हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Sunday, March 27, 2011

शाकाहार---स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन की कुंजी

किसी पश्चिमी विद्वान नें शान्ती की परिभाषा करते हुए लिखा है, कि " एक युद्ध की सामप्ति और दूसरे युद्ध की तैयारी---इन दोनों के बीच के अन्तराल को शान्ति कहते हैं". आज हकीकत में हमारे स्वास्थय का भी कुछ ऎसा ही हाल है. "जहाँ एक बीमारी को दबा दिया गया हो और द्सरी होने की तैयारी में हो, उस बीच के अन्तराल को हम कहते हैं---स्वास्थ्य". क्योंकि इसके सिवा हमें अच्छे स्वास्थ्य की अनुभूति ही नहीं हो पाती.
आज समूची दुनिया एक विचित्र रूग्ण मनोदशा से गुजर रही है. उस रूग्ण मनोदशा से छुटकारा दिलाने के लिए लाखों-करोडों डाक्टर्स के साथ साथ वैज्ञानिक भी प्रयोगशालाओं में दिन-रात जुटे हैं. नित्य नई नईं दवाओं का आविष्कार किया जा रहा है लेकिन फिर भी सम्पूर्ण मानवजाति अशान्त है, अस्वस्थ है, तनावग्रस्त है और न जाने कैसी विचित्र सी बेचैनी का जीवन व्यतीत कर रही है. जितनी दवायें खोजी जा रही हैं, उससे कहीं अधिक दुनिया में मरीज और नईं-नईं बीमारियाँ बढती चली जा रही हैं. इसका एकमात्र कारण यही है कि डाक्टर्स, वैज्ञानिक केवल शरीर का इलाज करने में लगे हैं, जबकि आवश्यकता इस बात की है कि इस पर विचार किया जाये कि इन्द्रियों और मन को स्वस्थ कैसे बनाया जाये. कितना हास्यस्पद है कि 'स्वस्थ इन्द्रियाँ' और 'स्वस्थ मन' कैप्स्यूल्स, गोलियों, इन्जैक्शन और सीलबन्द प्रोटीन-विटामिन्स के डिब्बों में बेचने का निहायत ही मूर्खतापूर्ण एवं असफल प्रयास किया जा रहा है.
दरअसल पेट को दवाखाना बनने से रोकने और उत्तम स्वास्थ्य का केवल एक ही मार्ग है-----इन्द्रियाँ एवं मन की स्वस्थ्यता और जिसका मुख्य आधार है------आहार शुद्धि. आहार शुद्धि के अभाव में आज का मानव मरता नहीं, बल्कि धीरे-धीरे अपनी स्वयं की हत्या करता है. हम अपने दैनिक जीवन में शरीर का ध्यान नहीं रखते,खानपान का ध्यान नहीं रखते. परिणामत: अकाल में ही काल कलवित हुए जा रहे हैं.

