हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Tuesday, February 9, 2016

डॉ भारिल्ल का विरोध : सोशल मीडिया पे पसरा नैतिक आतंकवाद

विरोध प्रचार की कुंजी होती है। यकीनन कई मर्तबा ये सकारात्मक लक्ष्यों को अर्जित कराने में लाभदायक भी साबित होता है किंतु कई बार ये अनायास ही कुछ ऐसी मान्यताओं को स्थापित कर देता है जिससे कुछ सरल और भोले लोगों का जीवन सत्य की यथार्थ खोज से भ्रमित हो कुछ अनर्गल तथ्यों की तलाश में होम हो जाता है। विरोध से भी ज्यादा भयंकर, विरोध का तरीका होता है...विरोध लोकतंत्र की आवश्यकता है। विपक्ष, सत्तापक्ष को स्वछंदता से रोकने के लिये जरुरी है। वाद, सत्य का परोक्ष रूप से प्रतिष्ठापक है अतः यकीनन ये जरुरी है...लेकिन किस तरह का विरोध ये निर्धारित करना भी आवश्यक है।

उपरोक्त तमाम दर्शन को पिलाने का उद्देश्य...हाल ही में टोडरमल स्माकर परिसर में हुई उस परिघटना के संदर्भ में कुछ कहना है जिसने तत्वपिपासुओं के संसार में या कहें जिन्हें मुमुक्षु कहकर संबोधित किया जाता है उनके जगत में एक नई बहस को पैदा किया है। इस बहस में नष्ट हुई हमारी समय, शक्ति, बुद्धि यकीनन हमें उन उद्देश्यों से तो दूर करेगी जिन उद्देश्यों के लिये कभी हम एक हुए थे। जिनके लिये हमारी प्रतिष्ठापना हुई थी। जैनसामान्य द्वारा कथित एक दिगंबर संत का टोडरमल स्मारक में प्रवेश या उनकी अगवानी, ऐसा तमाशा खड़ी करेगी इसकी कल्पना कोई भी नहीं कर सकता था। यूं तो इस तरह की घटनाओं से उपजे विसंवाद पे कुछ कहना मैं जरुरी नहीं समझता क्युंकि प्रतिक्रिया स्वरूप कहे गये वचन विसंवाद को ही बढ़ाते हैं। किंतु मौजूदा दौर की उन परिस्थितियों में प्रतिक्रिया देना जरुरी हो जाता है जब फेसबुक, व्हॉट्सएप्प, ट्विटर जैसी वर्चुअल दुनिया हमारे यथार्थ को असल से ज्यादा प्रभावित करने लगती हैं। ये वर्चुअल वायरल बहुत घातक है ऐसे में विरोध के समानांतर ही किसी पक्ष का जनसामान्य के समक्ष प्रस्तुत होना अवश्यंभावी है। विरोध का ये नैतिक आतंकवाद, भौतिक आतंकवाद से भी ज्यादा घातक है क्योंकि भौतिक आतंकवाद तो प्राण हर सकता है किंतु नैतिक आतंकवाद से मान्यताएं मर जाती हैं। मान्यताओं का महत्व बताना स्वाध्यायी जीवों के लिये जरुरी नहीं है।

