हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Friday, November 20, 2020

“जब कोई फूल मेरी शाख ए हुनर पर निकला” (बड़े दादा रतनचंद जी भारिल्ल के जन्मदिवस पर विशेष लेख)

 



एक मशहूर ऊर्दू का शेर कुछ यूं है... मैंने उस जान ए बहारां को बहुत याद किया। जब कोई फूल मेरी शाख ए हुनर पर निकला। ज़िंदगी के अनेक पड़ावों को पार करते हुये और एक अदद मयस्सर मुकाम को तांकते हुये हम बहुत कुछ मुकम्मल पा जाते हैं और बहुत कुछ नहीं भी पा पाते हैं। जब कुछ पा जाते हैं तो अपने ही हुनर के गुमान में चूर हो उन अनेक दरख़्तों को भूल जाते हैं जिनके अक्स का कतरा कतरा संजोकर हम वो बन पाते हैं जो हम आज हैं। असल में हम खुद में उन अनेक शख्सियतों को ज़िंदा रखे होते हैं जिनके कतरा कतरा योगदान से हम वो बन सके हैं जिसे देख दुनिया कभी हमारे फ़न पर तालियां बजाती है तो कभी हमारे इल्म को देख तारीफ में कसीदे गढ़ती है।

      बड़े दादा। पंडित रतनचंद जी भारिल्ल। बड़े और दादा ये दोनों ही शब्द अपने अपने अर्थों में गुरुत्व को संजोये हुये हैं और जब ऐसे गुरुत्व से लबरेज दो शब्द एक ही शख्स का पर्याय बन पड़े हों तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस व्यक्ति के गुरुत्व को बयां करना कितना मुश्किल काम है। गुरुत्व के पैमाने सिर्फ ऊंचाईयों से आंकना बेमानी माना जाना चाहिये.... कई मर्तबा गहराईयां भी बड़े होने का प्रतीक होती हैँ। मसलन, यूके लिपटस के पेड़ भले बरगद से ऊंचे हो सकते हैं लेकिन बरगद की गहराईयां और उसकी गुरुता को कभी किन्ही वृक्षों की तात्कालिक ऊंचाईयों से नहीं आंका जा सकता। बस कुछ यूं ही समझ लीजिये कि हो सकता है कि कई पैमानों पर बड़े दादा के व्यक्तित्व में वो ग्लैमर नजर न आये जिसे देख जमाने का तालियां पीटने को दिल करता हो लेकिन उनके व्यक्तित्व में एक अदद कल्चर के दर्शन आपको हमेशा होंगे जो सदाबहार एक सौंधी सौंधी महक बिखेरता हुआ नजर आयेगा। और यकीन मानिये जब ग्लैमर सोने की लंका की तरह कहीं गुमान में अपनी आहें भर रहा होता है तब कल्चर किसी शांत वन में रोशन होती कुटिया में सांस ले रहा होता है। और इतिहास गवाह है कि सोने की लंका जल जाती है और वन की वो शांत कुटिया तुफानों के बीच भी जीवंत बनी रहती है। बड़े दादा की ऐसी ही गहराई उन्हें काबिल ए गौर बनाती है।