आईये इस आहार शुद्धि के चिन्तन के समय इस बात पर विचार करें कि माँसाहार इन्सान के लिए कहाँ तक उचित है. अभी यहाँ हम स्वास्थ्य चिकित्सा के दृ्ष्टिकोण से इस विषय को रख रहे हैं. आगामी पोस्टस में वैज्ञानिक, धार्मिक, नैतिक इत्यादि अन्य विभिन्न दृष्टिकोण से हम इन बिन्दुओं पर विचार करेगें.....
स्वास्थ्य चिकित्सा एवं शारीरिक दृष्टि से विचार करें तो माँसाहार साक्षात नाना प्रकार की बीमारियों की खान है:-
1. यूरिक एसिड से यन्त्रणा---यानि मृत्यु से गुप्त मन्त्रणा:-
सबको पता है कि माँस खाने से शरीर में यूरिक एसिड की मात्रा बढ जाती है. ओर ये बढा हुआ यूरिक एसिड इन्सान को होने वाली अनेक बीमारियों जैसे दिल की बीमारी, गठिया, माईग्रेन, टी.बी और जिगर की खराबी इत्यादि की उत्पत्ति का कारण है. यूरिक एसिड की वृद्धि के कारण शरीर के अवयव Irritable, Painful & Inflamed हो जाते हैं, जिससे अनेक रोग जन्म लेते हैं.
2. अपेडीसाइटीज को निमन्त्रण:-
अपेन्डीसाइटीज माँसाहारी व्यक्तियों में अधिक होता है. फ्रान्स के डा. Lucos Champoniere का कहना है कि शाकाहारियों मे अपेन्डासाइटीज नहीं के बराबर होती है. " Appendicites is practically unknown among Vegetarians."
3. हड्डियों में ह्रास:-
अमेरिका में हावर्ड मेडिकल स्कूल, अमेरिका के डा. ए. वाचमैन और डा. डी.ए.वर्नलस्ट लैसेंट द्वारा प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि मासाँहारी लोगोम का पेशाब प्राय: तेजाब और क्षार का अनुपात ठीक रखने के लिए हड्डियों में से क्षार के नमक खून में मिलते हैं और इसके विपरीत शाकाहारियों के पेशाब में क्षार की मात्रा अधिक होती है, इसलिए उनकी हड्डियों का क्षार खून में नहीं जाता और हड्डियों की मजबूती बरकरार रहती है. उनकी राय में जिन व्यक्तियों की हड्डियाँ कमजोर हों, उनको विशेष तौर पर अधिक फल, सब्जियों के प्रोटीन और दूध का सेवन करना चाहिए और माँसाहार का पूर्ण रूप से त्याग कर देना चाहिए.
4. माँस-मादक(उत्तेजक): शाकाहार शक्तिवर्द्धक:-
शाकाहार से शक्ति उत्पन होती है और माँसाहार से उत्तेजना. डा. हेग नें शक्तिवर्द्धक और उत्तेजक पदार्थों में भेद किया है. उत्तेजना एक वस्तु है और शक्ति दूसरी. माँसाहारी पहले तो उत्तेजनावश शक्ति का अनुभव करता है किन्तु शीघ्र थक जाता है, जबकि शाकाहार से उत्पन्न शक्ति शरीर द्वारा धैर्यपूर्वक प्रयोग में लाई जाती है. शरीर की वास्तविक शक्ति को आयुर्वेद में 'ओज' के नाम से जाना जाता है और दूध, दही एवं घी इत्यादि में ओज का स्फुरण होता है, जबकि माँसाहार से विशेष ओज प्रकट नहीं होता.
5. दिल का दर्दनाक दौरा:-
यों तो ह्रदय रोग के अनेक कारण है. लेकिन इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि उनमें से माँसाहार और धूम्रपान दो बडे कारणों में से हैं. वस्तुत: माँसाहारी भोजन में कोलोस्ट्रोल नामक् चर्बी तत्व होता है, जो कि रक्त वाहिनी नलिकाओं के लचीलेपन को घटा देता है. बहुत से मरीजों में यह तत्व उच्च रक्तचाप के लिए भी उत्तरदायी होता है. कोलोस्ट्राल के अतिरिक्त यूरिक एसिड की अधिकता से व्यक्ति "रियूमेटिक" का शिकार हो जाता है. ऎसी स्थिति में आने वाला दिल का दौरा पूर्णत: प्राणघातक सिद्ध होता है. (Rheumatic causes inflammation of tissues and organs and can result in serious damage to the heart valves, joints, central nervous system)
माँस-मद्य-मैथुन----मित्रत्रय से "दुर्बल स्नायु"(Nervous debility):-
माँस एक ऎसा उत्तेजक अखाद्य पदार्थ है, जो कि इन्सान में तामसिक वृति की वृद्धि करता है. इसलिए अधिकांशत: देखने में आता है कि माँस खाने वाले व्यक्ति को शराब का चस्का भी देर सवेर लगने लग ही जाता है, जबकि शाकाहारियों को साधारणतय: शराब पीना संभव नहीं. एक तो माँस उत्तेजक ऊपर से शराब. नतीजा यह होता है कि माँस और मद्य के सेवन से मनुष्य के स्नायु इतने दुर्बल हो जाते हैं कि मनुष्य के जीवन में निराशा भावना तक भर जाती है. फिर एक बात ओर---माँस और मद्य की उत्तेजना से मैथुन(सैक्स) की प्रवृति का बढना निश्चित है. परिणाम सब आपके सामने है. इन्सान का वात-संस्थान (Nerve System ) बिगड जाता है और निराशा दबा लेती है. धर्मशास्त्रों के वचन पर मोहर लगाते हुए टोलस्टाय के शब्दों मे विज्ञान का भी कुछ ऎसा ही कहना है-----Meat eating encourages animal passions as well as sexual desire।

साभार गृहीत-http://niraamish.blogspot.com/

Friday, March 11, 2011

टोडरमल महाविद्यालय का kin anthem...(कुल गीत)

