हमारा स्मारक : एक परिचय
श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं।
विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें।
हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015
Thursday, October 11, 2012
Sunday, July 22, 2012
आस्था का सिंहासन ......पाखंड का आरोप .....धर्म ,धंधा या कुछ और .........!!!!!!!!
धर्म जीवन का हिस्सा नहीं होता जीवन ही होता है क्योंकि धर्म से ही हमारे जीवन का तानाबाना बुना जाता है ...शायद इसलिए भारत देश में धर्म को परीक्षा करके नहीं अपनाया जाता बस भगवान का नाम सुनकर ही सर झुका दिया जाता है |क्योन्कि धर्म पर शक करना हमें धर्म का अपमान लगता है और दैवीय आपदा का भय बना रहता हैं |पर क्या सच में धर्म को आंखे बंद करके बिना विचारे स्वीकार कर लेना उचित है |जब हम सारी की सारी दुनिया का भरोसा बिना परीक्षा के नहीं करते तो फिर धर्म को ही क्यो आँखो पर पट्टी बांध कर स्वीकार कर लेते है ....और चिंतनीय बात तो तब और भी हो जाती है जब धर्म के पुरोधा भी यही सलाह देते नजर आते है |सच में ध्रतराष्ट्र के अंधे होने पर गांधारी का अपनी आँखो पर पट्टी बांध लेना कहा का उचित था यदि परिस्थियों को तत्समय अपनी आँखो से वो देखती तो शायद महाभारत जैसे महा नरसंहार के युद्ध से बचा जा सकता था |पर शायद इस देश की यही परम्परा रही है की जहाँ सारी दुनिया सर झुकाती है वहां सर झुकाओ बस यह जानने की कोशिश मत करो की सर क्योँ झुकाया जा रहा है |
पर यह कडवा सच है की जब तक हम परीक्षा प्रधानी नहीं होँगे तब तक ऐसे बाबा दिनो दिन बड़ते रहेंगे और हमारी आस्था के साथ का सरे आम बलात्कार करते रहेंगे और यू ही हमारे भरोसे का कत्ले आम करते रहेंगे और हम फिर भी उन पर भरोसा करते रहेंगे क्यूंकि धोखा खाना हमारी आदत बन गई है|और यदि यही आलम रहा तो वो दिन भी दूर नहीं जब हमारी नए वाली पीडी धर्म के नाम से ही मुहँ छुपाने लगेगी और धर्म बस किताबो में समिट कर इतिहास बन जायेगा और हम भी पाश्चत्य संस्कृति की तरह स्वछन्द हो जायेंगे |और फिर न धर्म होगा न धर्मात्मा ...धर्म को भी हम डायनासोर की तरह कहानियो में पड़ा करेंगे , क्योकि पाखंडी बाबाओं की तादात इतनी बड़ गई है| की बस धर्म कब काल कवलित हो जायेगा पता नहीं क्योकि वो बाबा ऐसे दीमक है जो प्रति दिन हमारी आस्था को निगलते जा रहे है और हमारी अस्मिता को लूटते जा रहें |सच हमारी श्रद्धा आस्था से जो खिलवाड़ ये तथा कथित बाबा कर रहे है यह काफी खतरनाक है और शर्मनाक भी क्योकि की यह हमारी आस्था के सिहासन पर बैठ कर पाखंड रच रहे है जिससे न सिर्फ धर्म पर से भरोसा उठ रहा है अपितु मानवता पर भी शक होने लगा है |
अब वक्त केवल समझने और जागने का है और यदि
हमे धर्म को बचाना है तो इस धर्म और श्रद्धा के लुटेरो से बचना होगा
क्योकि " श्रद्धा का लुटेरा ही सबसे बड़ा लुटेरा होता है" क्यूंकि वह हमारी
आत्मा के साथ छल कर रहाम होता है | वह हमारी भावनाओं संवेदनाओं हमारी
श्रद्धा, आस्था, भक्ति, पूजा सबको अपनी स्वार्थवृति के लिए हमे ठग रहा है
|जिसका परिणाम यह होगा की हम किसी दिन इतने ठगे जायेंगे की न फिर हम धर्म