आगे कुछ लिखने से पहले एक चीज और साफ कर दूं..कि मेरे इस लेख के प्रति उत्तर में भी तमाम तरह की सकारात्मक-नकारात्मक प्रतिक्रियाएं सामने आयेंगी और मेरे इतिहास को खंगालकर उनमें से मेरे पूर्वाग्रहों को टटोला जायेगा और जब मेरे अतीत के गलियारों से कोई गुजरेगा तो उसे वहां टोडरमल स्मारक का एक वृक्ष छाया देता हुआ भी नजर आयेगा। संस्कारों से उपजे पूर्वाग्रह लाजमी है...निश्चित ही यदि टोडरमल स्मारक से मेरा संबंध न होता तो ये लेख भी पैदा न हुआ होता..किंतु बात मेरी शिक्षा स्थली की है, बात मेरे गुरु की है तो कलम के हथियार और उचित तर्क व बुद्धि की ढाल से रणक्षेत्र में भी समर्पित हूँ। मेरे परिवार, मेरे माँ-बाप और मेरे धर्म जितना ही महत्वपूर्ण वो जहाँ भी है जिसने मुझे मेरे यथोचित अस्तित्व के साथ वो बनाया, जो मैँ हूँ। अपने परिवार, माँ-बाप पर उठी उंगली के खिलाफ कोई मौन रहे तो उसे इस स्थिति में समता नहीं, बुजदिली कहेंगे। बस कुछ ऐसा ही यहाँ समझना।

आतंकवाद चाहे जैसा भी हो, उसका कोई न कोई सरगना होता ही है...ये बात अलग है कि उसकी चपेट में सैंकड़ो लोग बहते हुए सुर में सुर मिलाते हैं। ऐसे में उस आतंकवादी विचारधारा को नकारना ही मूल उद्देश्य होता है किंतु निराकार विचारधारा के खिलाफ कहीं किसी बात के जिक्र में साकार रूप से मौजूद उस विचारधारा के पुरोधा का जिक्र भी जरुरी हो जाता है। अन्यथा व्यक्तिविशेष के खिलाफ कुछ लिखना न तो न्यायसंगत है और न ही जरुरी। यहाँ भी जिस नैतिक आतंकवाद की बात मैं कर रहा हूँ वो प्रथम दृष्टया किसी चिंतन मोदी नाम की फेसबुक प्रोफाइल से उपजा दिखता है लिहाजा इस शख्स का जिक्र आना लाजमी है। किंतु हमारा किसी भी प्रकार का विरोध इनसे,  इनके व्यक्तिगत जीवन से या इनकी पसंद-नापसंद से नहीं है। यथोचित सम्मान तो हम निदा फाजली, अब्दुल कलाम, आमिर खान जैसे विधर्मियों का भी करते हैं फिर ये तो साधर्मी बंधु ही हैं।

जब इन महाशय की प्रोफाइल टटोली तो जनाब के लिये 2016 का वर्चुअली वर्ल्ड कुछ खासा ही रौनक भरा रहा। जहां पहले इनके पिक्चर या किसी पोस्ट पर महज 20-25 लाइक या 1-2 कमेंट आते थे वहीं डॉ भारिल्ल के खिलाफ मोर्चा खोलने के बाद कमेंट्स और लाइक्स की तादाद बढ़ गई। कई दबी-कुचे विरोध की आकांक्षा वाले लोगों को भी अपनी भड़ास निकालने का सुअवसर प्राप्त हो गया ऐसे में खामख्वाह ये कुछ के लिये विख्यात तो कुछ के लिये कुख्यात हो गये। पर दोनों ही स्थिति में नाम तो हुआ ही...और जब बेहद सस्ती सी पोस्ट के जरिये यदि छद्म शोहरत प्राप्त हो तो किसे बुरा लगता है...महाशय ने इस शिगूफे को आगे बढ़ाना जारी रखा..इनके पोस्ट की चर्चा बढ़ी तो जनाब के व्यक्तित्व में भी परिवर्तन नजर आया जिसकी बानगी नीचे प्रस्तुत इनकी दो तुलनात्मक फोटो से देखी जा सकती है...


