हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Saturday, August 14, 2010

स्वतंत्रता दिवस मंगलमय हो...


वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
शस्यशामलां मातरम् ।
शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीं
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीं
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीं
सुखदां वरदां मातरम् ।। १ ।। वन्दे मातरम् ।
कोटि-कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले
कोटि-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,
अबला केन मा एत बले ।
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं
रिपुदलवारिणीं मातरम् ।। २ ।। वन्दे मातरम् ।
तुमि विद्या, तुमि धर्म
तुमि हृदि, तुमि मर्म
त्वं हि प्राणा: शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गडि
मन्दिरे-मन्दिरे मातरम् ।। ३ ।। वन्दे मातरम् ।
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्
नमामि कमलां अमलां अतुलां
सुजलां सुफलां मातरम् ।। ४ ।। वन्दे मातरम् ।
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषितां
धरणीं भरणीं मातरम् ।। ५ ।। वन्दे मातरम्

अब छोटे दादा जी के सभी प्रवचन नेट पर होंगे



जी हाँ आप सही सुन रहे है जल्द ही दादा श्री के सभी प्रवचन नेट पर होंगे........






Thursday, August 12, 2010

अगस्त शिविर संपन्न....

ज्ञानतीर्थ श्री टोडरमल स्मारक में हर साल आयोजित अगस्त के महीने में होने वाला शिक्षण शिविर इस साल भी तत्त्व की गंगा दस दिन तक लगातार बहाते हुए अपना ३३वा साल पूर्ण कर चुका है, इस शिविर में देश के विशिस्ट विद्वान् उपस्थित रहे- डॉ. हुकुमचंद जी भारिल्ल, प. रतनचंद जी भारिल्ल, प. ज्ञानचंद जी, विदिशा. p उत्तम चंद जी, सिवनी. प. राजेंद्र जी जबलपुर तथा प्रकाश जी छाबड़ा, इंदौर आदि विद्वानों का करीब १३०० मुमुक्षुओ ने सुबह से शाम तक लाभ लिया.

विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं सम्मेद शिखर वंदना रथ का राजस्थान प्रदेश में आगमन जो इस शिविर से हुआ, जिसमे जिला कलेक्टर कुलदीप रांका की भी उपस्थिथि दर्ज हुई. श्री कुंद कुंद कहान तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट की ओर से आयोजित इस शिविर में आगामी शिक्षण प्रशिक्षण शिविर के स्थान की घोषणा भी की गयी और वो जगह कोई और न होकर आपका अपना स्मारक ही हैं, जहाँ आपको पधारने का निमंत्रण अभी से स्मारक परिवार ने दे दिया हैं. तारीक का उल्लेख कुछ दिनों में कर दिया जायेगा.

PTST SANCHAR की नई पहल


ब्लॉग के प्रिये  पाठको हम आपके लिए लेकर आ रहे है, PTST SANCHAR  SMS ब्लॉग सेवा जिसके जरिये हम स्मारक से जुडी हर खबर आप तक पहुचाएंगे . हर दिन आपके मोबाइल पर होगी स्मारक की हर वो खबर जिसे आप जानना चाहते है. . इस सेवा के तहत खबरों के साथ मिलेंगी  नई सोच और हर काम को करने का एक अलग तरीका साथ ही महान पुरुषो  के सद वाक्य वो भी बिना किसी चार्ज के. अगर आप इस सेवा का लाभ लेना चाहते है तो अपना मोबाइल उठाइए और meseg  के write  बॉक्स में जाकर typ कीजिये JOIN PTSTSANCHAR  और इसे भेज दीजिये ९२२३४९२२३४ पर . ताकि दूरियों के बाबजूद आप रहे स्मारक के बेहद करीब   . अधिक जानकारी के लिए कॉल करे ९९९३६२१४३५, ९८९३४०८४९४ .
नोट - स्मारक से  जुडी कोई भी खबर आपके पास है तो हमें जरुर भेजे .

