हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Thursday, June 23, 2011

स्मारक रोमांस - दंगल में चैतन्य की चहल-पहल

(स्मारक रोमांस की पिछली श्रंखला पढ़ ही इसमें प्रवेश करें)

लड़के बड़े उद्दंड हैं, कौन इन्हें शास्त्री कहेगा, ये बस जिनवानी की गद्दी पे ही बड़ी-बड़ी बातें कर सकते हैं, हओ काय के पंडित..फ़िल्में जे देखें, गाना जे गाएं, ऊधम जे मचाय, अरे इनकी तो बस बातें ही बातें हैं.........ये कथा अनंत है। कुछ तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के शास्त्री वन्धुओं के बारे में यही धारणाएं रहती हैं और फिर भान्त-भान्त के शब्द बाणों से उनका यशोगान भी किया जाता है....इन ठेकेदारों कों अपनी औलाद सिगरेट पीती नजर नही आती और शास्त्री चाय पीता नजर आ जाता है...बात फिर वही याद आती है कि "बुद्ध पैदा हों, महावीर पैदा हों पर हमारे घर में नही पडोसी के घर में। मानो सारा चरणानुयोग सिर्फ इन शास्त्रियों के लिए ही लिखा है...बेटा शास्त्री करने के बाद बस मुंह बना के घूमो यदि गलती से हंस दिए तो नोकषाय का बंध हो जायेगा... कहाँ लो कथन करें...छोडो बात दूसरी करना है.....

स्मारक रोमांस के पिछले लेखों ने जितनी प्रशंसा पाई तो इसकी आलोचना में मुखर होने वाले स्वर भी कम नही थे। शास्त्रियों की सहज दिनचर्या को उद्घाटित करते लेखों में उन्हें बस दंगल ही दंगल नजर आया अब भैया नहाने-सोने-खेलने-बतियाने की क्रियाओं में जीव जुदा पुद्गल जुदा कहाँ से लाऊं...ऐसा भेद-विज्ञान तो नरक में आपस में पूर्ण नारकीवत लड़ते रावण और राजाश्रेणिक के जीवों में भी सम्यक्त्व होने के वावजूद नही है। स्वाध्यायी हो जाने के बाद भी एक १५-१६ साल का लड़का अपनी पर्याय का स्वभाव छोड़कर कैसे ४५-५० साल वाली गंभीरता ला सकता है...स्वाध्याय योग्य वैराग्य न आने से आप उसके उस स्वाध्याय को तो निरर्थक नही कह सकते। वैसे भी एक बड़ी काम की बात बताऊ जो शायद आप सब को अटपटी लगेगी "विद्यार्थी जीवन सर्व प्रकार के विषयों को मात्र पूरी शिद्दत से रटने के लिए होता है उसे समझने के लिए नही, शिक्षा से समझ नही आती..समझ तो स्वयं से विकसित होती है और जब समझ विकसित हो जाती है तब आपका विद्यार्थी जीवन में रटा-रटाया ज्ञान काम आ जाता है" इसलिए कंठपाठ की अहमियत है। लेकिन रटने में पूरी ईमानदारी और मेहनत का परिचय दें। ह्म्म्म...अभी भी मुद्दे पे नही आ पा रहा हूँ......

बातें महज बातें नही रह जाती अनायास ही उन बातो से तत्वज्ञान बह उठता है। समस्याओं के समाधान स्वयं से मिलने लगते हैं..अंतर से निकली आवाज कुत्सित पथो पर निर्भयता के साथ चलने से रोकती है...विषय भोग में स्वछंदता घट जाती है..विपदाओं में आत्म्सम्बल आ जाता है...जग में रमे रहने पर भी एक खटका मन में होता है कि ये भव महज इन सब कामों के लिए नही मिला...एक अलग ढंग की शारीरिक भाषा (बॉडी-लैंग्वेज) होती है जो उस उम्र के दुसरे युवाओं से इन शास्त्रियों को अलग करती है...ये दंगल में कैसा मंगल है...ये चहल-पहल क्यूँ चैतन्यमुखी हो रही है। जबाव साफ हैं जिनवाणी का समागम भला असर क्यों ना दिखायेगा।

जगत की सम्पूर्ण शिक्षा पद्धत्ति जो कि ज्ञेय-तत्व की मीमांसा कराने वाली है के सामने ये ज्ञान-तत्व की मीमांसा कराने वाली शिक्षा से जन्मी क्रियाविधि ऊपर से भले परिवर्तन न दिखाए...मगर अंतस के नजरिये को आमूल-चूल बदल देती है। जिस तरह चटक सफ़ेद चादर पर हल्का काला दाग सहज आकर्षण पा जाता है ठीक वैसे ही इस दिनचर्या में समाहित चैतन्य की चहल-पहल में हल्का सा दंगल सहज आलोचना में आ जाता है..पर सर्वदा वह आलोचना सही हो ये जरुरी नही।