वन्धुओं..टोडरमल दिगंबर जैन सिद्धांत महाविद्यालय बहुत जल्द अपना कुल गीत जन सामान्य के समक्ष लाने जा रहा है। आगामी पंचकल्याणक एवं अन्य विशिष्ट कार्यक्रमों कों ध्यान में रखते हुए इसे शीघ्रातिशीघ्र worldwide launch किया जायेगा। इस गीत के लिए तमाम कवि, गीतकार, लेखकों...हमारे ब्लॉग पाठकों एवं शास्त्रिवंधुओं की प्रविष्टियाँ आमंत्रित हैं...इस हेतु उनके lyrics यदि पसंद किये गए तो उन्हें इस गीत में शामिल किया जायेगा....आपके गीत के बोल कुछ इस तरह हों जो स्मारक, महाविद्यालय की गतिविधियों को, उसकी महिमा को, इतिहास को बताते हों...जो इस हेतु सान्दर्भिक हो...आपकी प्रविष्टियाँ उपयुक्त होने पर ब्लॉग पे भी प्रकाशित की जाएगी एवं जनसामान्य की प्रतिक्रिया इसमें ली जाएगी। प्रविष्टियाँ शीघ्रातिशीघ्र हमें भेजें....सब कुछ ठीक रहा तो ये गीत मई के जयपुर प्रशिक्षण शिविर में आपके सामने होगा..........

प्रविष्टियाँ निम्न पते पर भेजें-
पीयूष शास्त्री - ptstjaipur@yahoo.com mo.-09785643202
अंकुर जैन- ankur_shastri@yahoo.com mo.-9893408494
सर्वज्ञ भारिल्ल - sarvagyabharill@yahoo.co.in mo.-09887100010

Wednesday, March 9, 2011

.........Sarvoday Ahinsa.........: पोस्टर विमोचन सम्पन्न

.........Sarvoday Ahinsa.........: पोस्टर विमोचन सम्पन्न: "अखिल भारतीय जैन युवा फेडरेशन, राजस्थान प्रदेश के तत्त्वावधान में आयोजित सर्वोदय अहिंसा अभियान के अंतर्गत प्रकाशित सचित्र पोस्टर का विमोचन डॉ..."

Monday, March 7, 2011

ब्रेकिंग न्यूज़: स्मारक मे पंचकल्याणक ?

सूत्रों के हवाले से पता चला है की स्मारक मे शायद पंचकल्याणक करने की योजना बन रही है| स्मारक मे होने वाला यह पंचकल्याणक शायद वर्ष २०१२ के अंतिम महीने मे रखा जाये| अभी कुछ भी स्पष्ट नहीं कहा जा सकता है पर इतना ज़रूर है की यदि ऐसा हुआ तो यह इतिहास के पन्नो मे सबसे बड़ा पंचकल्याणक होगा! अगर हुआ तो इस पर आपके क्या विचार है?

Tuesday, March 1, 2011

स्मारक रोमांस- "विदाई का गम और गम में हम"

"Dedicated to all shastri final year"

खुशियाँ जब अपने चरम से उतरती हैं तो गम भी उतना ही बढ़ जाता है। स्मारक में अध्ययन के दौरान उत्साह का ज्वार जब चरम से चरमतम की स्थिति में पहुच जाता है तभी कमबख्त विदाई का भाटा दस्तक दे देता है। पांच साल तक सोचते हैं कि विदाई में ये बोलेंगे-वो बोलेंगे...तैयारी का आलम कुछ यूँ होता है मानो टीम इण्डिया वर्ल्ड कप की तैयारी को उतारू हो। पर जब ये दिन आता है तो शब्द ब्रह्माण्ड में कहीं विलुप्त हो जाते हैं...और शब्दों से ज्यादा मुखर ख़ामोशी होती है।

सुनाना चालू होता है अपनी वो गुजरी दास्ताँ, वो सफ़र जो इन नौजवानों को स्मारक के दर तक लेकर आया। शुरू होता है वो सिलसिला जो अपनी राहों की बाधाएं बयां करते हैं। यहाँ मैं ये कतई नही कह रहा कि विदाई का समय हमारी मंजिल है...दरअसल ये तो वो सेतु है जहाँ राहें न ख़त्म हुई हैं न मंजिल हासिल हुई है...जहाँ न बचपन दूर हुआ है न जवानी ने दस्तक दी है...न फैसले लिए गए हैं न नतीजे निकल कर आये है। सब कुछ कहीं अटका हुआ है और इस अटकाव के बीच ही एक प्रश्न हम पर दाग दिया जाता है-भविष्य की योजनायें ? स्मारक में रहते हुए कहाँ लगा था कि जिन्दगी जीने के लिए कुछ योजनायें भी बनानी होती हैं...हमने तो बस यही सोचा था कि क्रमबद्धपर्याय को जपते हुए जीवन गुजार देंगे और उस क्रमबद्धता कि जपन में योजनाओं के लिए जगह कहाँ बनती है? लेकिन भैया योजना तो बनाना होगा...तब तुरत-फुरत में जो एक वाक्य मुंह से निकलता है वो ये है कि ताउम्र तत्वप्रचार और तत्वविचार तो जारी रहेगा ही...बाद में भले ये अवधारणा सिस्टम के हाथों घोंट दी जाती हो...लेकिन इस समय तक ये भावना पूर्ण पवित्र होती है।

