जिन्दगी के लम्हों में से एक और वर्ष विदा हो रहा है, नया वर्ष दस्तक दे रहा है। चारों और शुभकामनाओं का दौर चालू हो जाएगा। लेकिन हम सब के सामने एक प्रश्न ये है की अब इस नए वर्ष के मायने क्या है, नए वर्ष के आने पर किस बात की खुशिया मनाई जा रही है। जब तक इन प्रश्नों को न खोजा जाएगा तब तक शायद हम नव वर्ष के आगमन के लिए मानसिक तौर पर तैयार नहीं हुए है। नव वर्ष के इस मौके पर मुझे एक sms मिला जिसने दिल को छू लिया, और खुद को एक चिंतन पर मजबूर कर दिया जिसे मै आप सब के साथ बाँट रहा हूँ। साथ ही साथ ब्लॉग टीम की तरफ से नववर्ष की शुभकामनाये ज्ञापित करता हूँ.......
..............................
फर्श नया हो,
अर्श नया हो,
दर्श नया
अकर्ष नया हो...
नयी-नयी पर्याय हर समय,
फिर भी इच्छा वर्ष नया हो॥
नयी-नयी इच्छाएं जिनकी,
जिन ही जाने उनका क्या हो॥
हमारा स्मारक : एक परिचय
श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं।
विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें।
हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015
Wednesday, December 30, 2009
शास्त्री अंतिम वर्ष स्मारक कप की चैम्पियन
स्मारक कप क्रिकेट में आज बेहद खुबसूरत घमासान देखने को मिला। जहाँ शास्त्री अंतिम वर्ष एवं द्वितीय वर्ष की टीमें आमने-सामने थी। इस फ़ाइनल मुकाबले में तृतीय वर्ष ने द्वितीय वर्ष को पटखनी देकर लगातार दूसरी बार स्मारक कप जीतने के सपने को चूर-चूर कर दिया। स्मारक कप के इस निर्णायक मुकाबले में जीत के प्रमुख शिल्पकार रहे-अभिषेक मडदेवरा। जिनके हरफनमौला खेल ने जीत में अहम् भूमिका अदा की।
मैच में कई उतर-चड़ाव देखने को मिले। पर अंततः जीत तृतीय वर्ष को ही नसीब हुई। तृतीय वर्ष के १३७ रनों के जबाव में द्वितीय वर्ष १२० रन ही बना सकी। पूरी सीरिज़ में शानदार प्रदर्शन के लिए शास्त्री द्वितीय वर्ष के सौरभ अमरमऊ मेन ऑफ़ द सीरिज़ रहे।
स्त्रोत-सजल जैन (ज.सं)
Tuesday, December 29, 2009
क्या भूलूं, क्या याद करूँ....
पी टी एस टी संचार को अधिक मनोरंजक एवं ज्ञानवर्धक बनाने के लिए हम एक नयी पहल करने जा रहे है। इसके तहत हम कुछ बड़े कवियों और लेखकों के कुछ अच्छे लेख व कवितायेँ यहाँ प्रकाशित करेंगे। जो आप के लिए निश्चित ही कुछ नया प्रदान करेंगी। इस कड़ी में हम शुरुआत कर रहे है-हरिवंश राय बच्चन की एक कविता से-"क्या भूलू-क्या याद करूँ मैं"। जो इस बीते हुए साल की यादों को संजोकर आगामी साल में एक नए संकल्प के साथ प्रवेश करने की प्रेरणा देती है। प्रस्तुत है-
क्या भूलू-क्या याद करूँ मै(हरिवंश राय बच्चन)
क्या भूलू-क्या याद करूँ मै(हरिवंश राय बच्चन)
अगणित उन्मादों के क्षण हैं,
अगणित अवसादों के क्षण हैं,
रजनी की सूनी की घडियों को किन-किन से आबाद करूं मैं!
क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं!
याद सुखों की आसूं लाती,
दुख की, दिल भारी कर जाती,
दोष किसे दूं जब अपने से, अपने दिन बर्बाद करूं मैं!
क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं!
दोनो करके पछताता हूं,
सोच नहीं, पर मैं पाता हूं,
सुधियों के बंधन से कैसे अपने को आबाद करूं मैं!
क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं!
स्मारक रोमांस-पार्ट २
(इसे पढने से पहले स्मारक रोमांस-पार्ट-१ पदे.)
शाम का भोजन गले से भी नीचे न उतरता था कि-खबर आ जाती "सर आ गये,कनिष्ठ वाले जल्दी खाना खाके क्लास में पहुंचे"। कमबख्त खाना खाना भी दूभर था, वैसे खाना भी उन दिनों बहुत लज़ीज़ नहीं जान पड़ता था। पर संस्कृत कि क्लास से अच्छी फेविकोल कि दाल थी। क्लास में पहुचे नहीं कि अपेक्षित डायलोग सामने था-"क्योंरे यहाँ क्या खाना खाने आये हो"। इस संवाद को अदा करने वाले हमारे संस्कृत के अध्यापक हुआ करते थे। स्मारक में सारा हिंदुस्तान बसता है-जहाँ तमिलनाडु,कर्णाटक,एम्.पी,यु.पी,महाराष्ट्र सब कुछ थे बस बिहार नहीं था। और बिहार के बिना हिंदुस्तान की सही तस्वीर नही दिखाई जा सकती-बिहार की इस कमी को हमारे संस्कृत अध्यापक पूरा करते थे।
दसवी करते वक़्त सोचा था 'कि अब इस संस्कृत से टिर्र छूटेगी'। पर मामला तो अब कुछ और हो गया है, पहले तो रामः, रामौ, रामा ही थे अब तो 'तिपतसझिसिपथसथमिब्बसमस' का लोचा आ गया है। भोजनशाला में शंकरजी के डमरू से निकले मन्त्रों कि मजाक उड़ाई जाती थी। किसी गाने कि धुन पे लड़के "अइउणऋलृकऐओढऐओचझभयगडधश" गुनगुनाते थे। संस्कृत सूत्रों पर सहपाठियों के नाम अंकित कर दिए थे-कोई "चुटू" कहलाता तो कोई "चोकू"। संस्कृत पड़ते वक़्त उस शेर का शुक्रिया अदा किया जाता जिसने पाणिनि को खाया था। नही तो भगवान जाने और कितने सूत्र याद करने होते। बहरहाल, ये उस दौर कि बात है, जब जिन्दगी का मतलब सिर्फ मस्ती हुआ करती थी, हमें नही पता था कि भविष्य बनाना क्या होता है, पैसे कमाने कि आरजू क्या होती है। वो लम्हे जैसे भी थे समझदारी भरी जिन्दगी से कई बेहतर थे।
क्लास बंक करके नेहरु या मोती पार्क में बैठना भी एक शगल हुआ करता था। पार्क में बैठकर स्मारक को कोसने का भी आनंद मिला करता था उन दिनों। मगर यहाँ भी मुसीबत पीछा नही छोडती थी-कमबख्त कोई न कोई सीनियर तो नज़र आ ही जाता था। फिर क्या आगे-पीछे से मुंह छिपाए भागते फिरते थे। स्मारक की ये भी अजीब परेशानी थी कि जयपुर के किसी भी कोने में जाओ एक न एक स्मारक का नुमाइन्दा टपक ही पड़ता था। चाहे मार्केट घुमने जाओ, या पिक्चर देखने सब जगह कोई न कोई भटकता पाया जाता था। ये बात समझ नही आती थी "जो काम हम करें तो बुरा, वही यदि सीनियर करें तो बुरा क्यों नही कहा जाता"। चोर दोनों है पर सीना जोरी करने का हक बस एक के पास है।
खुशियों का दिन बस एक हुआ करता था sunday...जिसका खुशनुमा होने का कारण था-सारी क्लासेस से छुट्टी और क्रिकेट। क्रिकेट हिंदुस्तान में एक ऐसी चीज है जो लगभग ८० फीसदी जनता को ख़ुशी देता है। क्रिकेट की टीम बनाने की होड़ चल पड़ी थी। हर क्लास में एक दादा टाइप का लड़का हुआ करता है वही अनधिकृत तौर पर सर्वसम्मति से कप्तान बन जाया करता था और टीम चुनने के अधिकार भी उसके पास होते थे। क्लास के अन्य भोले-भाले प्राणी अपने उस दादा को रिझाने का प्रयास करते कि कैसे ही टीम में जगह तो मिले। जैसे-तैसे टीम बनती, और हाँ टीम बनवाने में एकाध छुटभैया टाइप के सीनियर महोदय भी हुआ करते थे जो दादा के करीबी या खास हुआ करते हैं। पैसे जोड़-तोड़ के किट लायी जाती और फिर तैयार हो जाते मैदान में उतरने के लिए। ११ या २१ रुपये पर मैच रखा जाता, यही वो जगह होती जहाँ सीनियरों पर अपना गुस्सा निकला जा सकता था। पर क्रिकेट के इस मैदान में भी सीनियर अपना रुतबा दिखाए बिना नही मानते थे। पर क्रिकेट का संघर्ष बड़ा जमकर होता था (अब भी होता होगा )। और किसी दिन मैच यदि ५१ रुपये पर रख लिया तो खिलाडी जी-जान लगा देते थे। ऐसा लगता मानो इस मैच को रणजी चयनकर्ता देख रहे हों, और एकाध खिलाडी भारतीय टीम के लिए कूच करने वाला हो। लेकिन एक बात थी क्रिकेट सभी शास्त्रियों में पंडितयाई छीन कर हुल्लड़याई भर दिया करता था।
जिस दिन क्रिकेट का मैच आ रहा हो तो समझो भागमभाग भरा दिन है। या तो मार्केट में जाकर दुकान में रखी टीवी पर घंटो खड़े रहकर लुत्फ़ उठाया जाता या किसी अधिकारी कि कृपा हो तो वहां देखा करते। मौका मिले तो ड्राईवर या माली के घर में नीचे बैठकर टीवी देखने से भी परहेज़ नही। क्रिकेट एक ऐसी चीज थी जिसके खातिर बड़े-बड़े सेठों के लड़के भी अपना ज़मीर गिरवी रख दिया करते थे। भोजनालय में खाना खाते वक़्त भी किसी न किसी का रेडुआ चालू रहता था। प्रायः अधिकतम लोगों के पास एक रेडियो तो हुआ ही करता था। रेडियो रखने वाले खुद को मर्सडीज का मालिक समझा करते थे। खैर, भोजनशाला में स्कोर कि खबर परमाणु बम की तरह फैलती थी- एक से दो, दो से चार, और चार से चालीस में कब पहुची पता नही चलता था। सब बड़ा गजब का था, पहले तो अजीब लगता था पर फिर जिन्दगी का हिस्सा बनता जा रहा था। आगे है अख़बार पढने का मज़ा और रातों की लम्बी-लम्बी बातें....रोमांस बदस्तूर जारी है...............
