कुछ बीत रहा, कुछ रीत रहा है, कुछ थम सा गया है, कुछ अटल सा हो गया है,
जीवन अनवरत अपनी ही गति से दौड़ रहा है, हम बदल रहे हैं, सूरतों से, आदतों से,
उम्र से, कर्तव्यों-दायित्वों से, भूमिकाओं से। पर मन मेरे जैसे उन सभी विद्यार्थियों
को आज भी वहीं पंडित टोडरमल स्मारक के चैतन्यधाम के कमरों में कैद है। जस का तस,
बिना परिवर्तित हुए। 2005 का दौर था शायद जिंदगी का सबसे अच्छा साल था वो। पीछे
वाले गेट से इस तीर्थ के अंदर पहुंचा था क्योंकि रिक्शा वाला दूसरी ही त्रिमूर्ति
ले गया था। 26 जून को वो दिन जहन में इस तरह दर्ज है कि सालों बीतने के बाद भी जस
का तस दिखता है।
स्मारक के पांच साल पर लिखा जाए तो इतना है कि न लिख सको न पढ़ सको।
कनिष्ठ उपाध्याय में प्रवेश हुआ था, रहने की जगह थी चैतन्यधाम। कुछ चार अलग-अलग छात्रों
के साथ कमरा मिला था। वो डबल वाला बैड। अपने हिस्से में ऊपर वाला था। सुबह 5 बजते
ही शुरू हुई एक नई जिंदगी। उठते ही लड़ते-झगड़ते साबुनदानी और बॉथरूम के लिए
लड़ना। फिर कक्षाओं का दौर। प्रार्थना-पूजा, प्रवचन। कॉलेज, कोचिंग। सब इतना
सिस्टमेटिक था कि लगता था कौन कहता है कि संसार में दुख है। सब ठीक ही होता था
स्मारक में। अलग-अलग जगहों से आए साथियों से इतनी प्रगाढ़ता हो गई कि वो ऑक्सीजन
का काम करने लगे, कुछ तो आज भी प्राणवायु बने हुए है।
पढ़ाई चल रही थी। कक्षाएं चल रही थी। लेकिन जो अदभुत चीज वहां मिली वो
था तत्वज्ञान। आदरणीय दादा द्वय, शांति जी, धर्मेन्द्र जी, संजीव जी, प्रवीण जी,
पीयूष जी जैसे गुरूओं के समागम से जैसे जीवन में रंग भर गए। बालबोध से शुरू हुआ
सफर समयसार तक पहुंचा। गोष्ठियां, छात्र प्रवचन से जो व्यक्तित्व का विकास हुआ वो
आज सबसे बड़ी ताकत है हमारी। पहली बार गद्दी पर बैठकर जब प्रवचन करने थे, सामने
शांति जी भाईसाहब थे। पांच समवाय पर प्रवचन था। अपने सीनियर्स को देखकर, प्रवचन
सुनकर उनकी ही शैली अपनाने की कोशिश थी। मेहनत से विषय की तैयारी की थी। प्रवचन के
बाद शांति जी भाईसाहब के कमेंट्स हमेशा सुधार कराते रहे। उसी का परिणाम था कि हम
समाज में प्रवचन करने लायक बन पाए।
अनुशासन की पाठशाला जारी थी, वो सब कुछ स्मारक दे रहा था जो किसी के
भी उज्जवल भविष्य के लिए जरूरी था। उपाध्याय वरिष्ठ के बाद शास्त्री वर्ग में
तत्वज्ञान पढ़ने के साथ ही समझ में आने लगा। पूज्य गुरूदेव की प्रवचन अब अमृत लगने
लगे थे। समयसार ही सार नजर आने लगा था। समयसार सप्ताह आज भी याद है, जब सुबह से
शाम तक सिर्फ समयसार की ही बातें होती थी। वो दौर ही अदभुत था उसकी कल्पना आज भारी
सुकून दे जाती है। हमने सीख लिया था कि तत्वप्रचार और आत्मकल्याण ही ध्येय है। अब
दुनिया से खुद को अलग सा महसूस करने लगे थे। चकाचौंध डराने की कोशिश करती थी लेकिन
समयसार का तेज सारी कठनाईयों को निस्तेज कर देता था।
प्रवचन हॉल, बाबूभाई हॉल, त्रिमूर्ति जिनालय सब कुछ वैसा का वैसा जहन
में है, आज इतने सालों बाद भी लगता है कि बस एक बार इस पवित्र तीर्थ को छू लें बस।
भूत होने के बाद शास्त्री भाईयों का वात्सल्य, प्रेम देखकर लगता है कि जो कुछ जीवन
में कमाया है वो बेमिसाल पांच में ही कमाया है। पांच सालों में जो कुछ भी सीखा है
वो आज भी हर वक्त काम आता है, स्मृतियों के सागर में स्मारक की यादें रत्नों जैसी
हैं, जब याद आती हैं, चेहरे पर एक मुस्कान आ जाती है, जो वहां मिला है वो जीवन की
अमूल्य निधि है।
खुद को बेहद सौभाग्यशाली मानता हूं कि स्मारक में पढ़ने का मौका मिला।
गुरूजनों के आशीष से जीवन को दिशा मिली। तत्वज्ञान मिला जो निरंतर आत्मिक खुराक
देता रहा है, प्रेरणा देता है, आत्मकल्याण औऱ तत्वप्रचार की। 2005 से 2019 आ गया
है, स्मारक से निकले हुए करीब 9 साल। 2010 में आगे वाले गेट से बाहर गया था अनुपम
निधि साथ लेकर। वो आज भी जीवन को गति दे रही है। स्मारक और उसकी यादों के साथ साल
दर साल गुजर गए लेकिन इतने सालों बाद भी मन चैतन्यधाम के उसी कमरे में ठहरा हुआ है
जहां 27 जून को गया था। अब भी हर दिन मन करता है कि बस उस तीर्थ को छू लू, जी लू
दुबारा।