(ये हमसब का व्यक्तिगत विवरण है..यूं तो इसकी टारगेट ऑडियंस सिर्फ हमारी क्लॉस के ही चुनिंदा शख्स हैं क्योंकि उन्हें ही मैं विशदता से जानता हूं और उनसे जुड़ी यादों को ही शेयर कर सकता हूँ फिर भी, कुछ और लोग भी इस संस्मरण से खुद को जुड़ा पा सकते हैं ये आपके area of interest पे निर्भर करता है।)
2002। यही वो वर्ष था जब अलग-अलग नगरों-गाँवों और भांत-भांत के
प्रदेशों से कुछ मासूम, नटखट, स्मार्ट तो कुछ उबड़-खाबड़ सी शक्लों वाले नादान परिंदों के जयपुर के इस घरोंदे में
इकट्ठे होने की दास्तां शुरू हो रही थी। हमें बताया गया कि ये इस बगिया का 26 वां गुलिश्ता है, जी हां बैच नं 26। एक गौरवशाली परंपरा में अब हमारे नाम भी चस्पा होने जा रहे थे। यूं तो कुछ खास नहीं था हममें..पर कुछ भी बिल्कुल
खास न हो ऐसा भी नहीं था...वक्त की रेत पे अपने निशान छोड़ने की कुव्वत थी
हममें..भले ही कुछ
देर को ही सही। तो इस तरह हमारा कारवाँ जुड़ रहा था..हम बढ़ रहे थे और साथ ही पल रहा था उम्मीदों का भ्रूण हम सबके ज़हन में, जो कुछ कर दिखाना चाहता था..छा जाना चाहता था...लेकिन फिलहाल हम सिर्फ जीना
चाहते थे इन लम्हों को..क्योंकि जिंदगी के सफर में हर चाहा हुआ पड़ाव तो
आके मिलेगा ही पर ये गुजरे हुए लम्हें फिर लौट के आने वाले नहीं है..बस
इसलिये हम इन्हें जी लेना चाहते थे।
39 परिंदे थे जो इस
एक डाल पे झूल रहे थे पर इनमें से तीन परिंदे कुछ वक्त बाद ही उड़ गये..अपने-अपने वतन
को। क्योंकि उन्हें रास नहीं आ रहा था ये बदला हुआ परिवेश, यहाँ की आबो-हवा में व्याप्त एक सौंधी सी रुमानियत, जो शुरुआत में थोड़ी कसायली-सी लगती है। वे तीन चले गये थे पर अब भी वे हमारी यादों में बसर करते हैं और होती हैं
उनसे हमारी मुलाकातें
अक्सर ख्वाबों में या इस फेसबुक के संजाल पे। जी हाँ, विवेक रन्नौद, अभिषेक इन्दार, प्रवीण इन्दार। यही नाम थे इनके..थे मतलब अभी हैं पर इस सफर में वे आगे नहीं आये।
4 अगस्त 2002 को मैं, संभवतः वो आखिरी शख्स था जिसने इस पहले से भरी हुई डाल पे अपना डेरा
जमाया था। बड़ी मशक्कत के बाद मैं ठहरा रह सका, हमारे इस कारवाँ का हमसफर बना रह पाया..जिसमें कुछ लोगों का योगदान में कभी भी नहीं भूल
सकता..उनका ज़िक्र में आगे करूँगा। पर अभी ज़रा इन परिंदों का परिचय
पाले..हालांकि इनको शब्दों में समेटना मुमकिन नहीं है पर फिर भी अपनी उपयुक्त
क्षमता और शब्दों की मर्यादा में रहते हुए इस प्रयास को करना ज़रूर चाहुंगा। जब
इनके बारे में कुछ
कहूँगा तो कथन में एक क्रम तो आएगा पर मेरी नज़र में ऐसा कोई क्रम नहीं है...और वे सब मेरे प्रमाण का विषय हैं, नय का नहीं। इसलिये एक अनएक्सपेक्टेड शख्स से ही शुरुआत करता हूँ, जो बेचारा इस फेसबुक के सायबर संजाल से कोसों दूर बैठा, जबेरा में सांसे ले रहा है...