      बात फिर वहीं ले जाता हूँ जहां से शुरु की थी कि आज हम जहां भी जो कुछ भी हैं उसमें बड़े दादा के अक्स को भुला पाना शायद मुमकिन नहीं होगा। विषमताओं के बीच धैर्य का जीवंत पाठ पढ़ाता कोई गुजरा दरख्त आंखों के सामने यदि जब तब उभरता है तो वो हैं बड़े दादा। अपेक्षा अथवा उपेक्षा के भंवर के बीच भी कोई गर अपनी सौम्य मुस्कान को एक सम बनाये रखता था तो वो हैं बड़े दादा। आगम के अथाह समंदर में गोते लगाकर तलाशे गये गूढ़ गलियारों की बजाय, जो लोगों को सुख के सरल राजमार्ग का तार्रुफ कराता था तो वो हैं बड़े दादा। अपनी संभावनाओं को जानते हुये भी जो अपने दायरों को समझ सदा किसी दूसरे के व्यक्तित्व पर अतिक्रमण करने से पहरेज करते रहे हैं वो हैं बड़े दादा। जो कभी त्याग का, कभी प्रेम का, कभी साम्य का तो कभी करुणा का पर्याय बन हम सबके सामने आते हैं वो हैं बड़े दादा। ऐसी तमाम खूबियां गिनाने के बाद भी हम उस व्यक्तित्व को संपूर्णतः बयां कर दें ये आसान नहीं है। और यकीन मानिये ये ऊपर गिनाई गईं कुछेक खूबियों में से यदि कुछ हमारे जीवन का भी हिस्सा बन सकी हैं तो उसका सबसे बड़ा कारण रहा है उस महान् दरख्त की छाया में हमारा भी पल्लवित होना। हम जहाँ और जैसे बड़े होते हैं दरअसल वैसे ही गढ़े होते हैं। बड़े दादा के प्राचार्यत्व में टोडरमल स्मारक में अध्ययन करते हुये हमने जीवन का वो समय गुजारा है जिस वक्त में एक बालक से युवा होते हृदय पर सबसे ज्यादा अपने परिवेश का प्रभाव पड़ता है। इसलिये मैं या मेरे जैसे अन्य सैंकड़ों छात्रों पर ताउम्र बड़े दादा का प्रभाव जिंदा रहने वाला है या यूं कहें कि हममें कहीं किसी कोने में बड़े दादा ही जी रहे हैं।

      बड़े दादा के अन्य तमाम अवदानों पर अनेक बातें कही गई हैं उन्हें दोहराना मेरे लिये अभीष्ट नहीं है। मैं तो उन्हीं अवदानों में से एक का जिक्र यहां पुनः कुछ अलग दृष्टिकोण से करना चाहूंगा कि परछाई होकर भी अपने हमसाये से कोई होड़ न करना कितना चुनौतीपूर्ण और कितने महान् आदर्श को दर्शाता है। राम की परछाई लक्ष्मण का हो जाना फिर भी बहुत आसान है या अकलंक के लिये निकलंक के बलिदान देने जैसे प्रसंग भी अनेक देखने को मिल जायेंगे। लेकिन क्या कभी ऐसे उदाहरण गिनाये जा सकते हैं कि लक्ष्मण के हुनर को बढ़ाने के लिये राम परछाई हो गये हों या बृहद हितों को ध्यान में रखते हुये अकलंक ने निकलंक के लिये त्याग किया हो। चीज़ें सुनने और समझने में हो सकता है बहुत आसान जान पड़े। लेकिन इस परिस्थिति के तल में जाकर विचार किया जाये तब शायद हमें बड़े दादा की गुरुता का अंदाजा लग सके। ताउम्र श्रेय लेने में पीछे रहने वाले और चुनौतियों के सामने आगे रहने वाले बड़े दादा, एक ऐसे राम की तरह रहे हैं जिसने वृहदतर हितों को ध्यान में रखते हुये लक्ष्मण की परछाई बनने में कभी खुद के अहम् को आड़े आने नहीं दिया। वे ऐसे अकलंक रहे हैं जिसने निकलंक की प्रतिभा को भांप उसे बड़े फलक पर फैलने के लिये परवाज प्रदान किये। यकीनन छोटे दादा यानि आदरणीय डॉक्टर हुकुमचंद भारिल्ल का निर्माण उनकी अपनी लायकात से ही हुआ है लेकिन उपलब्धियों के गगन में अपने हुनर के पंखों से उड़ान भरने वाले छोटे दादा को माकूल आबो-हवा प्रदान करने में बड़े दादा के योगदान को कतई कमतर नहीं माना जा सकता। यदि हम ये कहें कि बड़े दादा न होते तो शायद छोटे दादा का भी वो व्यक्तित्व हमारे सामने न आता जो समाज के एक बड़े तबके को दिशा देने वाला बना।

      और जैसा मैंने इस लेख में पहले भी जिक्र किया कि अपनी कृतियों में भी बड़े दादा ने आगम के गूढ़ गंभीर सिद्धांतों को समझाने के लिये पेचीदा गलियारों का सहारा नहीं लिया बल्कि जनता की नब्ज को टटोलकर उन्हें आधुनिक अंदाज में मिठाई के भीतर रखी रोगमुक्ति की दवाई का आस्वादन कराया। बड़े दादा का न होना, उस महान परंपरा के अस्तित्व से भी इंकार की तरह होगा जिसकी सफलता की नई नई इबारतें गढ़कर हम इस कामयाबी पर इतरा रहे हैं। बड़े दादा किसी महान् पुस्तक के उस अहम् वरक़ की तरह हैं जिसे निकालकर पूरी किताब के मायनों को समझना ही हमारे लिये मुमकिन न होगा।