(प्रतिक्रिया(comments) में कंजूसी न बरते)
शाम का भोजन गले से भी नीचे न उतरता था कि-खबर आ जाती "सर आ गये,कनिष्ठ वाले जल्दी खाना खाके क्लास में पहुंचे"। कमबख्त खाना खाना भी दूभर था, वैसे खाना भी उन दिनों बहुत लज़ीज़ नहीं जान पड़ता था। पर संस्कृत कि क्लास से अच्छी फेविकोल कि दाल थी। क्लास में पहुचे नहीं कि अपेक्षित डायलोग सामने था-"क्योंरे यहाँ क्या खाना खाने आये हो"। इस संवाद को अदा करने वाले हमारे संस्कृत के अध्यापक हुआ करते थे। स्मारक में सारा हिंदुस्तान बसता है-जहाँ तमिलनाडु,कर्णाटक,एम्.पी,यु.पी,महाराष्ट्र सब कुछ थे बस बिहार नहीं था। और बिहार के बिना हिंदुस्तान की सही तस्वीर नही दिखाई जा सकती-बिहार की इस कमी को हमारे संस्कृत अध्यापक पूरा करते थे।
दसवी करते वक़्त सोचा था 'कि अब इस संस्कृत से टिर्र छूटेगी'। पर मामला तो अब कुछ और हो गया है, पहले तो रामः, रामौ, रामा ही थे अब तो 'तिपतसझिसिपथसथमिब्बसमस' का लोचा आ गया है। भोजनशाला में शंकरजी के डमरू से निकले मन्त्रों कि मजाक उड़ाई जाती थी। किसी गाने कि धुन पे लड़के "अइउणऋलृकऐओढऐओचझभयगडधश" गुनगुनाते थे। संस्कृत सूत्रों पर सहपाठियों के नाम अंकित कर दिए थे-कोई "चुटू" कहलाता तो कोई "चोकू"। संस्कृत पड़ते वक़्त उस शेर का शुक्रिया अदा किया जाता जिसने पाणिनि को खाया था। नही तो भगवान जाने और कितने सूत्र याद करने होते। बहरहाल, ये उस दौर कि बात है, जब जिन्दगी का मतलब सिर्फ मस्ती हुआ करती थी, हमें नही पता था कि भविष्य बनाना क्या होता है, पैसे कमाने कि आरजू क्या होती है। वो लम्हे जैसे भी थे समझदारी भरी जिन्दगी से कई बेहतर थे।
क्लास बंक करके नेहरु या मोती पार्क में बैठना भी एक शगल हुआ करता था। पार्क में बैठकर स्मारक को कोसने का भी आनंद मिला करता था उन दिनों। मगर यहाँ भी मुसीबत पीछा नही छोडती थी-कमबख्त कोई न कोई सीनियर तो नज़र आ ही जाता था। फिर क्या आगे-पीछे से मुंह छिपाए भागते फिरते थे। स्मारक की ये भी अजीब परेशानी थी कि जयपुर के किसी भी कोने में जाओ एक न एक स्मारक का नुमाइन्दा टपक ही पड़ता था। चाहे मार्केट घुमने जाओ, या पिक्चर देखने सब जगह कोई न कोई भटकता पाया जाता था। ये बात समझ नही आती थी "जो काम हम करें तो बुरा, वही यदि सीनियर करें तो बुरा क्यों नही कहा जाता"। चोर दोनों है पर सीना जोरी करने का हक बस एक के पास है।
खुशियों का दिन बस एक हुआ करता था sunday...जिसका खुशनुमा होने का कारण था-सारी क्लासेस से छुट्टी और क्रिकेट। क्रिकेट हिंदुस्तान में एक ऐसी चीज है जो लगभग ८० फीसदी जनता को ख़ुशी देता है। क्रिकेट की टीम बनाने की होड़ चल पड़ी थी। हर क्लास में एक दादा टाइप का लड़का हुआ करता है वही अनधिकृत तौर पर सर्वसम्मति से कप्तान बन जाया करता था और टीम चुनने के अधिकार भी उसके पास होते थे। क्लास के अन्य भोले-भाले प्राणी अपने उस दादा को रिझाने का प्रयास करते कि कैसे ही टीम में जगह तो मिले। जैसे-तैसे टीम बनती, और हाँ टीम बनवाने में एकाध छुटभैया टाइप के सीनियर महोदय भी हुआ करते थे जो दादा के करीबी या खास हुआ करते हैं। पैसे जोड़-तोड़ के किट लायी जाती और फिर तैयार हो जाते मैदान में उतरने के लिए। ११ या २१ रुपये पर मैच रखा जाता, यही वो जगह होती जहाँ सीनियरों पर अपना गुस्सा निकला जा सकता था। पर क्रिकेट के इस मैदान में भी सीनियर अपना रुतबा दिखाए बिना नही मानते थे। पर क्रिकेट का संघर्ष बड़ा जमकर होता था (अब भी होता होगा )। और किसी दिन मैच यदि ५१ रुपये पर रख लिया तो खिलाडी जी-जान लगा देते थे। ऐसा लगता मानो इस मैच को रणजी चयनकर्ता देख रहे हों, और एकाध खिलाडी भारतीय टीम के लिए कूच करने वाला हो। लेकिन एक बात थी क्रिकेट सभी शास्त्रियों में पंडितयाई छीन कर हुल्लड़याई भर दिया करता था।
जिस दिन क्रिकेट का मैच आ रहा हो तो समझो भागमभाग भरा दिन है। या तो मार्केट में जाकर दुकान में रखी टीवी पर घंटो खड़े रहकर लुत्फ़ उठाया जाता या किसी अधिकारी कि कृपा हो तो वहां देखा करते। मौका मिले तो ड्राईवर या माली के घर में नीचे बैठकर टीवी देखने से भी परहेज़ नही। क्रिकेट एक ऐसी चीज थी जिसके खातिर बड़े-बड़े सेठों के लड़के भी अपना ज़मीर गिरवी रख दिया करते थे। भोजनालय में खाना खाते वक़्त भी किसी न किसी का रेडुआ चालू रहता था। प्रायः अधिकतम लोगों के पास एक रेडियो तो हुआ ही करता था। रेडियो रखने वाले खुद को मर्सडीज का मालिक समझा करते थे। खैर, भोजनशाला में स्कोर कि खबर परमाणु बम की तरह फैलती थी- एक से दो, दो से चार, और चार से चालीस में कब पहुची पता नही चलता था। सब बड़ा गजब का था, पहले तो अजीब लगता था पर फिर जिन्दगी का हिस्सा बनता जा रहा था। आगे है अख़बार पढने का मज़ा और रातों की लम्बी-लम्बी बातें....रोमांस बदस्तूर जारी है...............