सचिन। इसकी आँख के किनोर पे किसी करेंट के मारे चस्पा हुआ एक निशान
हमेशा एक अहम् चर्चा का विषय रहा..और शुरुआत में कुछ मासूम से पंछी इन्हें
देख डर भी जाया
करते थे। इनका एक वाक्य बड़ा पापुलर हुआ करता था "हैरान ने करो, यार"। दादा के संबोधन से संबोधित ये शख्स, अपने उपदेशप्रियता के लिये जाने जाते थे..कहने को बहुत कुछ है इनके बारे में पर आगे बात करेंगे..
सोनल। 'ने कर यार, बडे भाई'। बड़े भाई के तकियाकलाम से अपनी खास छाप जमाने वाले सोनल..अपनी गज़ब की संवादअदायगी के लिये हमारे दिलों में आज
भी हैं...देखन में छोटे लगे पर घाव करें गंभीर...बटलर, के खास संबोधन से इनका इस्तकवाल किया जाता था।
सन्मति। 'अरे नी यार' किसी भी बात को सुन महाशय की ये प्रतिक्रिया, बात की अहमियत को फिजूल में ही बढ़ा देती थी। शाही अंदाज, चाय के शौकीन और साथ ही दीर्घशंका भी इनका अहम् शगल हुआ करता
था। कुछ दो-चार
चले-चपाटों को अपने साथ ले जाके चाय पिलाके ये खुद की शाहीगिरि दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे।
विवेक। रविजी और पिड़ावा के दो अनमोल रतन, एक की बात तो हम ऊपर कर चुके हैं दूसरे अनमोल रतन यही हैं। हम्म्म्म्म हेरलेएएएए....कहके ये महाशय विंग में घूमा करते
थे...और भांत-भांत
के चिड़िया-कौव्वों की आवाजें निकालकर ये ज़ाया करते रहते थे कि एक अच्छा-खासा चिड़ियाघर इनमें बसता है..'काईं वैंडो हो रियो है' कहके अपने ख़ालिश पिड़ावा वाले होने का परिचय दिया करते थे..इनकी
दास्तां बहुत है, आगे बात
करेंगे।
किशोर। झूम बराबर झूम शराबी..एक लाजबाव
शख्सियत। 'ये क्या कोई
उठाने की पद्धति है" ये वाला संवाद इन्होंने शायद वरिष्ठउपाध्याय में बोला था पर इसे बोलने की अदा कुछ ऐसी थी
कि ये उनका सिग्नेचर
शॉट बन गया था। इनकी बनाई गई क्रिकेट टीम सबसे ज्यादा पॉपुलर क्रिकेट टीम थी और प्रवचन के बीच भी अगले दिन के क्रिकेट के
लिये किशोर भाई की रणनीतियां बना करती थी।
सतीश। एक गुमनाम सी रहने वाली शख्सियत। बहुत ज्यादा ग्लैमर से दूर ये अपने काम से काम रखा
करते थे..मैं खुद इन्हें समझने के जतन में लगा रहा पर समझ नहीं
पाया...क्योंकि ये अपने व्यक्तित्व के पट इस क़दर बंद रखा करते थे कि कोई चुपके से भी
उसमें नहीं घुस पाता
था।
निखिल...निपुण..राहुल...रोहन... जीतू...अंकित..अरहंत..अभय...अनु ज और भी बहुत से पन्ने हैं जिन्हें पलटना है पर अभी के लिये
इतना ही...थोड़ा इंतजार कीजिये, वैसे आप सभी इनके बारे में जानते हैं पर फिर से रीकॉल करने का मजा ही कुछ और है......
जारी...............
