हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Tuesday, March 1, 2011

स्मारक रोमांस- "विदाई का गम और गम में हम"

"Dedicated to all shastri final year"

खुशियाँ जब अपने चरम से उतरती हैं तो गम भी उतना ही बढ़ जाता है। स्मारक में अध्ययन के दौरान उत्साह का ज्वार जब चरम से चरमतम की स्थिति में पहुच जाता है तभी कमबख्त विदाई का भाटा दस्तक दे देता है। पांच साल तक सोचते हैं कि विदाई में ये बोलेंगे-वो बोलेंगे...तैयारी का आलम कुछ यूँ होता है मानो टीम इण्डिया वर्ल्ड कप की तैयारी को उतारू हो। पर जब ये दिन आता है तो शब्द ब्रह्माण्ड में कहीं विलुप्त हो जाते हैं...और शब्दों से ज्यादा मुखर ख़ामोशी होती है।

सुनाना चालू होता है अपनी वो गुजरी दास्ताँ, वो सफ़र जो इन नौजवानों को स्मारक के दर तक लेकर आया। शुरू होता है वो सिलसिला जो अपनी राहों की बाधाएं बयां करते हैं। यहाँ मैं ये कतई नही कह रहा कि विदाई का समय हमारी मंजिल है...दरअसल ये तो वो सेतु है जहाँ राहें न ख़त्म हुई हैं न मंजिल हासिल हुई है...जहाँ न बचपन दूर हुआ है न जवानी ने दस्तक दी है...न फैसले लिए गए हैं न नतीजे निकल कर आये है। सब कुछ कहीं अटका हुआ है और इस अटकाव के बीच ही एक प्रश्न हम पर दाग दिया जाता है-भविष्य की योजनायें ? स्मारक में रहते हुए कहाँ लगा था कि जिन्दगी जीने के लिए कुछ योजनायें भी बनानी होती हैं...हमने तो बस यही सोचा था कि क्रमबद्धपर्याय को जपते हुए जीवन गुजार देंगे और उस क्रमबद्धता कि जपन में योजनाओं के लिए जगह कहाँ बनती है? लेकिन भैया योजना तो बनाना होगा...तब तुरत-फुरत में जो एक वाक्य मुंह से निकलता है वो ये है कि ताउम्र तत्वप्रचार और तत्वविचार तो जारी रहेगा ही...बाद में भले ये अवधारणा सिस्टम के हाथों घोंट दी जाती हो...लेकिन इस समय तक ये भावना पूर्ण पवित्र होती है।

कई कशिश रह जाती है सीने में कि काश मेने ये और किया होता स्मारक में...काश में ऐसे रहा होता स्मारक में...काश कुछ पहले समझा होता इन दिनों की कीमत को वगैरा-वगैरा...पर अब महज अपने उन कडवे अनुभवों से अनुजों को सीख देने के आलावा कुछ नही होता...और अनुज भी कोई हमारे अनुभवों से सुधरने वाले नही हैं है इन्सान खुद ठोकर खाके सीखता है। दरअसल कुछ सीखने के लिए कई चीजों की जरुरत होती है उनमे दूसरों के अनुभव, स्वयं की प्रतिभा तो जरुरी है ही साथ ही साथ अच्छी किस्मत की दरकार भी होती है। इसलिए यदि कुछ रह गया तो रह गया अब एक नए सिरे से जिन्दगी को देखना है और गुजिश्ता दौर की गलतियों को आगामी दौर से दूर रखना है।

सही होने के संकल्प से ज्यादा जरुरी है इस संकल्पना की निरंतरता का बने रहना। उस संकल्पना के निर्वहन में कई बार ऐसे फैसले भी आपको लेने होंगे जिनमे आपके पास जन वहुमत न होगा..जो क्रांतिकारी होंगे..जो कई लोगों को ठेस पहुचाएंगे पर वो सही होंगे...बस ध्यान रखें की उन्हें समाज के आलोक में न देखकर जिनवाणी के आलोक में देंखे। बड़े-बड़े वादे जो हम अपने दीक्षांत समारोह में कर आते हैं, वे यदि कुछ हद तक भी बने रहे तो हम एक बेहतर जिन्दगी गुजारते हैं। दरअसल उस माहौल में मनोभावों का विरेचन जिस अंदाज में होता है वे मनोभाव बाद में अपनी उस निरंतरता को नही पा पाते। लेकिन तत्समय में उनकी प्रमाणिकता में संदेह नही हो सकता..वो तत्काल का सत्य होते हैं।

अभी तक सब हरा-हरा था दुनिया के असली रंगों से वास्ता तो अब पड़ेगा...इन रंगीनियों में चेतन के चिंतवन की धवलता को बनाये रखना ज्यादा जरुरी है। परिवर्तनों में अपरिवर्तनीय को संभाले रखना बड़ी जिम्मेदारी है। यहाँ फिर मैं वही बात कहूँगा जो मैं पहले भी कह चूका हूँ कि धार्मिक होने से ज्यादा जरुरी धर्म पर विश्वास का होना है।
इस महफ़िल से हम अलग होकर एक नई महफ़िल में जायेंगे कुछ दिन उन महफ़िलों में वीरानियाँ नजर आएंगी फिर वही हसीन लगने लगेंगी। पुराने दोस्तों के सम्बंद्धों का धागा महीन होते-होते कब टूट जाता है पता ही नही चलता...मुलाकाते अक्सर बस ख्यालों में होती हैं।

बहरहाल, जिदगी का सच है ये जिससे हम पहली बार मुखातिब होते हैं तो झटका थोडा ज्यादा लगता है फिर तो ऐसे कई मौके आते हैं और हम उन के आदी हो जाते हैं। जिन्दगी की सबसे अच्छी बात यही है कि वो चलती जाती है और शायद सबसे बुरी बात भी यही है। वक्त गुजरकर सब धुंधला कर देता है...तो कभी लगता है कि हम तो वही खड़े हैं बस समय हमारे ऊपर से निकल गया। विदाई को देखने की एक नजर ये हो सकती है कि ये अंत है तो एक नजर इसे शुरुआत की तरह देखती है। नजर अपनी-अपनी है.............................

जारी.........

3 comments:

Anonymous said...

kuch bato ko me kah nahi skta per mahsus jarur kr skta hu....smark romans ki is kdi ne to jhakjhor dia kyuki yeh vastvikta h .......bahut sunder ...iske liye apko bahut bahut shadhubad!!!!!!!!!!!

Unknown said...

VIDAI SAMAROH PRASANG MAIN GAMGEEN MAHOL TO HOTA HAI PR EK SATYA HAI KI PRTYEAK SHASTRI IS MOD PR BICHUDTA HAI PR KAHI DIL KE KONE MAIN GOLDEN TIME KI MEETHI YADEON KI KULBULAHAT LEKAR ZINDGI KO YAADGAAR BANATE HAI ...... BAHUT HI SUNDAR ABHIVAYAKTI KI HAI

Life Style said...

IS DIN KE BARE ME KYA KAHA JAY....... VASTAV ME BAHUT MUSHKIL SA ANUBHAV HOTA HE ..... ASLI JEEVAN KI SHURUVAT HO JATI HAI