पर भरोसा कर पाएंगे और न ही धर्मात्माओं पर इसलिए इन तथा कथित बाबाओं के
चक्कर में न पड़ कर अपने स्वविवेक से धर्म का निर्णय ले और अपने में और
अपनो के लिए चिरकाल तक धर्म को बचा कर रखे |
abhishek jain "avyakt "
Monday, June 4, 2012
छद्म धार्मिकता, नास्तिक वैज्ञानिकता और अनुभूत अध्यात्म
अरस्तु, शेलिंग फिकटे, हीगेल, शापेन्हार, वर्डस्वर्थ, ग्राण्ड जैसे पाश्चात्य दार्शनिको-विद्वानों से लेकर कन्फ्युशियास और भारतीय चिन्तक चार्वाक तक प्रत्यक्षवाद, धर्म, अध्यात्म, ईश्वर अस्तित्व को लेकर काफी विमर्श हुआ, जो आज भी होता है। लेकिन विद्वत्ता की सारी पराकाष्ठा अध्यात्म की तह तक पहुंचने में थक जाती है और परिणाम-स्वरूप विद्वत जनों द्वारा ईश्वर, अध्यात्म, पुण्य-पाप जैसी बातों को सिरे से नकार दिया जाता है। प्रत्यक्षवाद के सिद्धांत ने सारी बौद्धिकता को भौतिक स्तर पर ही खर्च कर दिया..और उन विषयों को रूढ़ीवाद का नाम दे दिया जो तर्क के परे है या आँखों द्वारा अदृष्ट है। ऐसे में उन सारी अनुभूतियों को तिलांजलि दे दी गयी जो तर्क का विषय नहीं है..ये जाने वगेर कि अनुभव को किसी प्रमाण या तर्क की मोहताजगी नहीं होती।
यथार्थ अनुभूत धर्म जब कहीं नज़र नहीं आया तो धर्म को बदनाम करने में भी विद्वानों ने कसर नहीं छोड़ी..कार्ल मार्क्स ने तो धर्म को अफीम की संज्ञा ही दे डाली। धर्म का उपरी रूप जो था वो वाकई किसी अफीम की तरह ही था..पूजा-भक्ति के नाम पर पाखंड, यज्ञादि अनुष्ठानों में हिंसा, कोरे व्रत-तप-उपवास, और मन्नतें पूरी करने या रोगों को दूर करने के लिए भगवान के दर पर चढ़ने वाले चढ़ावे..सब कुछ कोरी छद्म धार्मिकता से अलग कुछ न था। जो सत्यान्वेषण कर सके, ऐसा धर्म दूर-दूर तक कही नजर नहीं आया...पर सत्यान्वेषण के लिए न इन सब क्रियाओं की जरुरत थी नाही बौद्धिक कौशल की..क्योंकि सत्य की खोज के लिए बुद्धि की नहीं, संबुद्धि की जरुरत है..विश्लेषण की नहीं संश्लेषण की दरकार है...इसे अभिव्यक्ति से नहीं अनुभूति से हासिल किया जा सकता है...किन्तु जो उस परम सत्य को निकाल सके, ऐसे समस्त साधनों से इन्सान बहुत दूर रहा...और जिन्होंने उस अध्यात्म अनुभूतियों की उपलब्धि की, उन्हें तो इस इन्सान ने सम्मान दिया पर उनके कथनों का अनुसरण न किया। गोयाकि राम को तो माना पर राम की नहीं मानी।
आज न अनुभूत अध्यात्म है और नाही छद्म धार्मिकता प्रकट रूप से सामने है...आज यदि कहीं कुछ है तो वो है सिर्फ नास्तिक वैज्ञानिकता या कहें कि भौतिक चाकचिक्य। यदि कहीं आस्तिकता है भी, तो वो छद्म धार्मिकता का ही ढका हुआ स्वरूप है। यूँ तो सारे तीज-त्यौहार, व्रतादि आज की संस्कृति मना रही है..पर उपलब्धि जिन चीजों की चाहती है वो सारी आकांक्षाये भौतिक है। नेम-फेम, बंगला-गाड़ी, अच्छा करियर, बेशुमार दौलत सब कुछ विलासी महत्वाकांक्षाओं के लिए ही है..ऐसे में धर्म भी विलासिता की विषयवस्तु से अलग कुछ नहीं रह गया है। जो लोंग-इलायची की तरह मूल्यविहीन इंसानी भौतिक जीवन में माउथफ्रेशनर का काम करता है।
