इस श्रंख्ला का भाग एक , भाग दो , भाग तीन, भाग चार, भाग पांच, भाग छह और भाग सात पढ़कर ही इसमें प्रवेश करें-
(ये हमसब का व्यक्तिगत विवरण है..यूं तो इसकी टारगेट ऑडियंस सिर्फ हमारी क्लॉस के ही चुनिंदा शख्स हैं क्योंकि उन्हें ही मैं विशदता से जानता हूं और उनसे जुड़ी यादों को ही शेयर कर सकता हूँ फिर भी, कुछ और लोग भी इस संस्मरण से खुद को जुड़ा पा सकते हैं ये आपके area of interest पे निर्भर करता है।)
निपुण को दिमाग ठंडो हो गओ हो तो गाड़ी आगे बढ़ाये भैया...इंडियन बैंक में अच्छो खासो ऑफिसर बन गओ मनो अबे तक लच्छन नहीं सुधरे जा इंसान के। खैर, क्रिकेट टीम की संरचना हो गई..50-50 रुपैया इकट्ठे करके पूरी किट भी ले आये थे। श्रीमान् जीतेन्द्र जी मुंबई निर्विरोध टीम के कप्तान चुने गए...क्योंकि बाकी छोटे-छोटे प्राणियों की लीड करने की क्षमता पे संदेह था उस समय। जहाँ तक मुझे याद आ रहा है उस समय की फाइनल ईयर के विद्यार्थी सुदीपजी शास्त्री ने टीम के निर्माण में चयनकर्ता की भूमिका निभाई थी..उनके अघोषित चयनकर्ता बनने के पीछे जीतू के पर्सनल रिलेशन का योगदान था..वैसे ये बनी हुई टीम, आगामी दो वर्षों तक जस की तस रही..और सिर्फ सन्मति, सचिन और प्रजय के बीच में ही कांप्टीशन रहा था ऐसा याद आता है जिसमें प्रजय ने बाजी मार ली थी। बाकी पीछे छूट गये दो शख्स, निपुण द्वारा निर्मित की गई दूसरी टीम के हिस्से बने थे...निपुण की इस टीम की सांसे सिर्फ कनिष्ठोपाध्याय तक ही चलती रही थी फिर इसने दम तोड़ दिया था..और किशोर की शास्त्री प्रथम वर्ष में निर्मित टीम मोस्ट सस्टेनेबल टीम कही जा सकती है क्योंकि ये तीन सालों तक स्मारक कप में पार्टिसिपेट करती रही थी।
ऐसा भी सुनने में आता है कि स्मारक की सबसे पहली क्रिकेट टीम सन्मति द्वारा बनाई गई थी...जो कि स्मारक की धरती पे कदम रखने के एक महीने के अंदर में ही निर्मित हुई थी..और सन्मति की कप्तानी में इस टीम ने तत्कालीन वरिष्ठोपाध्याय से लोहा भी लिया था..और इन्हें तब मूँह की खानी पड़ी थी। सन्मति की कप्तानी में रोहन जैसे मैराथन को भी खेलना पड़ा था...इस बात से सन्मति के शुरुआती प्रभाव का अंदाजा लगाया जा सकता है। मगर बाद में सन्मतिजी गायकी,चाय, चूड़ा, शक्कर, जीरामन, पवित्र भोजनालय और शौचालय तक केन्द्रित होके रह गये। अरे सन्मति भाई बुरा मत मानना यार..आपके शाही अंदाज में कभी कोई कमी नहीं आ सकती। चाहे आप टीम में रहे या नहीं..और वैसे भी आपके लिये तो ये बच्चो वाली चीज़ है न। क्रिकेट का विशेष जिक्र इसलिये ज़रूरी है कि ये एक ऐसी चीज़ रही है जिसने हर क्लास में गुटबाजी और दंगे करवाये हैं। ये नामुराद सी चीज जिंदगी में ख़ामख्वाह दखल देने वाली साबित होती है, स्मारक की सरजमीं पे। इस क्रिकेट ने अमितजी जोकि तत्कालीन भोपाल निवासी थे कि नाक में भी काफी दम किया है...और कनिष्ठोपाध्याय में स्मारक कप में साहब अपनी नाक तुड़वा भी बैठे थे, फील्डिंग में अपने जौहर दिखाते वक्त...उनकी ये नाक आज तक टेड़ी बनी हुई है। स्मारक कप ने हर साल इस शख्स के अंग-प्रत्यंगों को डैमेज करने के लिये चुना। समझ नहीं आता कि वैसे ही ये आदमी क्या खुद को कम चोटिल करता है जो इसकी भी कमी रह जाती है।
