हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Sunday, August 11, 2013

Pinkish Day In Pinkcity : Part - VI

इस श्रंख्ला का भाग एक ,  भाग दो , भाग तीन,  भाग चार और भाग पांच पढ़कर ही इसमें प्रवेश करें-
(ये हमसब का व्यक्तिगत विवरण है..यूं तो इसकी टारगेट ऑडियंस सिर्फ हमारी क्लॉस के ही चुनिंदा शख्स हैं क्योंकि उन्हें ही मैं विशदता से जानता हूं और उनसे जुड़ी यादों को ही शेयर कर सकता हूँ फिर भी, कुछ और लोग भी इस संस्मरण से खुद को जुड़ा पा सकते हैं ये आपके area of interest पे निर्भर करता है।)
इस यात्रा पे आगे बढ़ने से पहले मैं कुछ लोगों का स्मरण किये बगैर आगे बढ़ ही नहीं सकता..उनके बगैर ये सफ़र कभी संतुलित और अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ नहीं हो सकता था..लीजिए पेश हैं आपके सामने ऐसे ही महानुभव-

शांतिजी भाईसाहब- आपका सख्त अनुशासन..तीक्ष्ण ज्ञान और पितृसम छत्रछाया गर हमें हासिल न हुई होती तो कभी हम वो न हो सकते थे जो आज हम हैं। हमारी रग़-रग़ में आपका दी शिक्षा और संस्कार बसर करता है..और भीषण विषम परिस्थितियों में भी हम अपने दायरे नहीं लांघ पाते उसमें सिर्फ और सिर्फ आपही शामिल हैं। बाहर में भले ही हम पे जितनी, जो कुछ भी भौतिकता की परतें चढ़ी हुई हैं उसका कारण तो ये वर्तमान परिवेश है पर अध्यात्म की अंदरुनी तमाम ताकत और भीतरी संबल सिर्फ और सिर्फ आपका दिया हुआ है। मुझे नहीं पता कि किसी और से हमने गहन आध्यात्मिकता के मर्म सीखे हैं जितने कि आपसे सीखे हैं..आपका ये कर्ज न तो ये चंद शब्द चुका सकते और न ही हमारा संपूर्ण जीवन।

पीयुषजी। पता नहीं इतनी फुर्ती आप कहाँ से लाते हैं..और अपनी इस चपलता से उच्च सामंजस्य बनाये रखके कैसे काम करते हैं। स्मारक को मुख्यधारा में बनाये रखने और गतिमान जगत के साथ गतिमान बनाये रखने में आपका कोई सानी नहीं है। आपकी तर्कशक्ति और साहस का मैं कायल रहा हूँ..और जिस खूबसूरती से आप विषम परिस्थितियों को हैंडल करते हो उसका कोई जबाव नहीं। ये तमाम मैनेजिंग स्किल आपने विदआउट किसी एमबीए के सहज हासिल किये हैं..और इसके परे धर्म-अध्यात्म में आपके ज्ञान का कोई सानी नहीं हैं आपसे मोक्षमार्ग प्रकाशक के चौथे-पांचवे और छठवे अधिकार को हमने पड़ा था..विरोधियों को परास्त करने वाले ये अधिकार आपकी तड़कना पे एकदम फिट बैठते थे..इसके अलावा वरिष्ठोपाध्याय में न्यायदीपिका के अध्ययन के लिये जिस न्यायोचित शैली की ज़रूरत थी वो भी आपमें बखूब थी..बुद्धिमत्ता और चपलता के सुपर्ब कांबिनेशन का नाम आप ही हो।

धर्मेंद्र जी। यकीन मानिये भाईसाहब..अगर आप आज भी बाहर खड़े होके तेज आवाज में बोल दें तो मैं अपनी सीट से खड़ा हो जाउंगा। डेढ़सौ से ज्यादा शास्त्रियों को एकसाथ पूरी उच्च गुणवत्ता के साथ संभालने का कौशल आप में अद्वितीय है। आपकी इस हार्ड पर्सनेलिटी के अंदर एक सोफ्ट व्यक्तित्व भी बसर करता है इसे कम ही लोग जानते हैं। लेकिन अनुशासन की स्थापना में आपकी आंखें..और एक आवाज ही काफी है। हमें भले तुरंत में आपका ये अनुशासन भले कितना ही बुरा क्यों न लगे पर आपका ये अनुशासन...हमारी सीमाओं से हमें बाँधे रखने में सबसे कारगार ज़रिया था। मेरे लिये तो आपके आभार व्यक्त करने के लिये कुछ विशेष ही लफ्जों की तलाश करना होगी। आज जो मैं ये अपने अतीत के सुनहरे सफर का समावर्णन कर पा रहा हूं इसकी वजह सिर्फ आप ही हो..मुझे आज भी याद नहीं कि आपने मुझे क्या समझाया था..किंतु आपके उन मैजिकल शब्दों का ही कमाल था कि मैं स्मारक की धरा पे पाँच साल तक रह पाया और अपने जीवन में संस्कारों की जड़ें और हुनर के पंखों को हासिल कर पाया..मेरी तमाम यात्रा का प्रथम सोपान आपका वो आधे घंटे का लेक्चर ही था।