39 परिंदे थे जो इस एक डाल पे झूल रहे थे पर इनमें से तीन परिंदे कुछ वक्त बाद ही उड़ गये..अपने-अपने वतन को। क्योंकि उन्हें रास नहीं आ रहा था ये बदला हुआ परिवेश, यहाँ की आबो-हवा में व्याप्त एक सौंधी सी रुमानियत, जो शुरुआत में थोड़ी कसायली-सी लगती है। वे तीन चले गये थे पर अब भी वे हमारी यादों में बसर करते हैं और होती हैं उनसे हमारी मुलाकातें अक्सर ख्वाबों में या इस फेसबुक के संजाल पे। जी हाँ, विवेक रन्नौद, अभिषेक इन्दार, प्रवीण इन्दार। यही नाम थे इनके..थे मतलब अभी हैं पर इस सफर में वे आगे नहीं आये।
4 अगस्त 2002 को मैं, संभवतः वो आखिरी शख्स था जिसने इस पहले से भरी हुई डाल पे अपना डेरा जमाया था। बड़ी मशक्कत के बाद मैं ठहरा रह सका, हमारे इस कारवाँ का हमसफर बना रह पाया..जिसमें कुछ लोगों का योगदान में कभी भी नहीं भूल सकता..उनका ज़िक्र में आगे करूँगा। पर अभी ज़रा इन परिंदों का परिचय पाले..हालांकि इनको शब्दों में समेटना मुमकिन नहीं है पर फिर भी अपनी उपयुक्त क्षमता और शब्दों की मर्यादा में रहते हुए इस प्रयास को करना ज़रूर चाहुंगा। जब इनके बारे में कुछ कहूँगा तो कथन में एक क्रम तो आएगा पर मेरी नज़र में ऐसा कोई क्रम नहीं है...और वे सब मेरे प्रमाण का विषय हैं, नय का नहीं। इसलिये एक अनएक्सपेक्टेड शख्स से ही शुरुआत करता हूँ, जो बेचारा इस फेसबुक के सायबर संजाल से कोसों दूर बैठा, जबेरा में सांसे ले रहा है...
सचिन। इसकी आँख के किनोर पे किसी करेंट के मारे चस्पा हुआ एक निशान हमेशा एक अहम् चर्चा का विषय रहा..और शुरुआत में कुछ मासूम से पंछी इन्हें देख डर भी जाया करते थे। इनका एक वाक्य बड़ा पापुलर हुआ करता था "हैरान ने करो, यार"। दादा के संबोधन से संबोधित ये शख्स, अपने उपदेशप्रियता के लिये जाने जाते थे..कहने को बहुत कुछ है इनके बारे में पर आगे बात करेंगे..
सोनल। 'ने कर यार, बडे भाई'। बड़े भाई के तकियाकलाम से अपनी खास छाप जमाने वाले सोनल..अपनी गज़ब की संवादअदायगी के लिये हमारे दिलों में आज भी हैं...देखन में छोटे लगे पर घाव करें गंभीर...बटलर, के खास संबोधन से इनका इस्तकवाल किया जाता था।
सन्मति। 'अरे नी यार' किसी भी बात को सुन महाशय की ये प्रतिक्रिया, बात की अहमियत को फिजूल में ही बढ़ा देती थी। शाही अंदाज, चाय के शौकीन और साथ ही दीर्घशंका भी इनका अहम् शगल हुआ करता था। कुछ दो-चार चले-चपाटों को अपने साथ ले जाके चाय पिलाके ये खुद की शाहीगिरि दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे।
विवेक। रविजी और पिड़ावा के दो अनमोल रतन, एक की बात तो हम ऊपर कर चुके हैं दूसरे अनमोल रतन यही हैं। हम्म्म्म्म हेरलेएएएए....कहके ये महाशय विंग में घूमा करते थे...और भांत-भांत के चिड़िया-कौव्वों की आवाजें निकालकर ये ज़ाया करते रहते थे कि एक अच्छा-खासा चिड़ियाघर इनमें बसता है..'काईं वैंडो हो रियो है' कहके अपने ख़ालिश पिड़ावा वाले होने का परिचय दिया करते थे..इनकी दास्तां बहुत है, आगे बात करेंगे।
किशोर। झूम बराबर झूम शराबी..एक लाजबाव शख्सियत। 'ये क्या कोई उठाने की पद्धति है" ये वाला संवाद इन्होंने शायद वरिष्ठउपाध्याय में बोला था पर इसे बोलने की अदा कुछ ऐसी थी कि ये उनका सिग्नेचर शॉट बन गया था। इनकी बनाई गई क्रिकेट टीम सबसे ज्यादा पॉपुलर क्रिकेट टीम थी और प्रवचन के बीच भी अगले दिन के क्रिकेट के लिये किशोर भाई की रणनीतियां बना करती थी।
सतीश। एक गुमनाम सी रहने वाली शख्सियत। बहुत ज्यादा ग्लैमर से दूर ये अपने काम से काम रखा करते थे..मैं खुद इन्हें समझने के जतन में लगा रहा पर समझ नहीं पाया...क्योंकि ये अपने व्यक्तित्व के पट इस क़दर बंद रखा करते थे कि कोई चुपके से भी उसमें नहीं घुस पाता था।
निखिल...निपुण..राहुल...रोहन...
जारी...............
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