      बहुत क्या कहें... आपकी कृतियां ही आपका व्यक्तित्व हैं। और जिन्होंने अपने अंतस में बसे सैंकड़ों मनोभावों और विचारों को अपनी कृतियों के जरिये साकार किया है उन्हें समझने के लिये तो इन कृतियों का ही आस्वादन करना श्रेष्ठतम होगा। किसी एक लेख में आपके व्यक्तित्व को समेट सके ऐसी किसी कलम में ताकत नजर नहीं आती। एक जीता जागता इंसान अपने आप में खुद किसी विशाल पुस्तकालय से कम नहीं होता और यदि वो इंसान बड़े दादा जैसे विराट व्यक्तित्व को लिये हो तो उसे भला और किन उपमाओं से दर्शाया जा सकता है और भला कैसे किसी लेख की चंद पंक्तियो में समेटा जा सकता है।

      जन जन को संस्कारों का दिग्दर्शन दे, दुर्भावों से बचाने के लिये अपने भावों का फल दिखा आपने सम्यग्दर्शन का मार्ग प्रशस्त किया है। आपने विदाई की बेला से पहले ही ये विचारने की शक्ति दी है कि जीवन में हमने ऐसे क्या पाप किये जिससे सुखी जीवन दूभर हो गया। समाधि और सल्लेखना की विधि बताकर निरंतर द्रव्यदृष्टि को पुष्ट किया। ऐसे सुअवसर मिलने के बाद भी यदि चूक गये तो ऐसी दशा से भी आपने सचेत किया जिसके बारे में हमने सोचा ही न था। जैनदर्शन के नींव के पत्थरों का परिचय कराकर आपने इस अमिट सिद्धांत को हमारे हृदयों में अंकित किया जो पर से कुछ भी संबंध नहीं का पाठ हमें पढ़ाता है। शलाका पुरुषों, हरिवंश के नायकों और जम्बूस्वामी जैसे महान आदर्शों की कथायें बताकर हमें चलते फिरते सिद्धों जैसे गुरुओं के पथ पर ही आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। णमोकार महामंत्र, पंचास्तिकाय, श्रावकाचार और जिनपूजन आदि के रहस्यों को समझाकर हमें जिन खोजा तिन पाईयां के लिये उत्साहित किया।

      वास्तव में आपको जानना, आपको पढ़ने से ही संभव है। इन आलेखों के आलोक में आपकों कदाचित देखा तो जा सकता है पर समझा नहीं जा सकता। खुद के जीवन को देख बस इतना ही कह सकता हूँ कि जीवन की तमाम उपलब्धियां और खुद में सहज ही गढ़ी गई विशेषताओं की बुनियाद आप ही हो। आपको संपूर्णतः अलग कर मैं शायद खुद को भी निहार पाने में असफल ही रहूंगा। हालांकि आपके पढ़ाये अनेक पाठों में से स्वावलंबन, आत्मबल और आगमबल के पाठ भी समाहित हैं। ऐसे में भले हम भेदविज्ञान की राह में स्वावलंबी होकर आगमबल से आत्मबल पाने की ओर अग्रसर हैं लेकिन यदि इस उपलब्धि को भी हम पा गये तो उसमें भी आपके योगदान को विस्मृत करना बहुत बड़ी गुस्ताखी होगी।

      आखिर में इन पंक्तियों से आपको स्मरण कर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करूंगा।


तुम्हारे जाने से एक वरक़ पलट गया।

वो एक आसमां कहीं से सरक गया।।

1 comment:

Anonymous said...

सर्व प्रथम दादाजी की याद में श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूं ।
अंकुर भाई आपका यह लेख वाकई काबिले तारीफ़ है । यह लेख पढ़कर कुछ स्वर्णिम यादों को टटोलने का अवसर मिला। दादाजी का हमारे जीवन पर जो प्रभाव है उसे कतई भूला नहीं जा सकता।