हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Saturday, December 14, 2013

Pinkish Day In Pink-City : Part- IX



इस श्रंख्ला का भाग एक ,  भाग दो , भाग तीनभाग चारभाग पांचभाग छहभाग सात, और भाग आठ पढ़कर ही इसमें प्रवेश करें-
(ये हमसब का व्यक्तिगत विवरण है..यूं तो इसकी टारगेट ऑडियंस सिर्फ हमारी क्लॉस के ही चुनिंदा शख्स हैं क्योंकि उन्हें ही मैं विशदता से जानता हूं और उनसे जुड़ी यादों को ही शेयर कर सकता हूँ फिर भी, कुछ और लोग भी इस संस्मरण से खुद को जुड़ा पा सकते हैं ये आपके area of interest पे निर्भर करता है।)

अमां पिछले स्टेशन पे ठहराव कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया...यूं तो ठरहना नहीं चाहते थे पर यादों की यात्रा पे कुछ ठिकाने ऐसे ज़रूर आते हैं जहाँ लंबे समय तक तफरी करने को दिल चाहता है..सो ठहरे थे वहाँ कुछ युंही। इसके अलावा वर्तमान की तथाकथित व्यस्तताएं भी गुज़रे दौर में जाने से रोकती हैं..बस इसी वजह से मैं भी रुका था, और आप सबभी। अब गाड़ी आगे बढ़ाते हैं..जयकुमार पिछले स्टेशन पे ही उतर चुका है। प्रवीण इन्दार और विवेक रन्नौद को कुछ ज्यादा ही जल्दी थी कमबख्त स्टेशन आने से पहले ही चैन खींच के उतर लिये। वरिष्ठोपाध्याय की खुशनुमा वादियों से दो चार होना है...मियाँ अब सीनियर भी बन गये हैं तो अपनी छाती भी फुला सकते हो और अहंकार की प्रथम बार अनुभूति कर सकते हो। अब तुम्हारे नाम के पीछे 'जी' लगाने वाली एक नई फौज आ चुकी है...तो खुश तो बहुत होगे न तुम। अरे ये सन्मति तो अभी भी वही जुमला बके जा रहा है "अरे नी यार"। बस भी कर भाई..बख्स दे हम सबको इस 'अरे नी यार' से...या फिर एक काम कर विजय मोढ़ी और अरविंद अमरकोट को लेके चाय पीने चले जा...हाँ हाँ वहीं महिला पॉलिटेक्निक कॉलेज के यहाँ वाली चाय की थड़ी पे।

खैर..कनिष्ठोपाध्याय के रिजल्ट के बाद कुछ लोग स्टार स्टेटस पा चुके थे..रोहन-प्रशांत सर्वसम्मत्ति से हमारी क्लास के बुद्धिजीवी, पढ़ाकू किस्म की जमात में शामिल कर लिये गये..राहुल भाई स्टार वक्ता, सन्मति-विवेक स्टार विधानकर्ता (बाद में निखिल ने इनसे ये उपाधि हथिया ली थी...या कहें कि निखिल अंतर्राष्ट्रीय स्टेटस पा गये और सन्मति-विवेक राष्ट्रीय परिदृष्य के सिरमौर बन गये), जीतू स्टार लीडर, अनुज स्टार हंसोढ़, निपुण स्टार गुंडा (हालांकि धीरे-धीरे भाईसाहब की अंडरवर्ल्डगिरी कम हो गई थी) और अंकित स्टार मॉडल..प्रायः सभी किसी न किसी तरह स्टार स्टेटस पा गये थे...तो कुछ ऐसे भी थे जो आम आदमी के तमगे से संतुष्ट थे..सतीश, एके, जिन्नू इस पार्टी के सदस्य थे...मुझे पूरा यकीन है कि उस काल में यदि आम आदमी पार्टी का गठन हुआ होता तो अरविंद केजरीवाल, सतीश बोरालकर से ज़रूर संपर्क करता। एक्चुअली ही इज़ अ कन्सिस्टेंट आम आदमी ऑफ अवर क्लास..बट सच अ नाइस पर्सन।