Wednesday, August 11, 2010

शाकाहार दिवस पर स्मारक परिवार की राष्ट्रव्यापी पहल








गत ९ अगस्त कों स्मारक परिवार एवं हमारी शास्त्री ब्रिगेड ने जयपुर में राष्ट्रव्यापी जनजाग्रति आन्दोलन कर एक महान सामाजिक कार्य कों अंजाम दिया। जिसे देश के सभी प्रमुख अखवारों एवं न्यूज चेनल ने कवर किया। हमारे ब्लॉग टीम के सक्रिय सदस्य सर्वज्ञ भारिल्ल का इस आन्दोलन में अहम् रोल रहा। जिन्होंने इस कृत्य को एक देश व्यापी रूप प्रदान किया। हम इस कार्य में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सहभागी रहे सभी लोगों को वधाई देते हैं। एवं उन्हें ऐसा करते रहने के लिए प्रेरित करते हैं। प्रस्तुत हैं इस आन्दोलन की कुछ झलकियाँ-

Sunday, August 8, 2010

स्मारक रोमांस-(शिविर की धमाचौकड़ी)

(इसे पढने से पहले स्मारक रोमांस की पूरी श्रंखला पढ़ें.)

हमारे ब्लॉग की सबसे लोकप्रिय श्रंखला 'स्मारक रोमांस' के बारे में हमें हमेशा पाठकों की शिकायत मिलती रही है...कि इसमें कई घटनाओं कों छोड़ दिया गया है। दरअसल ये विस्तार भय से बचने एवं ओवरडोज न हो जाये इस भय से संक्षिप्त किया गया...बहरहाल हम फिर हाजिर है कुछ सुरम्य यादों के साथ....

स्मारक के वार्षिक शिविरों का तो क्या कहना...यहाँ दिवाली-होली नही मनाई जाती लेकिन वार्षिक शिविर किसी बड़े भारी उत्सव से कम नही होते। ये खुशियाँ कुछ ऐसी होती जैसी ख़ुशी बच्चों कों अपने घर में सगाई-शादी होने पर मिलती है। शिविर लगने से ३-४ दिन पहले से ही क्लासेस की छुट्टी और शिविर की तैयारी जोर पकड़ लेती थी। मीटिंग्स का दौर शुरू हो जाता है। और इन मीटिंग्स में शिविर संचालन के लिए विभागों का बटवारा होता है-किसी को आवास विभाग तो किसी को स्वागत या VIP...VIP विभाग तो सच में VERY SPECIAL विभाग हुआ करता था। इस विभाग के मुखिया के पास सबसे अधिक राशि को खर्च करने के अधिकार हुआ करते थे...बिलकुल भारत सरकार के रेल मंत्रालय की तरह। ऊपर से दूध-चाय, फल-सब्जी, तेल-कंघा से लेकर खुद के कपड़ों पर स्त्री(press) कराने की सुविधा भी। खैर...

विद्यार्थी अपने सगे-सम्बन्धियों, रिश्ते-नातेदारों, और गाँव भर के भांत-भांत के नमूनों को बड़े चाव से शिविर में आने का निमंत्रण दिया करते थे मानो इनकी खुद की बिटिया विहा रही हो। ये आमंत्रण शिविर में तत्वज्ञान के लाभ हेतु दिए जाते हो ऐसा नही है, दरअसल इनका प्रयोजन अधिकतर गुलाबी शहर की रंगीनियों को देखना हुआ करता था। और अपने उन रिश्तेदारों के लिए रूम बुक कराने का अंदाज कुछ ऐसा हुआ करता था कि मानो बिल गेट्स के दामाद शिविर में पधार रहे हैं...और उन्हें रूम जरुर मिलना चाहिए, भले ही विद्वानों को प्रवचन हाल के किसी कोने में सुला दिया जाय। और उन रिश्तेदारों के आने के बाद शुरू होता है शिविर का लाभ लेने का दौर....जी हाँ कभी राजमंदिर तो कभी बिडलामंदिर या हवामहल और जंतर-मंतर।

