पार्ट वन पढ़के ही इसमें प्रवेश करें....
(ये हमसब का व्यक्तिगत विवरण है..यूं तो इसकी टारगेट ऑडियंस सिर्फ हमारी क्लॉस के ही चुनिंदा शख्स हैं क्योंकि उन्हें ही मैं विशदता से जानता हूं और उनसे जुड़ी यादों को ही शेयर कर सकता हूँ फिर भी, कुछ और लोग भी इस संस्मरण से खुद को जुड़ा पा सकते हैं ये आपके area of interest पे निर्भर करता है।)
चलिए सफर को बढ़ाते हैं..कुछ पन्ने और पलटते हैं। जिंदगी की हसीन
यादों के साये में घूमते हैं तब ये ज़रूरी नहीं कि हम जहाँ घूम रहे हैं वो
गुजरा हुआ वक्त
वाकई में हसीन हो..पर यकीन मानिये यादें हमेशा हसीन ही हुआ करती हैं। इसलिये अतीत चाहे कितना भी कड़वा क्यूं न हो पर उसकी यादें
हमेशा हसीन हुआ करती हैं। परिचय चल रहा था..इसी क्रम में अगला जो शख्स है वो
बेहद खास है, उसके परिचय में
कई घटनाओं का समावेश सहज हो जाता है...शुरुआत में ये जितने दबंग के चुलबुल पांडे टाइप थे, आगे चलकर इन्होंने हम साथ-साथ हैं के प्रेम वाला रूप अख्तियार कर लिया था...
निपुण। 'छाती पे लात धरके जवान बाहर काड़ ले है'...इनके इस संवाद से ही महाशय की दबंगई की पराकाष्ठा जाहिर हो जाती है..सच बताऊं तो मुझे भी इन महाशय से शुरु में डर लगा
करता था, इसलिये अपने
अस्तित्व की प्रस्तुति और सुरक्षा के लिहाज से मैं इनके गुट में शामिल हो गया था..हमारे साथ तीसरे जो महानुभव जुड़े
थे..वो थे निखिल। हम तीनों ही कभी मोती तो कभी नेहरु पार्क में बैठ स्मारक की
बखैय्या उधड़ने में मशगूल रहा करते थे..नेहरू पार्क में निखिल का पेंट फटना, एक अविस्मरणीय संस्मरण है। एक नीरज पथरिया नाम का शख्स भी हुआ
करता था हमारे बैच में..पर मैं उसका ज़िक्र करना भूल गया, अभी उसकी याद इसलिये आई कि निखिल का पैंट संभवतः इसी शख्स से बुलवाया गया था और ये
दैवपुरुष राहुल बदरवास नाम के एक सीनियर का पैंट निखिल के लिये ले आये थे
जोकि उस वक्त निखिल के रूम पार्टनर थे। सभी का तो पता नहीं, पर हम तीनों को ये संस्मरण याद करके बहुत मजा आ रहा है इसका मुझे यकीन है। नेहरु पार्क
के बाहर 2 रुपये मिलने वाली
भरपूर आइस्क्रीम हमें विस्मय में डाल देती थी...निपुण-निखिल से जुड़े बहुत वाक्ये हैं...लक्ष्मी टॉकीज
में जॉनी दुश्मन
मुवी, निपुण की क्रिकेट
टीम और भी बहुत कुछ..पर उन सबकी बात बाद में। अभी परिचय को आगे बढ़ाते हैं...