सारा आनंद इन्द्रियाधीन है और उसके लिए ही सारे जतन है। यहाँ स्वामी विवेकानंद की उक्ति स्मरण करना चाहूँगा-"जीवन का स्तर जहाँ हीन है, इन्द्रियों का आनंद वहीं अत्यंत प्रखर होता है। खाने और भोग में जैसा उत्साह भेड़िये और कुत्ते दिखाते हैं वैसा उत्साह मनुष्य में नहीं होना चाहिए। जानवरों का आनंद इन्द्रियाधीन है, सुसंस्कृत व्यक्ति का आनंद विचार, कला, दर्शन और विज्ञानं में निहित है।" लेकिन आज का परिदृश्य हमारे सामने है जहाँ खाने-पीने, उठने-बैठने, गीत-संगीत, मनोरंजन आदि समस्त चीजों में विवेकरहित स्वच्छंद प्रवृत्ति नज़र आ रही है। यदि इन प्रवृत्तियों पे अंकुश लगाने को कहा जाये तो एक ही जवाब सुनने को मिल जाता है 'एक जिन्दगी मिली है खुल के ऐश करो, अगला जनम किसने देखा है'। हमारे ऐश करने के पैमाने ही हमारे व्यक्तित्व के परिचायक होते हैं।
वैज्ञानिकता सर्वप्रकार से धर्म, अध्यात्म, ईश्वर को नकारने की कोशिश कर रही है..और निरंतर होने वाली वैज्ञानिक खोजें हमारी विलासिता को ही पुष्ट कर रही है। विज्ञान नैतिकता की स्थापना में नाकाम है और सिर्फ क्षणिक शारीरिक संतुष्टि के साधनों को ही विकसित करने में संलग्न है। महायोगी अरविन्द इस सन्दर्भ में कहते थे-"मनुष्य की समस्याएं दो प्रकार की है, एक शरीर से संबंधित, जैसे- भूख,प्यास, सर्दी,गर्मी,काम इत्यादि...और दूसरी समस्या आत्मिक है, जैसे-जन्म-मरण भय, आकुलता, आंतरिक क्लेश इत्यादि। विज्ञान से सिर्फ शारीरिक समस्याओं का तो समाधान हो सकता है...किन्तु शाश्वत आत्मिक समस्याओं का समाधान खोजने में विज्ञान असफल है..और उसका कारण है विज्ञान की नास्तिकता।" धर्म को वैज्ञानिक और विज्ञान को धार्मिक बनाकर ही इन समस्याओं से निजात पाई जा सकती है...और इसके लिए अनुभूत अध्यात्म की आवश्यकता है।
हमेशा से भारत ने भौतिक वैभव को छोड़, किसी परलौकिक वैभव की तलाश की है...क्योंकि भौतिक सुख के तो कई दौर ये देश देख चुका है। लेकिन अब हम पर हमारी ही संस्कृति का असर नहीं रहा... आज जो हालात है वो बड़े बदतर हैं..युवाओं की इच्छाएं बड़ी संकुचित और निम्न स्तर की है। महँगी कार, अच्छा पेकेज वाली नौकरी, गर्लफ्रेंड या बॉयफ्रेंड का साथ, शराब के नशे में डूबी रंगीली शामें, लेट नाइट पार्टी, डिस्को और लफ्फाजी..इस पतित लाइफस्टाइल में कहाँ दर्शन और अध्यात्म की बात हो सकती है। बड़े-बूढ़े भी अपनी कुछ ऊपरी सांसारिक जिम्मेदारियों को पूरा करने को ही मुक्ति मान बैठें है...कि बच्चों को पाला-पोसा, पढाया-लिखाया, नौकरी से लगाया, शादी की और हो गया...इन्सान का बौद्धिक दायरा बस इनमे ही सिमट कर ख़त्म हो जाता है।
जिस जीवन में लाचारी है वहां मूलभूत चीजों रोटी, कपडा और मकान के संघर्ष में जिन्दगी अस्त हो रही है और जिस जीवन में समृद्धि है वहां विलासिता के कारण जीवन की बर्बादी हो रही है..अनुभूत अध्यात्म दोनों ही जिंदगियों से दूर है।
बहरहाल, इस भौतिकवाद की कीचड़ में कहीं-कहीं कुछ आध्यात्मिक कमल भी नज़र आ ही जाते हैं..जो सुकून देते हैं। ये सत्यान्वेषण की वो आग है जो भौतिकवाद और छद्म जीवनशैली के समंदर के अन्दर धधक रही है...और उस समुद्र को अपने दायरे का उलंघन करने से रोक रही है। ये समंदर किनारों की चट्टानों से टकराकर भले ही अपना माथा कितना भी क्यूँ न कूट ले...पर ये आग उसे चट्टानों को तोड़कर बाहर निकलने की इजाज़त नहीं देती............
