मेरे सपनों का स्मारक पार्ट १ कों लिखने के बाद से ही इसका अगला पार्ट लिखने की मांग आती रही है...पर किन्ही कारण वश एवं प्रसंग अभाव के कारण ये संभव नही हो पाया। अब लगभग ढाई महीने बाद उस बात कों आगे बढ़ा रहा हूँ। एक बड़ा प्रश्न या ख्याल लोगों के ज़हन में या हमारे अपने शास्त्री-अर्धशास्त्री भाइयों के मन में उमड़ता है कि स्मारक में अब दम नही रही या इसका आगे सुचारू रूप से चल पाना मुश्किल है। बगैरा-बगैरा......
पिछले दिनों कुछ इसी तरह कि वार्तालाप में आदरणीय धर्मेन्द्र जी भाईसाहब ने कहा था कि "स्मारक का पुण्य ऐसा है कि उसे चलने के लिए किसी के सहारे कि जरुरत नही है, किसी के बिना यहाँ का काम रुकने वाला नही है।" इस बात को कहने वाला विश्वास और ३० वर्षों की गहरी जड़े ही है जो स्मारक को आज भी जीवंत बनाये हुए हैं और आगे भी बनाये रखेंगी। इन सब बातो का आशय ये कतई नही है कि मैं स्मारक के क्रियान्वयन में घट रही लाजमी भूलों का बचाव कर रहा हूँ, वो अपनी जगह हैं और उन्हें ईमानदार दृष्टिकोण और 'बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय' की तर्ज पर सुधारा जाना चाहिए। भूलें इंसानी प्रवृत्ति है..जिनका होना गलत नही है उन्हें सुधारा न जाना गलत है। बहरहाल....यहाँ बात दूसरी करना है....
हमें क्या नही मिल रहा केवल इसका रोना रोकर यदि विद्यार्थी खुद अपने कर्तव्यों से मुक्त होंगे तो परिणाम भयावह सामने आयेंगे....जैसे उचित आजीविका का साधन न होना, चरित्र भ्रष्टता, तनाव आदि..जरुरी है जो मिल रहा है उन उपलब्ध संसाधनों में खुद को मांजना। सकारात्मक सोच, निरंतर खुद को बेहतर बनाने की भावना का होना सबसे जरुरी है। स्मारक से स्नातक होकर क्या नही किया जा सकता ये सोचने की वजाय..क्या किया जा सकता है उस पर केन्द्रित होना ज्यादा जरुरी है। कई बार हम अनुपलब्ध को पाने के चक्कर में उपलब्ध का उपभोग नही कर पाते। हमें क्या उपलब्ध है उसे देखें..मैं आपके सामने कुछ आंकड़े प्रस्तुत करना चाहूँगा...उन्हें देखकर अपने-आप को तौलने की कोशिश करें-
"भारत में हर पांच में से एक MBA और IIT प्रोफेशनल आत्म-हत्या करता है, ३७ करोड़ जनसँख्या गरीबी रेखा के नीचे है, २५ करोड़ जनता शुद्ध पानी और मूलभूत जरूरतों से महरूम है, हर दूसरी सेलिब्रिटी शख्सियत(एक्टर-मॉडल) ड्रग्स एडिक्टेड है, लगभग १५ करोड़ बच्चे शिक्षा से पूरी तरह से दूर है, लगभग २८ करोड़ जनता प्राकृतिक आपदाओं(बाढ़-भूकंप आदि) से हर साल प्रभावित होती है, १२वी के नीचे आत्महत्या करने वालों की तादाद १७% है इत्यादि...."
इन आंकड़ो से मैं ये बताना चाहता हूँ कि हर कोई अपने स्तर पर दुखी है। हम किसी खास जगह तक पहुँचने के लिए संघर्षरत हैं तो दूसरा कोई उस जगह से हटने के लिए संघर्षरत है। अपनी जगह पे रहते हुए ही कुछ बेहतर कर सकने कि संभावना तलाशना सबसे ज्यादा जरुरी है। हम जिन चंद संसाधनों के न मिल पाने का दुःख बताते फिरते हैं वे तो कुछ हैं ही नही। लोग तो मूलभूत जरूरतों कों ही पूरा नही कर पा रहे हैं।
ऐसी स्थिति में जिन बातों का रोना स्मारक में रहकर रोया जाता है वो तो कुछ है ही नही। लेकिन संभावनाओं कि तलाश यदि की जाये तो वो अथाह है और इसका प्रमाण कुछ हमारे अग्रज शास्त्रियों ने दे दिया है और कोई एक व्यक्ति जो काम कर सकता है वो काम हम कर सकते हैं। हमारी नाकामयाबी का कारण हम खुद है स्मारक नही। जिनवाणी पर दृढ आस्था रखकर और सतत प्रयास से निश्चित लक्ष्य कों पाया जा सकता है।
सपनो के स्मारक के निर्माण के लिए सबसे ज्यादा जरुरी है दिल से स्मारक कों कोसने की प्रवृत्ति कों निकाल फेंकना। खुद पर, जिनवाणी पर और स्मारक पर बहुमान का होना। कई बार गलत चीजों से प्रेरित होकर हम जो रास्ता चुनते हैं वही हमारे लिए घातक साबित होता है। इस स्थिति में हमें स्मारक प्रदत्त सारा ज्ञान बेकाम नजर आता है। हमारा प्रेरित होना हमारी दिशा निर्धारण का काम करता है। इस सम्बन्ध में एक कहानी याद आ रही है-"दो भाई थे , जिनमें से एक नशीली चीजों कों खाने-पीने का आदी था घर में सबको मारा-पीटा करता था तो दूसरा सफल व्यापारी था, सुसंस्कारी था। एक माँ से उत्पन्न दो भाई इतने अलग कैसे हो सकते हैं? कारण जानने पे दोनों भाइयो के उत्तर सोचने लायक है। कपूत पुत्र का कहना है कि मेरे ऐसे होने का कारण मेरे पिता हैं वे भी शराब पीते थे लड़ा-झगडा करते थे, तो मैंने उनका पुत्र होने के कारण ये रास्ता चुना। सपूत पुत्र का कहना था कि मेरे ऐसा होने का कारण मेरे पिता हैं..वे नशीली चीजें खाते पीते थे, लड़ते-झगड़ते थे इससे उनने अपना जीवन बरबाद कर लिया मैं अपना जीवन ऐसा नही बनाना चाहता था इसलिए मैंने अलग रास्ता चुना।"
दो अलग इंसानों की भिन्न दिशाओं कों चुनने का कारण एक प्रेरणा थी लेकिन भिन्न तरीके से थी। ऐसे ही हम किससे, क्या प्रेरणा लेते हैं ये हमारी मंजिल तय करती है। दुनिया से आशक्त और विरक्त दोनों इन्सान प्रेरणा इन्ही जग संयोगो कों देखकर पाते हैं बस उसे अलग ढंग से पाते हैं। इस तरह खुद को, अपने परिवेश को, अपनी क्षमताओं और कमियों को पहचान रास्ते चुने, क्योंकि इन्सान की पहचान उसकी प्रतिभा से नही उसके फैसलों से होती है।
खैर मेरे सपनों का स्मारक और हर स्मारक के दीवाने के सपनों का स्मारक बहुत व्यापक है जिसे उस धंद से प्रस्तुत नही किया जा सकता जिस ढंग से महसूस किया जाता है....अभी के लिए इतना ही..जरुरत और प्रसंगानुसार इस बात को फिर आगे बढाएंगे....अपने इसी सपने के साथ फिर रु-ब-रु होंगे....
क्रमशः.........