राहुल। हमारी क्लास के पहले रॉकस्टॉर यही थे। एक प्रभावी वक्ता और डायनामिक व्यक्तित्व।
इनकी एक बात मुझे हमेशा याद है जो इन्होंने मुझे संभवतः वरिष्ठ उपाध्याय
में एक गोष्ठी में बोलने जाने से पहले कही थी..कि अपने विषय को इस कदय घोंट
के पीलो कि नींद मे
उठके भी तुम बोल सको...विषय याद रहेगा तो आत्मविश्वास अपने आप बढ़ जायेगा। मुझे पता है ये बात अब राहुल को भी याद नहीं
होगी...पर यकीन मानो भले बहुत ज्यादा नहीं पर इस बात का मेरी वक्तव्य शैली पे असर ज़रूर पढ़ा था..और में पिछले पन्ने से निकलकर, हुनर की मुख्यधारा में आ पाया था...और भी यादें हैं..बात करेंगे उनपे भी।
अनुप्रेक्षा। दादा की पोती थी..लाइमलाइट में आने के लिये अलग से जतन करने की कोई
आवश्यकता नहीं...पर फिर भी बेहद फ्रेंडली, अंडरस्टुड और डाउन टू अर्थ। हम लोगों का बर्ताव कभी इनके साथ औपचारिक नहीं रहा..सेकेंड इयर में दी गई इनके बर्थडे
की पार्टी और फर्स्ट ईयर में रोहन के साथ इनके घर कंबाइन स्टडी के लिये
जाना..लोगों को गॉसिप का मौका भी देती थी और अनावश्यक लोगों की क्युरोसिटी भी
बढ़ाती थी...हाल
ही में मैडम ने ग्रहस्थाश्रम में प्रवेश किया है और खुद में एक मॉसिव चेंज भी लाया है। बातें बहुत है पर चर्चा समय पाके।
धीरज। मंदिर में एक विशेष मुद्रा में खड़े होकर दर्शन करना..और
स्वयं को किसी दिव्य अवतार मानने के मुगालते से ये सर से पांव तक पीड़ित
थे..अक्सर लोग इनसे दूर से बात किया करते थे तथा इनके हंसने की अदा पे तो
लोग मर ही जाते थे..वाकई में मर ही जाते थे। लेकिन फिर भी जबेरा चौकड़ी में
ये सबसे समझदार शख्स की कैटेगरी में शुमार थे..और इस चौकड़ी को अच्छे-बुरे का
पाठ भी यही पढ़ाया
करते थे।
अमित। ऊपर वर्णित शख्स से इनका विशेष
दोस्ताना था जिसे लोग फिजूल में ही जॉन-अभिषेक वाला दोस्ताना मानते थे।
सुमतप्रकाशजी की प्रतिछाया बनके आये थे पर उनकी प्रतिछाया बनके गये नहीं
क्योंकि तब तक ये अपना ही व्यक्तित्व गढ चुके थे..इनका पानी का छन्ना और
गघरिया इनका ट्रेडमार्क थी..मेरे जयपुर रुकने में इनकी अहम् भूमिका थी।
अगर आपकी इनसे लड़ाई हो जाये तो आपको डरने की ज़रूरत नहीं है ये खुद को ही
क्षत-विक्षत कर लेते हैं..इनका सिर खुद के सताये क्रोध के द्वारा ही 10 सेमी से 15 सेमी का हो चुका है। 2003 का क्रिकेट वर्ल्डकप हमने इनके द्वारा क्रय की गई टीवी पे इनके रूम में ही देखा था..इनके चुटकुले, सेंस ऑफ ह्युमर और 'केन लगे-केन लगे' कहके किसी बात को शुरु करना इनके व्यक्तित्व को विशेषता प्रदान करता है। आगे बात
करेंगे...