अब जनाब वरिष्ठोपाध्याय थी तो नयी-नयी रंगदारी सिर पे चढ़ी थी बस इस लिये जुनियर्स पे दिखाया भी करते थे...जुनियर्स के चहेते बनने की आरजू थी..धीरे-धीरे सबके अपने-अपने चहेते जुनियर बन गये थे और उनके सामने जमके शेखी मारी जाती थी। इस दौर में बुंदेलखंडी भाई लोगों को एक नया फितूर भी सिर पे चढा..दरअसल क्षेत्रवाद से ग्रसित एम.पी. वासियों ने अपना एक संघ बनाने का ठाना..इस संघ का बीजारोपण अर्पित और अभय खड़ेरी के प्रयत्नों से हुआ..और इन महाशयों ने अपने कुछ सीनियरों (खास तौर पे अंचल इमल्या और विकास खनियांधाना) से प्रेरित हो एक बुंदेलखंड विकास समिति की स्थापना कर दी..जो अपने ही कुछ नये-नये नियम लागू करने लगे (जैसे हर शनिवार को कुर्ता-पायजामा पहनना जबकि स्मारक के नियमानुसार रविवार का दिन इस हेतु निश्चित था)। तमाम एमपी के बंदे इस समिति के सदस्य बने..यद्यपि जीतू को बिना मांगे सदस्यता दी गई और प्रजय कान्हेड़ ने स्वेच्छा से सदस्यता ग्रहण की (जबकि ये एमपी के बाहर से थे) और अपनी शेखी बघारने में इन सब लोगों में कुछ ज्यादा ही उस्तादी आ गई....ये समिति दो महीने से ज्यादा जीवित न रह सकी और अभी तक हमें सदस्यता के रूप में लिये गये दस-दस रुपये भी प्राप्त नहीं हुए..पता नहीं किसके अकाउंट में ये राशि जमा की गई थी। इस समय तक हम सब भिन्न-भिन्न ग्रुप्स में कन्वर्ट हो चुके थे...जैसे राहुल-एलम-अनुज, नयन-एके-जिन्नू, सन्मति-विवेक-रविजी-अरविंद-विजय मोढ़ी, प्रशांत-सतीश-किशोर-प्रवीण, रोहन-मुकुंद-अमोल, निखिल-अर्पित और इन सबके अलावा एक बहुसदस्यीय किंतु डोमिनेंट ग्रुप सुपर सेवन जिसमें अरहंत-अंकित-जीतू-सचिन-सोनल-अभय और मैं शुमार थे..कालांतर में इन ग्रुप्स में बिखराव हुआ तथा नये ग्रुप्स का सृजन हुआ। 

कॉलेज का नया परिसर भी मिल चुका था..तो सामने के निर्माणाधीन मंदिर में बंजारापन भी शुरु हो चुका था। चाय की दुकान और सिनेमा का माहौल भी जम चुका था...मस्तियों ने दामन थाम लिया था और धर्म की पढ़ाई भी जारी थी तथा कर्म की भी। वरिष्ठोपाध्याय में आये दशलक्षण पर्व के दौरान हमारे इस कारवां को स्मारक मे ही रुकने का अवसर मिला..सौभाग्य से छोटे और बड़े दादा भी अपने स्वास्थ्य के चलते कहीं बाहर प्रवचनार्थ नहीं गये। सारे सीनियर्स अपने कर्मक्षेत्र की ओर मुखातिब हुये और सारी मेज़र अथारिटी हम सबके जिम्मे आ गई...हममें से कई ने अपने करियर का पहला प्रवचन इस दौरान किया...साथ ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों की कमांड भी हम सबको सौंप दी गई। प्रवीणजी नये-नये बार्डन बनाये गये...और उनके द्वारा अधिकारों का प्रथम प्रयोग हम सब पे ही हुआ...दशलक्षण के बाद ऐतिहासिक मौजमाबाद भ्रमण में रंगीनियों का बेमिसाल आलिंगन किया गया। इस सफ़र की खूबसूरत वादियों में अपने वर्तमान से बाहर निकल जंप लगाने को दिल चाह रहा है...पर इन यादों की ज़मीन से गुजरा तो जा सकता है पर ठहर पाना खासा मुश्किल है। देखते-देखते आधा वर्ष बीत गया...औऱ दिवाली की चमक देखने घर को लौट गये.....

घर से लौटे तो अलग-अलग विंग में बिखरे पड़े हमारे कारवां को समेट के बस एक सम्यकचारित्र निलय में पटक दिया गया...इस दौरान मेरा रूम पार्रटनर रोहन था और संभवतः रोहन से दोस्ती की नयी इबारत का लिखा जाना यहीं से शुरु हुआ...कैसें भूल सकता हूँ रोहन के मिर्च मसाले के साथ अपने रूम के दरवाजे की कुंदी लगाके चिप्स को चोरी-चोरी खाना और किसी के बाहर आ जाने पे उन्हें छुपाके रख देना (भाईयों मेरी ये आदत रोहन ने बिगाड़ी थी मौं खुद ऐसा नहीं था)। चुंकि वरिष्ठोपाध्याय के विद्यार्थी थे तो कुछ खास संसदीय विशेषाधिकार हमें प्राप्त हुए और हमारी स्टडी पे मानिटरिंग करने का जिम्मा खुद प्रवीणजी ने ले लिया। भला कौन भूल सकता है जब सुवह के साढ़े चार बजे विंग के अंदर मंगतराय जी की बारह भावनाएं शुरु हो जाती थी..और यह हमें उठाने वाले सशक्त अलार्म का सूचक था...प्रवचन और अन्य धार्मिक आयोजनों से छुट्टी दे दी गई थी ताकि हम पढ़ सकें पर पता नहीं कौन इस समय का सदुपयोग करता था...इस स्टडी के पीक टाइम में एक बार 'कल हो न हो' मूवी का रसास्वादन करने आधी कक्षा स्मारक से गायब थी जिसके कारण बाद में हमारी रिमांड भी ली गई थी...लेकिन सबसे असल धमाल तो दिसंबर के महीने में हुआ...

