्यास आदि पढ़के, फिल्में या टीवी सीरियल देखके या मोबाइल पर गेम खेलकर अथवा किसी अन्य तरीके से समय ज़ाया कर दरअसल आप खुद को ही बरबाद करेंगे तो क्यों न इस बीतते वक्त को जिनवाणी के अभ्यास में लगा दिया जाये... जो वास्तविक और स्वाधीन आनंद की राह प्रशस्त करने वाला बन सके। इन तमाम विषयों पर विचार कर ये समझ आता है कि क्यों आखिर टोडरमल स्मारक और अर्हं पाठशाला का यह प्रयास अद्भुत बन पड़ा है।

मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव ने नियमसार ग्रन्थ की आठवीं गाथा की टीका करते हुये जिनोद्भूत परमागम की महिमा गाते हुये लिखा है- जो भव्यों को कर्णरूपी अञ्जलिपुट से पीनेयोग्य अमृत है, जो मुक्ति सुंदरी के मुख का दर्पण है, जो संसार समुद्र के महाभंवर में निमग्न समस्त भव्यजनों को हस्तावलम्बन देता है, जो सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर का शिखामणि है, जो कभी न देखे हुये मोक्ष-महल की प्रथम सीढ़ी है, और जो कामभोग से उत्पन्न होने वाले अप्रशस्त रागरूप अंगारों द्वारा सिकते हुये समस्त दीन जनों के महाक्लेश का नाश करने में समर्थ सजल मेघ के समान है जिसमें सात तत्व और नव पदार्थ कहे हैं ऐसे महान् महिमावंत जिनवचनों से युक्त द्रव्यश्रुत यानि जिनवाणी के अभ्यास में क्यों न जीवन लगाया जाये क्योंकि

जिणसत्थादो अट्ठे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा।
खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं।

अर्थात्- जिनशास्त्र द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों को जानने वाले के नियम से मोह का क्षय हो जाता है इसलिये शास्त्र का सम्यक् प्रकार से अध्ययन करना चाहिये।

इसलिये और ज्यादा क्या कहें रस्म-ए-दुनिया भी है मौक़ा भी है और दस्तूर भी... कि तमाम व्यर्थ चेष्टाओं से विराम लें और अपने प्रयोजन को सर्व प्रकार से इस वक्त में साध लें-

विरम किमपरेण कार्यकोलाहलेन
स्वयमपि निभृतः सन्. पश्य षण्मासमेकम्।
हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाद् भिन्नधाम्नो
ननु. किमनुपलब्धिर्भाति किं चोपलब्धिः॥

मौजूदा हालात देख लग रहा है कि संभवतः कम से कम छह माह का वक्त तो ऐसा ही बीतने जा रहा है तो क्यों न सभी अकार्य कोलाहल से विरक्त हो स्वयं को शरीरादि पुद्गलों से भिन्न अनुभवने के मार्ग में आगे बढ़ा जाये और उसका सबसे प्रबल हेतु आगम का अध्ययन है। कहा भी है आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा।

इसलिये अब तो स्वयं को सर्वप्रकार से आगम में झोंकते हुये आचार्य अमृतचन्द्र के उस कथन को सार्थक करना है कि ततो नान्यद्धतर्म निर्वाणस्येत्यवधार्यते। अलमथवा प्रलपितेन। व्यवस्थिता मतिर्मम। नमो भगवद्भयः। अर्थात् अब मुझे जिनोपदिष्ट निःश्रेयस का मार्ग प्राप्त हुआ है, निर्वाण का अन्य कोई मार्ग नहीं है ऐसा निश्चित होता है। अथवा अधिक प्रलाप से बस होओ ! मेरी मति व्यवस्थित हो गई है। निर्वाण का मार्ग बताने वाले और उसे पाने वाले भगवन्तों को नमस्कार हो।

और ऐसा तभी संभव है जब हम आगम के सम्यक् अध्ययन से अपनी अव्यवस्थित मति को व्यवस्थित करें और व्यग्रता को छोड़ एकाग्रता को प्राप्त करें।

टोडरमल स्मारक, अर्हं पाठशाला और इसके प्रयासों से प्रसन्नता की जो लड़ियां प्रस्फुटित होती हैं कि इस पर खुद को वारने को जी चाहता है। बालपोथी, बालबोध के जरिये नन्हें मासूम नौनिहालों को पढ़ा रहे उन छात्र विद्वानों को सिर-आंखों पर बिठाने को जी चाहता है। दिन-रात अनेक तकनीकी प्रबंधकीय कार्यों के जरिये इसे वर्चुअल माध्यम को रियल बनाने में लगे समर्थ कार्यकर्ताओं को सहृदयता के उन्माद से गले लगाने को जी चाहता है और क्या कहें भाई जिन आंधियों में सुविधाओं के बड़े-बड़े आशियां बिखर गये वहां तुमने जो तत्वज्ञान का महल खड़ा किया है वो तुम्हारी जीवटता का प्रमाण है।  आखिर में कभी न खत्म होने वाहे अहसासात को चंद लफ्जों के जरिये पूर्ण करता हूं-