(प्रतिक्रिया(comments) में कंजूसी न बरते)
स्मारक कप-फायनल का घमासान.....
स्मारक कप अपने अंतिम चरण में पहुच चुका है। ३० दिसम्बर को इसका फायनल मैच शास्त्री अंतिम वर्ष एवं द्वितीय वर्ष के बीच खेला जायेगा। दोनों ही टीमे कप जीतने के लिए एडी-चोटी का जोर लगाने को तैयार है। शास्त्री द्वितीय वर्ष की कोशिश रहेगी की वो दूसरी बार इस कप पर कब्ज़ा करे। और अगली साल का कप भी जीतकर स्मारक का अब तक का श्रेष्ठ रिकार्ड तीन बार विजेता बनने की बराबरी करे। जो इससे पहले "कहान क्रिकेट क्लब(बैच न.२६,२००२-2007)" के नाम है। वही शास्त्री अंतिम वर्ष अपना पहला ख़िताब पाने के लिए मैदान में होगी।
इसके साथ ही लोगों की नज़र इस बात पर भी रहेगी, कि 'मेन ऑफ़ द सीरिज़' का अवार्ड अभिषेक मडदेवरा या सौरभ अमरमऊ में से किसके पास जाता है। ये दोनों ही अपने शानदार प्रदर्शन से अपनी टीम के जीत में अहम् भूमिका निभा रहे है। बहरहाल स्मारक कप के रिजल्ट को हम आपके सामने मैच ख़त्म होने पर प्रस्तुत कर देंगे।
Monday, December 28, 2009
स्मारक रोमांस - पार्ट १
उन दिनों गाँव-नगरों के मंदिरों में कोई छोटे से पंडितजी की बहुत चर्चा हुआ करती थी। हम भी भैयाजी या पंडितजी के संबोधन के साथ उन पंडितजी की पाठशाला में पड़ा करते थे। घर के बड़े-बुजुर्गो से तारीफ सुना करते थे-"कि पंडितजी कि अभी उम्र ही क्या है और ज्ञान तो देखो"। हम भी बड़े अचरज में देखा करते थे हमारे गाँव के दूसरे भैया लोग जहाँ हुल्लड़बाजी में मशगूल रहते थे, उन्ही कि उम्र के कोई पंडितजी के नाम से जाने जा रहे है। घर कि मम्मी-दादी लोगो का सोचना होता था-'हम भी हमारे चिंटू, गोलू या लक्की को शास्त्री बनायेंगे। लेकिन घर के चिंटू, गोलू या पप्पू को क्या पता कि ये शास्त्री क्या होता है। उनकी उम्र तो अभी ये समझने लायक भी न थी कि आज के समय में डाक्टर, इंजीनियर या शास्त्री में से किसकी इज्ज़त ज्यादा है। पर दादा, पापा और मम्मी कहते है तो कुछ तो अच्छा होगा ही-ये शास्त्री बनना। और बच्चों के लिए तो अपने पापा से बड़ा हीरो कोई होता ही नहीं है।
कुछ इसी कशमकश के बाद थोड़ी बहुत प्रक्रिया से गुजरकर पहुच गये जयपुर। ये शहर पिंकसिटी के नाम से जाना जाता है, ये सुन रखा था। हमें तो ऐसा लगा जैसे कोई ब्रिटेन,फ्रांस या जर्मनी आ गए हों। भांति-भांति के लोग नजर आते थे। सब ऐसे घूरा करते थे-मानो हम कोई पेन्डोरा नामके गृह से आये हों। चार लड़कों का ग्रुप पास से गुजरता और बोलता जाता "ऐ जरा इसका कुरता तो देख"। शायद कुरता कुछ ज्यादा ही अजीब होगा। बाद में पता चला कि वे हमारे सीनियर कहलायेंगे। जिनके नाम के आगे हमें 'जी' लगा के संबोधन करना होगा। यदि जय-जिनेन्द्र नहीं किया या उनके सामने गाना गा दिया तो कमबख्त मीटिंग लग जाती थी। "मीटिंग" नाम का शब्द बहुत खतरनाक जान पड़ता था। किसी का हसता चेहरा पीला करना है तो उससे बोल दो" ऐ तेरी चेतनधाम रूम न.३०८ में मीटिंग है"। वहां जाके पता चला कि दुनिया के मनोरंजन का केंद्र गाने गाना भी यहाँ एक जुर्म है।
सीनियर भी जहाँ-तहां चौको-चबूतरों पे भीड़ जमा करके अपने नए-नवेले जूनियर्स को नसीहतें देते रहते थे और स्मारक के अधिकारीयों से लेकर कर्मचारियों तक का चिट्ठा प्रस्तुत करते रहते थे। उनकी बाते कुछ इस तरह कि होती थी कि उनमे वे अपनी तारीफ का तड़का लगाना नहीं भूलते थे। जूनियरों को धौंस देना उनका पसंदीदा शगल हुआ करता था। ऐसे में यदि अधिकारी-वर्ग के कोई भाईसाहब वहां आ जाते थे तो आँखे निपोरकर वहां से कट लेते थे। लेकिन हाँ यदि कोई सीनियर हमसे प्यार से बात कर लेता था तो अपने साथ वालों में छाती चौड़ी हो जाया करती थी। अजब दिन हुआ करते थे वे।
सुना था जयपुर राजस्थान में है, मगर यहाँ आकर तो भांत-भांत के लोग दिखाई पड़ते थे। अलग-अलग बोलियाँ सुनाई पड़ती थी। कई तो ऐसी होती थी कि लगता न जाने कौन से द्वीप कि भाषा है। बाद में पता चला कि कोई मराठी है, कोई तमिल, कन्नड़, गुजराती, वागडी तो कोई पिडावी है। यहाँ पिडावी इसलिए अलग से बताया कि उनका अपनी ही अलग भाषा और ग्रुप हुआ करता था जिनका संसार पिडावा तक सिमटा था। आते ही दो ग्रुप बनते देर न लगी-एम.पी. बनाम मराठी। बस ये दो ग्रुप ही हुआ करते थे, बाकि सब माइनोरिटी के चलते इन दो ग्रुप में ही शामिल हो जाया करते थे-सारा साऊथ मराठी में और सारा उत्तर एम.पी. में। आपस में बहुत फब्तियां कसी जाती "देख ये मराठी है, बहुत खाऊखोर होते हैं" तो दूसरा कहता देख "जे बुंदेलखंड का है, कित्ता घिना है" बस यही आलम था।
प्रवचन तो सुनने जाते पर सब ऐसा लगता 'न जाने कहाँ की कौन सी बात चल रही है'। तो वही बैठे-बैठे खेलने वाले कुछ खेलों का अविष्कार हो जाता था। भोजनशाला का आलम भी अजब होता था-कई ऐसी-ऐसी दाले देखने को मिली जो हमारी निगाहों के सामने पहली बार गुजर रही थी। भोजनालय भी अंतर्राष्ट्रीय था जहाँ विदेशी कुक कम किया करते थे। जी हाँ, कुक महोदय गोपाल, केदार नाम से जाने जाते थे और अब तक गुलाम न हुए इकलौते देश नेपाल से सम्बन्ध रखते थे। शुरुआत में सब अजीब था पर फिर सब जीवन का हिस्सा बनने लगा। घटनाये अभी और भी है-संस्कृत क्लास का खौफ और क्रिकेट एक जश्न। पढते रहिये-स्मारक रोमांस जारी है......