स्मारक के जूनियर विद्यार्थियों में भी शिविर को लेकर खासा जोश रहता था...और भोजनालय में परसवाई करने की होड़ लगी रहती थी। ये नन्हे-मुन्ने बच्चे बड़े-बूढों को खाना परसते समय अपना रौब दिखाने का कोई मौका नही गवाते थे। धोके से कोई अतिथि यदि एक सब्जी के लिए दो कटोरी रख ले तो इन भावी शास्त्री की आँखे लाल हो जाया करती थी...और यदि किसी ने गलती से दो रसगुल्ले मांग लिए तो समझो उसकी शामत आ गई। भोजनालय के गेट पे खड़े शास्त्री वन्धु के अन्दर भी एक अकड़ महसूस की जा सकती है...जैसेकि ये महाशय कोहेनूर हीरे की पहरेदारी कर रहे हों।

आवास विभाग के काउंटर पे बैठना तो हर किसी का शगल हुआ करता है। हालाँकि काउंटर के ऊपर बैठना पूर्णतः वर्जित है फिर भी अपने शिक्षकों और अधिकारीयों से बचकर ये काम अक्सर कर लिया जाता था। आवास विभाग का मुखिया १० दिन के लिए खुद को इस संस्था का मैनेजर समझा करता है...और फुटेरा के रज्जुमल से लेकर सिवनी के दिग्गज विद्वान् तक की आवास व्यवस्था का ठीकरा इनके सर हुआ करता है। आवास व्यवस्था के इस सारे पचडम में ये जनाब अपने आवास की व्यवस्था करना नही भूलते...एक VIP कमरा इन महाशय के लिए ही बुक रहता है...जहाँ ये अपने ३-४ इष्ट-मित्रों के साथ आराम फ़रमाया करते हैं। प्रायः हर विभाग के प्रमुख और कुछ रौबदार विद्यार्थी विशिष्ट अतिथि भोजनालय में ही जल-पान ग्रहण किया करते हैं। और अतिरिक्त समय में चाय-दूध का इंतजाम VIP विभाग का प्रमुख कर दिया करता है। जिसके एक साइन(signature) पर केन्टीन में चाय-पानी मुफ्त में मिल जाता है। इन दिनों इस VIP विभाग प्रमुख के हस्ताक्षर की कीमत सलमान खान के औटोग्राफ से भी ज्यादा होती है।

शिविर के दौरान स्मारक के गेट के बाहर संचालित केन्टीन भी बेहद चटकारेदर होती है जहाँ जठराग्नि से लेकर नेत्राग्नि तक की तृषा को मिटाया जाता है। कई छोटे-छोटे गुटों में बटी महफ़िलें आप यहाँ देख सकते हैं जहाँ खूब गप्पबाजी होती है, तो प्रवचनों और विद्वानों की समीक्षा भी यहाँ सुनने मिल जाएगी। इन महफ़िलों का दौर तब तक जारी रहता है जब तक उन महफ़िलों में खलल डालने अधिकारी वर्ग के कोई भाईसाहब न आ जाये। सच उन भाईसाहब का बहुत खौफ होता था, महफ़िलों की रंगीन, मजबूत पकड़ उनका नाम सुनकर ही ढीली पड़ जाती थी (उम्मीद है अब भी ये डर जिन्दा हो)। बहरहाल अनुशासन के लिए ये खौफ बहुत जरुरी था।

शिविर के एक दिन कंठपाठ का आयोजन सभी के चर्चा का केंद्र होता था,(कंठपाठ बोले तो कुछ खास विषयों को याद करना) कुछ इस आयोजन की तारीफ करते थे तो कुछ आलोचना करते भी देखे जाते थे। कंठपाठ में भी धांधलियां कम नही होती थी...दो दोस्त एक-दूसरे को ही कुछ का कुछ विषय सुनाकर अपना नाम कंठपाठी की लिस्ट में दर्ज करा देते थे। और जब इन्हें पुरुस्कार स्वरूप कुछ राशि मिलती तो उसका आकलन कुछ इस तरह हुआ करता था-'ऐ मुझे १५० मिले हैं, तीन फिल्म की व्यवस्था हो गयी तो दूसरा कहता-बस! मुझे ५०० मिले हैं एक जींस आ जाएगा'