जहाँ आसमां को जिद है बिजलियाँ गिराने की,
हमे भी जिद है वहीं आशियाँ बनाने की,
आँधियों से कोई कह दो अपनी औक़ात में रहे,
क्योंकि अब हमने की है हिम्मत सर उठाने की|
           

-    -अंकुर शास्त्री, भोपाल

Friday, December 2, 2016

ज़ेहन में दबी सुप्त संचेतनाओं पर पानी के छीटें : सम्मेद शिखर स्वर्णजयंती महोत्सव


बिखराव से पैदा, रिश्तों का रेशा वक़्त के बीतने के साथ ही महीन पड़ता जाता है। दूरियां, पहले यादों को धुंधला करती हैं फिर अहसासों को भी। मसलन, नजदीकियों के दरमियाँ आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ती लगातार दूरियां, हमें गुजिश्ता तमाम रिश्तों के प्रति असहिष्णु और असंवेदनशील बना देती हैं। संबंधों का तार नये जहाँ और नए हालातों से खुद ब खुद जुड़ जाता है। कतरा-कतरा हम भूल जाते हैं उसी नींव के पत्थर को, जिस पर टिकी होती है हमारी जिंदगी की इमारत। सो जाती है सारी संचेतनायें, जो कभी हमें हम से भी प्यारी हुआ करती थीं।

बदलाव की बयार बहुत कुछ बहा ले जाती है...बहुत कुछ ऐसा भी जो रहना चाहिए था ताउम्र हमारे साथ। बहुत कुछ ऐसा जो करता है हमें जमाने से अलग। बहुत कुछ जो जोड़ता है हमें एक दूसरे से बिना किसी स्वार्थ के। ऐसे में एक-दूसरे से बने रहना लगातार दूर...इस खाई को और गहरा ही बनाता है। तब जरुरत होती है एक मिलन की..जो जगा दे हममें हमारा अक्स। जो करदे जिन्दा उसी उन्माद को जो कभी रहा करता था हमारे साथ। जिस मिलन से एक बार फिर हम कर सके बीते लम्हों की जुगाली। जाग उठे प्यार, अपनापन वैसा ही एक दूसरे के लिए...जो असल में ताकत है हमारी।

हो सकता है अपनी जिंदगी की कसमकस में उलझे हुए, बेचैन हसरतों को पूरा करने में अलग हों रास्ते हमारे। हो सकता है अपना कोई अलग वतन तलाशने में उन रास्तों के पड़ाव भी अलग हों। पर उन रास्तों के पार नज़र आने वाली मंज़िल..हमारा अंतिम गंतव्य नहीं है। जो अंतिम है वो हम सबका एक है। ज्ञानतीर्थ से सिंचित हो असल में तो हम वहां ही पहुंचना चाहते हैं जिसके आगे कोई राह ही नहीं है। तो जब हैं हम पथिक उस एक मोक्षमार्ग के, तो फिर ये अलगाव कैसा। क्यों तात्कालिक के मोहपाश में सर्वकालिक को विस्मृत करना। क्यों सोना। क्यों खोना। क्यों होना, उनसे दूर जो बन सकते हैं जरिया हमें हमसे मिलाने का।

समयसार विधान। तीर्थराज सम्मेदशिखर। स्वर्णजयंती महोत्सव। दरअसल इन तमाम सुप्त संवेदनाओं को झंकृत करने का एक अहम् प्रयास था...जो अपने इस उद्देश्य में दो सौ फीसद सफल हुआ है। निर्वाण धरा पर, हमारी निर्माण स्थली का आयोजन...एक बारगी फिर हममें से कई के पुनर्निर्माण का जरिया बन उठा। जहाँ से फिर जागी हममें वही चिंगारी, जिसे संजोये हम बिताते थे खुशनुमा पल अपनी निर्माण धरा पर।