(यदि आपकी कुछ यादें ताज़ा हुई हों तो प्रतिक्रिया अवश्य दें, और अपनी खुशनुमा यादें भी बांटे।)
कुछ इसी कशमकश के बाद थोड़ी बहुत प्रक्रिया से गुजरकर पहुच गये जयपुर। ये शहर पिंकसिटी के नाम से जाना जाता है, ये सुन रखा था। हमें तो ऐसा लगा जैसे कोई ब्रिटेन,फ्रांस या जर्मनी आ गए हों। भांति-भांति के लोग नजर आते थे। सब ऐसे घूरा करते थे-मानो हम कोई पेन्डोरा नामके गृह से आये हों। चार लड़कों का ग्रुप पास से गुजरता और बोलता जाता "ऐ जरा इसका कुरता तो देख"। शायद कुरता कुछ ज्यादा ही अजीब होगा। बाद में पता चला कि वे हमारे सीनियर कहलायेंगे। जिनके नाम के आगे हमें 'जी' लगा के संबोधन करना होगा। यदि जय-जिनेन्द्र नहीं किया या उनके सामने गाना गा दिया तो कमबख्त मीटिंग लग जाती थी। "मीटिंग" नाम का शब्द बहुत खतरनाक जान पड़ता था। किसी का हसता चेहरा पीला करना है तो उससे बोल दो" ऐ तेरी चेतनधाम रूम न.३०८ में मीटिंग है"। वहां जाके पता चला कि दुनिया के मनोरंजन का केंद्र गाने गाना भी यहाँ एक जुर्म है।
सीनियर भी जहाँ-तहां चौको-चबूतरों पे भीड़ जमा करके अपने नए-नवेले जूनियर्स को नसीहतें देते रहते थे और स्मारक के अधिकारीयों से लेकर कर्मचारियों तक का चिट्ठा प्रस्तुत करते रहते थे। उनकी बाते कुछ इस तरह कि होती थी कि उनमे वे अपनी तारीफ का तड़का लगाना नहीं भूलते थे। जूनियरों को धौंस देना उनका पसंदीदा शगल हुआ करता था। ऐसे में यदि अधिकारी-वर्ग के कोई भाईसाहब वहां आ जाते थे तो आँखे निपोरकर वहां से कट लेते थे। लेकिन हाँ यदि कोई सीनियर हमसे प्यार से बात कर लेता था तो अपने साथ वालों में छाती चौड़ी हो जाया करती थी। अजब दिन हुआ करते थे वे।
सुना था जयपुर राजस्थान में है, मगर यहाँ आकर तो भांत-भांत के लोग दिखाई पड़ते थे। अलग-अलग बोलियाँ सुनाई पड़ती थी। कई तो ऐसी होती थी कि लगता न जाने कौन से द्वीप कि भाषा है। बाद में पता चला कि कोई मराठी है, कोई तमिल, कन्नड़, गुजराती, वागडी तो कोई पिडावी है। यहाँ पिडावी इसलिए अलग से बताया कि उनका अपनी ही अलग भाषा और ग्रुप हुआ करता था जिनका संसार पिडावा तक सिमटा था। आते ही दो ग्रुप बनते देर न लगी-एम.पी. बनाम मराठी। बस ये दो ग्रुप ही हुआ करते थे, बाकि सब माइनोरिटी के चलते इन दो ग्रुप में ही शामिल हो जाया करते थे-सारा साऊथ मराठी में और सारा उत्तर एम.पी. में। आपस में बहुत फब्तियां कसी जाती "देख ये मराठी है, बहुत खाऊखोर होते हैं" तो दूसरा कहता देख "जे बुंदेलखंड का है, कित्ता घिना है" बस यही आलम था।
प्रवचन तो सुनने जाते पर सब ऐसा लगता 'न जाने कहाँ की कौन सी बात चल रही है'। तो वही बैठे-बैठे खेलने वाले कुछ खेलों का अविष्कार हो जाता था। भोजनशाला का आलम भी अजब होता था-कई ऐसी-ऐसी दाले देखने को मिली जो हमारी निगाहों के सामने पहली बार गुजर रही थी। भोजनालय भी अंतर्राष्ट्रीय था जहाँ विदेशी कुक कम किया करते थे। जी हाँ, कुक महोदय गोपाल, केदार नाम से जाने जाते थे और अब तक गुलाम न हुए इकलौते देश नेपाल से सम्बन्ध रखते थे। शुरुआत में सब अजीब था पर फिर सब जीवन का हिस्सा बनने लगा। घटनाये अभी और भी है-संस्कृत क्लास का खौफ और क्रिकेट एक जश्न। पढते रहिये-स्मारक रोमांस जारी है......
(यदि आपकी कुछ यादें ताज़ा हुई हों तो प्रतिक्रिया अवश्य दें, और अपनी खुशनुमा यादें भी बांटे।)
Friday, December 25, 2009
स्मारक कप शुरू....
स्मारक का बहुप्रतीक्षित सांस्कृतिक आयोजन स्मारक क्रिकेट कप प्रारंभ हो गया है। २५ दिसम्बर को इसका सभी बड़े अधिकारियो की उपस्थिति में उद्घाटन किया गया। पहले उद्घाटन मैच में शास्त्री 2nd year (a) ने शास्त्री 2nd year(b) को हरा दिया। सचिन भगवा मेन ऑफ़ द मैच रहे।
एक अन्य मैच में शास्त्री तृतीय वर्ष ने भूतपूर्व को पटखनी दी। जानकारी हो इस बार भूतपूर्व अपने स्टार खिलाडियों रोहन, विमोश, अभय आदि के बगैर मैदान में उतरी है। जिसका पूरा फायदा शास्त्री अंतिम वर्ष ने उठाया। बहरहाल इस मैच में अपने शानदार प्रदर्शन के लिए अभिषेक मडदेवरा को मेन ऑफ़ द मैच चुना गया।
Tuesday, December 22, 2009
फैडरेशन की दक्षिण यात्रा प्रारंभ.....
अखिल भारतीय जैन युवा फैडरेशन की दक्षिण भारत यात्रा आज यानि २२ दिसम्बर से प्रारंभ होने जा रही है। इस यात्रा में कुल ४०० साधर्मी भाई-बहिन भाग ले रहे है। यात्रा के दौरान महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटका, तमिलनाडु जैसे दक्षिण प्रान्तों के तीर्थों की वंदना की जाएगी। इस यात्रा में कई विद्वान् भी साथ रहेंगे, जिससे सधर्मियों को तत्वज्ञान का लाभ भी मिलेगा।
यात्रा के दौरान ही २५ दिसम्बर को डॉ भारिल्ल का हीरक जयंती समारोह श्रवणबेलगोला में आयोजित किया जाएगा। इस यात्रा में हमारे टोडरमल स्मारक के भी कई नए-पुराने विद्यार्थी शिरकत करेंगे। हम सभी यात्रियों की मंगलमय यात्रा की कामना करते हैं।
यात्रा के दौरान ही २५ दिसम्बर को डॉ भारिल्ल का हीरक जयंती समारोह श्रवणबेलगोला में आयोजित किया जाएगा। इस यात्रा में हमारे टोडरमल स्मारक के भी कई नए-पुराने विद्यार्थी शिरकत करेंगे। हम सभी यात्रियों की मंगलमय यात्रा की कामना करते हैं।
Thursday, December 17, 2009
आ.कुन्दकुन्द का समयसार गूंज रहा है स्मारक में .....
पंडित टोडरमल स्मारक भवन इन दिनों समयसर सप्ताह चल रहा है जिसके कारण पूरा स्मारक समयसार मय नजर आ रहा है ..समयसर सप्ताह के अंतर्गत वहा होने वाले सभी प्रवचन और कक्षाओ में समयसार का ही स्वाध्याय किया जा रहा है .विद्यार्थी और सधर्मी जनों में भी काफी उत्साह नजर आ रहा है चारो और समयसार की आध्यात्मिक चर्चाये के साथ गाथाये भी गुनगुनाई जा रही है...
ज्ञातव्य है की समयसार ग्रन्थ आ. कुंद -कुंद देव द्वारा रचित पञ्च परमागामो में से एक आध्यात्मिक ग्रन्थ है. समयसार का अर्थ सभी विकारी भावो (द्रव्य कर्म ,भाव कर्म और नो कर्म) से रहित "शुद्धात्मा"है .और ऐसे शुद्धात्मा स्वरूपी जगत के सभी जीव है बस हमें उस शुद्ध आत्मा को अनुभव करना है उसे पर्याय में प्रकट करना है ....इन्ही बातो को प्रवचन और कक्षाओ के माँ माध्यम से विशेष चर्चा करके समझया जा रहा है. प्रात:कालीन प्रवचन पं .रतनचंद जी भारिल्ल और रात्रि कालीन प्रवचन पं .शांति कुमार जी पाटिल द्वारा किये जा रहे है तथा कक्षाए विशिष्ट विद्वानों द्वारा ली जा रही है हर तरफ बस ग्रंथादिराज समयसार के गुण गए जा रहे है . डॉ. भारिल्ल की ये पंकित्या याद आती है .......पाया था उनने समयसार ,दे गये हमें वे समयसार
हम समयसार तुम समयसार सम्पूर्ण आत्मा समयसार
मै हु स्वभाव से समयसार पर नति हो जावे समयसार
है यही चाह है यही राह जीवन हो जावे समयसार .....
