इसे पढ़ने से पहले इस श्रंख्ला का भाग एक और भाग दो पढ़ें-
(ये हमसब का व्यक्तिगत विवरण है..यूं तो इसकी टारगेट ऑडियंस सिर्फ हमारी क्लॉस के ही चुनिंदा शख्स हैं क्योंकि उन्हें ही मैं विशदता से जानता हूं और उनसे जुड़ी यादों को ही शेयर कर सकता हूँ फिर भी, कुछ और लोग भी इस संस्मरण से खुद को जुड़ा पा सकते हैं ये आपके area of interest पे निर्भर करता है।)
जहाँ भी व्यक्तियों की तादाद ज्यादा होती है तो वहाँ संघों का बनना सहज प्रक्रिया है...एक विस्तृत समूह को छोटा करके उसे लघुतर बनाना और उस लघु समूह में अपने अस्तित्व को आयाम देना ये इंसानी फितरत होती है...और जब कभी भी ग्रुप्स का जन्म होता है तो राजनीति, मनमुटाव, नोंक-झोंक, टकराव जैसी चीजें आम होती हैं..एक छोटी-सी क्लास थी 30-35 लोगों की...पर इसे भी कई भागों में बांट दिया था हम सबने... कहीं-कहीं दूसरे ग्रुप्स के प्रति तीव्रतम प्रतिद्वंदता या कभी-कभी तीव्रतम विरुद्धता रहा करती थी..तो कुछेक ग्रुप परस्पर में तटस्थ रहा करते थे। जिनके उसूल होते थे कि सिद्धांतों से समझौता नहीं और व्यवहार में विरोध नहीं...मामला बस इतना होता है कि समरुचि, समप्रतिभा, समख्यालात् ग्रुप्स का निर्माण करते हैं पर कई बार ग्रुप्स का बिखराव हो जाता है कई समानताओं के बावजूद भी और नवीन ग्रुप्स ईजाद हो जाते हैं...ये प्रक्रिया समझना कठिनतम कार्य है..खैर। ग्रुप्स थे तो अब कुछ ग्रुप्स प्रमुखों की बात करते हैं-नयन शाह- सबसे सस्टेनेबल ग्रुप के अहम् सदस्य। संभवतः अघोषित ग्रुप लीडर भी यही थे। एक अलग ही प्रकृति के वारिश थे..मूलतः इनकी प्रकृति गुट निरपेक्ष थी और ग्रुप के बाकी सदस्य भी बड़े न्यूट्रल मिज़ाज के, शांत चित्त लोग थे। किसी भी विवाद से ये ग्रुप और इस ग्रुप के अन्य सदस्य कोसों दूर थे..लेकिन नयन शाह खुद एक ऐसे विशेष पुरुष रहे हैं जिनकी वजह से कई लोग विवादों में घिरे हैं..आशीष मौ, इसमें सबसे ज्यादा पीड़ित शख्स थे। पहले नयन भाई के साथी सिर्फ ए.के. मण्डया जी थे, कालांतर में इन्हें जिनप्पा एवं रमेश शिरहट्टी द्वारा भी ज्वाइन किया गया। इनसे जुड़े बहुत किस्से हैं आपको याद आ रहे होंगे पर हम चर्चा समय पाके करेंगे।
अरहंत। ये किसी ग्रुप के लीडर थे या नहीं ये तो नहीं पता पर सर्वाधिक ग्रुपों से इनका वास्ता रहा है..पहले इनकी तिकड़ी पूरे स्मारक में वर्ल्ड फेमस थी, वरिष्ठ के मध्यांतर में इस तिकड़ी को चार और लोगों ने ज्वाइन किया जिनमें मैं भी शामिल था तथा तीन अन्य सदस्य सचिन, सोनल और अभय थे। फर्स्टईयर में ये 'एकला चलो रे' टाइप के हो गये थे और सेकेंडियर-फाइनल में सात लोगों का नया सशक्त सेवन और एक दम रफ एंड टफ ग्रुप इनके द्वारा ज्वाइन किया गया। ये स्वभाव से खासे आशिक मिज़ाज और शायराना हैं..मोहब्बत इनके लिये एक अहम् स्थान रखती है..और जिसे भी चाहते हैं डूब के चाहते हैं...मेरी वरिष्ठ उपाध्याय के प्रथम अर्धभाग में इनसे काफी शायराना जुगलबंदियां हुआ करती थी..और ये उस समय मेरे लिये एक ग्रेट मोटिवेटर की भूमिका निभाया करते थे। कई ख़ासियत हैं इनकी पर इनके व्यक्तित्व की जितनी परतें प्रस्तुत हैं उतनी ही शायद छुपी हुई भी..अरहंतवीर की उपमा प्याज से दी जा सकती है कि आप प्याज की परतें उतारते जाओ, उतारते जाओ और अंततः आपके हाथ में कुछ नहीं आयेगा पर ख़त्म होने पर ये एक महक छोड़ जायेंगे। आगे बात करेंगे....