धड़ाधड़ कई मैचों में अपने जौहर दिखाते हुए हमने पहले साल में ही हमारा रुतबा बना लिया..दिवाली से लौटके स्मारक कप हुआ और उसमें भी पहली साल मे ही सेमीफाइनल तक का सफ़र तय किया। स्मारक के एक्साम का सिलसिला भी इस समय चल रहा था..और कॉलेज में अर्धवार्षिक परीक्षाओं का दौर भी जारी था। पहली-पहली बार इस दौर से गुजर रहे थे इसलिये डर भी ज्यादा था और कुछ होनहार छात्र टॉप करने के लिये जमके रट्टा मार रहे थे। प्रशांत, रोहन और एलम की मेहनत देख लगता था कि इनके जीवन-मरण का प्रश्न चल रहा है...इनकी हालत 'थ्री इडियट्स' वाले चतुररामलिंड्गम की भांति हो जाती थी, बस ये दूसरे सहपाठियों के कमरों में चुपके से ग्लैमरर्स मैग्जीन नहीं पटका करते थे..और जहरीली हवाओं के बारे में कोई आईडिया नहीं है वो इनके तत्कालीन रूम पार्टनर ही बता सकते हैं। इस दौरान अंकित के चेहरे का रंग बदला-बदला सा रहता था और ये जहाँ भी मिलते तो मुझसे ये ज़रूर कहते कि 'बता दईये यार, कछू नहीं पढ़ो अबे तक'। ईमानदारी से बता रहा हूं कि स्मारक के और कॉलेज के एक्सामस् में मेरी हालत बड़ी दयनीय होती थी..एक्साम की कठिनाई के कारण नहीं... दरअसल मेरे आगे-पीछे के चक्रव्यूह के कारण। कॉलेज में मेरे आगे अमितजी और पीछे अंकित जी रहा करते थे, ये सिलसिला वरिष्ठोपाध्याय तक जारी रहा और स्मारक में मेरे आगे आशीष मौ और पीछे अंकित ही रहा करते थे तथा ये सिलसिला मरते दम तक मतलब फाइनल ईयर तक जारी रहा। कनिष्ठोपाध्याय के जैनदर्शन के पेपर में अंकित जी तत्वार्थसूत्र का गुटका अपनी पीछे वाले पॉकेट में रखे हुए पकड़ाए गए थे तब हमारे अध्यापक सनतजी ने इनका खासी सेवा-सुश्रुषा की थी। इसी तरह अमितजी की कॉपी लिखते हुए एकबार मैं भी पकड़ा गया था तब मेरी भी ऐसी ही सेवा होने वाली थी पर अमितजी ने मेरी मदद का अहसान चुकाते हुए ये इल्जाम अपने सर ले लिया था। इन एक्सामस् की भी अपनी ही कहानी है भाई...अरे ओ प्रमेश तुम्हारी भी कॉफी खिदमत हुई है कॉलेज के अध्यापकों से पता है या नहीं...बेचारे निर्मलजी को तो आज भी याद होगा कि तुम्हारी सेवा करते वक्त, जो तुमने उनकी पहले से चोटिल उंगली को और भी ज्यादा क्षत-विक्षत कर दिया था..डसने की भी हद होती है यार।
फरवरी के महीने में क्रिकेट विश्वकप शुरू हुआ..और स्मारक का गलियां-चौबारे सब फिर क्रिकेट के रंग में रंग गये। जिन गिने-चुने लोगों के यहाँ अखबार आता था उन लोगों के कमरे पाठकों से भरे रहने लगे..मोबाइल को युग न होने से वो दौर रेडियो के लिये जाना जाता है..और जिस किसी भी शख्स के पास रेडुआ हुआ करता था उसकी हैसियत उस विंग के सरपंच सरीखी सी होती थी। हमारी विंग में ये रेडुआ राहुलजी विनौता के पास था..जोकि प्रजय के साथ रूम साझा किया करते थे..और सम्यकचारित्र निलय के लेफ्ट साइड वाला लास्ट रूम अक्सर गुलजार रहता था। उस रूम की एक खासियत और भी थी उसमें से बाहर गैलरी में जाने के लिये एक दरवाजा भी दिया हुआ था..जिससे गैलरी में बैठ निश्चिंतता के साथ क्रिकेट कामेंट्री का मजा लिया जा सकता था। वैसे हमारी हालत भी दीन-हीन सरीकी नहीं थी..हमारे अमित जी एक बच्चा टीवी वर्ल्डकप के आस्वादन के लिये लेके आये थे..और उनके बैड के नीचे टीवी देखने के पुख्ता इंतजामात भी किये गये थे। चुंकि वर्ल्डकप साउथ अफ्रीका में था इसलिये अधिकतर मैच शाम छह बजे शुरु होके रात 2 बजे तक चला करते थे..इसलिये दुर्लभजी में देखना तो संभव है नहीं और किसी अधिकारी की कृपा मिलना भी संभव नहीं थी..इसलिये वही अमितजी की कुटिया में इन मैचों का मजा लिया गया है..मेरे साथ निखिल भी इस जलसे में शरीक रहा करता था..मेरी और निखिल की जगह नीचे वाले कंपार्टमेंट में तय की गई थी तथा अमितजी द्वारा ऊपरी कंपार्टमेंट से मैचों का ये जायका लिया जाता था। भारत-इंग्लैंण्ड का मैच बड़ा यादगार था जिसमें नेहरा ने छह विकेट लिये थे...और रात को दो बजे हम उस मैच का उत्सव मनाना चाहते थे। पर ये ऐसी खुशी थी जिसे बांटा नहीं जा सकता था...क्योंकि इसके छिन जाने का डर हमें हर पल लगा रहता था और जब-जब भी उस कमरे के दरवाजे पे किसी की दस्तक होती तो दिल बड़े जोर-जोर से धड़का करता था। लेकिन इस डर के बीज लगातार प्राप्त होने वाले उस आनंद की तुलना किसी से नहीं की जा सकती....