    भाई गजब है...टोडरमल स्मारक में किसी कथित मुनि के आने से यदि कोई इतना बदल सकता है तो फिर तो ये निरंतर होना चाहिये। उपरोक्त फोटो का उद्देश्य महज ये था कि बाद में जब कई मुमुक्षु जगत के लोग इनकी प्रोफाइल पर पोस्ट दर्शन या प्रतिक्रिया के लिये आने लगे तो इन्हें स्वयं को अध्ययनशील बताना आवश्यक हो गया..इसलिये ये चित्र बदला गया..अन्यथा इनका पहले का पूरा प्रोफाइल टटोल लीजिये इनके व्यक्तित्व के दर्शन आपको हो जायेंगे। इसके साथ ही इनके लाइक्स-डिस्लाइक्स पर भी नजर डालेंगे तो आपको पता लगेगा कि ये आर्टिस्ट जेसी शेखोन को पसंद करते हैं, हॉलीवुड फिल्म थ्री मस्कटीर्स इन्हें पसंद है, एक 'फैशन' नाम से महिलाओं के परिधानों पर आधारित पेज ये लाइक करते हैं। जो ये बताते हैं कि जनाब किसी धर्म, अध्यात्म की प्रवक्ता परंपरा से दूर-दूर तक सरोकार नहीं रखते। उपरोक्त विवरण देकर इन्हें जलील करना मेरा उद्देश्य नहीं है इस प्रकार के लौकिक शौक, पसंद-नापसंद तो मैं भी रखता हूँ। मुझे भी फिल्में, क्रिकेट, संगीत, आधुनिक पहनावा इत्यादि पसंद है..बात सिर्फ इतनी है कि ये जहाँ खड़े होकर जिस शख्सियत का विरोध कर रहे हैं उसका हक़ इन्हें नहीं है। उनका विरोध बेशक वो व्यक्ति कर सकता है जो चारित्रिक, नैतिक, आध्यात्मिक तौर पर उस स्तर का हो..हमारे-तुम्हारे जैसा कोई भी ऐरा-गेरा उन पर उंगली उठाये तो ये शोभता नहीं है। तो इस तरह ये जाहिर है कि इस फेसबुक प्रोफाइल से उपजी तमाम विरोधी पोस्ट महज स्वयं की छद्म लोकप्रियता की वजह से हैं उनका उद्देश्य कतई जिनशासन की प्रतिष्ठा या प्रभावना से जुड़ा नहीं है।

दूसरी बात वर्तमान में हम व्यक्ति का विरोध करने के इस अतिरेक में पहुंच गये हैं...कि उस चक्कर में प्रवृत्ति का ही विरोध होने लगा है। आज साक्षात् कुन्द-कुन्द या अमृतचंद्र भी आ जायें तब भी शायद हम उन्हें शकीली निगाहों से ही देखेंगे। विरोध और वैमनस्य का ऐसा अतिरेक कि कई जगह उपरोक्त महाशय ने ऐसी पोस्ट लिख दीं कि जो कहती हैं मुनियों का गुरुदेव से नीचे बैठना महानता की बात है...गुरुदेव, श्रमण परंपरा से भी बड़े हो गये। तत्कालीन परिस्थितियां और सच्चाई को उस वक्त के मौजूदा लोग ही भलीभांति बता सकते हैं जिसमें गुरुदेव के मुनियों से ऊंचे पद पर बैठने का दृश्य बारंबार प्रस्तुत किया जाता है। उस चित्र को लेकर हमारी-तुम्हारी उम्र के लोगों को टीका-टिप्पणी देना तार्किक तौर पर सही नहीं है। गुरुदेव यदि आज होते और इस तरह की विरोधात्मक गतिविधियों को देखते तो यकीनन उन्हें भी प्रसन्नता नहीं होती। हम सिर्फ इतना सोचकर कोई काम करें कि मेरे इस कृत्य पर गुरुदेव की क्या प्रतिक्रिया होती तो निश्चित ही हमारी बेलगाम प्रवृत्तियों पर स्वयमेव अंकुश लग जाता।

