हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Saturday, August 17, 2013

भ्रम का आभामण्डल, मिथ्या अहंकार और अंधी आत्ममुग्धता

पिछले दिनों नॉरसिज्म पे एक लेख पड़ा..नॉरसिस्ट शब्द जो कि एक ग्रीक कथा पे आधारित है जिसके तहत एक नॉरसिस्ट नाम का इंसान अपनी छवि को देखने में इस कदर मोहित होता है कि अपनी छवि को निहारते-निहारते वो एक झील में गिरकर मौत का शिकार हो जाता है..तब ही से आत्ममुग्ध व्यक्ति या अपनी छवि पे मोहित इंसान नॉरसिस्ट के रूप में जाना जाने लगा। 

दरअसल, हम सब किसी न किसी तरह इस नॉरसिज्म के भयावह रोग से ग्रस्त हैं..और अपना सारा जीवन एक ऐसे आभामण्डल के निर्माण में गुजार देते हैं जिसकी रोशनी के तले हम हमेशा चमकदार नज़र आते रहे। अपने इस आभामण्डल की रचना में हम वे सारे प्रयास करते हैं जो हमारे वश में होते हैं। हमारी शिक्षा-दीक्षा, हमारी पद-प्रतिष्ठा, हमारे रिश्ते-नाते, रहन-सहन, खान-पान, उत्सव आदि तमाम चीजें सिर्फ और सिर्फ अपने आभामण्डल की रोशनी को अति चमक प्रदान करने के जतन मात्र होते हैं...और अगर इन तमाम प्रयत्नों के बाबजूद यदि ऐसे आभामण्डल की रचना में हम नाकाम होते हैं तो झूठ-फरेब, छल-कपट, लाग-लपेट या अपने बड़बोलेपन से एक भ्रम के आभामण्डल को अधिक कीर्ति प्रदान करने के जतन करते हैं। यदि इतना करने पे भी हम हमारे वाञ्छित लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाते..तो हमें अपने आगोश में लेता है- अवसाद...और जीवन उद्देश्यरहित और बोझिल जान पड़ता है। इस तरह तनाव से शुरू हुई प्रक्रिया अंत में तनाव पे आके ही विराम पाती है। जीवन में हर किसी को अपने आभामण्डल के टूटने का दंश सहना पड़ता है..और जितना बड़ा इस आभामण्ल का रूप होगा, उतना ही गहरा इसके टूटने से पैदा होने वाला अवसाद होगा।

जैनदर्शन की वीतरागता, गीता की स्थितप्रज्ञ की संकल्पना या ओशो की संबुद्धि..यूँ तो एक-दूसरे से काफी विरुद्धात्मकता को लिये हुए हैं..किंतु तीनों ही एक बात की सर्वसामान्य ढंग से पुष्टि करते हैं...वो है अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों में समता भाव का होना। लेकिन यही साम्यभाव व्यक्ति अपने जीवनकाल में हासिल नहीं कर पाता। तनिक सी उत्तम परिस्थितियां उसे अहंकार के आगोश में इतना ऊपर उठा देती हैं कि वो अपने यथार्थ से कोसों दूर चला जाता है..और तनिक सी विषम परिस्थितियाँ उसे इस कदर खेद-खिन्नता से भर देती हैं कि वो अपने प्राणांत करने से भी नहीं हिचकता। प्रसिद्ध विद्वान डॉ हुकुमचंद भारिल्ल के शब्दों में बात कहूँ तो- निंदा की गर्म हवाओं से इसे क्रोध की लू लग जाती है और प्रशंसा की ठंडी हवाओं से इसे अभिमान का जुकाम हो जाता है। इन दोनों ही परिस्थितियों में स्वस्थ का तो ह्रास होता ही होता है।

निश्चित तौर पे स्वयं से हमें प्रेम करना चाहिये..किंतु उस प्रेम का ग्राफ इस कदर अंधता ग्रसित न हो जाए कि हमें हमारे आसपास किसी चीज़ की हस्ती नज़र आना ही बंद हो जाये। आत्मविश्वास और अहंकार में एक बाल बराबर का ही फर्क होता है..अपनी आत्मिक हस्ती की स्वीकृति या अपने वास्तविक आत्मबल की पहचान से आत्मविश्वास पैदा होता है..इसके अलावा अन्य बाहरी किसी भी आडंबर की प्राप्ति सिर्फ अहंकार को जन्म देती है। चाहे वो रुपया-पैसा हों, चाहे रूप-लावण्य हो या फिर पद-प्रतिष्ठा..इन तमाम चीज़ों की उपलब्धि में हमें ये बात नहीं भूलना चाहिए कि इनसे निर्मित आभामण्डल चाहे कितना भी चमकदार क्यों न हो..पर वो निश्चित ही नष्ट होगा और उसमें अवश्यंभावी परिवर्तन होगा। किंतु यही परिवर्तनीय, जड़ और तुच्छ पदार्थ एक भ्रम का आभामण्डल, मिथ्या अहंकार और अंधी आत्ममुग्धता को जन्म देते हैं।