जी हाँ ये वो वक्त था जब हमारी कक्षा ने हमारी अपनी गिनीज़ बुक में रिकॉर्ड दर्ज किया..सबसे छोटी कक्षा में स्मारक कप जीतने का विश्व रिकॉर्ड। हाँ भईया ये विश्व रिकॉर्ड ही है आज तक पूरी दुनिया में कोई इतने जल्दी स्मारक कप नहीं जीता। वरिष्ठोपाध्याय में  स्मारक कप जीतना संभवतः  हमारे लिये अपने स्मारकीय जीवन के सर्वश्रेष्ठ दस पलों में से एक था...स्मारक कप का फाइनल किसी नाटकीय पटकथा से कम नहीं था...जहां पहले आठ ओवर में 34 रन पे तीन विकेट गंवाने के बाद 16 ओवर में 131 रन का विशाल स्कोर खड़ा किया था..रोहन के 70 रन की आतिशी पारी और जीतू के साथ 97 रन की अविजित साझेदारी ने स्मारक के इतिहास में हमें जीवंत बनाने में भूमिका निभाई...अभी सोचें तो ये बहुत छोटी चीज़ हैं पर तब हमारे लिये ये महानतम थी..और उस अनुभूति की तुलना वर्तमान की उपलब्धियों से कतई कम नहीं थी। इस जीत पे जमकर सेलीब्रेशन किया गया और एक सिली सी गलती भी हम से हुई...वो ये कि हम जीत के उल्लास में एलओसी कारगिल मूवी देखने गये पर उसकी टिकट न मिली और हमें मुन्नाभाई एमबीबीएस की टिकट थमाई जाने लगी...पर एलओसी कारगिल की मल्टी स्टारकास्ट के आगे मुन्नाभाई एमबीबीएस हमें फीकी जान पड़ी और हम उसे देखना छोड़ आये...बाद में पता लगा कि मुन्नाभाई तो हिंदी सिनेमा की क्लासिक फिल्म साबित हो चुकी है...और हमारी इस सिली मिस्टेक पे हमें पछतावा भी हुआ। यद्यपि ये सारी कहानी प्रासंगिक नहीं है पर उस दौर की चर्चा में ये रास्ते का एक अहम् पड़ाव है...और इस फिल्म का देखा जाना संभवतः हमारे स्मारक कप की जीत को और न्यू ईयर सेलीब्रेशन को दुगना कर सकता था।

बहरहाल..धीरे-धीरे हम सिर्फ अपनी पढ़ाई में युद्धस्तर पे संलग्न हो गये...दो-दो तीन-तीन ट्युशन क्लासेस, ग्रुप स्टडी और हाइली प्रेशर ने हमें पूरी तरह से पढ़ाई में झोंक दिया..बीच में संक्रांति- होली जैसे त्यौहार आये..पर बिना किसी विशेष उत्सव के युंही गुजर गये...होली के दिन किसी महानुभव ने खीर में भांग डाल दी जिससे हमारी स्टडी का एक दिन गहनतम आलस और निद्रा के व्यतीत हुआ..अंततः एक्साम भी आये..और अब प्रेशर सर के ऊपर से निकलने को बेकरार था..लेकिन अपने सीनियर और गुरुजनों की दुआ और हौसला अफजाई से इस रण में भी हम कूद गये...परीक्षाओं के गेप के बीच महावीर जयंती का सेलीब्रेशन धूमधाम से किया..आठ अप्रैल 2004 को वरिष्ठोपाध्याय का अंतिम पेपर दिया और शाम को आफताब शिवदसानी वाली कोई मुस्कान फिल्म देखने गोलचा पहुंच गये...फिल्म बड़ी बोरिंग थी..लेकिन समय तो काटना था न क्योंकि ट्रैन तो अगले दिन थी....स्वर्णिम स्मारक सफर का एक और साल कुछ नये अहसासों के साथ गुजर गया...अब शास्त्री होने का वक्त करीब था...अगला स्टेशन इंतजार में है कुछ लोग हमें यहीं छोड़ेंगे...पर दिल की जमीं पे वे आज भी ज़ाविदां हैं..और हमेशा रहेंगे। ठीक वैसे ही जैसे कैलेंडर बदलता है पर दीवार पे ठुकी कील जस की तस स्थिर रह हर बदलते कैलेंडर का दीदार करती है..........................

जारी....................