अगली बात, चलिये मान लेते हैं हाल के दिनों में जो हुआ या पिछले कुछ वर्षों में जो हुआ उन्हें देखते हुए डॉ भारिल्ल (छोटे दादा) गलत हैं...तो क्या उन घटनाओं के चलते दादा का किया वो सब विस्मृत कर दिया जाये जो अवदान उन्होंने मुमुक्षु जगत को दिया है। क्या क्रमबद्धपर्याय, धर्म के दशलक्षण जैसी पुस्तकें, जिनकी सराहना स्वयं गुरुदेव ने की थी उन्हें अप्रमाणिक करार दे दिया जाये। दादा का बॉयकॉट कर क्या लक्ष्य सिद्ध करने की हमारी इच्छा है। कायदा तो ये कहता है कि घर में भले विरोध हो, घर में भले विवाद हो किंतु बाहर वालों के समक्ष अपनी एकता-अक्षुण्णता को खंडित नहीं होने देंगे। तो फिर इस वारदात ने क्या हमारी सालों की एकता-अखंडता को खंडित कर दिया। क्या हम मुमुक्षु समुदाय को कई फाड़ों में बंटना स्वीकृत करेंगे। यदि कुछ विरोध है तो घर में ही आपसी चर्चा से चीज़ें सुलझाने के उपक्रम क्यों न करें। क्या जमाने के सामने इस तरह फेसबुकिया तमाशा बनाना उचित है। ईमानदारी से स्वयं विचार करें।

दरअसल, इस तरह के विरोधी बर्तावों से सिद्ध कुछ नहीं होने वाला क्योंकि ऐसे कई विरोध आचार्यों से लेकर बड़े विद्वानों और गुरुदेव तक सबने सहे हैं। हर मत के पक्षधर मिलेंगे। इस देश की जनसंख्या ही इतनी है कि हर मत-मतांतर वालों की दुकानें चल जाती हैं। वैसा ही समर्थन महाशय चिंतन जी को भी मिल जायेगा...किंतु यदि वाकई में मोक्षमार्ग, जिनशासन, गुरुदेव और मुमुक्षु जगत की चिंता है तो बेहतर होगा कि फेसबुक पे विश्लेषण करने से अच्छा वे स्वयं एकांत में खुद का संश्लेषण कर लें। बुद्धि से नहीं संबुद्धि से चीज़ों को समझें। सस्ती लोकप्रियता के चक्कर में उग्र विरोध का आसरा न लें। इससे छोटे दादा को समझने वालों पे कुछ फर्क नहीं पड़ेगा, बिगाड़ तो समग्र रूप से मुमुक्षु समाज की प्रतिष्ठा का ही होगा। और तो क्या कहूं..विशेष समझने के लिये पंडित सदासुखदासजी कृत रत्नकरंड श्रावकाचार की टीका में उद्धृत सम्यक्तव के आठ अंगों का वर्णन पढ़ें। यद्यपि वहां के उद्धृत कुछ प्रकरणों से आप अपना पक्ष भी पोषित कर सकते हो पर उस पक्ष के पोषण करते वक्त ईमानदार दृष्टिकोण से वर्तोंगे तो स्वयं अपने विगत उपक्रमों पर लजा जाओगे। 

उन विरोधी पोस्ट के समर्थक या उनसे दिग्भ्रमित हो रहे व्यक्तियों से भी निवेदन है कि वर्तमान का निर्धारण सिर्फ वर्तमान को देखकर मत करो...बल्कि उसे समझने के लिये अतीत और अनागत के परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक अध्ययन करो। साथ ही तर्क, युक्ति और आगम का अवलंबन ले अपना संतुलित मत बनाओ। यदि हमसे या टोडरमल स्मारक से अथवा छोटे दादा से ही कुछ गलत होता जान पड़ता है तो पहले प्रत्यक्षतः सीधा संवाद कर मसले को समझें, सुलझायें...जरूरत पड़ने पर हमें समझायें। इस तरह से तमाशबीनों के अनर्गल वार्तालाप से क्या हासिल होगा...अपने कर्मों और उदय से कौन बच पाया है। हममें या तुममें, जो भी गलत है...उसका न्याय आज हो सके या नहीं पर कालांतर में तो होगा ही। अपने अभिप्राय और भावों का फल तो सब ही पायेंगे।