मान-प्रतिष्ठा को इस कदर तवज्जों दे दी गई है कि उसके समक्ष तमाम संस्कार, मर्यादाएं, चारित्रिक उज्जवलता किसी गर्त में फेंक दिये गये हैं..और आज मान-प्रतिष्ठा का पैमाना भी सिर्फ पैसे पर केन्द्रित हो गया है। इस चकाचौंध संयुत वातावरण में मानवीयता की बात ही दुर्लभ है तो फिर दैवीयता की बात कैसे की जा सकती है? जब से हमने प्रतिष्ठा को बाजारू बना दिया है बस तभी से इस अमूल्य वस्तु का मोल बड़ा तुच्छ हो गया है..क्योंकि तुच्छ वस्तुओं के ही भाव बड़ते हैं..महान् चीज़ें तो प्रायः अमूल्य ही होती हैं। आज इंसान बड़ा आदमी कहलाना पसंद करता है..बजाय कि भला आदमी कहलाने के। इस संपत्ति कृत अंधी आत्ममुग्धता के चलते इंसान ये बात भूल गया है कि "हमें सिर्फ अपने चरित्र की रक्षा करनी चाहिये..उस चरित्र के प्रताप से पैदा प्रतिष्ठा हमारी रक्षा अपनेआप कर लेती है।" 

कितना कुछ कहा जा रहा है, कितने आयोजन-नियोजन किये जा रहे हैं, रिश्तों के हजारों लिबास हम ओड़ते जा रहे हैं, बुद्धि और मन के अंतर्द्वंद से निरंतर काफी कुछ निकलकर बाहर आ रहा है..लेकिन ये सारी चीज़ें मिलके सिर्फ उस भ्रम के आभामण्डल को आकार देने में ही व्यस्त हैं। लोग स्वयं अपने दुर्भावों और दुराचारों से अगर परेशान भी हैं तब भी वे अपने उस आभामण्डल को चमकदार साबित करने के जतन में ही लगे हुए हैं..उनकी अंधी आत्ममुग्धता उन्हें उनका ही यथार्थ नहीं देखने देती। ऐसा लगता है इस चमक-दमक के युग में सिर्फ लोगों के ज़िस्म की बाहरी दीवारों पे डिस्टेंपर पोत दिया गया है..रूह की अंदरूनी दीवारों की परतें या तो उधड़ चुकी हैं या फिर उनपे दीमक लग गई है। हाथी के सिर्फ 'दिखाने वाले दाँतों' की ही सत्ता स्वीकृत है उसके 'चबाने वाले दांतों' की हस्ती से ही इंकार कर दिया गया है...और सभी उन 'दिखाने वाले दाँतों' को ही चमकदार बनाने के जतन में लगे हैं। इसलिये सब दिखाबटी और नकली हो गया है।

बहरहाल, ये कोरी दार्शनिक बातें नहीं हैं...ये एक यक्ष प्रश्न है हमारा आत्ममूल्यांकन करने के लिये। मैनें ये सब बातें कही हैं इसका मतलब ये नहीं कि मैं इस भ्रमित, मिथ्या यथार्थ से ऊपर उठ गया हूँ। मेरे जीवन के कई पहलू भी शायद ऐसे ही आभामण्ल और अहंकार से युक्त हैं और इस वजह से मुझमें भी ऐसी ही आत्ममुग्धता है। किंतु अपने इस भ्रमित आभामण्डल से परे उठके अपनी वास्तविक पहचान को पाने की दिली तमन्ना है...भले किसी के लिये ये महज़ कोरी फिलोसफिकल बातें हों पर मेरे लिये ये बातें बहुत मायने रखती हैं...इसलिये अपनी तमाम क्रियाओं के बीच ऐसी खोज भी ज़ारी है। आपकी इस विषय में अपनी पृथक विचारप्रणाली हो सकती है और उससे मुझे कुछ ऐतराज भी नहीं है........

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