 'न भूतो न भविष्यति' कहकर मैं आयोजन की बाहरी भव्यता के प्रति कोई अतिरेक पूर्ण बात नहीं कहूंगा। क्योंकि इससे अधिक भव्यता रही भी है, और आगे के आयोजनों में देखने को मिलेगी भी। इस आयोजन में कोई खामियां न रही हो ऐसा भी नहीं है, वास्तव में इतने बड़े प्रयासों का आकलन उन ऊपरी कमियों से नहीं बल्कि उद्देश्यों से किया जाना चाहिए। और जिन उद्देश्यों को लेकर हम जुड़े थे या जिस आंतरिक प्रेरणा ने हमे इस आयोजन का हिस्सा बनने के लिए प्रेरित किया था उस मंशा पर प्रश्नचिन्ह नहीं खड़े किये जा सकते।

बहरहाल, इस तरह के आयोजन वर्तमान और भविष्य दोनों की दरकार हैं क्योंकि हमारा परिवार अब इतना बढ़ गया है कि हमारे बीच रहने वाली भौतिक दुरी, हमारी भावनात्मक दुरी की भी वजह बन जाती है। 'नज़र से दूर, दिल से दूर' उक्ति पुरानी है पर चरितार्थ हमेशा होती है। इसलिए अच्छा है कि एक दूसरे की नजरों में बने रहे, तो दिल में भी बने रहेंगे। और हमारे इस तरह के मिलन से राख के भीतर दबी चिंगारी को भी हवा मिलती रहेगी।

खैर, कहते-कहते बहुत कुछ कह गया। पर फिर भी काफी कुछ अब भी अनकहा ही रह गया। पर चूँकि हम एक-दूसरे से जज़्बाती तौर पर बंधे हैं तो अल्फ़ाज़ों के पीछे के अहसासों को पढ़ना भी जानते हैं..इसलिए गुजारिश है आपसे इन शब्दों को नहीं, शब्दों की राख के पीछे छुपी जीवंत आग को समझने की कोशिश करियेगा।

Tuesday, August 30, 2016

ज्ञानतीर्थ के स्वर्णजयंती वर्ष के बहाने।

कुछ भी आगे लिखने से पहले कुछ सवालों से अपनी बात शुरु करना चाहूंगा..सवाल है कि रेगिस्तान में दूर किसी किनारे पर खड़े वृक्ष की क्या अहमियत है? घनघोर तिमिर में डूबे किसी वन में दीपक की क्या अहमियत है? काल के गाल में समा रहे किसी कई दिनों के प्यासे व्यक्ति के लिये जलबिन्दु की क्या अहमियत हैं? जैसे इन तमाम चीज़ों की कीमत जानते हुए भी बयां करने में हम असमर्थ हैं और इनके बारे में कुछ कहकर जो भी हमा बयां कर दें पर उतना मात्र कहा हुआ कभी भी इनकी असल अहमियत को ज़ाहिर नहीं कर सकेगा। कुछ चीज़ें बस महसूस की जा सकती है उन अनुभूत चीज़ों के बारे में मन में वर्तने वाली श्रद्धा ही उनका असल सम्मान है अल्फाजों के तमाम नगीने भी ऐसी चीज़ों, परिस्थितियों या व्यक्तियों के सम्मान को प्रदर्शित नहीं कर सकते।

टोडरमल स्मारक। यहां से संबद्ध हर व्यक्ति मात्र के लिये कुछ ऐसी ही श्रद्धा का विषय है कुछ लफ्जों में समेट इसके महिमा प्रदर्शन का कार्य अनंत को संख्या में समेटने की गुस्ताख़ी है। पर चुंकि स्वर्ण जयंती वर्ष में प्रवेश कर रहे इस परिसर की महिमा में कुछ कह देने की औपचारिकता निभाना आवश्यक है तो बस दिल को रखने के लिये कुछ कह देने का उपक्रम कर रहा हूँ। पर ये जानता हूँ कि मेरा तमाम शब्द चातुर्य कम से कम इस विषय में आकर तो असफल होगा ही। क्योंकि यहाँ दुविधा ये होगी कि क्या भूलूं या क्या याद करूं और जो भी याद करुं उसकी शुरुआत कहाँ से करुं।

