उस को रुख़्सत तो किया था पर हमें मालूम न था।
मानो सारा जहाँ ले गया, जहाँ छोड़ के जाने वाला।।
संजीव। तुम्हारे नाम में ही है
समता और तुम्हारे नाम में ही है जीव। इन दोनों के लिये ही तो अपने पूरे जीवन का
जर्रा जर्रा लगा दिया तुमने। दृष्टि में त्रिकाली जीव द्रव्य हो और पर्याय में
प्रकटे समता। इसका ही शंखनाद करने वाले मानो एक साकार स्वरूप थे आप संजीव।
पंडित टोडरमलजी, जयचंद जी
छावड़ा, दौलतराम जी कासलीवाल जैसे दर्जनों विद्वानों की जन्मस्थली रही ढुंढार
क्षेत्र की भूमि वर्ष 1976 में एक बार फिर गौरवान्वित हुई, जब इसी जमीं पर महेन्द्र
और मंजु गोधा के घर सौम्य सी, निश्छल छवि लिये एक बालक का जन्म हुआ। संयोग की बात
है कि पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की मंगल प्रेरणा के प्रभाव से अमूमन यही वो
वर्ष था जब जयपुर की भूमि सहस्त्राधिक विद्वानों की भूमि बनने को तैयार हो रही थी
और इस जमीं पर ही पंडित टोडरमल दिगंबर जैन सिद्धांत महाविद्यालय की नींव पड़ रही
थी। मानो नियति उन निमित्तों को भी भलीभांति तैयार कर रही थी जिसकी गर्त में
भविष्य के संजीव गोधा का आविर्भाव छुपा था।
पाठशाला में बालबोध, वीतराग
विज्ञान पढ़ते हुये इक अबोध बालक में तत्त्वज्ञान के ऐसे संस्कार पढ़े, जिसके चलते
लौकिक शिक्षा तो महज नाम की रह गई और आध्यात्मिक शिक्षा इस बालक के जीवन का ध्येय
बन गई। फिर क्या था जैन आगम के गूढ़तम सिद्धांतों, आगम के चारों अनुयोग, न्याय आदि
का अध्ययन कर और पूज्य गुरुदेव श्री के प्रभावना योग में अध्यात्म से भीगकर अल्पवय
में ही एक ऐसा विद्वान तैयार हो चुका था जो पंडित टोडरमल जी की गादी से
तत्त्वज्ञान को जनसामान्य के सामने परोसकर साढ़े तीन सौ वर्ष की समृद्ध परंपरा को
आगे बढ़ाने के लिये तैयार था।
वक्त आगे बढ़ा... और संजीव का
कारवां भी उससे भी तेजगति से बढता चला गया। गृहस्थी बढ़ी लेकिन वह भी तत्वज्ञान को
पोषित पल्लवित करने वाली ही रही। संजीव को मिली संस्कृति ने इनकी प्रकृति को और
निखारा, और आखिर तक तत्त्वज्ञान के मार्ग में एक योग्य सहधर्मिणी का दायित्व
निभाया। अब हमें यकीन है कि इन्हीं के नक्शे कदमो पर चल आपका ही अक्स हमें आर्जव
के जरिये देखने को मिलता रहेगा।
जमाने ने इस विद्वान की प्रतिभा
तो समझी ही पर अंतर की विशुद्धि भी जानी, यही वजह है कि जिनधर्म को मानने वाला ऐसा
कोई वर्ग बाकी न रहा जिसे संजीव की संजीवनी ने प्रभावित न किया हो।
तुम्हें जानते थे बखूब तुम्हारे
होते हुये भी हम,
पर बहुत कुछ तेरी हस्ती को तिरे
जाने के बाद जाना।
अब देश की सीमाओं का दायरा इन के
लिये नाकाफी था और संजीव अब दुनिया के हर महाद्वीप में जिनशासन का डंका बजा रहे
थे। जैसे सरहदों पर तैनात सैनिक माँ भारती के लिये सब कुछ समर्पित कर तैनात रहते
हैं ऐसे ही संजीव ने मानो जीवन का हर क्षण सिर्फ माँ जिनवाणी की सेवा के लिये
समर्पित कर दिया हो और इसमें फिर चाहे अपने पुत्र का बाल्यकाल देखना हो, पारिवारिक
उत्सव हों, लौकिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना हो सब कुछ न्यौछावर कर दिया।
यदि हम संजीव जी की उम्र
सैंतालीस वर्षों में गिने तो उन्हें इस जीवन में मिले लगभग सत्रह हजार दिवस, उसके
करीब चार लाख ग्यारह हजार घंटे और उसमें भी दो करोड़ सैतालीस लाख मिनटों में आधे
से ज्यादा वक्त इन्होंने सिर्फ जिनवाणी के पठन, पाठन, श्रवण, प्रवचन और तत्वचिंतन
में ही बिताये। ऐसा मां जिनवाणी का सपूत यदि अल्पकाल में मुक्ति न पा सका तो इस
पंचमकाल में भला और कौन है जो मोक्ष का
अधिकारी होगा?