बिड़ला मंदिर के ऊपर स्थित मोती डूंगरी की रहस्यमय किवदन्तियां काफी सुना करते थे..इसलिये वहाँ जाने का मन भी किया करता था पर बताया जाता है कि वहाँ स्थित मंदिर का दरबाजा सिर्फ शिवरात्रि के दिन खुलता है। जब कनिष्ठोपाध्याय के दौरान 1 मार्च को पड़ी शिवरात्रि को ये दरबाजा खुला तो हमारी कक्षा का सारा जत्था उस गुप्त स्थान में प्रविष्ट होने को आमादा हो गया..घरघुसिया टाइप के पंछी सतीश, प्रशांत, जयकुमार, प्रवीण आदि भी अपने कोटरों से बाहर निकल के उस मंदिर में आये...दरअसल उस दिन इस रहस्यमय स्थल पे आने के अलावा एक बहाना और भी था जिससे सब अपने-अपने घोंसलों से बाहर निकल आये..और वो था वर्ल्डकप का अंतिम लीग मैच जो कि भारत-पाकिस्तान के बीच था। बिड़ला मंदिर और दुर्लभजी अस्पताल की नजदीकियों ने भी हम सबको इकट्ठा कर दिया..पूरे जत्थे के साथ बंजारों की भांति दुर्लभजी में मैच देखना साक्षात् लाइव मैच देखने से भी रोचक होता था..और हमारे आजू-बाजू में भी क्रिकेट के कई एक्सपर्ट पाये जाते थे जो मैच पे अपनी राय देते देखे जाते थे। बताया जाता है कि हमारी कक्षा का पहला अधिकारिक ग्रुप फोटो भी मोती डूंगरी के उसी दिव्य स्थल पे लिया गया था। अफसोस मैं उस फोटो में नहीं था क्योंकि मैं दुर्लभजी में मैच देखने के लिये आगे वाली सीट बुक करके बैठा हुआ था, एक घंटे पहले से...बड़े एक्साइटेड पल थे वे भाई।
वर्ल्डकप फाइनल में इंडिया हारी और क्रिकेट का फितूर भी कम हुआ..लगभग दो सप्ताह तक गहरे सदमें में रहने के बाद मैं जैसे-तैसे उससे बाहर आया...धीरे-धीरे हमारे सारे सीनियर्स अपने एक्साम देके विदा होते गये और अब सिर्फ हमारी कक्षा हुड़दंग और एक्साम की तैयारी में जुटी रही। कहने को ही ये एक्साम की तैयारी होती थी..नहीं तो चैस-कैरम जैसे खेल ही प्रायः खेले जाते थे हर कमरे के अंदर और जिन्हें खेलने का मौका नहीं मिलता था वे सोने में व्यस्त रहते थे..लेकिन प्रशांत-रोहन अभी भी पढ़ने में ही मशगूल ही रहा करते थे..पता नहीं कितना पढेंगे। 28 अप्रैल से 6 मई तक एक्साम हुए..और हम सीनियर बनने की दौड़ में आ गये। पाँच मई को जीतू का रंगारंग बर्थडे सेलीब्रेट किया और पेपर के अगले दिन 'हैरी-पॉटर' श्रंख्ला की दूसरी किस्त देखने लगभग आधी क्लास इंटरटैनमेंट पैराडाइज़ जा पहूंची..अब भैया अभी घर जाना मना है क्योंकि पाँच दिन बाद ग्यारह मई से स्मारक की जमीं पे प्रशिक्षण शिविर जो शुरु होने जा रहा है और हमें उसकी तैयारी में तथा महत्वपूर्ण डिपार्टमेंट्स को अपने योग्य कार्यकलापों से सेवा पहुंचाना जरूरी है..इन बचे हुए पाँच दिनों में कैसे न कैसे टाइमपास तो करना होगा न.....
बहुत बोरिंग था न ये इंतजार...खैर कोई बात नहीं इस स्टेशन पे जो लोग उतरना चाह रहे हों उतर जाये...वरिष्ठोपाध्याय के अगले जंक्शन को कंप्लीट करने में गाड़ी काफी वक्त लेगी...सन्मति को नींद आ रही है..अरे किशोर, सन्मति तक ज़रा चाय पास करना तो..........
जारी..........
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