फिर भी शुरु करता हूँ। वर्ष 2002। कक्षा दस में अध्ययन के दौरान ही कानों में ये सुगबुगाहट शुरु हो गई थी कि आगे पढ़ने के लिये टोडरमल स्मारक में जाना है। उससे पहले तक इस भवन से नाता बस बालबोध-वीतराग विज्ञान के पहले पृष्ठ पर प्रकाशक के नाम पर छपे कुछ शब्दों के तौर पर ही था। लेकिन उन बालबोध और वीतराग विज्ञान के जरिये ही इस भवन की छवि किसी भव्य ज्ञान तीर्थ के रूप में दिलोदिमाग में अंकित थी ये बात अलग है तब तक हम ज्ञानतीर्थ शब्द की व्याख्या करने में समर्थ बुद्धि के धारक नहीं थे। ये कुछ कुछ वैसा ही था जैसे एनसीआरटी या माध्यमिक शिक्षा मंडल की किताबों के पीछे छपे इनके नाम इन परीक्षा बोर्डों के प्रति एक अलग ही कौतुलह पैदा करते हैं वैसा ही कौतुहल उस बालमन में पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट को लेकर था। लेकिन जब 2002 के उस वर्ष में मुझे इस परिसर में जाने का अवसर आया तो स्वभावतः अपने घर और गांव का प्रेम भला कैसे अपनी पगडंडी छोड़कर आगे बढ़ने की इज़ाजत दे देता।

पर कहें कि भली होनहार थी सो लाख घर पर रुकने की कोशिशों के बावजूद भी टोडरमल स्मारक में अगले पांच साल बिताने का सुअवसर हाथ लगा। ये पांच साल, ज़िंदगी के अगले संभावित पचास सालों की आधारशिला रखने को तैयार थे। एक मजबूत आधार शिला। जहाँ सिर्फ संस्कारों का आधार ही नहीं बल्कि तत्वज्ञान के पंख भी हमें मिलने जा रहे थे जिनके सहारे हम इस भव और भवांतरों के भी समंदर को पार करने का साहस रख सकते थे...आत्मविश्वास से संपन्न हो ये साहस कर भी रहे हैं। हां कुछ विसंगतियां अभी भी होंगी जीवन में, किंतु वे निश्चित ही उन संभावित विसंगतियों से कम होंगी जो तब पैदा होती जब हम टोडरमल स्मारक न गये होते। 

टोडरमल स्मारक स्वर्णजयंती वर्ष पर प्रकाशित होने वाली स्मारिका में प्रकाशन हेतु मांगे गये लेख में एक बिंदु है संस्था का समाजहित में योगदान। मैं प्राधिकृत आंकड़ों के आधार पर नहीं बता सकता कि इस व्यापक समाज में टोडरमल स्मारक अपने प्रयासों से क्या योगदान दे रहा है उस निराकार समष्टि को साकार कर प्रस्तुत भी नहीं किया जा सकता। लेकिन कहते हैं व्यष्टि (व्यक्ति) ही समष्टि (समाज) की रचना करता है। किसी भी भले प्रयास को आयाम देते वक्त समष्टि का नहीं व्यष्टि का ही विचार किया जाता है और टोडरमल स्मारक के प्रयासों का समस्त केन्द्रीकरण व्यष्टि के हित में ही रहा है। जी हाँ पांच साल तक एक ऐसे अबोध बालक का निर्माण जो तमाम  दुनियादारी या हित-अहित के विचार से परे बस एक बालक है लेकिन जब वो यहाँ से निकलता है तब स्वयं तो एक आधार स्तंभ बनता ही है साथ ही जहाँ भी वो खड़ा होता है वहीं एक संस्था का काम करता है। अपने आसपास स्थित समस्त परिसर को गुलजार करता है। इस तरह देखें तो एक व्यष्टि का हित ही अंततोगत्वा समाज का हित बन जाता है। इससे पैदा हुए सकारात्मक बदलाव का जो भी हम आकलन करते हैं वो असल से बहुत कम ही होता है। क्योंकि एक स्नातक अपने गुणों की गंध सिर्फ अपने परिवार, जाति या वर्ग विशेष तक ही नहीं फैलाता बल्कि वो धर्म और समाज के इतर भी लोगों में अपने संस्कार और ज्ञान की सौरभ पहुंचाता है।

बात यदि संस्था की कार्यप्रणाली की करुं तो कहना चाहुंगा कि कोई भी प्रणाली या व्यवस्थाएं सफलता का आधार नहीं होती बल्कि उद्देश्य ही सफलता के सुनिश्चितिकरण का आधार होते हैं। आपके उद्देश्य यदि महान हैं तो व्यवस्था की खामियों के बावजूद आप अपने लक्ष्य की उपलब्धि करने में सक्षम होते हैं किंतु यदि उद्देश्यों में ही छल है तो दुरुस्त व्यवस्थाएं भी गंतव्य तक पहुंचाने में सक्षम नहीं है। टोडरमल स्मारक का बीते पचास साल का इतिहास स्वयं इसकी प्रणाली की कहानी बयां करता है। करीब एक हजार विद्वानों की फौज, व्यापक तत्व प्रचार की सुदृढ़ परंपरा, जन-जन तक सत्साहित्य की पहुंच सुनिश्चित करने में यकीनन संस्था की कार्यप्रणाली का हाथ नहीं हो सकता बल्कि उन उद्देश्यों का हाथ हैं जिनको लेकर संस्था काम करती है। पचास साल की इस यशस्वी परंपरा को अगले पचास साल और कहें कि अगले पांच सौ साल या इसके परे भी ले जाना है तो उन महान् उद्देश्यों के साथ समझौता नहीं करना है जिनका आधार पूज्य गुरुदेव श्री और आदरणीय छोटे दादा के द्वारा रखा गया है। इन उद्देश्यों के सहारे चाहे किसी भी प्रणाली का लिबास क्युं न हों उसका सफल होना तय है।

