हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Sunday, April 17, 2016

गुमा एक था....मिल सब गये!!!! (अनायास...प्रसंगवश)

बीते चार दिन स्मारक परिवार के लिये खासी ऊहापोह और चिंता भरे रहे। दरअसल हमारे स्नातक परिवार के एक शास्त्री भाई का अचानक अपने परिचितों से संपर्क टूट जाना...और भांत-भांत की मिथ्या कल्पनाओं और संशयपूर्ण खबरों ने सभी का ध्यान सिर्फ एक विषय पर केन्द्रित कर दिया। माजरा कुछ यूं हुआ कि हर कोई अपने-अपने क्षेत्र में काम करते हुए भी काम नहीं कर रहा था...खाते हुए भी नहीं खा रहा था, सोते हुए भी नहीं सो रहा था। यूं लगा मानो तमाम निगाहें व्हाट्सएप के विविध शास्त्री ग्रुप्स और फेसबुक के वर्चुअल संजाल पर जम गई हों...और ये जमीं हुई निगाहें बस उस एक खबर का इंतजार कर रही हों जो ये जताती हो कि हमारा भाई हमें मिल गया।

मौजूदा दौर में ये घटना बहुत सामान्य है...आये दिन इस तरह की घटनाएं मीडिया की सुर्खिया बनती हैं और वास्तव में उपरोक्त घटना में तो ऐसा कोई भी सेन्सेशनल फैक्टर नहीं था कि ये मेनस्ट्रीम मीडिया के राष्ट्रीय संस्करण में किसी छोटे से कॉलम में भी जगह बना पाये। लेकिन बावजूद इसके, ये घटना उन तमाम मीडिया हेडलाइन्स को झुटला रही थी जो संबंधों के बिखराव को, सामाजिक असंवेदनशीलता को या व्यक्ति में बढ़ती वैयक्तिक वृत्तियों को ज़ाहिर करती हैं। करीब हजार लोगों का एक परिवार..जहाँ न कोई पहला है और न कोई आखिरी। जहाँ किसी प्रकार का आर्थिक, क्षेत्रीय अथवा जातिगत विभाजन नहीं है। जिनका एक 'भाव', एक 'राग' और एक ही 'ताल', है..वास्तव में इनके इस एक्य में ही भा..र और त अर्थात् भारत की एकता निहित है या कहें कि मन, वचन और काय की विरुपताएं जहां सुप्त हो जायें...उसका नाम है स्नातक परिवार। ये पौध यकीनन जयपुर की धरा से पल्लवित हुई थी..लेकिन अब इस बटवृक्ष की छांव में कई सिस्टर संस्थाएँ आसरा ले रही हैं और उस एक्य को ही आगे बढ़ा रही हैं।

अपने एक गुमे हुए शास्त्री को ढूंढने सब एक होकर जुट गये। हर कोई अपने-अपने संबंधों और शक्तियों का प्रयोग सिर्फ एक दिशा में कर रहा था। यूं तो पुलिस में एफआईआर दर्ज थी...और प्रशासन अपना यथायोग्य काम कर रहा था...पर इन शास्त्रियों की फौज प्रशासनिक कार्रवाईयों की आड़ में कहां हाथ पर हाथ धरकर बैठने वाली थी..और बरबस ही इनमें से ही कोई जेम्स बांड बन गया था, कोई सीआईडी का एसीपी प्रदुम्न और कोई डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी। गोया कि कई तो यूं ही सबूतों के शिगूफे उड़ा दिया करते थे...पर इस शिगुफाई में दोष उनका भी न थो कोई...क्योंकि जो कदाचित् किन्हीं कारणों से कुछ नहीं कर पा रहे थे उन्हें कुछ न करने की टीस सालती थी और बस यही अपराधबोध उन्हें सशंक सूचना देने के लिये प्रेरित करता था। 

मैं नहीं कहता...कि इन प्रयासों ने हमारे गुम हुए शास्त्री भाई को वापस ढूंढ के दिखाया...लेकिन इन प्रयासों में छुपी हुई दिली तमन्नाओं ने ज़रूर इस काम को किया है। ये कुछेक अवसर देखने में बेहद छोटे होते हैं...किंतु ये उस परिवेश का स्वर्णिम इतिहास होते हैं। ये घटना कतई उन आंदोलनों से कमतर नहीं...जब सारा देश दिल्ली की किसी निर्भया के लिये एक हुआ था..जब भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना हजारे के आंदोलन में देश जुड़ गया था...या बर्बर अंग्रेजी सल्तनत ने रियासतों में बिखरे हिन्दुस्तान को एक किया था। यकीनन इस घटना की फ्रिक्वेंसी उन घटनाओं के सामने कुछ भी नहीं...लेकिन एक होने की वजहें और उनका भाव समान ही है। तब भी किसी एक पर आई विपदा सबकी जान पड़ती थी और अब भी हमें किसी एक पर आई विपदा हम सबकी जान पड़ी....और वो कहते हैं न कि सहूलियतें जुदा करती हैं लेकिन विषमताएं मिलाती हैं...विपत्ति की इस घड़ी में सब बिना किसी पूर्व नियोजित प्रस्ताव के मिल गये। खामख्वांह जाग उठा सब में "संघे शक्ति" का भाव।

बहरहाल, तमाम घटना को बयां करना यहां प्रयोजनीय नहीं है...क्योंकि इस घटना में मौजूद सूचनाओं और जानकारियों में इसका सार नहीं है। घटना का सारांश है हम सबके ज़ेहन में मौजूद एकता का भाव। घटना का सारांश है किसी एक पर आई विपत्ति पर सबका खड़ा हो जाना। घटना का सारांश है हमारे प्रेम के कारण बनी सुरक्षा की भावना। कमाल का संयोग है...है कि टोडरमल स्मारक जिस साल को अपने स्वर्णजयंती वर्ष के रूप में मना रहा है उसी साल में घटी एक नितांत छोटी घटना ने हमें मिला दिया...और इसके लिये किसी तरह का कोई औपचारिक आयोजन भी नहीं करना पड़ा। 

बस गुज़ारिश यही है कि इस एक्य को यूंही बनाये रखें। अपनी अंध तरक्की में यूं न खो जायें कि हमसे हमारी ही जड़ें कट जायें। एक-दूसरे की उन्नत्ति पर प्रसन्न हों, एकदूसरे के दुख में सहभागी बने। यकीन मानिये यदि हम सब हैं..तो ही कुछ हैं। अकेले होकर तथाकथित सफलता के शिखर पर भी क्युं न बैठ जायें पर अकेले हैं तो कुछ भी नहीं। नितांत स्वार्थी वृत्तियां और व्यवहार इस दुनिया का सच हो सकता है....पर हम शास्त्रियों का कतई नहीं।

1 comment:

gantantra said...

Good one again ankur