बड़ी रंगीनियाँ थी भाई...अधिकारीयों और विद्वानों की वाट लगाने में भी इन शास्त्रियों को कोई गुरेज नही था। अक्सर सुनने मिल जाएगा-"भैया फलाने विद्वान् की बस बातें ही बड़ी-बड़ी है उनके यहाँ सुवह नाश्ता देने जाओ तो ऐसा जान पड़ता है मानो उन्हें कभी नाश्ता ही करने नही मिलता...अकेले उनके रूम पे दूध की केटली खाली हो जाती है" तो दूसरा कहता "सही कहा भाई कल मुझे प्रेस के लिए इतने कपडे दिए मानो पूरे खानदान के कपडे यहाँ प्रेस करवाने ले आये हो"

सब कुछ बड़ा गजब का था...बहरहाल ये सारा स्मारक को देखने का एकदेश नजरिया है..स्मारक के यथार्थ को व्यंग्योक्ति से बताने की प्रमुखता है...सबकुछ इतना हास्यास्पद या विचित्र नही है जैसा यहाँ लिखा गया है। स्मारक की जमीन इस धरा पर जन्नत सी जान पड़ती थी(उम्मीद:अब भी जन्नत सी होगी और इसे ऐसा ही रखा जाएगा-समस्त राजनीति और व्यक्तिगत हितों से दूर)...जहाँ सब कुछ बड़ा अजीब सा लगता था फिर सब जीवन का हिस्सा बनता गया............

(प्रतिक्रियाएं इस ब्लॉग की सांसे हैं...अवश्य दें)

Thursday, August 5, 2010

Very motivating & Well Said words.........

Napoleon.... ....
"The world suffers a lot. Not because of the violence of bad people,
But because of the silence of good people!"


Einstein
.........
"I am thankful to all those who said NO to me
Its Because of them I did it myself.."


Abraham Lincoln
.........
"If friendship is your weakest point then you are the strongest person in the world"


Shakespeare
..........
"Laughing Faces Do Not Mean That There Is Absence Of Sorrow!
But It Means That They Have The Ability To Deal With It".


Willian Arthur
.........
"Opportunities Are Like Sunrises, If You Wait Too Long You Can Miss Them".


Shakespeare
.....
"Never Play With The Feelings Of Others Because You May Win The Game But The Risk Is That You Will Surely Loose The Person For Life Time".


Hitler
.....
"When You Are In The Light, Everything Follows You,
But When You Enter Into The Dark, Even Your Own Shadow Doesnt Follow You."


Shakespeare
............ .
"Coin Always Makes Sound But The Currency Notes Are Always Silent.
So When Your Value Increases Keep Yourself Calm Silent"


John Keats....... .

"It Is Very Easy To Defeat Someone, But It Is Very Hard To Win Someone"

जोश-जुनून-जज्बात और जवानी

किसी ने कहा है-"youth is the best time to be rich & the best time to be poor...they are quick in feelings but weak in judgment"...

व्यक्ति के जवानी का दौर एक ऐसी संकरी पगडंडी है जिसके एकतरफ छलछलाते गर्म शोले हैं तो दूसरी ओर अथाह समंदर। एक तरफ भस्म हो जाएँगे तो दूसरी तरफ डूब जाएँगे। पगडंडी की संकरी गली से होकर ही मंजिल तक पहुंचा जा सकता है। जबकि रास्ते में कई ऐसे मौके आते हैं जब आदमी फिसल सकता है।

जवानी में इन्सान नितांत भौतिकवादी होता है। नैतिकता और अनुशासन टिशु पेपर की तरह होते हैं जो बस कुछ देर के लिए खुद कों सभ्य दिखलाने का माध्यम होते हैं। हृदयस्तम्भ पर सपनो की लहरें आसमान छूने कों बेक़रार हैं। अंतस में समाया जुनून ज्वालामुखी बनकर फटना चाहता है। जज्बात श्वाननिद्रा की तरह होते हैं जरा सी भनक पड़ते ही जाग जाते हैं।