अर्पित। 'सेकेंडियर वालों को पेपर चुचा गओ' 'मरे चाहे लड़े-मारे चाहे बुश हम तो दोईयन में खुश' इस तरह के संवाद अदा करता हुआ कोई शख्स यदि आ रहा है तो समझ लीजिये वो अर्पित
है..काव्य प्रतिभा
के धनी..तथा पारिस्थिकी हास्य, जिसे 'विट' कहा जाता है उसमें ये महारती थे। हमारी कक्षा के सभी विद्यार्थियों को एक कविता में
समेटने वाली पहली कविता इन्होंने ही लिखी थी। बल्ले के विशेष संबोधन से
जाने जाते थे हालांकि ये अपने नाम के आगे 'मानव' लिखा करते थे..और इसी मानव से हास्य-हास्य में ये आदिमानव और फिर बल्ले हो गये थे..ये बात
सिर्फ मुझे और जीतू को याद आ सकती है..जो इनके नामकरण में भागीदार बने थे।
अमोल। दो वर्ष बाद ये हमारे सफर से चले गये थे..पर विशेष प्रतिभा के
धनी थे गायक भी थे और वादक भी। आज भी जहाँ कहीं भी हैं अपने हुनर का जलवा
बिखेर रहे हैं..बेहद
सेंसेटिव पर्सन, और
इमोशनल..जिसकारण हर्ट भी जल्दी हो जाते थे...मुझे आज भी याद है 'कल हो न हो' देखते हुए ये मेरी सीट के बगल में बैठके आंसू बहा रहे थे...
प्रजय। अरे नई रे बाबा। ये इनका खास लहजा था। इनके मूंह का कुछ हिस्सा हमेशा खुला रहता था..जिसमें
से कई जीव-जंतु
अंदर-बाहर करते रहते होंगे...'फिर नई तो' कहके ये किसीकी बात का समर्थन किया करते थे..मुझे याद है जब क्षेत्रवाद से पीड़ित
होके हमने वरिष्ठउपाध्याय
में बुंदेलखंड विकास समिति बनाई थी तब ये अकेले मराठी थे जो हमारी समिति का हिस्सा थे। ये भी बस दो वर्ष हमारे साथ रहे।
प्रशांत। एकदम पढ़ाकू किस्म के, कम बोलने वाले और गंभीर प्रकृति के मानव। प्रायः हर क्लास में या तो प्रथम या द्वतीय स्थान इन्होंने ही
प्राप्त किया था। क्रिकेट का शौक था पर कभी मुख्यधारा में नहीं आ पाये
इसलिये किशोर की क्रिकेट टीम के उपकप्तान भी थे। हमसे इनका वास्ता बहुत कम हुआ
या फिर हो सकता है
हमारे एमपी वाले होने के चलते हम इनकी नज़रों में अछूत रहे होंगे(अब की बात नहीं है)..इसलिये कम संपर्क में रहे..इसलिये
कभी डीप में परिचय नहीं हो पाया...
फिलहाल रुकते हैं...थोड़ा चाय-पानी लेले...सफर बहुत लंबा है..और भीड़ भी होने वाली है...निखिल, अंकित, जीतू, रोहन, अनुज का इंतज़ार अभी भी ज़ारी है....जल्दी आओ यार।।।।
निपुण। 'छाती पे लात धरके जवान बाहर काड़ ले है'...इनके इस संवाद से ही महाशय की दबंगई की पराकाष्ठा जाहिर हो जाती है..सच बताऊं तो मुझे भी इन महाशय से शुरु में डर लगा करता था, इसलिये अपने अस्तित्व की प्रस्तुति और सुरक्षा के लिहाज से मैं इनके गुट में शामिल हो गया था..हमारे साथ तीसरे जो महानुभव जुड़े थे..वो थे निखिल। हम तीनों ही कभी मोती तो कभी नेहरु पार्क में बैठ स्मारक की बखैय्या उधड़ने में मशगूल रहा करते थे..नेहरू पार्क में निखिल का पेंट फटना, एक अविस्मरणीय संस्मरण है। एक नीरज पथरिया नाम का शख्स भी हुआ करता था हमारे बैच में..पर मैं उसका ज़िक्र करना भूल गया, अभी उसकी याद इसलिये आई कि निखिल का पैंट संभवतः इसी शख्स से बुलवाया गया था और ये दैवपुरुष राहुल बदरवास नाम के एक सीनियर का पैंट निखिल के लिये ले आये थे जोकि उस वक्त निखिल के रूम पार्टनर थे। सभी का तो पता नहीं, पर हम तीनों को ये संस्मरण याद करके बहुत मजा आ रहा है इसका मुझे यकीन है। नेहरु पार्क के बाहर 2 रुपये मिलने वाली भरपूर आइस्क्रीम हमें विस्मय में डाल देती थी...निपुण-निखिल से जुड़े बहुत वाक्ये हैं...लक्ष्मी टॉकीज में जॉनी दुश्मन मुवी, निपुण की क्रिकेट टीम और भी बहुत कुछ..पर उन सबकी बात बाद में। अभी परिचय को आगे बढ़ाते हैं...