कई कशिश रह जाती है सीने में कि काश मेने ये और किया होता स्मारक में...काश में ऐसे रहा होता स्मारक में...काश कुछ पहले समझा होता इन दिनों की कीमत को वगैरा-वगैरा...पर अब महज अपने उन कडवे अनुभवों से अनुजों को सीख देने के आलावा कुछ नही होता...और अनुज भी कोई हमारे अनुभवों से सुधरने वाले नही हैं है इन्सान खुद ठोकर खाके सीखता है। दरअसल कुछ सीखने के लिए कई चीजों की जरुरत होती है उनमे दूसरों के अनुभव, स्वयं की प्रतिभा तो जरुरी है ही साथ ही साथ अच्छी किस्मत की दरकार भी होती है। इसलिए यदि कुछ रह गया तो रह गया अब एक नए सिरे से जिन्दगी को देखना है और गुजिश्ता दौर की गलतियों को आगामी दौर से दूर रखना है।

सही होने के संकल्प से ज्यादा जरुरी है इस संकल्पना की निरंतरता का बने रहना। उस संकल्पना के निर्वहन में कई बार ऐसे फैसले भी आपको लेने होंगे जिनमे आपके पास जन वहुमत न होगा..जो क्रांतिकारी होंगे..जो कई लोगों को ठेस पहुचाएंगे पर वो सही होंगे...बस ध्यान रखें की उन्हें समाज के आलोक में न देखकर जिनवाणी के आलोक में देंखे। बड़े-बड़े वादे जो हम अपने दीक्षांत समारोह में कर आते हैं, वे यदि कुछ हद तक भी बने रहे तो हम एक बेहतर जिन्दगी गुजारते हैं। दरअसल उस माहौल में मनोभावों का विरेचन जिस अंदाज में होता है वे मनोभाव बाद में अपनी उस निरंतरता को नही पा पाते। लेकिन तत्समय में उनकी प्रमाणिकता में संदेह नही हो सकता..वो तत्काल का सत्य होते हैं।

अभी तक सब हरा-हरा था दुनिया के असली रंगों से वास्ता तो अब पड़ेगा...इन रंगीनियों में चेतन के चिंतवन की धवलता को बनाये रखना ज्यादा जरुरी है। परिवर्तनों में अपरिवर्तनीय को संभाले रखना बड़ी जिम्मेदारी है। यहाँ फिर मैं वही बात कहूँगा जो मैं पहले भी कह चूका हूँ कि धार्मिक होने से ज्यादा जरुरी धर्म पर विश्वास का होना है।
इस महफ़िल से हम अलग होकर एक नई महफ़िल में जायेंगे कुछ दिन उन महफ़िलों में वीरानियाँ नजर आएंगी फिर वही हसीन लगने लगेंगी। पुराने दोस्तों के सम्बंद्धों का धागा महीन होते-होते कब टूट जाता है पता ही नही चलता...मुलाकाते अक्सर बस ख्यालों में होती हैं।

बहरहाल, जिदगी का सच है ये जिससे हम पहली बार मुखातिब होते हैं तो झटका थोडा ज्यादा लगता है फिर तो ऐसे कई मौके आते हैं और हम उन के आदी हो जाते हैं। जिन्दगी की सबसे अच्छी बात यही है कि वो चलती जाती है और शायद सबसे बुरी बात भी यही है। वक्त गुजरकर सब धुंधला कर देता है...तो कभी लगता है कि हम तो वही खड़े हैं बस समय हमारे ऊपर से निकल गया। विदाई को देखने की एक नजर ये हो सकती है कि ये अंत है तो एक नजर इसे शुरुआत की तरह देखती है। नजर अपनी-अपनी है.............................

जारी.........