मुकुंद। ये किसी ग्रुप के मेंबर नहीं है और इनकी प्रकृति ऐसी है कि इन्हें किसी ग्रुप में बांधा भी नहीं जा सकता। लेकिन एक बेहद मिलनसार व्यक्तित्व, जिसकी बातों से भी फूल झड़ा करते थे..हमारी कहान क्रिकेट टीम के स्ट्राइक बॉलर थे और विपक्षी टीम के बल्लेबाज़ों को विशेष रणनीतियां इनसे निपटने के लिये बनानी होती थी। अंकित सरल जी पर काफी फिदा थे ये स्मारक लाइफ के अंतिम दिनों में..इस फिदा सबको अन्यथा न ले। दरअसल, हमारे अंकित की अदाएं ही कुछ ऐसी थी कि उनपे कई लोग जान निसार किया करते थे। अंकित जी की बात करते हुए विस्तार से बात करेंगे..फिलहाल मुकुंद पर ही सीमित रहते हैं और परिचय को आगे बढ़ाते हैं....
अनुज। इन महाशय से ज्यादा पसंद तो इनके मोबाइल को किया जाता था..उस दौरान भी जब इनके पास नोकिया-1100 हुआ करता था...और इनके प्रमुख कद्रदानों में विवेक पिड़ावा का नाम सबसे ऊपर था...जो अनुज को देखते ही बोलते थे 'मोबाइल कहाँ है'...हास्य का भण्डार और अपने डिप्लोमेटिक पर्सनेलिटी के लिये टफ टू अंडरस्टेंड। ये भी एक ग्रुप के प्रमुख थे जिसमें शुरुआत में तीन सदस्य ही थे बाद में ये अपने इन तीनों सदस्यों को लेकर जीतू और अंकित के साथ मशरूफ हो गये थे। इनके बारे में इतने संस्मरण हैं कि जगह कम पड़ जाएगी..ये तीन साल बाद स्मारक परिसर से चले गये थे..लेकिन लोकल जयपुर के होने के चलते इनका अप-डाउन लगा रहता था..और अनुज का स्मारक में आना, अनायास ही उत्सवी माहौल बना देता था।
प्रमेश। अरे भाई ये बीन की आवाज क्यों सुनाई दे रही है..ओहह्ह् ओके प्रमेश का नाम जो आ गया। भाई ये भी बड़े ही अंतर्मुखी प्रकृति के मानुष थे..तकनीकी पदार्थों में इनकी विशेष दिलचस्पी रहा करती थी...और अपनी रुचि विमुख क्षेत्र में आ जाने के कारण ये निश्चित तौर पे अपने परिवार से नाराज होंगे..क्योंकि बंदे को इंजीनियर बनना था और वो कमबख्त शास्त्री बन गया। हेल्पिंग नेचर के व्यक्ति थे..CBI द्वारा कई काण्डों में इन्हें शरीक पाया गया और कुछ धाराएं अभी तक इनके ऊपर चल रही हैं..उच्च न्यायालय द्वारा राघवजी के खिलाफ सजा सुनाते वक्त संभवतः इनके केस की नजीर प्रस्तुत भी की जाएगी...पर इनकी मिलनसारिता काबिले-तारीफ है और ये अपने पे किये गये किसी भी मजाक को सीरियसली नहीं लेते..दरअसल ये किसी भी चीज को सीरियसली नहीं लेते और यही इनका सबसे बड़ा गुण है और यही सबसे बड़ा अवगुण...आगे बात करेंगे।
जयकुमार। तमिलनाड़ू की इकलौती शख्सियत थी ये जो पहले हमारी क्लास का हिस्सा थी। बाद में इनके मामाश्री द्वारा या पता नहीं उनसे इनका क्या रिश्ता था पर श्रीपाल जी द्वारा इन्हें हमसे एक क्लास नीचे डिमोट कर दिया गया था। शुरुआत में इन्हें हिन्दी न आने के कारण ये मजाक का अच्छा खासा विषय बन गये थे..पर बाद में बंदे ने गज़ब का इंप्रूवमेंट हासिल किया था..बाद में इन्होंन तमिल छात्रों की अच्छी खासी परंपरा शुरु कर दी..बाबू और रमेश जैसे दो नगीने भी तमिल से आये थे जो हमारे जूनियर थे और फाइनल ईयर में मेरे रूम पार्टनर भी इसलिये उनकी यहाँ विशेष याद आई।
आशीष- मौ के निवासी। अपनी विशेष प्रकृति के लिये कक्का के संबोधन से संबोधित। इन दिनों इनकी जिंदगी कंपलीटली सेटल हो गई है..कमाई भी हो रही है और लुगाई भी आ चुकी है। आशीष उस हर शख्स के लिये प्रेरणास्त्रोत साबित होने वाला व्यक्ति है जो वर्तमान की असक्षमताओं के बावजूद भविष्य में अपना मुकाम हासिल करता है। आशीष ने यही किया है..और कोई कभी किसी से वर्तमान के हालात को देख नकारा नहीं कह सकता। वैसे ये बड़े मजेदार प्राणी थे और इनकी भाषा सहज ही हास्य पैदा करने वाली थी...
बहरहाल, हमें फिर रुकना है...बस सफर के साथी पूरे होने में कुछ स्टेशन का फासला ही बाकी है
और जल्द ही वे भी आने वाले हैं...जो लोग सवार हो चुके हैं वो लोग उन्हें इत्तला कर दें..ये लफ्जों की ट्रेन उनकी शख्सियत के स्टेशन पे जल्द ही हार्न मारेगी.....
जारी...............
No comments:
Post a Comment