ज्ञातव्य है की समयसार ग्रन्थ आ. कुंद -कुंद देव द्वारा रचित पञ्च परमागामो में से एक आध्यात्मिक ग्रन्थ है. समयसार का अर्थ सभी विकारी भावो (द्रव्य कर्म ,भाव कर्म और नो कर्म) से रहित "शुद्धात्मा"है .और ऐसे शुद्धात्मा स्वरूपी जगत के सभी जीव है बस हमें उस शुद्ध आत्मा को अनुभव करना है उसे पर्याय में प्रकट करना है ....इन्ही बातो को प्रवचन और कक्षाओ के माँ माध्यम से विशेष चर्चा करके समझया जा रहा है. प्रात:कालीन प्रवचन पं .रतनचंद जी भारिल्ल और रात्रि कालीन प्रवचन पं .शांति कुमार जी पाटिल द्वारा किये जा रहे है तथा कक्षाए विशिष्ट विद्वानों द्वारा ली जा रही है हर तरफ बस ग्रंथादिराज समयसार के गुण गए जा रहे है . डॉ. भारिल्ल की ये पंकित्या याद आती है .......पाया था उनने समयसार ,दे गये हमें वे समयसार
हम समयसार तुम समयसार सम्पूर्ण आत्मा समयसार
मै हु स्वभाव से समयसार पर नति हो जावे समयसार
है यही चाह है यही राह जीवन हो जावे समयसार .....
Sunday, December 13, 2009
फैडरेशन की दक्षिण भारत तीर्थ यात्रा २२ दिसम्बर से ..
अखिल भारतीय जैन युवा फैडरेशन की दक्षिण भारत के सभी जैन तीर्थो की यात्रा २२ दिसम्बर से प्रारंभ हो रही है इस सात दिवसीय यात्रा २८ दिसम्बर तक रहेगी. यात्रा में कोलकाता, मुंबई, अहमदाबाद और जयपुर जैसे बड़ेशहरो के लोगो के साथ साथ पूरे भारत देश से लगभग 400 साधर्मी भाई बहिन इस यात्रा में शामिल गे . इस यात्रा की सबसे खास बात यह है की यात्रा के दौरान भोजन और आवास की व्यवस्था पांच सितारा (5 star) के तर्ज पर रहेंगी साथ ही पूरी यात्रा में स्पेसल लग्जरी बसों में सफर का मजा भी लिया जा सकता है .यात्रा के दोरान २५ दिसम्बर को श्रवण बेल गोला में डॉ.हुकमचन्द भारिल्ल जी की हीरक जयंती भी मनाई जाएगी .
Friday, December 11, 2009
पहले हफ्ते में ही ptstsanchar की धूम....
प्रिय visitors टोडरमल स्मारक से जुड़ी ख़बरों से आपको तरोताजा रखने के लिए तैयार की गई हमारी ब्लॉग ने पहले हफ्ते में ही धूम मचा दी है। जी हाँ, दोस्तों पहले हफ्ते में ही इस पर visit करने वालों की तादाद १०० से ऊपर दर्ज की गई। ये आप सबके सहयोग के बिना सम्भव नही था, इसी तरह नियमित ptstsanchar पर नज़र डालते रहे तथा आवश्यक रूप से अपने महत्त्वपूर्ण comments भी दें। जो हमें प्रेरित करने का काम करेंगे। साथ ही स्मारक से जुड़ी ख़बर या स्मारक के शास्त्रियों से जुड़ी ख़बर ptstsanchar पर प्रकाशित कराने के लिए निम्न ID पर sms या e-mail करें।
अंकुर जैन- ०९८९३४०८४९४, e-mail- ankur_shastri@yahoo.com
चेतन जैन- 09993621435, e-mail- chetanjain87@yahoo.com
अंकुर जैन- ०९८९३४०८४९४, e-mail- ankur_shastri@yahoo.com
चेतन जैन- 09993621435, e-mail- chetanjain87@yahoo.com
Wednesday, December 9, 2009
शादीनामा..........
अमित भाई विवाह बंधन में बंधे.- विगत ९ दिसम्बर को गुना निवासी अमित शास्त्री का विवाह उत्सव संपन्न हुआ. इस अवसर पर उनके कई शास्त्री मित्रों ने शिरकत की. इसके साथ ही स्मारक के कई वर्तमान और पूर्व विद्यार्थियों ने उन्हें शुभकामनाये ज्ञापित की. अमित शास्त्री स्मारक से २००७ में स्नातक है और एक वर्ष तक टोडरमल स्मारक में अध्यापन कार्य भी कर चुके हैं. ब्लॉग टीम इस अवसर पर उन्हें वधाई देती है.
अभिजीत पाटिल का विवाह ७ फरवरी को.- स्मारक से २००८ में स्नातक और वर्तमान में स्मारक के तकनीकी और कंप्यूटर विभाग में कार्यरत भाई अभिजीत पाटिल आने वाली ७ फर. को विवाह वन्धन में बांध जाएँगे. उनका विवाह कोलारस से संपन्न होगा. भाई अभिजीत का समस्त स्मारक के नए-पुराने विद्यार्थियों को हार्दिक आमंत्रण है.
सुनील शास्त्री, शाहगढ़ ११ फरवरी को विवाह वन्धन में बंधेंगे- इस फरवरी माह में एक और उत्सव के लिए तैयार हो जाइये. जी हाँ, स्मारक से २००५ में पास आउट सुनील शास्त्री का विवाह ११ फरवरी को संपन्न होगा. विवाह उत्सव के समस्त कार्यक्रम जयपुर से ही संपन्न किये जायेंगे. इस अवसर पर सुनील शास्त्री का सभी को स्नेहिल आमंरण है.
अभिजीत पाटिल का विवाह ७ फरवरी को.- स्मारक से २००८ में स्नातक और वर्तमान में स्मारक के तकनीकी और कंप्यूटर विभाग में कार्यरत भाई अभिजीत पाटिल आने वाली ७ फर. को विवाह वन्धन में बांध जाएँगे. उनका विवाह कोलारस से संपन्न होगा. भाई अभिजीत का समस्त स्मारक के नए-पुराने विद्यार्थियों को हार्दिक आमंत्रण है.
सुनील शास्त्री, शाहगढ़ ११ फरवरी को विवाह वन्धन में बंधेंगे- इस फरवरी माह में एक और उत्सव के लिए तैयार हो जाइये. जी हाँ, स्मारक से २००५ में पास आउट सुनील शास्त्री का विवाह ११ फरवरी को संपन्न होगा. विवाह उत्सव के समस्त कार्यक्रम जयपुर से ही संपन्न किये जायेंगे. इस अवसर पर सुनील शास्त्री का सभी को स्नेहिल आमंरण है.
शोक समाचार......
बड़े दुःख के साथ सूचित किया जा रहा है. कि टोडरमल से स्नातक फिरोजाबाद के भाई अनंतवीर और अरहंतवीर के पूज्य दादा श्री वीरेंद्र कुमार जी का विगत ९ दिसम्बर को निधन हो गया. श्री वीरेंद्र जी जिन आगम के एक कुशल विद्वान् थे एवं नियमित दशलक्षण धर्म आदि में प्रवचन हेतु जाते थे. इसके अतिरिक्त टोडरमल स्मारक और तीर्थधाम मंगलायतन से संचालित गतिविधियों से भी आप सक्रिय तौर पे जुड़े थे. स्मारक के सालाना लगने वाले शिविरों में भी आपकी उपस्थिति नियमित तौर पर देखी जाती थी. अंत में बस यही भावना है कि शीघ्र अतिशीघ्र मृत आत्मा को निर्वाण पद कि प्राप्ति हो..स्मारक परिवार और हमारी ब्लॉग टीम उन्हें श्रृद्धांजली अर्पित करती है.
अभिवादन में जय-जिनेन्द्र ही बोले ...
पंडित टोडरमल स्मारक भवन में अभी 'जय-जिनेन्द्र सप्ताह ' चल रहा है जिसके अंतर्गत सभी आपस में जय जिनेन्द्र बोल रहे है ....सभी सधर्मी भाई और बहनों ने यह संकल्प किया है की हम एक दुसरे से मिलते समय,परिचय करते वक़्त और हर तरह के अभिवादन में जय जिनेन्द्र बोलेंगे जिससे हमेशा अपने आराध्य जिनेन्द्र परमात्मा को याद करते रहे....