टोडरमल स्मारक और जैनतत्वज्ञान के शिक्षा के क्षेत्र में योगदान की बात करें तो आज समाज में संचालित दर्जन भर से ज्यादा संस्थाएं टोडरमल स्मारक की सफलता की गवाही दे रही हैं। यदि इस क्षेत्र में टोडरमल स्मारक का योगदान नगण्य होता तो निश्चित ही खुद टोडरमल स्मारक महाविद्यालय ही काल के प्रवाह में कहीं खो गया होता लेकिन ये तो दोगुनी शक्ति से बढ़ ही रहा है साथ ही कई अन्य को भी इस जैसा बनने के लिये प्रेरित कर रहा है। ये प्रतिस्पर्धा अच्छी है हम तो चाहेंगे सब टोडरमल स्मारक जैसा बनना चाहें बल्कि इससे भी आगे निकलने का प्रयास करें क्यों कि इन प्रयासों से अंततः जिनशासन को ही गति मिलेगी। लेकिन प्रतिस्पर्धा के बीच आलोचना के सुर तेज करना समझ से परे हैं। ये स्वस्थ प्रतिस्पर्धा कहीं बाजारु न हो जाये इसका ध्यान रखना जरुरी है क्योंकि ये समझ लें कि भले ही कोई नई संस्था टोडरमल स्मारक से ज्यादा ऊंचाई हासिल कर ले लेकिन टोडरमल स्मारक जितनी गहराई पा लेना आसान काम नहीं है। आज विरोधी संस्थाओं के बीच भी जो खुद को बेहतर बनाने की होड़ है वो भी टोडरमल स्मारक की ही देन हैं। इस तरह यदि मैं कहूं कि तमाम क्रियाकांड के बीच शिक्षा के क्षेत्र में जितना भी जैन तत्वज्ञान विद्यमान है वो सिर्फ और सिर्फ टोडरमल स्मारक की वजह से है तो अतिश्योक्ति नहीं होगा।

इन सबके बावजूद बेशक हम खुद की बीते सालों की उपलब्धियों से नई ऊर्जा और प्रेरणा प्राप्त करें किंतु इन गुजरे वर्षों की सफलता के व्यामोह में अंधा हमें नहीं होना है। इस धारा को अक्षुण्ण रखना है तो गुजरे वक्त से ज्यादा अपने वर्तमान और भविष्य पर नजर रखना है। अपने उद्देश्यों में किसी भी भांति कलुषता नहीं आने देना है। पद, प्रतिष्ठा और पैसे का वर्चस्व कम से कम हमारी इस मातृ संस्था में तो न रहे। परस्पर साधर्मी वात्सल्य और सरलता से सहयोगी वृत्ति बनाये रखें। राजनीति और छल का प्रवेश यहाँ न होने पाये इसके लिये समग्र प्रयासों की जरुरत है। आलोचना और अपनी निंदा को भी सुने तथा उसे अंतर्मन से गुने भी, यदि आलोचना सही है तो उन गलतियों को सुधारें। और यदि आलोचना निरर्थक है तब भी आलोचना करने वाले पर द्वेष या वैमनस्य न बरतें। हमें सहिष्णु भी होना है और साहसी भी। प्रतिकार करें, प्रतिस्पर्धा भी करें पर प्रतिद्वंदी किसी के भी न बने। सफलता में प्रसन्न हों किंतु असफलता में खेदखिन्न नहीं। थोड़ा ही सही पर अपने अपने स्तर पर प्रयास जरुर करें क्योंकि हम सब द्वारा थोड़े-थोड़े अंशों में सींचे गये जल से ही इस बोधिवृक्ष का पल्लवन बरकरार रहेगा। मेरा अपने हर शास्त्री भाई से निवेदन है कि टोडरमल स्मारक के स्वर्णिम अतीत ने हमारा वर्तमान गढ़ा है अब हमारे वर्तमान का ये फर्ज है कि हम इसका भविष्य यशस्वी और जीवंत बनायें।
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