राहुल। हमारी क्लास के पहले रॉकस्टॉर यही थे। एक प्रभावी वक्ता और डायनामिक व्यक्तित्व। इनकी एक बात मुझे हमेशा याद है जो इन्होंने मुझे संभवतः वरिष्ठ उपाध्याय में एक गोष्ठी में बोलने जाने से पहले कही थी..कि अपने विषय को इस कदय घोंट के पीलो कि नींद मे उठके भी तुम बोल सको...विषय याद रहेगा तो आत्मविश्वास अपने आप बढ़ जायेगा। मुझे पता है ये बात अब राहुल को भी याद नहीं होगी...पर यकीन मानो भले बहुत ज्यादा नहीं पर इस बात का मेरी वक्तव्य शैली पे असर ज़रूर पढ़ा था..और में पिछले पन्ने से निकलकर, हुनर की मुख्यधारा में आ पाया था...और भी यादें हैं..बात करेंगे उनपे भी।
अनुप्रेक्षा। दादा की पोती थी..लाइमलाइट में आने के लिये अलग से जतन करने की कोई आवश्यकता नहीं...पर फिर भी बेहद फ्रेंडली, अंडरस्टुड और डाउन टू अर्थ। हम लोगों का बर्ताव कभी इनके साथ औपचारिक नहीं रहा..सेकेंड इयर में दी गई इनके बर्थडे की पार्टी और फर्स्ट ईयर में रोहन के साथ इनके घर कंबाइन स्टडी के लिये जाना..लोगों को गॉसिप का मौका भी देती थी और अनावश्यक लोगों की क्युरोसिटी भी बढ़ाती थी...हाल ही में मैडम ने ग्रहस्थाश्रम में प्रवेश किया है और खुद में एक मॉसिव चेंज भी लाया है। बातें बहुत है पर चर्चा समय पाके।
धीरज। मंदिर में एक विशेष मुद्रा में खड़े होकर दर्शन करना..और स्वयं को किसी दिव्य अवतार मानने के मुगालते से ये सर से पांव तक पीड़ित थे..अक्सर लोग इनसे दूर से बात किया करते थे तथा इनके हंसने की अदा पे तो लोग मर ही जाते थे..वाकई में मर ही जाते थे। लेकिन फिर भी जबेरा चौकड़ी में ये सबसे समझदार शख्स की कैटेगरी में शुमार थे..और इस चौकड़ी को अच्छे-बुरे का पाठ भी यही पढ़ाया करते थे।
अमित। ऊपर वर्णित शख्स से इनका विशेष दोस्ताना था जिसे लोग फिजूल में ही जॉन-अभिषेक वाला दोस्ताना मानते थे। सुमतप्रकाशजी की प्रतिछाया बनके आये थे पर उनकी प्रतिछाया बनके गये नहीं क्योंकि तब तक ये अपना ही व्यक्तित्व गढ चुके थे..इनका पानी का छन्ना और गघरिया इनका ट्रेडमार्क थी..मेरे जयपुर रुकने में इनकी अहम् भूमिका थी। अगर आपकी इनसे लड़ाई हो जाये तो आपको डरने की ज़रूरत नहीं है ये खुद को ही क्षत-विक्षत कर लेते हैं..इनका सिर खुद के सताये क्रोध के द्वारा ही 10 सेमी से 15 सेमी का हो चुका है। 2003 का क्रिकेट वर्ल्डकप हमने इनके द्वारा क्रय की गई टीवी पे इनके रूम में ही देखा था..इनके चुटकुले, सेंस ऑफ ह्युमर और 'केन लगे-केन लगे' कहके किसी बात को शुरु करना इनके व्यक्तित्व को विशेषता प्रदान करता है। आगे बात करेंगे...