भारत देश की यह संस्कृति रही है की जब यहाँ के लोग आपस में एक दुसरे से मिलते है तो अभिवादन करते हुए कुछ न कुछ जरुर बोलते है ..हर धरम के अनुयायी अभिवादन में अपने-२ इष्ट देव का नाम लेते है जैसे हिन्दू भाई जब मिलते है तब सीता राम या राधे राधे बोलते है ..मुस्लिम भाई अल्ला का नाम लेते है ..सिख भाई गुरु साहब को याद करते है ...जैन धरम में अभिवादन करते समय जय जिनेन्द्र बोला जाता है .....अगर हम थोड़ी गहराई से विचार करे तो जैन धरम में किसी व्यक्ति को याद नही किया जा रहा है बल्कि गुणों को स्मरण किया जा रहा है क्योकि जैन धर्म व्यक्ति प्रधान धर्म नही है ..यहाँ तो हमेशा से ही गुणों को पूजा जाता है ...अब जिनेन्द्र किसी व्यक्ति का नाम नही है बल्कि जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को हमेशा के लिया जीत लिया है ऐसे जितेन्द्रिय जिन ही जिनेन्द्र कहलाते है ...यह बात हर धर्म को मान्य है की इंसान की सबसे बड़ी शत्रु इन्द्रियां ही है और उन पर जो विजय प्राप्त कर लेता है वो ही भगवान् कहलाता है ..वास्तव में जय जिनेन्द्र शब्द अपने आप में ही बहुत व्यापक और विशाल है ..और ऐसे शब्द को बोलने बाले भी बहुत विशाल सोच और ह्रदय वाले हो सकते है ..हम सभी को अपने सम्पूर्ण जीवन काल में सिर्फ व्यापक सुख की तलाश है जो सुख सिर्फ जिनेन्द्र बन कर ही मिल सकता है ...हम सभी अपनी वाणी में जिनेन्द्र को शामिल करे ताकि हम भी जितेन्द्रिय जिन बन सके ..आज हम सभी सधर्मी भाई यह संकल्प करते है की हम अभिवादन में जय जिनेन्द्र बोलकर अपने आराध्य को याद करे और खुद जिनेन्द्र बनकर व्यापक और विशाल सुख को प्राप्त करे आज वक़्त ने हॉय ..या हेल्लो बोलना सिखा दिया है......वो गलत नही है पर हम अपने ज़हन में अपने भगवान् को जरुर स्थान दे, ताकि हम भी भगवान बन सके ......इसी आशा के साथ आप सभी को
जय जिनेन्द्र
Sunday, December 6, 2009
स्मारक कप : २५ दिसम्बर से........
टोडरमल स्मारक की सांस्कृतिक एवं खेलकूद से लबरेज़ गतिविधियों को भला कौन भूल सकता है। स्मारक का ये समय एक उत्साह, उमंग और खुशियों से भरा होता है। जो विद्यार्थियों के मानसिक और शारीरिक क्षमताओं को प्रदर्शित करने के लिए एक मंच देता है। इन समस्त गतिविधियों में बात यदि स्मारक क्रिकेट कप की हो तो फ़िर कहना ही क्या? वैसे इस दौरान तकरीबन १५ खेलों का आयोजन किया जाता है। लेकिन उमंग सिर्फ़ क्रिकेट कप को लेकर ही सबसे ज्यादा होती है। हर तरफ़ अगले दिन के मैच की चर्चा और रणनीतियां तय की जाती है। कई विवाद होते हैं तो कभी बात हाथ-पाई तक पे उतर आती है। कुल मिलाकर ये फुल मस्ती का टाइम होता है और ज़हन में सिर्फ़ जोश और उमंग साथ होती है।
यही उमंग का उत्सव स्मारक कप-२०१० का आयोजन २५ दिसम्बर से शुरू हो रहा है। इस उमंगोत्सव में सभी वर्तमान विद्यार्थी तो भाग लेंगे ही साथ ही सभी भूतपूर्व विद्यार्थियों को भी आमंत्रण है। जिससे वे भी इस उल्लास में भागीदार बनकर अपनी यादें पुनः ताज़ा करें। स्मारक परिवार की नई नीतियों के तहत इस दौरान सभी भूतपूर्व विद्यार्थियों के आवास-भोजन की व्यवस्था निशुल्क रहेगी।
तो यदि आप चाहते हैं एक बार फ़िर ख़ुद को ताज़ा महसूस करना तो आ जाइये स्मारक कप में हिस्सा लेने, ये निश्चित ही आपके उबाऊ और व्यस्त जीवन में आपको कुछ सुकून देने का काम करेगा। विशेष जानकारी के लिए निम्न नम्बर्स पर कांटेक्ट करें-
अभिषेक जैन,मडदेवरा -09887306458
सजल जैन, सिंगोड़ी - 09887973057
यही उमंग का उत्सव स्मारक कप-२०१० का आयोजन २५ दिसम्बर से शुरू हो रहा है। इस उमंगोत्सव में सभी वर्तमान विद्यार्थी तो भाग लेंगे ही साथ ही सभी भूतपूर्व विद्यार्थियों को भी आमंत्रण है। जिससे वे भी इस उल्लास में भागीदार बनकर अपनी यादें पुनः ताज़ा करें। स्मारक परिवार की नई नीतियों के तहत इस दौरान सभी भूतपूर्व विद्यार्थियों के आवास-भोजन की व्यवस्था निशुल्क रहेगी।
तो यदि आप चाहते हैं एक बार फ़िर ख़ुद को ताज़ा महसूस करना तो आ जाइये स्मारक कप में हिस्सा लेने, ये निश्चित ही आपके उबाऊ और व्यस्त जीवन में आपको कुछ सुकून देने का काम करेगा। विशेष जानकारी के लिए निम्न नम्बर्स पर कांटेक्ट करें-
अभिषेक जैन,मडदेवरा -09887306458
सजल जैन, सिंगोड़ी - 09887973057
शास्त्री अन्तिम वर्ष के विद्यार्थियों को सलाह.....
स्मारक में अध्ययन के दौरान शास्त्री अन्तिम वर्ष का समय काफी तनाव भरा रहता है। क्योंकि यही वह वर्ष होता है जब हमारा स्मारक से विदा होने का वक़्त आता है, और कुछ नए फैसले लेने होते हैं। इस दरमियाँ कई गलत चुनाव होने की संभावनाएं होती है और एक ग़लत फ़ैसला भविष्य बिगड़ सकता है। ऐसे में धैर्य और आत्ममूल्यांकन की दरकार होती है।
इस बावत मुझसे कई अनुजों ने चर्चा कि इसलिए मैंने कुछ अपने अनुभवों के आधार से अपनी बात इस ब्लॉग के माध्यम से बाँटने का विचार किया। एक बेहद महत्त्वपूर्ण बात जो आपसे कहना चाहूँगा कि भविष्य के लिए ऐसे क्षेत्र का चुनाव ही करें जिससे जिनवानी के समागम से आपको दूर न होना पड़े। कई बार कुछ glamorous क्षेत्रों के चुनाव के चक्कर में ग़लत फैसले ले लेते हैं जो घातक साबित होते हैं। इन क्षेत्रों को अपनाने पर अपना चरित्र भी नीलम करना पड़ता है। इसलिए जरा सोच विचार का निर्णय ले। स्मारक से निकलने के बाद तुरंत कही जॉब करने के बजाय पदाई के बारे में ही सोचे क्योंकि ये long term में काम आएगी ।
अपने अग्रजों के संपर्क में रहकर ज़रूरी सलाह हासिल करे, अलग-अलग क्षेत्रों में कार्य कर रहे हमारे अग्रजों के अनुभव काफी काम आ सकते हैं। ध्यान रखें आपनी इच्छाओ के साथ-साथ अपनी क्षमताओं से भी परिचित रहें। भेडचाल चलने से बचे, झूटे मार्गदर्शकों से दूर ही रहें। ख़ुद का swot analysis मतलब (strength, weakness opportunity and threats) करना बहुत ज़रूरी है।
और अंत में ध्यान रखे कि जिनवानी और स्मारक से मिले संस्कारों पर विश्वास रखना बहुत ज़रूरी है, यही हमारी वह ताकत है जो हमें दूसरों से अलग करती है।
आपके उज्जवल भविष्य का आकांक्षी-
shashank jain
इस बावत मुझसे कई अनुजों ने चर्चा कि इसलिए मैंने कुछ अपने अनुभवों के आधार से अपनी बात इस ब्लॉग के माध्यम से बाँटने का विचार किया। एक बेहद महत्त्वपूर्ण बात जो आपसे कहना चाहूँगा कि भविष्य के लिए ऐसे क्षेत्र का चुनाव ही करें जिससे जिनवानी के समागम से आपको दूर न होना पड़े। कई बार कुछ glamorous क्षेत्रों के चुनाव के चक्कर में ग़लत फैसले ले लेते हैं जो घातक साबित होते हैं। इन क्षेत्रों को अपनाने पर अपना चरित्र भी नीलम करना पड़ता है। इसलिए जरा सोच विचार का निर्णय ले। स्मारक से निकलने के बाद तुरंत कही जॉब करने के बजाय पदाई के बारे में ही सोचे क्योंकि ये long term में काम आएगी ।
अपने अग्रजों के संपर्क में रहकर ज़रूरी सलाह हासिल करे, अलग-अलग क्षेत्रों में कार्य कर रहे हमारे अग्रजों के अनुभव काफी काम आ सकते हैं। ध्यान रखें आपनी इच्छाओ के साथ-साथ अपनी क्षमताओं से भी परिचित रहें। भेडचाल चलने से बचे, झूटे मार्गदर्शकों से दूर ही रहें। ख़ुद का swot analysis मतलब (strength, weakness opportunity and threats) करना बहुत ज़रूरी है।
और अंत में ध्यान रखे कि जिनवानी और स्मारक से मिले संस्कारों पर विश्वास रखना बहुत ज़रूरी है, यही हमारी वह ताकत है जो हमें दूसरों से अलग करती है।
आपके उज्जवल भविष्य का आकांक्षी-
shashank jain
Saturday, December 5, 2009
Heartelly apreciation for this blog.......