यहाँ लौकिक बातों में भी निश्चय-व्यवहार के पंच छोड़े जाते हैं, समस्त बातें अपेक्षाओं के साथ ग्रहण की जाती हैं, सप्त-भंग पर ढेरों प्रयोग किये जाते हैं...स्नान के वक़्त भक्तामर का पाठ गुनगुनाया जाता है। भोजन भी तत्वचर्चा के साथ ग्रहण किया जाता है...भजन गायन के साथ सीढियां चढ़ी जाती है...मित्रों में परस्पर चिंता भी इस भांति की व्यक्त की जाती है कि "अरे परीक्षा मुख के कितने अध्याय याद हुए?" या "यार दृष्टि के विषय में दृष्टि को शामिल किया जायेगा या नही?" अथवा "सुन यार मैं प्रमेयरत्नमाला के चौथे अध्याय को नही समझ पा रहा हूँ" भला दुनिया के किस कौने में ये चहल-पहल सुनाई देगी।

जगत में चर्चा के विषय बस क्रिकेट-फिल्म और राजनीति ही हैं दर्शन का गागर तो कुछ ही कुटियो में पिपासुओं की प्यास बुझा रहा है..और उस दर्शन में भी विशुद्ध चैतन्य की वार्ता तो मिलना नामुमकिन है। इस चैतन्य विमुख जगत रेगिस्तान में कमल खिला देख जाने क्यों लोगों को आश्चर्य नही होता..कैसे उत्कृष्टता की महिमा न आकर आलोचना के स्वर फूटते हैं...डांस इण्डिया डांस और इन्डियन आइडल जैसे रियलिटी शो के उन नचैयों और गवैयों पे ताली बजाने वाले ये लोग.. जाने क्यों जिनवाणी को कंठ में लेके घूमने वाले इन शास्त्रियों पर वो प्रशंसा का भाव नही ला पाते, जिसकी दरकार है। और हम यत्र-तत्र के हर किसी जन से ये अपेक्षा नही करते की वे हमारी प्रशंसा करें... अपेक्षा कुछ अपने ही लोगों से हैं...अपेक्षा जिनवाणी माँ के सपूतों से ही है।

बहरहाल, सर्वत्र सब कुछ हरा-हरा हो ये जरुरी नही, विसंगतियां सर्वत्र हैं। पर सर्वत्र बिखरी इन कुछ एक विसंगतियों को सर्वस्व मान लेना कहाँ तक उचित है...आखिर क्यों विस्तृत की प्रशंसा न कर हम लघुतर की आलोचना विस्तृत के सर मढ़ते रहेंगे। खैर, हमारा कर्त्तव्य है स्वयं को योग्य बनाये रखना उसमे जन समूह के समर्थन की परवाह न करें...एवं स्वयं की स्थिति औरों से बेहतर देख स्वछंदता ग्रहण न करें..खुद को और बेहतर बनाये तथा उस बेहतरी को कायम रखने का प्रयास भी करें। अंत में कुछ पंक्तियों के साथ बात ख़त्म करूँगा-

नज़र-नज़र में उतरना कमाल है, नफ्स-नफ्स में बिखरना कमाल है।
महज बुलंदियों को छूना कमाल नही, बुलंदियों पे बने रहना कमाल है।।

4 comments:

ANURAG JAIN said...

विस्तृत की प्रशंसा न कर हम लघुतर की आलोचना विस्तृत के सर मढ़ते रहेंगे।
अंकुर जी आपकी पोस्ट में बहुत पसंद करता हु और regular पढता हु. स्मारक संपूर्ण मुमुक्षु समाज की शान हे हमें गर्व हे की स्मारक आप जेसे विचारवान विद्वानों की श्रृंखला निरंतर बना रहा हे बिना किसी आलोचनाओ की परवाह के आप निरंतर जिनवानी के अविरल प्रचार प्रसार करते रहे ऐसी शुभकामनाये आपके विचार अंतस को नया विचार आयाम देते हे

nitin jain said...

आपके विचारों में गंभीरता के साथ ही निष्पक्षता भी दिखाई दे रही है ..जो है उसे उसी रूप में कहने के लिए आप जैसी हिम्मत चाहीए ...जय जिनेन्द्र
नितिन शास्त्री

Chetan jain said...

इस लेख की बेहद जरूरत थी ...जिसे लिखकर आपने दंगल में सिर्फ षोर षराबा देखने वालों को चैतन्य के होने का आभास कराने का प्रयास किया है। अब जिसे जो दिखाई दे वो उसके नय का चष्मा है हम अपने आप को बेहतर बनाए रखने का प्रयास हमेषा करते रहेगे।

arpit jain said...

ankur bhai BADA GAMBHEE VISHAYA HAI HUM SAB MAIN YEHI COMMAN HAI KI HUM SAB KUCH JANTE HAI PARANTU BAHUT HI GAJAB PRAYAS HAI WO KAHTE HAI NA KITNA BHI GHANA ANDHERA HO SURAJ APNA KAAM APNE WAQT PR KREGA OR TUMARA LEKHAN KARYA UMEED SE BHI DAS GUNA KABIL E TAREEF HAI THNX N GET WELL SOON