Tuesday, April 3, 2012
Wednesday, February 29, 2012
Wednesday, February 15, 2012
Thursday, February 9, 2012
Monday, February 6, 2012
Sunday, February 5, 2012
Saturday, February 4, 2012
Friday, January 27, 2012
भीगा मन छलकते आंसू और दम तोडती संवेदनाये !!!!!!!!!!
आज के बदलते परिवेश में सबसे बड़ी समस्या यही है की जैसे-जैसे नवीन अविष्कारों को उदय हुआ और अनेक सुविधा पूर्ण उपकरण हमे प्राप्त हुए तभी से हमारी भावनाए संवेदनाये संचेतनाये कहाँ काल कवलित हो गई पता नहीं ,अब हमें किसी दुखयारे का दर्द देख कर दर्द महसूश नहीं होता अब हमे पडोसी की तकलीफ अपनी नहीं लगती इतना ही नहीं अब तो हमे अपनों का दर्द भी अपना नहीं लगता क्यूंकि अब हम सिर्फ और सिर्फ अपने बारे में सोचते है हमे सिर्फ अपने आप से ही मतलब है सारी दुनिया के लिए मै हो सकता हूँ पैर मै तो सिर्फ अपने लिए हूँ मुझे अब किसी के दर्द से कोई वास्ता नहीं ..सच ही है जब जब स्वार्थ वृत्ति का चश्मा इन्सान की आँखों पर होता है,तब उसे सिर्फ वो खुद ही दीखता है वो इतना भावनाशुन्य हो जाता है की उसे खून के रिश्ते वालो का खून बहते हुए देखकर भी दुःख नहीं होता !
पर शायद आज यह सब लोगो को अपनी तरक्की मै बाधा लगती है यदि तुम भावुक या दयालु हो तो लोगो को लगता है की तुम कभी भी सफल नहीं सकते क्युकी सफल होने के लिए उनके अनुसार खुदगर्ज और संवेदनहीन होना पड़ता है ,क्यूंकि तभी तो गरीबो का गला काट कर तुम अपना पेट भर पाओगे .... पर सच में यथार्त तो यही है की यदि तुम हमेशा अपने पेट और पेटी के बारे मै सोचते रहोगे तो कभी भी जिन्दगी मै खुश नहीं रह पाओगे और भावनाओ के बिना इन्सान इन्सान हो हो नहीं सकता इन्सान उसे ही कहा जाता जो दुसरे इन्सान को समझे पर आज तो इन्सान सिर्फ अपने को ही समझता है ,और शायद इसीलिए वह सिर्फ अपने भले के लिए ही सोचता है और वह भी दुसरो का गला कट कर भी वह इसे अंजाम देता है ...संवेदनहीन व्यक्ति अपनी ख़ुशी के लिए ना जाने कितने लोगो की ख़ुशी की बलि चड़ा देता है ,क्यूंकि वह स्वार्थान्ध है उसे दुसरो के अच्छे बुरे से कोई मतलब नहीं है ,वह तो अपने आशियाने भी लोगो की कब्र पर बनाता है. क्या ऐसी खुशी का आनंद वह ले पता होगा या उसका दिल बार बार उसे दुतकारता नहीं होगा ,पर शायद उनका मन भी इतना कलुषित हो जाता है की उसे भी लोगो के आशुं देख कर आनंद आने लगता है सच में लोग कितने संवेदनहीन हो सकते है ..पर्सियन इस्लामिक मान्यता के अनुसार मानव के मनोभावों में जन्म से ही एक शैतान का वास होता है, जिसके साथ उसकी कशमकस जिन्दगी भर चलती रही है, पर उसे अपनी स्वशक्ति या आत्मबल के द्वारा सुधारा या उससे बचा जा सकता है पर जो लोग उसे नहीं सम्हाल पाते वह ही दानववत कार्य करते है !