Those people who have done this good job are really appreciable because it will help us to be in contact with each other. It will also be a great medium to know the all informations related to pt. todarmal smarak and it's alumni who are now working in different areas even some are also working overseas, now personally i would like to say that all of you should be a part of it also give your valuable comments on it.
NITENDRA JAIN
(Graduate from smarak-2006 presantly pursuing MBA(finance) in davv,indore)
NITENDRA JAIN
(Graduate from smarak-2006 presantly pursuing MBA(finance) in davv,indore)
Thursday, December 3, 2009
शोक संवेदना .................
अत्यन्त दुःख के साथ सूचित करना पड़ रहा है ,कि हमारे अभिन्न साथी विवेक शास्त्री 'सागर' (म.प्र)के पूज्य दादा जी का कल रात लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया हम सभी शोक व्यक्त करते हुए उनकी आत्मा कि शान्ति और सुगति के लिए कुछ समय के लिए मौन धारण कर पञ्च परमेष्ठी प्रभु को स्मरण करते है........
अमित भाई की शादी है...सबको आमंत्रण है........
एक जीवन इसके कई रूप है। हमें हर रंग को जीना होता है। हमारे अमित भाई जो टोडरमल स्मारक से २००७ में स्नातक हुए हैं गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। उनके सभी क्लास मेट तो इसमे शिरकत करेंगे ही साथ ही सभी अग्रज अनुज भाइयों को भी आमंत्रण है। इस बहाने अपनी दौड़ती-भागती जिंदगी में एक दुसरे से मिलने की हसरत भी पुरी हो जाएगी...और शादी का जश्न भी हो जाएगा...
शादी के सभी कार्यक्रम गुना स्थित उनके निज निवास पर ८ और ९ दिसम्बर को संपन्न होंगे....विशेष जानकारी के लिए संपर्क करें...
अमित जैन-०९७१३९५७७५०
सन्मति जैन-०९७८५५२९८०९
शादी के सभी कार्यक्रम गुना स्थित उनके निज निवास पर ८ और ९ दिसम्बर को संपन्न होंगे....विशेष जानकारी के लिए संपर्क करें...
अमित जैन-०९७१३९५७७५०
सन्मति जैन-०९७८५५२९८०९
Wednesday, December 2, 2009
डॉ.भारिल्ल का सम्मान....
गत २९ नवं २००९ को जैनदर्शन के मूर्धन्य विद्वान् और सौभाग्य से मेरे गुरु डॉ.हुकुमचंद भारिल्ल का इंदौर में सम्मान समारोह आयोजित हुआ। मुझे भी इसमेंशरीक होने का सुअवसर मिला। ये भारिल्ल का हीरक जयंती वर्ष है। जीवन के पचहत्तर वर्ष पूरे करने पर भी विद्वत्ता की धार पुरजोर कायम है। इस अवसर पर उनका उद्बोधन बड़ा मार्मिक था।
जीवन के संध्याकाल में उनके तमाम जीवन के चित्र आईने की तरह सामने घूमते होंगे। गोयाकि गुजरा हुआ वक़्त कभी एक टीस तो कभी उत्साह का संचार करता होगा। जिसमे उन्होंने कई उतार-चढाव देखें हैं। इस सफलतम जीवन की तह में एक लंबा संघर्ष हिलोरें ले रहा है। हर मुसीबत ने उन्हें सोने की तरह निखारा है। हर एक आलोचना, विरोध उनकी मजबूती का आधार बनी है। बाधाओं ने उनके संकल्प को दृढ़ बनने का काम किया है। जैनदर्शन की सेवा और तत्वप्रचार का ये संकल्प आज भी जवान है, भले ही उम्र ढल चुकी है। उनका यही संकल्प उन्हें अपने क्षेत्र का शीर्षस्थ पुरूष साबित करता है। अपने काल का महापुरुष बनाता है। जिस काम को करते हुए उन्होंने जीवन समर्पित किया, उस काम को करते हुए उन्होंने नही सोचा था की इसके लिए वे सम्मानित होंगे। सम्मान या यश की चाह से किए गए कृत्यों की सफलता सुनिश्चित नही होती। सम्मान समारोह के दरमियाँ वे कहते हैं-ये किसी व्यक्ति का नही विद्वत्ता का सम्मान है। उस परम्परा, उस पीढ़ी का सम्मान है जो तत्वप्रचार में अपना जीवन समर्पित करती है। जिस दिन विद्वानों का सम्मान बंद हो जाएगा उस दिन विद्वान् होना बंद हो जाएँगे।
इस प्रचुर यश के अवसर पर अपने गुरु कांजी स्वामी को याद कर उन्होंने एक सुशिष्य का फ़र्ज़ अदा किया। उस प्रण को याद किया जो गुरुदेव की चिता के समक्ष लिया था। dr bharill प्रतिभा संपन्न, विद्वान् तो पहले भी थे पर गुरुदेव का समागम मिलने पर उन्हें एक दृष्टि मिली जो समाजोपयोगी साबित हुई। वास्तव में, प्रतिभा से ज्यादा नज़रिए का मूल्य होता है। प्रतिभा जन्मजात हो सकती है पर नजरिया माहौल से मिलता है। समाज का, राष्ट्र का विध्वंश करने वाले लोग भी प्रतिभाशाली होते हैं, चाहे हिटलर नेपोलियन हों या ओसामा, राज ठाकरे ये सभी प्रतिभा सम्पन्न लोग नजरिये के मिथ्याचरण के कारन ऐसे हैं। नजरिया हमें योग्य गुरु से मिलता है। इसलिए अच्छे गुरु और सत्संग का मिलना सौभाग्य की बात है। इसी कारन डॉ। भारिल्ल अपने गुरु को याद करना नही भूले।
भारिल्ल तत्वप्रचार की संकल्पना पानी की पतली धार की तरह करने की बात करते हैं। पानी की मोटी धार में पानी तो तेज़ आता है पर बहाव ख़त्म होने पर तलहटी सुखी रहती है। जबकि पतली धार पहले ख़ुद पानी सोखती है फ़िर पानी आगे बदती है। ऐसे ही डॉ। भारिल्ल ने पहले ख़ुद शास्त्रज्ञान को पिया है फ़िर प्रचार के मध्यम से आगे बढाया है।
उनका शास्त्रज्ञान जीवन के इस संध्याकाल में उन्हें आत्म्मुल्यांकन का साधन भी प्रदान करेगा। जीवन की इस विदाई बेला को देखने का महापुरुषों का नजरिया निश्चित तौर पर आम आदमी से अलग होता होगा क्योंकि उसे अपने संघर्ष के दौर और सफलता के आयामों को एक साथ देखना है। डॉ साहब जिन्हें हम प्यार से छोटे दादा पुकारते हैं अपने इस संध्याकाल पर सफलता के प्रतिमानों के साथ संघर्षों के दौर की जुगाली भी करेंगे। एक तरफ़ विदेश में तत्व्प्रचार के लिए जाने वाली हवाई उड़ाने होंगी तो दूसरी तरफ़ वो दौर भी होगा जब साईकिल से प्रवचन के लिया जाया जाता था। एक तरफ़ अनेकों उपाधियाँ और सम्मान समारोह होंगे तो एक तरफ़ वे pal भी होंगे जब जिनवानी रथयात्रा के दौरान सीने पर लाठियां झेली थी। जिस बुद्धि ने क्रमबद्ध-पर्याय, नयचक्र और धर्म के दशलक्षण जैसी कृतियों की रचना की है वह बुद्धि कई बार विरोध का शिकार हुई है। उनका विरोध करने वालों की नज़र उनके व्यक्तिगत जीवन पर तो रहती है पर उनके अविस्मरनीय योगदान पर नही।
उनके इसी योगदान के कारन उन्हें महापुरुष कहने में अतिश्योक्ति नज़र नही आती। जिन मानकों के आधार पर उनका सम्मान किया गया है वे मानक उन्हें महापुरुष सिद्ध करते हैं। हालाँकि ये सच है की हर चीज के मानक एक से नही होते, जिन मानकों के आधार पर सचिन तेंदुलकर,अमिताभ बच्चन को महापुरुष कहा जाता है, गाँधी,विवेकानंद को महापुरुष कहने वाले मानक अलग है। राम, बुद्ध, महावीर को महापुरुष कहने वाले मानक उनसे भी अलग है। इसी तरह जिन आयामों से मैं छोटे दादा को देख रहा हूँ वे उन्हें महापुरुष साबित करने के लिए काफी है।
टोडरमल स्मारक की स्थापना और वहां से निकली ७०० विद्यार्थियों की फ़ौज डॉ भारिल्ल के प्रयासों को और आगे बढ़ाएंगे। पूज्य गुरुदेव के प्रयासों से जगी क्रांति निश्चित ही एक विस्फोट में तब्दील होगी। गुरुदेव ने डॉ भारिल्ल को दृष्टि दी थी आज मेरे पास जो दृष्टि है वो आपसे गृहीत है। आपसे मिली दृष्टि के ज़रिये जन-जन तक तत्वप्रचार करके ही गुरुदाक्षिना चुकाई जा सकती है। फिलहाल तो आपसे उद्धृत ज्ञान में भीगने का कम ही जारी है। अंत में उन पंक्तियों को याद करूँगा जो मैंने अपने टोडरमल स्मारक के विदाई समारोह में कही थी...