अर्पित। 'सेकेंडियर वालों को पेपर चुचा गओ' 'मरे चाहे लड़े-मारे चाहे बुश हम तो दोईयन में खुश' इस तरह के संवाद अदा करता हुआ कोई शख्स यदि आ रहा है तो समझ लीजिये वो अर्पित है..काव्य प्रतिभा के धनी..तथा पारिस्थिकी हास्य, जिसे 'विट' कहा जाता है उसमें ये महारती थे। हमारी कक्षा के सभी विद्यार्थियों को एक कविता में समेटने वाली पहली कविता इन्होंने ही लिखी थी। बल्ले के विशेष संबोधन से जाने जाते थे हालांकि ये अपने नाम के आगे 'मानव' लिखा करते थे..और इसी मानव से हास्य-हास्य में ये आदिमानव और फिर बल्ले हो गये थे..ये बात सिर्फ मुझे और जीतू को याद आ सकती है..जो इनके नामकरण में भागीदार बने थे।
अमोल। दो वर्ष बाद ये हमारे सफर से चले गये थे..पर विशेष प्रतिभा के धनी थे गायक भी थे और वादक भी। आज भी जहाँ कहीं भी हैं अपने हुनर का जलवा बिखेर रहे हैं..बेहद सेंसेटिव पर्सन, और इमोशनल..जिसकारण हर्ट भी जल्दी हो जाते थे...मुझे आज भी याद है 'कल हो न हो' देखते हुए ये मेरी सीट के बगल में बैठके आंसू बहा रहे थे...
प्रजय। अरे नई रे बाबा। ये इनका खास लहजा था। इनके मूंह का कुछ हिस्सा हमेशा खुला रहता था..जिसमें से कई जीव-जंतु अंदर-बाहर करते रहते होंगे...'फिर नई तो' कहके ये किसीकी बात का समर्थन किया करते थे..मुझे याद है जब क्षेत्रवाद से पीड़ित होके हमने वरिष्ठउपाध्याय में बुंदेलखंड विकास समिति बनाई थी तब ये अकेले मराठी थे जो हमारी समिति का हिस्सा थे। ये भी बस दो वर्ष हमारे साथ रहे।
प्रशांत। एकदम पढ़ाकू किस्म के, कम बोलने वाले और गंभीर प्रकृति के मानव। प्रायः हर क्लास में या तो प्रथम या द्वतीय स्थान इन्होंने ही प्राप्त किया था। क्रिकेट का शौक था पर कभी मुख्यधारा में नहीं आ पाये इसलिये किशोर की क्रिकेट टीम के उपकप्तान भी थे। हमसे इनका वास्ता बहुत कम हुआ या फिर हो सकता है हमारे एमपी वाले होने के चलते हम इनकी नज़रों में अछूत रहे होंगे(अब की बात नहीं है)..इसलिये कम संपर्क में रहे..इसलिये कभी डीप में परिचय नहीं हो पाया...
फिलहाल रुकते हैं...थोड़ा चाय-पानी लेले...सफर बहुत लंबा है..और भीड़ भी होने वाली है...निखिल, अंकित, जीतू, रोहन, अनुज का इंतज़ार अभी भी ज़ारी है....जल्दी आओ यार।।।।
2 comments:
अपने बारे में पढ़ कर बहुत शुख की अनुभूति हुई। बहु ही उम्दा स्मरणीय लेख है
मुझसे किसी भी प्रकार की सहायता अपेक्षित हो तो जरुर बताएं...............धन्यवाद
अपने बारे में पढ़ कर बहुत शुख की अनुभूति हुई। बहु ही उम्दा स्मरणीय लेख है
मुझसे किसी भी प्रकार की सहायता अपेक्षित हो तो जरुर बताएं...............धन्यवाद
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