जब वर्चुअल दुनिया का रियल विश्व
पर प्रभाव पड़ा तो संजीव मानो जिनधर्म की पताका को लहराने उस दुनिया का भी अधिपति
बन गया। यूट्यूब, फेसबुक पर हर रोज एक शिविर ही उनके साथ लगने लगा, जिसमें तीन चार
हजार लोग सीधे तत्त्वज्ञान का रसास्वादन लेने लगे। कोविड ने जब दुनिया को घेरा,
लॉकडाउन के चलते दुनिया घरों में सिमटी तब सबसे पहला वैक्सीन समझो संजीव ही लोगों के लिये लेकर आया
और दिन में तीन-तीन टाइम लोगों को श्रुत रूपी अमृत से भिगोकर भयमुक्त किया। ये आलम
देख याद आती हैं कुछ पंक्तियां कि
हुआ है तुझ से बिछड़ने के बा'द ये मा'लूम
कि तू नहीं था तिरे साथ एक दुनिया थी।
तत्त्वज्ञान से समाज को भिगोने वाले इस मां जिनवाणी के चितेरे पुत्र
पर समाज ने भी उपाधियों की वर्षा कर दी मानो लोगों को भी लग रहा हो कि अपनी
कृतज्ञता ज्ञापित करने का वक्त हम पर ज्यादा नहीं है। युवा विद्वत रत्न, उपाध्याय
कल्प, अध्यात्म चक्रवर्ती, अध्यात्वेत्ता और न जाने क्या क्या? हालांकि
इन उपाधियों से न तो आपके अवदान का ही मूल्यांकन हो सकता है न आपके व्यक्तित्व का
और हमें पता है गहन व्याधि के वक्त में भी आपको इन उपाधियों का नहीं सहज समाधि का
ही लक्ष्य रहा होगा, जिसे आपने पाया भी है।
वे जीव धन्य हैं जो अपने जीते हुए जीवन का कतरा कतरा जिनशासन की प्रभावना करते हुए बिताएं पर विरले ही होते हैं वे जिनकी मृत्यु भी जिनशासन की प्रभावना का कारण बन जाए। आप का दुनिया से चले जाना भी इस जमाने को एक शिक्षा है मानो आपने जीवन भर जिनशासन के सिद्धांतों को सिखाया और आखिर में उसका प्रेक्टिकल भी सिखा गए। और इस विदाई में सीख थी "होता स्वयं जगत परिणाम, मैं जग का करता क्या काम" इस विदाई में क्रमबद्धपर्याय, वास्तु स्वातंत्र्य, अकर्तावाद, उदय की विचित्रता, समाधि का सार सब कुछ समाया हुआ था। जिसे देख समझ ये जमाना तत्त्वज्ञान के संस्कार अपने भीतर पुष्पित पल्लवित कर सके।
अब आपके जाने के बाद यूं
तो हमारे पास आपका दिया हुआ बहुत कुछ है जिसे सुन, समझ हम मां जिनवाणी को समझ सकते
हैं और तत्त्वज्ञान से खुद को पुष्ट कर जन्म-मरण के अभाव का मार्ग प्रशस्त कर सकते
हैं। साथ ही आपकी वो प्रेरणा भी संग है जो हमें विषय-भोगों से बच निरंतर स्वाध्याय
और तत्वविचार के लिये प्रेरित करती है लेकिन इस सबके बीच आपके न होने से जो खालीपन
उपजा है उसे भर पाने का अभी हमारी पर्याय का स्वभाव तो नहीं।
गुज़र तो जायेगी तुम्हारे बग़ैर भी लेकिन,
बहुत उदास बहुत बे-क़रार गुज़रेगी।।
-अंकुर जैन, भोपाल