ये वो मेघ हैं जो ज्ञान की वर्षा सदा करते,
ये बरसे तो नहा लेना ये बदल जाने वालें हैं।
जीवन के संध्याकाल में उनके तमाम जीवन के चित्र आईने की तरह सामने घूमते होंगे। गोयाकि गुजरा हुआ वक़्त कभी एक टीस तो कभी उत्साह का संचार करता होगा। जिसमे उन्होंने कई उतार-चढाव देखें हैं। इस सफलतम जीवन की तह में एक लंबा संघर्ष हिलोरें ले रहा है। हर मुसीबत ने उन्हें सोने की तरह निखारा है। हर एक आलोचना, विरोध उनकी मजबूती का आधार बनी है। बाधाओं ने उनके संकल्प को दृढ़ बनने का काम किया है। जैनदर्शन की सेवा और तत्वप्रचार का ये संकल्प आज भी जवान है, भले ही उम्र ढल चुकी है। उनका यही संकल्प उन्हें अपने क्षेत्र का शीर्षस्थ पुरूष साबित करता है। अपने काल का महापुरुष बनाता है। जिस काम को करते हुए उन्होंने जीवन समर्पित किया, उस काम को करते हुए उन्होंने नही सोचा था की इसके लिए वे सम्मानित होंगे। सम्मान या यश की चाह से किए गए कृत्यों की सफलता सुनिश्चित नही होती। सम्मान समारोह के दरमियाँ वे कहते हैं-ये किसी व्यक्ति का नही विद्वत्ता का सम्मान है। उस परम्परा, उस पीढ़ी का सम्मान है जो तत्वप्रचार में अपना जीवन समर्पित करती है। जिस दिन विद्वानों का सम्मान बंद हो जाएगा उस दिन विद्वान् होना बंद हो जाएँगे।
इस प्रचुर यश के अवसर पर अपने गुरु कांजी स्वामी को याद कर उन्होंने एक सुशिष्य का फ़र्ज़ अदा किया। उस प्रण को याद किया जो गुरुदेव की चिता के समक्ष लिया था। dr bharill प्रतिभा संपन्न, विद्वान् तो पहले भी थे पर गुरुदेव का समागम मिलने पर उन्हें एक दृष्टि मिली जो समाजोपयोगी साबित हुई। वास्तव में, प्रतिभा से ज्यादा नज़रिए का मूल्य होता है। प्रतिभा जन्मजात हो सकती है पर नजरिया माहौल से मिलता है। समाज का, राष्ट्र का विध्वंश करने वाले लोग भी प्रतिभाशाली होते हैं, चाहे हिटलर नेपोलियन हों या ओसामा, राज ठाकरे ये सभी प्रतिभा सम्पन्न लोग नजरिये के मिथ्याचरण के कारन ऐसे हैं। नजरिया हमें योग्य गुरु से मिलता है। इसलिए अच्छे गुरु और सत्संग का मिलना सौभाग्य की बात है। इसी कारन डॉ। भारिल्ल अपने गुरु को याद करना नही भूले।
भारिल्ल तत्वप्रचार की संकल्पना पानी की पतली धार की तरह करने की बात करते हैं। पानी की मोटी धार में पानी तो तेज़ आता है पर बहाव ख़त्म होने पर तलहटी सुखी रहती है। जबकि पतली धार पहले ख़ुद पानी सोखती है फ़िर पानी आगे बदती है। ऐसे ही डॉ। भारिल्ल ने पहले ख़ुद शास्त्रज्ञान को पिया है फ़िर प्रचार के मध्यम से आगे बढाया है।
उनका शास्त्रज्ञान जीवन के इस संध्याकाल में उन्हें आत्म्मुल्यांकन का साधन भी प्रदान करेगा। जीवन की इस विदाई बेला को देखने का महापुरुषों का नजरिया निश्चित तौर पर आम आदमी से अलग होता होगा क्योंकि उसे अपने संघर्ष के दौर और सफलता के आयामों को एक साथ देखना है। डॉ साहब जिन्हें हम प्यार से छोटे दादा पुकारते हैं अपने इस संध्याकाल पर सफलता के प्रतिमानों के साथ संघर्षों के दौर की जुगाली भी करेंगे। एक तरफ़ विदेश में तत्व्प्रचार के लिए जाने वाली हवाई उड़ाने होंगी तो दूसरी तरफ़ वो दौर भी होगा जब साईकिल से प्रवचन के लिया जाया जाता था। एक तरफ़ अनेकों उपाधियाँ और सम्मान समारोह होंगे तो एक तरफ़ वे pal भी होंगे जब जिनवानी रथयात्रा के दौरान सीने पर लाठियां झेली थी। जिस बुद्धि ने क्रमबद्ध-पर्याय, नयचक्र और धर्म के दशलक्षण जैसी कृतियों की रचना की है वह बुद्धि कई बार विरोध का शिकार हुई है। उनका विरोध करने वालों की नज़र उनके व्यक्तिगत जीवन पर तो रहती है पर उनके अविस्मरनीय योगदान पर नही।
उनके इसी योगदान के कारन उन्हें महापुरुष कहने में अतिश्योक्ति नज़र नही आती। जिन मानकों के आधार पर उनका सम्मान किया गया है वे मानक उन्हें महापुरुष सिद्ध करते हैं। हालाँकि ये सच है की हर चीज के मानक एक से नही होते, जिन मानकों के आधार पर सचिन तेंदुलकर,अमिताभ बच्चन को महापुरुष कहा जाता है, गाँधी,विवेकानंद को महापुरुष कहने वाले मानक अलग है। राम, बुद्ध, महावीर को महापुरुष कहने वाले मानक उनसे भी अलग है। इसी तरह जिन आयामों से मैं छोटे दादा को देख रहा हूँ वे उन्हें महापुरुष साबित करने के लिए काफी है।
टोडरमल स्मारक की स्थापना और वहां से निकली ७०० विद्यार्थियों की फ़ौज डॉ भारिल्ल के प्रयासों को और आगे बढ़ाएंगे। पूज्य गुरुदेव के प्रयासों से जगी क्रांति निश्चित ही एक विस्फोट में तब्दील होगी। गुरुदेव ने डॉ भारिल्ल को दृष्टि दी थी आज मेरे पास जो दृष्टि है वो आपसे गृहीत है। आपसे मिली दृष्टि के ज़रिये जन-जन तक तत्वप्रचार करके ही गुरुदाक्षिना चुकाई जा सकती है। फिलहाल तो आपसे उद्धृत ज्ञान में भीगने का कम ही जारी है। अंत में उन पंक्तियों को याद करूँगा जो मैंने अपने टोडरमल स्मारक के विदाई समारोह में कही थी...
ये वो मेघ हैं जो ज्ञान की वर्षा सदा करते,
ये बरसे तो नहा लेना ये बदल जाने वालें हैं।
अंकुर जैन
(लेखक टोडरमल स्मारक से २००७ में स्नातक हैं. वर्तमान में m.phil(mass communication) अध्ययनरत हैं.
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