हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Monday, November 29, 2010

हर चेहरा विदा.


क्या वाकई तिथियों के साथ गम भी विदा हो जाते हैं ? काश यादों का भी तर्पण हो सकता और यदि नहीं तो कागे की जगह एक बार ही वह दिखाई दे जाता जिसके लिए आँखों से नमी का नाता टूट ही नहीं पा रहा है.
सांझ
सां .....झ
हर चेहरा विदा.

अन्तिम तीन पंक्तियाँ कवि अशोक वाजपेयी की हैं जो उन्होंने 1959 में लिखी थीं । क्या वाकई हर चेहरा विदा है? विदा होते ही सब कुछ खत्म हो जाता है कि कुछ रह जाता है तलछट की तरह। सालता, भिगोता, सुखाता और फिर सराबोर करता। कभी किसी प्रेम में डूबे को देखा है आपने? एक ऐसे सम पर होता है जहां चीजें एक लय ताल में नृत्य करती हुई नजर आती हैं। इतना सिंक्रोनाइज्ड कि कोई चूक नहीं। समय से बेखबर बस वह उसी में जड़ हो जाता है। यह जड़ता तब टूटती है जब दोनों में से कोई एक बिखरता है। विदा होता है। अवचेतन टूटता है। चेतना जागती है। तकलीफ, दुख, पीड़ा जो भी नाम दें, सब महसूस होने लगते हैं। एहसास होता है जिंदा होने का। एहसास होता है उस ...ताकत का जो इस निजाम को चला रही है। इससे पहले तक लगता है जैसा हम चाह रहे हैं वही हो रहा है। हमने यह कर दिया, वह कर दिया। हमारे प्रयास से ही सब बेहतर हुआ। फिर पता चलता है कि आपके हाथ से सारे सूत्र निकल गए। आप खाली हाथ रह जाते हैं और वह उड़कर जाने किस जहां में खो जाता है। उस दिन आपको यकीन होने लगता है कि आपकी हस्ती से बड़ी कोई बहुत बड़ी हस्ती है जिसके चलाए सब चल रहे हैं। यह सृष्टि भी और इसमें जी रही चींटी भी। आपकी बिसात कुछ नहीं। यह आपको अपनी हार लग सकती है। आप ठगे से रह जाते हैं कि जिसकी आवाज कानों में मिश्री घोला करती थीं... बांहें भरोसा देती थी... आंखें उम्मीद बंधाया करती थी.... वह आज नहीं है। वह खत्म है। अतीत है। उसके साथ थां जुड़ गया है। नाम के आगे स्वर्गीय लगाना पड़ रहा है और नगर निगम ने उसका मृत्यु प्रमाण पत्र जारी कर दिया है। यह सब एक जिंदा शख्स को मृत्यु की कगार पर लाने से कम नहीं होता है। जीते जी मरने की यह तकलीफ सिर्फ वही पाता है जिसका अपना उससे विदा ले गया हो। 1987 में वाजपेयी जी ने फिर लिखा विदा शीर्षक से-
तुम चले जाओगे
पर
थोड़ा-सा यहां भी रह जाओगे

जैसे रह जाती है
पहली बारिश के बाद
हवा में धरती की सोंधी सी गंध
भोर के उजास में
थोड़ा सा चंद्रमा
खंडहर हो रहे मंदिर में
अनसुनी प्राचीन नूपुरों की झंकार।
तुम चले जाओगे
पर मेरे पास
रह जाएगी
प्रार्थना की तरह पवित्र
और अदम्य
तुम्हारी उपस्थिति
छंद की तरह गूंजता
तुम्हारे पास होने का अहसास।

तुम चले जाओगे

और थोड़ा सा यहीं रह जाओगे
!

यही अंत में शुरूआत है? यह कोशिश होती है चीजों को बड़े फलक पर देखने की। एक कमरे से घर, घर से शहर, शहर से देश और देश से दुनिया और दुनिया से ब्रह्मांड को देखने की। इस तुलना में आपको अपना गम छोटा लगने लगता है। सूरज आपको अस्त होता हुआ लगता है लेकिन वह कहीं उदय हो रहा होता है। अंत कहीं नहीं है। एक चक्र है जो चलता है सतत निर्बाध जब हमारे मन का होता है तब हमें भी सब चलता हुआ लगता है और जब नहीं होता तब खंडित होता हुआ। एक और कवि हरिवंश राय बच्चन की बात गौर करने लायक है। मन का हो तो अच्छा है और मन का न हो तो और भी अच्छा। गौर कीजिएगा। शायद जिंदगी आसान हो जाए।

साभार
गृहीत-likhdala.blogspot.com

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