प्रवीणजी। ज्ञान की विस्तृत और दुर्लभ धाराएं आपके व्यक्तित्व का स्पर्श करते हुए ही निकलती हैं...आपकी कर्मठता, आलस्यविहीन व्यक्तित्व और गहन मेहनत करने के प्रति दृढ़ संकल्पना अनुकरणीय हैं। जिनवाणी के जिस गहन अध्ययन-मनन से आपने अपने व्यक्तित्व को निर्मित किया है..वो किसी किसी में ही देखने को मिलता है। आपकी स्वाभाविक प्रतिभा और तीव्र स्मरण शक्ति से आप दुनिया के किसी भी मुकाम को  पा सकते थे पर आपने उन सबसे परे जिनवाणी-जिनधर्म पे अपनी प्रतिभा को न्यौछावर किया..ये प्रशंसनीय है। मैं पढ़ने-लिखने में एक औसत व्यक्ति था लेकिन वरिष्ठोपाध्याय में मेरे रूम के सामने ही जबकि आपका डेरा हुआ करता था..आपने मुझसे भी कठिन परिश्रम करवाके परीक्षा में उच्च स्कोर अर्जित करवा लिये थे..और इससे मेरे आत्मविश्वास में गजब का इजाफा हुआ था। न सिर्फ मेरे साथ बल्कि आपने हमारी सारी क्लास से ही ऐसी मेहनत करवाके उस समय के सर्वाधिक फर्स्ट डिवीजन अर्जित करने का रिकार्ड हमारी क्लास के नाम बनवाया था। आपके व्यक्तित्व के कई हिस्से हैं जिसे अनुकरण कर कोई भी बुलंदियों की ओर अपना मार्ग प्रशस्त कर सकता है।

इन सब शख्स के अलावा एक शख्स और है जिस मैं व्यक्तिगत तौर पे याद करना चाहुँगा..सबका तो नहीं पता पर मेरी विचारणा पे इस शख्स ने खासा असर डाला है...और ये भी मेरे लिये किसी गुरु से कम नहीं हैं-

विक्रांत जी। मूलतः झालरापाटन के निवासी। जब मैं शास्त्री प्रथम वर्ष में था तब ये स्मारक से आचार्य कर रहे थे..और तभी मेरी इनसे घनिष्ठता हुई। मेरे कई दुर्गुणों और कमियों की तरफ इन्होंने मेरा ध्यान इंगित कराया जिन्हें खुद से दूर कर मैं बेहतरी की ओर कदम बढ़ा सका। ऊर्दू में एक शायरी है कि "शौक ए दीदार अगर है तो, नज़र पैदा कर"। आज चीज़ों को देखने की नज़र मेरे पास है उसमें बहुत हद तक विक्रांतजी का अहम् योगदान है। जिंदगी के और जिनवाणी के कई पाठ मैंने इनसे सीखे..और आज भी जब किसी चीज से विचलित होता हूँ तो ये अब भी मेरे अहम् मार्गदर्शक होते हैं..अपने सिद्धांतों को लेके कैसी दृढ़ता होना चाहिए ये यदि किसी को सीखना है तो विक्रांत जी से अच्छा उदाहरण कोई और नहीं हो सकता...

खैर..सारी कक्षा के साथियों के साथ तथा कुछ और आदरणीय व्यक्तित्वों को अपने साथ लेके..मैं निकल रहा हूँ..कोई और भी जिसका ज़िक्र नहीं हो पाया हो वो हमें ज्वाइन कर सकता है...बस हमें थोड़ा सा इत्तला कर दीजिये...

ज़ारी...........

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