लेकिन हमें भरोसा है चैतन्य का शंखनाद करने वाले आपने, बेहोशी में नहीं पूरे होश में ही इस फानी दुनिया से विदा ली होगी और इस विदाई में अंतिम वक्त तक स्मृति में होगी मां जिनवाणी की लोरियां और सुध इस बात की कि "मैं ज्ञानानंद स्वभावी हूं"।
आज भी याद है वो दिन शायद ४ अगस्त २००२ की तिथि रही होगी, जब टोडरमल स्मारक के जुलाई अगस्त शिविर में पहली बार किसी २५-२६ साल के युवा को बड़ी सरलता के साथ, छोटे छोटे वाक्यों का प्रयोग करते हुए जनभाषा में बड़े धाराप्रवाह और जोशीले अंदाज में आप्तमीमांसा पर कक्षा लेते देखा था। मैंने तब स्मारक में प्रवेश ही लिया था, आगम अध्यात्म की विशेष समझ तो नहीं थी पर आपके अंदाज ने मानो मुरीद ही बना लिया। बाद में आपसे कई विषय अपने अध्ययन काल के दौरान प्रथम मर्तबा पढ़ने मिले। और जिस शैली में अबोध बालक को अपना कायल करने की क्षमता थी वो कालांतर में जन जन की प्रिय हो जाए इसमें क्या आश्चर्य!
बाद में मुझे गुरु शिष्य से बढ़कर मित्रवत स्नेह आपका मिला, और तत्वप्रचार, स्वाध्याय के लिए सतत प्रोत्साहन भी मिला। लेकिन अब भी बहुत कुछ ऐसा था जो आपसे चर्चा करनी थी, आपसे पूछना था आपसे सीखना था पर नियति की विडंबना; कि ये वहीं पटाक्षेप करती हैं जहां एक लंबी कहानी की आस होती है।
मुझे आज भी याद है टोडरमल स्मारक से हमारी विदाई के वक्त कही आपकी बात कि ये ५०-६० वर्ष का भविष्य हमारा भविष्य नहीं है हमारा भविष्य तो है "रहिए अनंतानंत काल, यथा तथा शिव परिणये" और आपकी ये प्रेरणा कि उस भविष्य के लिए तैयारी करो। आप तो यकीनन उस भविष्य को संवारने सादि अनंत काल के महासौख्य को पाने अनंत की यात्रा पर गतिमान हो गए और शीघ्र ही अपने पुरुषार्थ को प्रबल कर कुछेक भवों में ही मुक्तिश्री के स्वामी होंगे, लेकिन आपकी अनुपस्थिति में तत्व प्रभावना के जगत में यहां जो शून्य उभरा है वह एक लंबे अरसे तक भर पाना मुमकिन न होगा।
पूज्य गुरुदेव श्री द्वारा उद्घाटित, छोटे दादा द्वारा विस्तारित जैनदर्शन के महान सिद्धांत क्रमबद्धपर्याय को जीवन भर आपने सरलता से प्रचारित कर जन जन के हृदय का हार बनाया, और उसका विचार कर परिणामों में समता लाने का प्रयास भी करते हैं लेकिन बारंबार विचारने पर भी नियति के कुछ सत्य, हृदय उतरना कठिन है।
भाईसाहब संजीव जी, कम वक्त में जो ज्यादा काम आप कर गए हैं वह हम सबके लिए प्रेरक है। और आपको देख हम कह सकते हैं जिंदगी लंबी नहीं बड़ी होना चाहिए बेशक आपके जीवन के पल, हमारी आशा के अनुरूप जितने होना चाहिए थे उतने न रहे हों पर जो अवदान आपने इस छोटे से समय में दिया वो अनमोल है। और पूरा विश्वास है कि तत्व की जिस फुहार से आपने जन जन को भिगोया है स्वयं भी उसमे भीगकर अपना प्रयोजनीय कार्य सिद्ध कर लिया है। ये भी एक संयोग ही है कि जिस टोडरमल जी की गादी पर प्रवचन करते हुए आप जिनशासन की ध्वज थामे हुए थे आपकी उम्र भी उनके समान अमूमन ४७ वर्ष के करीब ही रही, पर आप दोनों ने ही कम उम्र में बड़ा काम किया।
आपको चाहने वाले तत्व के पिपासु जन भी इस वज्रपात के वक्त जिनवाणी मां का ही अवलंबन लेंगे और स्वयं भी संसार शरीर, भोगों की क्षणभंगुरता का विचार कर झटति निज हित करो के लिए पुरुषार्थी होंगे।
भाव तो बहुत हैं जो इस वक्त उमड़ रहे हैं पर उन्हें क्रमबद्ध रूप में शब्दों का लिबास देना नहीं बन पा रहा है, आखिर में बस इतना ही -
बिछड़ा कुछ इस अदा से कि रुत ही बदल गई।
इक शख़्स सारे शहर को वीरान कर गया।।
विनम्र श्रद्धांजलि, अभ्युदय व निःश्रेयस सुख की कामना।
-अंकुर शास्त्री, भोपाल
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