दिल, दिमाग पर हमेशा भारी रहता है। दरअसल दिल और दिमाग में से कोई भी एक यदि दूसरे पे भारी रहता है तो नुकसान ही उठाना पड़ता है। दिलोदिमाग का सही संतुलन बहुत जरुरी है। जोश, दिल में पैदा होता है दिमाग उसे होश देता है। महज जोश में सही फैसले नही होते उसके लिए होश जरुरी है और 'व्यक्ति की पहचान उसकी प्रतिभा से नही उसके फैसलों से होती है'। फैसले दिलोदिमाग के सही संतुलन का परिणाम है।

युवामन निरंकुश हाथी है अच्छी संगति उसे अंकुश में लाती है और गलत साथ निरंकुशता को और बढ़ा देता है। उस दशा में इन्सान को घर-परिवार, माँ-बाप, धर्म, संस्कृति, अनुशासन, सत्शिक्षा फांस की तरह चुभती है। अनुभवियों के उपदेश कान में गए पानी की तरह दर्द देते हैं। हर व्यक्ति अपनी गलतियों से ही सीखता है उसे समझाना एक नासमझी है। हर इन्सान खुद को वल्लम दुसरे को बेवकूफ समझता है।

भौतिकता में रंगा आधुनिक व्यक्ति आध्यात्मिक संत-महात्मा को पागल समझते हैं। आध्यात्मिकता में रंगे संत-महात्मा आधुनिक इन्सान को मोह-माया में पागल समझते है। दरअसल किसी के समझने से कुछ नही होता जो जैसा होता है बस वैसा होता है। इन्सान की कई तकलीफों में से एक तकलीफ ये भी है कि उसे हमेशा ये लगता है कि 'मुझे कोई नही समझता'। अब भैया किसी को क्या पड़ी है दूसरे को समझने की, यहाँ तो लोग खुद को ही नही समझ पाते, दूसरे को क्या खाक समझेंगे।

जवानी की दहलीज पर एक और खुद के सपनो को पूरा करने का दबाव होता है तो दूसरी तरफ दिल में समाये मोहब्बत के जज्बात। कई बार कोई जज्बात नही होते तो भी युवा जज्बातों को उकेरकर तैयार कर लेते हैं। पैर फिसलने की सम्भावना यहाँ सर्वाधिक होती है दरकार फिर सही निर्णय लेने की होती है।

गलत रास्तों पर भटके युवाओं को सही बात समझ आना, न आना मूल प्रश्न नही है, मूल प्रश्न ये है की सही चीज समझ में कब आएगी। देर से प्राप्त हर चीज दुरुस्त नही होती। जवानी तो मानसून का मौसम है यहाँ बोया गया बीज ही बसंत में बहार लाएगा। गर ये मानसून खाली चला गया तो पतझड़ के बाद वीरानी ही वीरानी है।

संस्कारो व सत्चरित्र का प्रयोग बुढ़ापे में नही, जवानी में ही होता है। संस्कारो के पालन से मौज-मस्ती बाधित नही होती बस मस्ती के मायने थोड़े अलग होते हैं। बार में बैठकर जिस्म में उतरती दारू-सिगरेट ही तो मस्ती नही है। दोपहर के तपते सूरज को देखकर ये आकलन हो सकता है कि शाम कितनी सुहानी होगी। जवानी दोपहर है और शाम बुढ़ापा। सुवह कि चमक तो हमने आँख मलते में ही गवां दी अब शाम कि लालिमा ही राहत दे सकती है।

कहते हैं जवानी, दीवानी होती है पर ये एक ख़ूबसूरत कहानी भी हो सकती है। जिसका मीठा रस हमें जीवन के संध्याकाल में मजा दे सकता है। इस मानसून के मौसम में आम और अनार के पेड़ लगा लीजिये, नागफनी के वृक्षों में क्यों अपना समय बर्बाद करते हैं...........