कुछ दिनों पहले बहुत सी ऐसी बाते संवेदन हीनता की सामने आई जिसने ह्रदय को झाक्जोर दिया की इन्सान इतनी भी इंसानियत खो सकता है की पशु भी उसे देखे तो वह भी शर्मा जाये ..पर इन्सान को कोई फर्क नहीं पड़त क्यूंकि उसके अवचेतन मन पर तो उसी दानव का राज है और उसी की कटपुतली बनकर जीवन जिए जा रहा है . अब लोगो के अंशु उसे नहीं दिखते, चीखते चिल्लाते लोग नजर नहीं आते, बेबस और मजबूर ओरते , भीख मांगते बच्चे नजर नहीं आते, उनकी आँखों में थोड़ी सी दया की उम्मीद नजर नहीं अति वो माँ का भीगा आंचल दिखाई नहीं पड़ता और पिता के झुके हुए कंधे दिखाई नहीं देते जो चीख - चीख कर दया द्रष्टि चाहते है और ना जाने कितने निर्बल लोग दया की भीख के भूखे होकर उसके सामने खड़े होते है पर शायद उसे कुछ दिखाई नहीं देता कुछ सुनाई नहीं देता. संवेदना का कतरा तक उसके ह्रदय में नहीं है जो लोगो की मजबूरियों को समझ सके और उसे उसके कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का बहन करा सके !
अब लोगो का मन नहीं भीगता अब लोग दुसरो के गम में नहीं गमगीन नहीं होते यदि किसी के जनाजे में भी उन्हें जबरदस्ती जाना पड़ जाये तो वहा भी तनिक ह्रदय नहीं पसीजता और उन्हें जरा भी नहीं लगता की एक दिन उसकी भी तो मौत होनी है , पर शायद अब उसे कुछ भी दिखाई सुनाई नहीं पड़ता न तो अब गीता के उपदेश उस पर कुछ फर्क डालते है ,और न ही गुरुजनों और माँ बाप की सलाह कुछ कारगर होती है क्यूंकि अब उसकी संवेदनाये दम तोड़ चुकी है, और इतिहास गबाह है. जब जब इन्सान ने इंसानियत खोई है तब तब उसका सर्वनाश हुआ चाहे वह रावन कंस हो या हिटलर सब को अकाल मौत मरना पड़ा है, और मरने के बाद भी उन्हें रोज रोज लोगो द्वारा उनकी बुराई करके मारा जाता है इसलिए कहा जाता है की अच्छा इन्सान तो एक बार मरता है फिर भी लोगो के दिलो मै हमेशा जिन्दा रहता है परन्तु संवेदनहीन मनुष्य रोज रोज मरा करता है और मरने के बाद भी उसे मुक्ति नहीं मिल पाती!
v अब भी समय है खुद का वजूद खुद में खोजने का क्यूंकि यदि देर हुई तो खुद से भी नफरत हो जाएगी और ऐसी भयाभय और अवसाद ग्रस्त मौत होगी की जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती इसलिए मानव स्वाभाव को जानो पहचानो और संवेदनाओ संचेतानो के साथ जीवन जिओ ..और ऐसी सफलता का मोह त्याग दो जिसका सूत्रपात किसी की ख़ुशी दफनाने से होता हो और अपनी इंसानियत को दांव पर रखना पड़ता हो .क्यूंकि सफलता ख़ुशी के लिए होती है और दुसरो को खुश रख कर भी खुश रहा जा सकता है इसलिए ऐसा कार्य करो जिससे तुम्हारे अन्दर के मनोभावों में प्रेम स्नेह की धरा प्रभावित हो और सुंदर जीवन का सृजन हो और "वसुधैव कुटुम्बकम " की तर्ज पर पूरी की पूरी कायनात मै सोहार्द ख़ुशी आन्नद हो और धरती पर जन्नत का माहोल बन जाये !
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