हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Monday, June 21, 2010

छत की अहमियत(father's day special)


माँ को धरा का दर्जा दिया जाता है, और हमने भी सदा से धरती की पूजा की है। बेशक धरती की कीमत को आंकना आसान नहीं है लेकिन इस सबके बावजूद छत की अहमियत कभी कम नहीं हो जाती। इस बात को शायद वो इन्सान अच्छे से समझ पायेगा जिसके सर पे छत नहीं होती। उस सुकून को बयां करने वाले शब्द नहीं है जो पिता की छाया में मिलता है। हम कई बार सोचते हैं कि चरम तनाव, चिंता कि स्थितियां हम तक क्यों नहीं पहुँच पाती..यदि इसके तह में जाकर देखें तो वो पिता है जो ढाल बनकर इन सारी विपदाओं से हमें बचा रहे होते हैं।

पिता कि मज़बूरी है कि वो अपने बच्चों को बस दूर से चाह सकता है क्योंकि संवेदनाओं को जाहिर करने वाला सबसे बड़ा हथियार आंसूओ का वो सहारा नहीं ले सकता। बच्चे भी अपने मन की बात बस मां से बताते हैं, उसी के गले से लिपट के अपना प्यार इज़हार करते हैं। इस सारी स्थिति में पिता बस दूर से इन दृश्यों को निहारकर राहत महसूस करता है। पुरुष को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए तेज आवाज और गुस्से का सहारा ही लेना पड़ता है, वह रोता नहीं, नरमी नहीं दिखाता...इसलिए बच्चों पर अपनी भावनाएं व्यक्त करने की छटपटाहट उसे बेचैन किये रहती है। मजबूरन उसे बच्चों को सोते हुए निहारना ही चैन देता है। हमारी सफलता पर हम मां के गले लिपटकर ख़ुशी का इजहार करते हैं पर हमारा मुंह मीठा करने सबसे पहले मिठाई का डिब्बा पिता लेकर आते हैं।

पिता-पुत्र जीवन भर असंवाद की स्थिति में रहते हैं, फिर भी बिना कुछ कहे जाने कैसे पिता को अपने पुत्र की जरूरतों का ख्याल रहता है...बेटे के बड़े होते ही उसे साइकल दिलाना हो, मोबाइल या बाइक दिलाना हो या ATM में पैसे ख़त्म होने से पहले ही रुपये जाना हो सब कुछ बिना कहे ही हो जाता है। अपने सपने और अपनी जरूरतों का गला घोंटकर बस बच्चों कि परवरिश ही जिस इन्सान का एक मात्र उद्देश्य होता है वो है पिता। वो हमसे कभी नहीं कहते कि स्कूल कि फीस कैसे भरी या घर के खर्चे कैसे पूरे किये, या लेपटोप दिलाने के पैसे कहाँ से आये...वे नहीं कहते कि अब उनके घुटनों में दर्द होने लगा है, जल्दी थकान हो जाती है या ब्लड प्रेशर या सुगर बढ गयी है....नहीं, परिस्थितियों के बादलों से बरसी चिंता कि किसी बौछार को ये छत हम तक नहीं पहुँचने देती।

पिता बस पिता होता है उसकी तुलना किसी से नहीं है...अलग-अलग स्टेटस से लोग एक इन्सान के स्तर पर तो भिन्न-भिन्न हो सकते हैं पर पितृत्व के स्तर पे नहीं। एक करोडपति बिजनसमेन या एक झुग्गी के गरीब पिता की पितृत्व सम्बन्धी भावनाओं की ईमानदारी में कोई अंतर नहीं होता, उसके इजहार में भले फर्क हो। हर पुत्र के लिए उसका पिता ही सबसे बड़ा हीरो है, उस एक इन्सान के कारण ही बेफिक्री है, अय्याशी है, मस्ती है। पुत्र के लिए पिता का डर भी बड़ा इत्मिनान भरा होता है,एक अंकुश होता है। प्रायः पिता की हर बात उसे एक बंधन लगती है, पर उस बंधन में भी गजब का मजा होता है।

इन सब में पिता को क्या मिलता है...आत्मसंतोष का अद्भुत आनंद। पुत्र के बचपन से जवानी तक की दहलीज पर पहुचने की यादें मुस्कराहट देती है। बेटे की सफलताये खुद की लगती है। बेटे से मिली हार खुशनसीबी बन जाती है।
आश्चर्य होता है कैसे एक इन्सान खुद को किसी के लिए इतना समर्पित कर देता है? कैसे पूरा जीवन किसी और के जीवन को पूर्णता देने में बीत जाता है? सच कहा है- कि भगवान इन्सान को देखने हर जगह नहीं हो सकता था शायद इसलिए उसने मां-बाप को बनाया।

लेकिन दुःख होता है कि नासमझ इन्सान के सबसे बड़े हीरो यही मां-बाप समझदार इन्सान के लिए बोझ बन जाते हैं। अपने बुढ़ापे के दिन काटने के लिए उन्हें आश्रम तलाशना होता है। हमारे दोस्तों और नए सगे-सम्बन्धियों के सामने वे आउट-डेटेड नज़र आते हैं। ऑरकुट और फेसबुक पर सैंकड़ो दोस्तों का हाल जानने का समय है हमारे पास, पर इतना समय नहीं कि पिता की कमर दर्द या मां की दवा के बारे में पूंछ सके। बुढ़ापे के कठिन दौर में जहाँ सबसे ज्यादा अपनेपन की जरुरत होती है वहां यही बूढ़ा बाप किसी फर्नीचर की तरह पड़ा रहता है। और विशेष तो क्या कहूँ, अपनी संवेदनाओं को झंकृत करने के लिए अमिताभ की फिल्म "बागबान" और राजेश खन्ना की "अवतार" देखिये।

अंत में बागबान के एक संवाद के साथ विश्व के सभी पिताओं के चरणों में नमन करता हूँ "मां-बाप कोई सीढ़ी की तरह नहीं होते कि एक कदम रखा और आगे बढ़ गए, मां-बाप का जीवन में होना एक पेड़ कि तरह होता है, जो उस वृक्ष कि जड़ होते हैं उसी पर सारा वृक्ष विकसित होता है...और जड़ के बिना वृक्ष का कोई अस्तित्व नहीं है। "

3 comments:

Rohan Rote said...

It's really a touching topic. Nicely put forward with great emotions. Well Done.

Anonymous said...

its nice i think its`much bettar when u write after three or four year plz link this SHADINAMA`

abhishek

Anonymous said...

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abhishek